Thursday, May 12, 2016

अब की बार तीसरी फसल शहर में...


राजनैतिक मसीहा के निर्वाण के बाद कुछ पढ़े लिखे लोगों ने शहर में पाँव पसारने शुरू किए हैं. विभिन्न संगठन, मंडल, मित्र मंडल आदि का निर्माण, जमीन की खरीद-फरोक्त आदि काम ये लोग करने लगें हैं. शहर एजुकेशन हब हैं इसलिए यहाँ बहुत सारे शैक्षिक संस्थान है साथ ही प्रायवेट कोचिंग क्लासेस भी भरे पड़े हैं. व्यापारी सदा से यह चाहते हैं कि शान्ति बनी रहें ताकि ग्राहक माल खरीद सकें, इन सब को सेक्युरिटी के लिए इन संगठनों की आवश्यकता होती हैं. इस आवश्यकता की पूर्ती इन सफेदपोश लोगों द्वरा समय-समय पर होती रहती हैं. शहर का ज्यादातर हिस्सा बाहरी लोगों का होने के कारण स्थानीय लोगों की दबंगई जरुर दिखती है लेकिन वह भी शहर के शान्ति के नाम पर सहनीय है. शायद यही राज है शहर के शान्ति का? ऐसे शांतिप्रिय शहर में अचानक धारा 144 कैसे लागू हुयी. सवाल यह है कि क्या वाकई शहर पहले से शांत था? या ये व्यापारियों द्वारा तैयार शान्ति थी? ऐसा क्या हुआ है जो पानी को लेकर इस शहर में धारा 144 लगाईं गई? बहुत से लोगों के मन में यह सवाल हैं कि ऐसा क्यों?

लातूर शहर धनी व्यापारियों का शहर हैं जिसका भार यहाँ के प्रत्येक सामान्य व्यक्ति पर है. एक ओर से हैदराबाद की नजदीकी व्यापारियों को कम कींमत में माल उपलब्ध कराता है वहीँ दूसरी ओर उस माल के लिए यहाँ साक्षर और ग्रामीण ग्राहक तैयार है. शायद ही शहर का ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो मुंबई, पुणे में अपनी किस्मत आजमाने न गया हो. काम-काज ढूंढने न सही शिक्षा के लिए तो जरुर ही वे लोग इन बड़े शहरों में चले गए होंगे. लेकिन यह भी सही है कि अगल-बगल के परभणी, उस्मानाबाद, बीड के ग्रामीण लोग रोजगार के लिए पिछले सत्ता परिवर्तन के पहले तक आते रहें थे. लेकिन आज-कल उनका आना भी केवल ‘आना’ है. कई सारे मामले में लातूर इन बाकी तीन जिलों से बेहतर माना गया जिसमें शिक्षा अहम् थी, रोज बढ़ने वाला शहर मकान बनाने के लिए मजदूरों की मांग रखता था इसलिए मुंह मांगी मजदूरी मिल जाया करी थी इसलिए भी बाकी जिलों के लोगों को यह शहर आकर्षित करता रहा. व्यापारी घरानों की परंपरा ने यहाँ उद्योग के लिए नई आशा निर्माण कि जिसके चलते मजदूरों की मांग भी बढ़ गयी हालांकि यह उद्योग केवल रोजमर्रा के उपयोगी उत्पादन बनाने तक सिमित हैं.

शहर के रामभाऊ बताते हैं कि हम कभी किताबों में पढ़ा करते थे कि एशिया का सबसे बढ़ा शक्कर कारखाना लातूर में हैं तो हमारी छाती फुल जाती थी किन्तु बाद के सालों में पता चला कि उसको नीलाम किया जा रहा है. जब कोई मुझसे पूछता है कि आप के शहर में क्या है तो मैं कुछ नहीं बता सकता हालांकि यह सवाल इससे पहले कोई ज्यादातर नहीं पूछता था और अगर कोई पूछता तो जवाब में कोई न कोई कह देता कि विलासराव देशमुख का शहर, या किलारी भूकंप ये दो चीजे थी जो शहर को वैश्विकता के साथ जोड़ने में मदद करती थी. पहले वाले जवाब में सामने वाले के विचारों से जलन का आभास कर लिया जाता जिससे हम शहरवाले गर्व महसूस कर लेते और दुसरे से करुणा झलकती थी इसे भी हम हमारी प्रसिद्धि के साथ जोड़कर देखते न की कमजोरी. परंतु आज-कल पानी की कमी ने हमें हमारी औकात दिखाई. हमारा ‘लै भारी’ का भारीपन हमें बोझ लगने लगा है. इस सूखे ने हमें हमारी क्षमताओं को जानने का मौका दिया है. हालांकि शहर का बुद्धिजीवी वर्ग अब भी इस समस्या की और आकर्षित नहीं हो पाया है. इसका यह भी कारण है कि लातूर के साक्षर लोग तुरंत ही किसी समस्या को अपने उपर हावी नहीं हो देते. हमारा कोपिंग मेकनिज्म गजब का है. ये तो सरकारी महकमें की करतूत है कि उसने १४४ लगाकर हमारी खामियों को उजागर कर रखा है. वरना इससे पहले भी हमने बड़े-बड़े सुखों को मुहतोड़ जवाब दिया है.
पिछले साल पानी की कमी ने हमारे खेतों का बूरा हाल किया तब भी हम नहीं डरें, पिछले महीने एक्कड़ भर खेत से 8000 खर्च कर आधी बोरी सोयाबीन जो इस मौसम की पूरी फसल का हिस्सा था उसे घर ले जाते समय मैं ज़रा भी आशंकित नहीं था कि इतने पैसे के बदले केवल इतना धान. क्योंकि हम खेती तो केवल बचाने के लिए करते है ताकि हमें भी लगे की हम भी किसान है. लातूर शहर का किसान होने में भी अजीब सा गर्व महसूस होता है. करोड़ों की किंमत पर बेचीं जाने वाली जमीन में हम हजार-बारासों का उत्पादन लेकर हम केवल यह जताना चाहते हैं कि हमने अभी अपनी जमीन बेची नहीं हैं. ऐसे में पानी गिरने न गिरने से हमारा कुछ नहीं होने वाला. इससे ज्यादा फिक्र वाली बात यह है कि पडोसी की जमीन को मैं अपना कैसे बनाऊं. शहर के अगल बगल का शायद ही ऐसा कोई गाँव होगा जिसकी जान पहचान कोर्ट में न हो. इन लोगों ने वकीलों और न्यायधीशों के घर पैसे से भरे हैं. वो समय अब दूर नहीं जब यहाँ का कोई किसान नौसिखिए वकील को सलाह दे रहा होगा. मृदा परिक्षण जैसे आम काम यहाँ के किसान तब तक नहीं करवाते जब तक कि इसके लिए कोई फंड न मिले. हम केवल उस जमीन के मालिक होने का फर्ज अदा करते है साथ ही यह ध्यान रखते हैं कि कोई हमारे इस फर्ज के आड़े न आए. चार साल पहले की बात है शहर के नजदीक का एक गाँव शहर में समाविष्ट होने जा रहा था. पूरे गाँव में केवल इसी की चर्चा थी लोगों ने अपने पैसे खर्च कर मुंबई में जाकर मंत्रियों से बातचीत कर मसला हल करवाया तब जाकर वो जमीन बची है. लेकिन यह जमीन बचाने का असल कारण उस जमीन की कींमत ही थी. जो आसमान छु रही है. आज तक मुझे नहीं पता चला कि ख़बरों में वो बूढा किसान उभाड खाबड़ जमीन पर बैठ कर माथे से हाथ लगाकर आसमान की और देख रहा है वह कहाँ हैं. यहाँ का किसान तो रॉयल एनफील्ड पर घूम रहा है. विट बनाने का कारखाना लगा रहा है. एक नहीं दो बीवियां बना रहा है. वो दबंग हैं और चौक-चौराहे पर बैठकर निम्नवर्गियों का मज़ाक उड़ा रहा है. उसके बच्चे भी उसी के क़दमों पर चल रहे है. मध्यकाल के जमींदारों से कम प्रस्थिति इन दो-चार एक्कड़ वालों की नहीं हैं.


ऐसा ही एक उदाहरण है रशीद चाचा. रशीद चाचा की शहर से नजदीक ही खुली जमीन है. इस बार सूखे का प्रभाव बढ़ने वाला है इस बात की फ़िक्र यहाँ के व्यपारियों को ज्यादा थी इसलिए उन्होंने रशीद चाचा को पहले ही पैसे दे रखे हैं बोरिंग के लिए जिससे लगने वाला पानी वह उन्हें उसी दाम पर देगा जो पहले से तय होगा. ऐसे में उसने अपने खेत में तीन बोरिंग करवाई लगभग 700 फिट के आसपास चार इंच पानी लगा दो बोर को बाकी एक को एक इंच पानी लगा. अब तो उनकी निकल पड़ी आज-कल वो रोज पंद्रह-बीस हजार का पानी बेच रहें हैं. बताइये इतना पैसा कमाने के लिए एक किसान को कितने दिन लग जाएंगे. कौन करेगा किसानी अब रशीद चाचा तो चाहेंगे की हर साल ऐसा ही सुखा पड़े तब तो वह पैसा कमा पाएंगे. दो फसलों में तो उनको कुछ न मिला लेकिन इस सूखे में उनकी ‘तीसरी फसल’ कामयाब रहीं. 

यह केवल किसानों का ही नहीं शहर में जिस किसी के बोअर को पानी है वे लोग इस तीसरी फसल को ले रहें हैं. लागत बहुत कम है और मुनाफ़ा तगड़ा मिल रहा है. जैसे बोअर लगातार दो ड्रम पानी निकालता है तो ग्राहक के आने की राह देखने नहीं हैं. एक हजार लीटर का एक टैंक लगवाना है उसको एक प्लंबर से टोटी फिट कर दे बस. अब दिन भर दो-दो घंटे में बोर चलाकर पानी टंकी में ऐसे जमा करते है जैसे पैसे. माँ-बाप कही बाहर चले जाए तो बच्चों को बार-बार फोन करके याद दिलाते हैं कि दो घंटे हो गए है चालु करो. नौकरीपेशा आदमी भी इस उपरी कमाई के लिए घर में अपना योगदान छुट्टी लेकर दे रहा हैं. तो बच्चे अपनी कोचिंग को त्यागकर माता-पिता के सामने अपना गौरव प्राप्त करने में लगे हैं. अनपढ़ साँस की साक्षर बहुएं अपना इक्का जमाने में लगी हैं. पता चलता है इनके लिए भी सुखा किसी सुख से कम नहीं है
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पिछले बार के इलेक्शन में हारे हुए प्रत्याशी बड़े जोरों से सत्ता आजमाइश में लगें हैं. वो इस मौके को गवाना नहीं चाहते है इसलिए किसी भी हालत में वह अपने प्रभाग में पानी पहुंचाकर ही दम लेंगे. इसके लिए कुछ बड़े आसामियों ने अपने निजी कुओं से पानी निकालकर प्रभागों में बांटने का काम शुरू किया है. जिसके पीछे यही लालसा है कि अगली बार लोग याद रखें? पानी लेने वाले लोग भी खूब आशीर्वाद दे-देकर पानी ले रहें हैं. फिर प्रत्याशी इस काम को समाचार पत्रों में भेजने के लिए तैयार हैं. 850 रूपए के टैंकर में 25-30 परिवार खुश इधर प्रत्याशी का सोशल नेटवर्किंग भी मजबूत. अब इन प्रत्याशियों की बात तो समझ में आती है किन्तु जो पहले से सत्ता में है वो भी पीछे नहीं हैं. महानगरनिगम ने प्रत्येक प्रभाग में एक टैंकर नियुक्त किया है जिसमें प्रत्येक घर में आठ दिन में एक पानी दिया जाना तय है. शुरुआत में इतनी भीड़ उमड़ने लगी जिसके चलते ज्यादातर पानी निचे बहने लगा. इस समस्या का समाधान पार्षदों ने अपने हिसाब से किया टैंकर घर-घर जाएगा और आधा ड्रम पानी देगा. पानी का बंटवारा खुद पार्षद करेगा. पार्षदों ने अपने हिसाब से पानी के बंटवारे के नियम बनाए है जिसमें यह है कि आपके पास आधार-कार्ड और वोटर आय डी होनी चाहिए. अर्थात आपके पास ऐसा कुछ होना चाहिए जिससे आपको इसी वार्ड का वोटर माना जाए. कुछ सनकी बुढो ने उनको इसी बिच याद भी दिलाया कि वोट माँगते समय ये ताम-झाम नहीं करते हो बस गिडगिडाते हो और अब हमें ही पुछ रहें हो कि पहचान दिखाओ. तब पार्षद का चेहरा देखने लायक हो जाता है. फिर भी वह सत्ता को फिर से पाने के चक्कर मे इस बार भी वोट की फसल काटना चाहता है इसलिए मनमानी कर कुछ अवैध लोगों को पानी दिलाता ही है. पानी वितरण का एक नियम यह भी है कि जिसके घर में किराएदार हैं वह अपने मालिक के हिस्से से पानी ले उनके लिए अलग से पानी नहीं देंगे. इस तरह कैचिं लगाकर वह भी पानी को बचाने की कोशिश कर रहा है. वाह रे पानी वितरण ये तो पीडीएस से आगे निकल गए. वहां तो केवल राशन कार्ड दिखाना पड़ता है यहाँ तो रोज नित-नए नियमों पर पानी मिल रहा है.


 तो यह हाल है लातूर के सूखे का लेकिन इस सूखे का असर लातूर के मध्यवर्ग पर नहीं दिखता. सब के पास खुद के बोअर हैं और जिनके बोअर बंद है वे अक्सर यह कहते हैं कि हम तो पिछले महीने से ही टैंकर से पानी मंगवा रहे हैं. यह कहते हुए उनके गर्व को महसूस किया जा सकता हैं. तो सवाल यह है कि यह सुखा किसके लिए है व्यापारियों के लिए, किसानों के लिए,मजदूरों के लिए नौकरीपेशा के लिए किसके लिए. इन सब वर्गों के बावजूद गरीब किसान, खेतिहर, मजदुर छोटे-मोटे व्यवसायी, ठेले वाले आदि इन पर इस सूखे का कम इस तीसरी फसल का असर जरुर दिख रहा है.
पानी न मिलने के कारण कुछ लोग जो बाहर से थे उन्होंने मकान खाली कर दिए. महनगरनिगम ने केवल 144 लगाकर लोगों को पानी के स्त्रोतों से दूर रखा है किन्तु उन स्त्रोतों में पानी ही नहीं हैं तो लोग वहां क्यों जाएंगे. बोअर-अधिग्रहण जैसा फैसला काफी पहले लेना चाहिए था जो अब तक नहीं लिया गया. उलट आरटीओ ऑफिस वाले निजी पानी-वाहक वाहनों को लायसंस बाँट रहे हैं. और पानी के निजी ठेकेदारों को यह हिदायत दे रहें हैं कि जिसके पास लायसंस हैं उन्ही को पानी देना. इस पुरे मामले में सरकार भी खूब मजा ले रही है. एक तरफ १४४ धारा लगने के बाद देश के सारे समाचार पत्रों में इस बात को प्रचारित किया गया कि लातूर सूखे की चपेट में हैं. दूसरी ओर उनके पास इस समस्या से निबटने के प्लान क्या है? यह सवाल जब उठाया गया तो जवाब- डेढ़ लाख लोग मायग्रेट हो जाएंगे. स्कूल और कोचिंग क्लासेस समय से पहले ही खत्म कर दिए जाएंगे. यह किसी शहर का प्लान कैसे हो सकता है जिसमें हो जाएंगे, कर दिए जाएंगे जैसे शब्द हो. यह तो भविष्यकालीन योजना है लेकिन असल में जो हो रहा है उस पर कारवाई के लिए इनके पास कोई प्लान नहीं है. जिस डेढ़ लाख लोगों की बात हो रही हैं वो तो बाहरी ही है वो तो मायग्रेट होंगे ही लेकिन जो स्थानीय आम जनता है जिनको रोज 2 रूपये प्रति घड़ा से पानी खरीदना पड रहा है उनके लिए इनके पास कोई प्लान नहीं हैं. कुछ ख़ास किस्म के व्यापारी-बुद्धिजीवीयों ने एलान किया कि शहर में १० रूपए में 20 लीटर शुद्ध पानी दिलाया जाएगा इसके लिए एटीएम नुमा मशीन लगवाई जाएगी जिसमें पैसे डालने के बाद पानी आएगा. ऐसे नवाचारों पर हँसे या रोये. पानी खरीद रहें हैं इसलिए रोये या पानी मिल रहा है इसपर हँसे. कुछ समझ नहीं पाएंगे. हालांकि यह भी तीसरी फसल निकालने का एक ख़ास तरिका है जो हर बार पूंजीपतियों द्वारा अख्तियार किया जाता है.



पिछले दो साल से लगातार शहर में मिनरल वाटर की कंपनियों की तादाद बढ़ी है. इस क्षेत्र की सबसे पुरानी कंपनी आज कल समाचारपत्रों में प्रचार कर रही है कि लातूर शहर के वासियों के लिए शुद्ध पानी केवल 40 रूपए में 20 लीटर, शुद्ध के साथ ठंडा चाहिए तो 60 रुपये में 20 लीटर. यह कींमत देश के किसी भी इलाके से ज्यादा ही होगी. शायद राजस्थान से भी. लेकिन शहर के लोग इसके आदि हो गए हैं यह बीस लीटर का जार पिछले साल ३० रुपये में था अब चालीस हो गया है. और शायद इसकी किंमत लगातार बढती ही जाएगी. जब पता है कि शहर सुखा ग्रस्त है, जिसे गैजेटियर में भी सुवर्णाक्षरों से लिखा गया हैं. तब भी सरकार पानी के बर्बादी का लायसंस कैसे बेच रही है. यह समझ से बाहर है.




शहर का प्राकृतिक रूप देखे तो भूगर्भशास्त्रियों का मानना है कि आज जो पानी शहर के लोग बोअर से निकाल रहे हैं वो पांच-दस हजार साल पहले का है. इसका मतलब है कि शहर में जल संरक्षण शुन्य के बराबर हैं. जंगल के नाम पर वैसे भी शहर का नाम दुनिया के किसी भी मरुस्थल के बराबर हो गया है. इस बार तो पानी मिलेगा 700-1000 फिट के निचे का किन्तु अगले साल कहाँ से मिलेगा पानी. इसके बारे में कोई सोचना नहीं चाहता है. बस मिल रहा है तब तक ठीक है. लेकिन इस बार सूखे ने सोचने का आखरी मौका दिया है, इस बार भी नहीं सोंचेगे तो ये मंजर मौत बनकर अगली बार दिखेगा जब कोई कानून भी इससे बचा नहीं पाएगा. जितने सुराख लातूर के जमीन पर बोअर के नाम पर पड़े है उनमें से कुछ में से पानी के अलावा कुछ और (पिछले महीने लोकमत में खबर थी कि एक बोअर से सोने जैसा पदार्थ निकल रहा है लेकिन वो सोना नहीं था अब तक पता नहीं चला है कि वह क्या हैं) ही निकल रहा है. तब भी लोगों की आँखे नहीं खुल रहीं है. 

सुनो शहरवालों अब वो दिन लद गए जब आपके पास एक मसीहा था, किसी दुसरे की बाँट जोहने से अच्छा होगा कि आप खुद ही इस काम में आगे आएं वरना वो दिन दूर नहीं जब आप आने वाली पीढ़ियों को एक मरुस्थल भेंट देंगे.
फोटो आभार: गूगल इमेज  



निलामे गजानन सूर्यकांत
निलामे गजानन सूर्यकांत 
पी-एच॰ डी॰ शोधार्थी
महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी शांति अध्ययन केंद्र,
म॰ गाँ॰ अं॰ हिं॰ विश्वविद्यालय, वर्धा।  
gajanannilame@gmail.com

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