Thursday, October 4, 2018

गांधी एवं समकालीन समय


वर्धा, 2 अक्टूबर 2018। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150 वी जयंती के अवसर पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के गालिब सभागार में एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ। गांधी का आलोकविषयक इस एक दिवसीय परिचर्चा में गांधी एवं समकालीन समय विषयक अंतिम चर्चा सत्र की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने किया। जबकि  संचालन गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ. मनोज कुमार राय ने किया। इस सत्र के मुख्य वक्ता गांधी विचार परिषद, वर्धा के प्रोफेसर आर.सी. प्रधान एवं विशिष्ट वक्ता अरुण कुमार त्रिपाठी थे।
 सत्र को संबोधित करते हुए प्रो. आर. सी. प्रधान ने कहा कि, गांधी पर कोई गंभीर शोध नहीं हो रहे हैं। उन्होंने चिंता जाहिर करते हुए कहा कि भारतीय शोधार्थी पश्चिमी चिंतकों के विचार सरणी पर आधारित शोध करते हैं और उसमें पुछल्ले के तौर पर गांधी का नाम जोड़ भर दिया जाता है।
 उन्होंने कहा कि हमें गांधी की परंपरा पर शोध करने की जरूरत है। गांधी के बाद के महत्वपूर्ण गांधीवादियों पर नए सिरे से शोध किए जाने की आवश्यकता है। भारतीय विद्या, भारतीय ज्ञान परंपरा को गांधी के योगदानों पर शोध किया जाना जरूरी है। उन्होंने कहा कि 1945 के बाद गांधी भारतीय राजनीति के हाशिये पर धकेल दिया गया था। उसके बाद नेहरू की भूमिका बढ़ जाती है। नेहरू गांधी के सपनों के भारत को खारिज करते हुए, भारत को शहरीकरण-औद्योगिकरण की तरफ ले जाने का स्पष्ट संकेत देते हैं। इसमें न केवल नेहरू की ही भूमिका होती है। अपितु राजेंद्र प्रसाद से लेकर सरदार पटेल, जे. बी. कृपलानी जैसे लोगों की भी भूमिका थी। हालांकि ये सभी त्यागी पुरुष थे, इनकी नीयत पर शक नहीं किया जा सकता। इन लोगों ने काफी योगदान किया है। इन महापुरुषों की नज़र में राज्य की भूमिका अहम थी। जबकि गांधी राज्य की भूमिका को सीमित कर देखते थे और अंतिम तौर पर राज्य विहीन समाज बनाना चाहते थे। इसी कारण गांधीजी और कांग्रेस के अन्य नेताओं के बीच यह विरोध दिखाई पड़ता है। किन्तु आज पूरी दुनिया में गांधी पर काफी कुछ लिखा-पढ़ा जा रहा है, जिससे यह साबित होता है कि दुनिया नए सिरे से उनपर विचार कर रही है।  
 मौजूदा समस्याओं पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि आज भी भारत में सांप्रदायिकता, सवर्ण-अवर्ण के बीच भेदभाव, अमीर-गरीब के बीच फर्क कायम है। इन समस्याओं से नज़र चुराने से समस्या ख़त्म नहीं होने वाली है। मनुष्य आज काफी सिमटता जा रहा है। आत्म केन्द्रीयता बढ़ती जा रही है। आज यह जाँचने की जरूरत है कि इन संकटों को दूर करने का गांधी के पास क्या उत्तर है! हर महापुरुष अपने युग की समस्याओं के खिलाफ लड़ने-जूझने के साथ-साथ मनुष्य समाज की शाश्वत समस्याओं पर भी दृष्टि देते हैं। गांधीजी एक नई वैकल्पिक व्यवस्था बनाना चाहते हैं। गांधी ने हिन्द स्वराज उस वक्त लिखी जिस वक्त पूरी दुनिया अद्योगिकरण के चकाचौंध से वशीभूत थी। उस वक्त गांधीजी ने इस सभ्यता की तीक्ष्ण आलोचना करते हुए उसे हिंसा पर आधारित विनाशकारी सभ्यता करार दिया था। गांधी ने आवश्यकता और लोभ में फर्क किया है। मनुष्य की जरूरतें और लोभ में फर्क होता है। गांधी ने मनुष्य को अपनी जरूरतों को भी सीमित करने की बात की है। गांधी ने अद्वैत की बात ज़ोर-शोर से की थी। गांधी आम आदमी को केंद्र में लाने की व्यवस्था सुझाते हैं। इसके लिए उन्होंने विकेंद्रित व्यवस्था की वकालत की थी। गांधी ने साधन-साध्य की शुचिता पर ज़ोर दिया है।
 अंत में उन्होंने कहा कि देश-दुनिया की लगभग सारी समस्याओं का समाधान गांधी के एकादश व्रत में निहित है। गांधी ने राज्य सत्ता हाथ में आए बगैर रचनात्मक कार्यों के जरिये भारतीय समाज को खड़ा होना सिखाय। गांधी ने राज्य सत्त्ता के अन्याय पूर्ण निर्णय के खिलाफ अहिंसक लड़ाई के लिए सत्याग्रह का शक्तिशाली मार्ग सुझाया।
 वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी ने अपने सम्बोधन में कहा कि गांधी की आखिरी और अहम लड़ाई साम्प्रदायिकता के खिलाफ है। गांधी और भगत सिंह की मृत्यु लगभग एक जैसी है। कानपुर दंगे में गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या पर गांधी ने कहा था कि ऐसी मौत से मुझे ईर्ष्या होती है। और सचमुच में गांधी की मौत भी ठीक वैसी ही हुई। आज भी देश में साम्प्रदयिक हिंसा थमने का नाम नहीं ले रहा है। देश में जातीय विद्वेष और हिंसा भी चरम पर है। गांधी के देश में ये सारी घटनाएं अत्यंत ही चिंताजनक है। गांधी 1857 की हिंसा से भयभीत थे वहीं भगत सिंह 1857 को दुहराना चाहते थे। गांधी उस किस्म की हिंसा को भारत की जनता के लिए अनिष्टकारी मानते थे। अंग्रेजी हुकूमत लगातार हिन्दू-मुस्लिम एकता से चिंतित थी और इस एकता को तोड़ने में वे कामयाब रहे। गांधी को समझने के लिए राष्ट्रवाद के विमर्श को गंभीर तरीके से समझने की आवश्यकता है। गांधी के राष्ट्र की परिकल्पना में भारत सहित विश्वमानवता की चिंता समाहित है। आगे उन्होंने कहा कि, गांधी ने कहा था कि मैं कब्र से भी बोलूंगा! आज गांधी कब्र से बोल रहे हैं, अब हम उसे सुनते हैं अथवा नहीं यह हमारे ऊपर निर्भर करता है। गांधी सत्य के अन्वेषी थे। किंतु उन्होंने अंतिम सत्य प्राप्ति का कभी दंभ नहीं किया। कुछ लोग गांधी को विफल करार देते हैं, किन्तु गांधी की विफलता के आगे सफलता भी छोटी प्रतीत होती है।
 अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने कहा कि आज रचनात्मक कार्यक्रमों को नए रूप में किए जाने पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है। गांधीजी का समाज के प्रति ज्यादा विश्वास था। सत्ता का मुंह ताकने के वजाय गांधी समाज के छोर से विकल्प प्रस्तुत करने में यकीन रखते थे। उन्होंने कहा कि गांधीवादी संस्थाएं आज अपना आकर्षण खोती जा रही हैं। इन्हें नए सिरे से खड़ा करने की आवश्यकता है। गांधीजी प्रयोगधर्मी थे। उनके प्रयोग आज भी हमारे लिए प्रेरणास्रोत की भांति है। गांधी में अद्धभुत चारित्रिक-नैतिक बल था। आज उसी चारित्रिक-नैतिक बल की आवश्यकता है। देश-दुनिया आज जिस अंधाधुंध भौतिक प्रगति के मार्ग की तरफ बढ़ रही है उसपर भी नए सिरे से विचार करना होगा अन्यथा संकट और भी गहराता जाएगा। आज समाज को इसके लिए तैयार करना होगा। आज साम्रज्यवाद के नए-नए स्वरूपों के खिलाफ गांधी से प्रेरणा ग्रहण कर प्रतिरोध करने की भी आवश्यता है। मौजूदा साम्प्रदायिक हिंसा के समाधान पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि हमें आज एक अच्छे हिन्दू, अच्छे मुस्लिम, एक अच्छे सिख और एक अच्छे ईसाई बनने की जरूरत है। तभी सारे झगड़े मिटेंगे।

इस एक दिवसीय संगोष्ठी का समापन महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी समाज कार्य अध्ययन केंद्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार के आभार ज्ञापन से हुआ। संगोष्ठी में विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों के शिक्षकों एवं सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने हिस्सा लिया।

रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, प्रेरित बाथरी, माधुरी श्रीवास्तव, खुशबू साहू, अजय गौतम, अक्षय कदम, सुधीर कुमार, मोहिता एवं सपना पाठक

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