- नरेश गौतम
यह नारा दिया है मेंढ़ा-लेखा गाँव के आदिवासियों ने। इतना ही
नहीं उस नारे को उन्होंने फलीभूत भी कर दिखाया है। सारी योजनाएं ग्रामसभा में
बनायी जाती हैं और सबंधित सरकारी एजेंसी से सहयोग के लिए संपर्क करते हैं। सहयोग
मिला तो ठीक अन्यथा उनके द्वारा बनाये गये ग्राम-सभा कोष में जमा राशि का उपयोग
ग्राम-सभा के जरिये ही किया जाता है।
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले से लगभग 30 किलोमीटर दूर बसा है आदिवासियों का यह गाँव है। यह वन पर सामुदायिक अधिकार हासिल करने वाला देश का पहला गाँव है। आज 100 परिवार वाले इस गाँव की प्रति वर्ष आमदनी लगभग एक करोड़ रुपये है। यह आय सामुदायिक वन अधिकार कानून-2006 से प्राप्त लगभग 1900 हेक्टेयर वन से प्राप्त हो रही है। वर्ष 2013-14 में इन्होंने दस लाख रूपिये से ज्यादा आयकर का भुगतान किया है। पूर्व में इतनी राशि इस वन से काटे गये वनोत्पाद की पूरी बिक्री से भी प्राप्त नहीं होती थी। साधारण से दीखने वाले इस गाँव में वैसी ही बस्तियाँ और आमतौर पर दिखने वाले वैसे ही घर, घर के बाहर घूम रही मुर्गियाँ, चूजे, सुअर और उनके छोटे-छोटे बच्चे, गलियों में जगह-जगह फैला गोबर! दिन भर सूनी रहने वाली ये गलियाँ और शांत माहौल देखकर लगता ही नहीं कि यहाँ कुछ ऐसा है जो इसे विशिष्ट बनाता हो, सिवाय गाँव के बीचो-बीच बनी ग्रामसभा भवन पर लगे उस बड़े से बोर्ड के, जिसपर लिखा है, ‘दिल्ली, मुंबई में हमारी सरकार- हमारे गाँव में हम ही सरकार’! तीन भाषाओं गोंडी, मराठी और हिन्दी में लिखा यह नारा ही वह प्रतीक है जिससे हम इस गाँव की उस ताकत से रूबरू होते हैं, जो इसे दूसरे गांवों से अलग पहचान देती है। इस बोर्ड के बगल में ही एक और बोर्ड लगा है जिस पर लिखा है–‘माहितीचा अधिकार अधिनियम 2005’ और नीचे इस गाँव को इस मुकाम तक पहुंचाने वाले देवाजी तोफा का नाम दर्ज है। आज देश-विदेश में यह एक मॉडल गाँव के रूप में जाना जाता है. लेकिन आदर्श गाँव बनने की यह यात्रा कोई एक दिन की बात नहीं रही, इसके पीछे एक लंबे और अनथक संघर्ष की दास्तां है और खुद को साबित कर दिखाने का हुनर भी।
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले से लगभग 30 किलोमीटर दूर बसा है आदिवासियों का यह गाँव है। यह वन पर सामुदायिक अधिकार हासिल करने वाला देश का पहला गाँव है। आज 100 परिवार वाले इस गाँव की प्रति वर्ष आमदनी लगभग एक करोड़ रुपये है। यह आय सामुदायिक वन अधिकार कानून-2006 से प्राप्त लगभग 1900 हेक्टेयर वन से प्राप्त हो रही है। वर्ष 2013-14 में इन्होंने दस लाख रूपिये से ज्यादा आयकर का भुगतान किया है। पूर्व में इतनी राशि इस वन से काटे गये वनोत्पाद की पूरी बिक्री से भी प्राप्त नहीं होती थी। साधारण से दीखने वाले इस गाँव में वैसी ही बस्तियाँ और आमतौर पर दिखने वाले वैसे ही घर, घर के बाहर घूम रही मुर्गियाँ, चूजे, सुअर और उनके छोटे-छोटे बच्चे, गलियों में जगह-जगह फैला गोबर! दिन भर सूनी रहने वाली ये गलियाँ और शांत माहौल देखकर लगता ही नहीं कि यहाँ कुछ ऐसा है जो इसे विशिष्ट बनाता हो, सिवाय गाँव के बीचो-बीच बनी ग्रामसभा भवन पर लगे उस बड़े से बोर्ड के, जिसपर लिखा है, ‘दिल्ली, मुंबई में हमारी सरकार- हमारे गाँव में हम ही सरकार’! तीन भाषाओं गोंडी, मराठी और हिन्दी में लिखा यह नारा ही वह प्रतीक है जिससे हम इस गाँव की उस ताकत से रूबरू होते हैं, जो इसे दूसरे गांवों से अलग पहचान देती है। इस बोर्ड के बगल में ही एक और बोर्ड लगा है जिस पर लिखा है–‘माहितीचा अधिकार अधिनियम 2005’ और नीचे इस गाँव को इस मुकाम तक पहुंचाने वाले देवाजी तोफा का नाम दर्ज है। आज देश-विदेश में यह एक मॉडल गाँव के रूप में जाना जाता है. लेकिन आदर्श गाँव बनने की यह यात्रा कोई एक दिन की बात नहीं रही, इसके पीछे एक लंबे और अनथक संघर्ष की दास्तां है और खुद को साबित कर दिखाने का हुनर भी।
यूं तो जल, जंगल और जमीन पर अपने हक के लिए
आदिवासियों की लड़ाई कोई नई बात नहीं है, यह तभी से जारी है
जब वन अधिनियम (1864) के जरिए पहली बार अंग्रेजों ने जंगल पर उनके अधिकारों को चुनौती
दी थी। वन अधिनियम 1878 के अंतर्गत वनों को आरक्षित वन
और ग्राम के तौर पर वर्गीकृत कर दिया गया। कमोबेश स्थितियाँ यहाँ तक ठीक थीं लेकिन
‘भारतीय
वन अधिनियम 1927’ के अंतर्गत आदिवासियों को उनके संपूर्ण अधिकारों से बेदखल कर
दिया गया। इसके लागू होने के बाद आदिवासियों की समस्याएं बढ़ती ही चली गई। जिसके
खिलाफ देश भर में अपने अधिकारों के लिए आदिवासियों के धारावाहिक संघर्ष प्रारंभ
हुए जो कमोबेश आज भी जारी हैं। मेंढ़ा गाँव के आदिवासी भी इन्हीं में से एक हैं। देश
की आज़ादी और नए संविधान तले नई शासन-व्यवस्था के बावजूद आदिवासियों के लिए बहुत
कुछ नहीं बदला क्योंकि आदिवासी समाज के प्रति सत्ता के नजरिए और उनकी नीतियों में
कोई फेरबदल नहीं आया था। आजादी के बाद एक और अधिनियम वन संरक्षण अधिनियम, 1980 आया जिसके तहत सभी वनों का
नियंत्रण केंद्र सरकार और उसके साथ ही संबंधित राज्य सरकारों के हाथों में चला
गया। इस अधिनियम को लागू करने का उद्देश्य जंगलों से होने वाली आय का पूरा अधिकार
हासिल करना और आदिवसियों को जंगलों से बाहर निकालना था। तर्क दिया गया कि जंगलों
में रहने वाले आदिवासी बेहद पिछड़े हुए हैं और उनका विकास सिर्फ तभी संभव है जब उन्हें
जंगलों से बाहर निकाल कर शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अन्य आधुनिक सुख-सुविधाओं से जोड़ा जाए। यह
तर्क एक तरफ तो मुख्यधारा की सत्ता-संरचना के श्रेष्ठता बोध से निकला था। लेकिन
दूसरी तरफ इसके अपने निहितार्थ भी थे जो जंगलों पर कब्जा जमाते हुए उसका अंधाधुंध
दोहन कर राजस्व के रूप में अधिकाधिक मुनाफा अर्जित करना था। सभ्यता-विमर्श की मशाल
थामे विकास के नाम पर बनायी गई सड़कें इन निहितार्थों की असली वाहक थीं जो उदारीकरण
की आहट के साथ अचानक ही बड़ी तेज़ी से इन इलाकों तक पहुँचने लगी। 1980 में बना वन संरक्षण अधिनियम भी
इसी आहट की पदचाप थी जो मेंढ़ा गाँव की इस ऐतिहासिक यात्रा की शुरुआत की वजह बन गया।
सफ़र की शुरुआत :
1984 में चंद्रपुर-गढ़चिरौली
में ‘जंगल बचाव-मानव बचाव’ आंदोलन शुरू हुआ। उसका मुख्य
कारण यह था कि आंध्रप्रदेश में गोदावरी नदी पर इंचमपल्ली में तथा पास के बस्तर
जिले में इंद्रावती नदी पर भोपालपट्टनम् में बांध बनाने की योजना थी। इस क्षेत्र
में वैनगंगा और इंद्रावती ये मुख्य नदियां हैं। इंद्रावती महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़
के बीच की सीमारेखा है, तो वैनगंगा चंद्रपुर और गढ़चिरौली
जिलों के बीच की सीमारेखा है। दोनों प्रकल्प महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़
और आंध्रप्रदेश की सीमा पर थे; फिर भी गढ़चिरौली जिले का काफी
जंगल और आदिवासी क्षेत्र इससे डूबने वाला था। आसपास के आदिवासी गांवों का इस
संभावित खतरे को भांपते हुए आंदोलित होना स्वाभाविक था। इस आंदोलन का नेतृत्व लालश्यामशाह
महाराज ने किया।
लालश्यामशाह महाराज एक अनोखे नेता थे। वे एक गोंड जमींदार थे और
पुराने मध्यप्रांत में गोंड समुदाय की 84 जमींदारियां थीं। ब्रिटिश राज में भू-राजस्व
की वसूली कर उसे सरकार को सौंपना इन जमींदारों की जिम्मेवारी थी। लालश्यामशाह
महाराज की जमींदारी राजनांदगांव जिले के पानाबारस गांव में थी। जमींदार होने के
बावजूद उनका रहन-सहन और बर्ताव आम किसान-जैसा ही था। वे समाजवादी विचारों के थे। 1972 में चंद्रपुर
लोकसभा क्षेत्र से निर्दलीय सांसद के तौर पर वे निर्वाचित भी हुए लेकिन 1971 में बांग्लादेश
युद्ध के बाद शरणार्थियों को सरकार द्वारा बस्तर में बसाए जाने के विरोध में संसद
से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद उनका सारा जीवन जन-जागरण के लिए समर्पित रहा। वे
गांव-गांव घूमते। किसी के घर में नहीं, बल्कि पेड़ के नीचे ठहरते। उनका
व्यक्तित्व अत्यंत ही प्रभावशाली था। आदिवासी-विकास के बारे में उनके अपने विचार
थे। बांध-विरोधी आंदोलन व्यापक विकास का आंदोलन हो, यह उनका
प्रयास रहा। इसीलिए आंदोलन को ‘जंगल बचाव-मानव बचाव’ नाम दिया गया। आंदोलन इतना जबर्दस्त था और लोगों का असंतोष इतना गहरा था
कि सरकार को बाध्य होकर बांध का निर्माण रोकना पड़ा। साथ ही इस आंदोलन के प्रभाव से
कारवाफा और तुलतुली जैसे दो बड़े प्रस्तावित बांध भी ठंढे बस्ते में चला गया। लेकिन
आंदोलन की असली सफलता थी आदिवासियों में इस निमित्त पैदा हुई जागृति। इस जागृति से
सामने आए लोगों में से ही एक थे -चंद्रपुर के युवा कार्यकर्ता मोहन हिराबाई
हिरालाल। वे जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1974 आंदोलन में काम
करने वाले विद्यार्थी तथा युवाओं के संगठन छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी में शामिल थे।
संघर्ष वाहिनी का केंद्र उन्होंने चंद्रपुर में शुरू किया। 1978 से चंद्रपुर में
काम कर रही ‘महाराष्ट्र जबरान जोत आंदोलन कृषि समिति’ में भी वे
सक्रिय थे। 1979 से 1986 के बीच उन्होंने क्षेत्र में एक अनूठी प्रक्रिया चलाई, जिसका नाम
था ‘अपना रास्ता हम खुद ही खोजें।’ इस
प्रक्रिया का आरंभ होता था आदमी खोजने और उनसे संवाद करने से। उन्होंने अपने
मित्रों के साथ 1984 में ‘वृक्षमित्र’ नामक
संस्था की भी स्थापना की। जिसका उद्देश्य जंगल तथा मानव के बीच के संबंधों की खोज
और उन संबंधों को मानव-विकास तथा पर्यावरण-संवर्द्धन के लिए पोषक बनाना था। इस
उद्देश्य के तहत 1987-88 में गढ़चिरौली जिले की धानोरा तहसील के 22 गांवों में ‘वन तथा
लोगों की उपजीविका’ विषय का अध्ययन किया गया। इस अध्ययन के
दौरान ही ऐसे गाँवों को खोजने की कोशिश हुई जो सर्वसहमति से अपने निर्णय लेते हों।
मेंढ़ा-लेखा ऐसा ही गाँव था। इस गाँव के देवाजी से ‘जंगल
बचाव-मानव बचाव’ आंदोलन के दौरान एक पदयात्रा में हुई
मुलाक़ात ने इस नए सफर की शुरुआत की।
गढ़चिरौली से
राजनांदगांव (छत्तीसगढ़) की तरफ जो रास्ता जाता है उस पर गढ़चिरौली से तीस
किलोमीटर दूर मेंढा गांव रास्ते से सटा हुआ है। इसी रास्ते पर आगे तीन किलोमीटर
दूर तहसील धानोरा है। मेंढा के पड़ोस में लेखा गांव है। इस तहसील में मेंढा नाम के
दो-चार गांव हैं;
इसलिए इस मेंढा को लेखा-मेंढा, अर्थात लेखा के
पास का मेंढा कहा जाता है। ग्रामपंचायत लेखा के नाम से जाना जाता है। उसमें लेखा,
मेंढा और कन्हाल टोला- ये तीन गांव हैं।
मेंढा करीब सवा
सौ-डेढ़ सौ सालों से आबाद होगा। यहां के लोग बताते हैं कि पूरब की ओर बस्तर तहसील
का पुसागंडी उनका मूल गांव है। वहां से सात भाइयों का एक परिवार इस क्षेत्र में
आया। सभी मेंढा में ही नहीं बसे, कुछ लोग इधर-उधर भी गए। मेंढा के पुलिस पटेल
रहे बिरजू जोगी तोफा का परिवार सबसे पहले यहां बसा। बिरजू गांव के मुख्य पुजारी भी
हैं। उम्र 70 से ज्यादा ही
होगी। उनके चार पीढ़ी पूर्व के पूर्वज पहले पहल यहां आए थे। फिर दूसरे लोग आए। ये
लोग माड़िया गोंड कहलाते हैं- यानि पहाड़ पर रहने वाले गोंड। गोंडी भाषा में माड़
यानी पहाड़। देवाजी बताते हैं कि उनके पुरखे अबूझमाड़ में रहते थे, जो
महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की सीमा पर है। वहां से उठकर ये लोग पश्चिम की ओर आए। ये
सब लोग पहले पहाड़ों पर रहते थे, लेकिन जैसे-जैसे बस्ती बढ़ी, घुमंतू खेती से गुजर-बसर करना कठिन हो गया। इसलिए वे नीचे मैदानी इलाके
में नदी-नालों के किनारे खेती करने आए। हालांकि खेती की जमीन यहाँ नीचे भी ज्यादा
नहीं है, फिर भी हर परिवार के पास अपनी जमीन है, कोई भूमिहीन नहीं। खेती की मुख्य उपज है धान। यहाँ मुख्यतः लुचाई किस्म
बोई जाती है, यद्यपि लुचाई में भी कई किस्में हैं। इसमें लाल
लुचाई और सफेद लुचाई (मजबी) मुख्य हैं। इसके अलावा भारी लुचाई, काकेरी, पिटे हिड्स्क, तोया,
हलका सप्री, और पोहा बनाने के लिए उपयुक्त
मानी जाने वाली भारी सप्री, जैसी किस्में भी बोई जाती हैं।
इन दिनों ज्यादातर लोग 1010 या सोनम किस्में ही बो रहे हैं क्योंकि ये उपज
ज्यादा देती हैं। औसत उपज प्रति एकड़ तीन से चार क्विंटल रहती है। धान के अलावा ये
लोग तूर, मूंग, अरहर, खेसारी जैसी दालों
का तथा अलसी जैसे तिलहन का उत्पादन भी कर लेते हैं। कुछ लोग सर्दी में चना भी
उपजाते हैं। खेती की उपज मुख्यतः घर में खाने के लिए ही काम आती है।
धान की खेती पूरी
तरह बारिश पर निर्भर है। सिंचाई सुविधा न होने से फसल एक बार ही ली जाती है। लेकिन
मेंढा गांव से सटकर बहने वाली कठाणी नदी के किनारे लोग सब्जियां पैदा करते हैं।
इसे ‘मरियाण’ कहते हैं। धान की खेती और मरियाण के साथ यहाँ
के लोग मजदूरी भी करते हैं। मेंढा गांव की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है -1890 हेक्टेयर का बड़ा
जंगल, जिसे उन्होंने बड़ी जतन से संभाल रखा है। इतने बड़े जंगल में स्वाभाविक रूप
से ढेरों किस्म के पेड़-पौधे, लताएं और
घास हैं जिनकी सूची यकीनन काफी लंबी होगी। मेंढा गांव ने जैव-विविधता कानून-2002 के तहत अपना ‘जैव-विविधता
रजिस्टर’ भी बनाया है, जिसमें इन सब को
दर्ज किया गया है- बांस, सागौन, महुआ,
तेंदू, आंवला, हरड़ा,
बेहड़ा, अर्जुन, ऐन,
धावडा, खैर, चिरौंजी,
सीवन, मोवई, चिलाटी आदि।
निश्चित तौर पर
जंगल इनकी उपजीविका का एक प्रमुख साधन बन गया है। इससे एक तरफ जहां इन्हें वनोपज
मिलती है, वहीं दूसरी तरफ जंगल में होने वाले कामों के जरिए मजदूरी भी मिलती है।
वनोपज में सबसे प्रमुख बांस है। इसके बाद महुआ, तेंदू,
चिरौंजी, गोंद, शहद,
आंवला, हरड़ा, बेहड़ा,
पापड़ी, करंज, मशरूम,
इमली, लाख, बिवला आदि भी
हैं। महुआ, तेंदू, पाहूर आदि ऐसे पेड़
हैं जिनके फल-फूल एवं पत्ते, सबका कुछ
न कुछ उपयोग होता है। इनमें ज्यादातर वस्तुओं का व्यापारिक मूल्य भी है। यह बात
सिर्फ मेंढा में ही नहीं लगभग सभी जंगलों में पाई जाती है।
आदिवासी हमेशा से
ही जंगलों से अपने जरूरतें पूरी करते रहे हैं। चूंकि यहाँ मुख्य वनोपज बांस है, इसलिए
यहाँ के लोग भी अपनी ज़रूरत का बांस शुरू से ही यहाँ से लेते रहे हैं। सरकार के वन
अधिनियमों ने जंगलों पर आदिवासियों के इस हक़ को कानूनी तौर पर खत्म कर दिया था लेकिन
जब तक इन कानूनों को कड़ाई से लागू नहीं किया गया तब तक कोई बहुत दिक्कत नहीं आई।
दिक्कत तब आई जब ये जंगल कभी खनन के लिए तो कभी किसी कारखाने के कच्चे माल के लिए
निजी कंपनियों को दे दिये गए और इन तक आदिवासियों की पहुँच वर्जित हो गई। ऐसे ही
बांस से भरा-पूरा मेंढा गाँव का जंगल भी एक निजी कंपनी बल्लारपुर पेपर मिल को दीर्घकाल
के लिए लीज पर दे दिया गया था। न केवल मेंढा बल्कि चंद्रपुर और गढ़चिरौली जिले के
जंगल का सारा बांस सरकार ने इसी बल्लारपुर पेपर मिल को बेच दिया था। यह मिल 1950 के दशक में
चंद्रपुर में आस-पास बांस की भरपूर मात्रा में उपलब्धता को देखते हुए ही बनायी गई
थी। जैसे ही बांस काटने लायक होता, मिल मालिक उसे कटवा लेते। वर्ष 1991 से 2001 के दरम्यान मिल
को 400
रुपए
प्रति टन की दर से पानी के भाव बांस बेचा गया। एक टन में करीब 2400 मीटर बांस आता है
और अगर बांस की औसत लंबाई 7 मीटर मान लें, तो एक टन में करीब 350 बांस आते हैं।
यानी एक बांस की कीमत हुई रुपए-सवा रुपए, जबकि बाजार में इस बांस की कीमत दस
से बारह रुपए तक थी। इस पेपर मिल को दो लाख टन बांस का आवंटन किया गया था।
नवंबर 1990 में मेंढा गाँव
के लोगों ने अपनी ग्रामसभा में सामूहिक रूप से यह तय किया की इस साल पेपर मिल को
बांस नहीं काटने देंगे। इस निर्णय के पीछे कई कारण थे- एक तो ग्रामसभा का प्रस्ताव
था कि अपने जंगल की रक्षा करनी है और अपने क्षेत्र में किसी को बिना अनुमति के काम
नहीं करने देना है। दूसरी बात यह थी कि गांव वालों की जरूरतों की उपेक्षा कर सरकार
बांस मिल मालिकों को दे रही थी। तीसरी बात यह थी कि मिल अंधाधुंध तरीके से बाँसों
की कटाई करवा रही थी। छोटे और कोमल, अपक्क बांस भी काटती थी। इस निर्मम
कटाई के दौरान बांस के अंकुर भी नष्ट हो जाते थे जिससे जंगल में नए बांस पैदा की
पैदावार बाधित हो जा रही थी।
न केवल आदिवासी और किसान
बल्कि सभी ग्रामीणों के जीवन में बांस बहुत महत्वपूर्ण है। इससे टोकरियां, अनाज रखने
के लिए कोठार, सूप जैसी कई उपयोगी वस्तुएं तो बनती ही हैं;
साथ ही मकान-निर्माण, बाड़ बनाने या विवाह मंडप
बनाने में भी इसका उपयोग परंपरा से होता आ रहा है। इसीलिए इसे ‘कल्पवृक्ष’ कहा गया है, जबकि पेपर
मिल इसकी सिर्फ लुगदी बनाती थी। इतना ही नहीं, अपने कच्चे
माल की यथावत आपूर्ति जारी रखने पर अमादा थी। न केवल चंद्रपुर-गढ़चिरौली में, बल्कि जहां कहीं भी पेपर मिल है, हर जगह यही हो रहा
है। पर्यावरण वैज्ञानिक माधव गाडगिल के अनुसार कर्नाटक की दांडेली पेपर मिल
ने 1958 से 1973 के दौरान मात्र 15 वर्षों में बेतहाशा
कटाई से कारवार जिले का पूरा बांस खत्म हो गया। वहां भी मिल के मजदूर बांस के तने
के निचले हिस्से पर रहने वाला कंटीला आवरण जानबूझकर काट डालते थे जिससे बांस के
अंकुर सूख जाते और चंद सालों में ही बांस खत्म हो जाते। जबकि ग्रामीण ऐसा नहीं
करते, वे बांस के तने का ऊपरी हिस्सा ही काटते, जिससे बांस
जिंदा रहता और नई संततियाँ आती रहती हैं।
यह सही है कि बांस
से कागज बनता है और कागज हर एक की जरूरत है। लेकिन बेहतर भविष्य के मद्दे नजर प्राकृतिक
संसाधनों का उपयोग किफ़ायती ढंग से ही होना चाहिए। इसीलिए मेंढा गाँव के लोगों का
कहना था कि गांव वालों की जरूरतों की पूर्ति के बाद ही बांस मिल को दिये जाएं; जहां तक
हो सके, बांस के सूखे टुकड़े दिए जाएं और उनकी उचित कीमत
मिले। इनकी अंधाधुंध, अवैज्ञानिक कटाई से जंगलों के स्थायी
नुकसान पर रोक लगाई जाए। उनकी इन दूरदर्शितापूर्ण वाजिब बात को जब अनसूना कर दिया
जाता रहा तो आंदोलन के सिवा और कोई रास्ता न था। क्योंकि जनता के शासन की बात करने
वाली ‘तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था’
अंतिम तौर पर हित तो अमीरों का ही देखती है। मेंढा गांव के लोगों का आग्रह बस इतना
था कि कंपनी मालिकों के बजाय लोगों के हितों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। सरकार की
इन नीतियों के खिलाफ ही मेंढा गाँव ने ‘हमारे गांव में हम ही
सरकार’ की प्रक्रिया शुरू की। यह एक राजनीतिक प्रक्रिया थी। यूं
तो जलग्रहण क्षेत्र-विकास या जंगल-रक्षा के काम महाराष्ट्र में कम नहीं हुए हैं।
ग्रामसफाई या ‘तंटामुक्ति’ (झगड़ों से
मुक्ति) अभियानों के जरिये ‘आदर्श’ कहलाए
गए गांव भी कई हैं। लेकिन बाकियों से अलग यह राजनीतिक प्रक्रिया ही मेंढा की
विशेषता है। दूसरे शब्दों में कहें तो ग्राम-विकास की बात करते समय एक अलग तरह की
राजनीति का मॉडल पेश करने के मेंढ़ा गाँव के इस राजनीतिक सूत्र को नजरअंदाज नहीं किया
जा सकता।
किसी शासन-व्यवस्था
जिसे हम ‘सरकार’ भी कहते हैं, का स्वरूप
मुख्यतः तीन कार्य-प्रक्रियाओं से निर्मित होता है। पहली निर्णय-प्रक्रिया, यानि सरकार अपने शासन के अंतर्गत विभिन्न विषयों पर निर्णय लेती है और
उसके फैसले अंतिम व सर्वमान्य होते हैं। दूसरा नियम एवं कानूनों का निर्माण, जो किसी व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने का आधार है और तीसरा इन
नियम-क़ानूनों के आईने में लिए गए फैसलों को अमल में लाने वाली विस्तृत व्यवस्था, जिसे हम नौकरशाही कहते हैं। सरकार के विभिन्न विभाग होते हैं, जिनके मार्फत नीतियां और कार्यक्रम अमल में लाए जाते हैं।
मेंढ़ा गाँव की विशेषताएँ :
सशक्त ग्राम सभा :
सरकार और व्यवस्था
के इसी ढांचे को अपने छोटे रूप में मेंढ़ा लेखा की ग्राम सभा द्वारा अपनाया गया है
लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि यहाँ फैसले लेने, नियम बनाने और उसके क्रियान्वयन की
पूरी प्रक्रिया सामूहिक तौर पर पूरे गाँव द्वारा सम्पन्न की जाती है। यहाँ ‘इलेक्शन’ नहीं ‘सेलेक्शन’ किया जाता है, जिसमें महिलाओं और पुरुषों की समान
भागीदारी होती है। किसी भी पुरुष या महिला का चुनाव तीन वर्षों के लिए किया जाता
है जो कि गाँव वालों की सहमति से लिए गए फैसलों को क्रियान्वित करने का काम करता
है। ग्रामसभा के पास ग्राम विकास से लेकर अन्य गाँव से संबंधी सभी दस्तावेजों एवं
अन्य प्रारूपों का समुचित लेखा-जोखा रहता है। ग्रामसभा में किसी भी बात के निपटारे
या निर्णय लेने में विपक्ष की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है।
सामुदायिक भूस्वामित्व/ ग्रामदान :
पूरी ग्राम-सभा में
किसी भी व्यक्ति के पास अपनी निजी जमीन नहीं है। दूरदर्शिता का परिचय देते हुए सभी
ने अपनी जमीनें ग्रामसभा के नाम कर दी है। इसके पीछे इनका मूल उद्देश्य यह है कि
पूरी ग्राम-सभा एक परिवार बन सके। ऐसा होने से अब जमीन की सिंचाई या इससे संबंधित
किसी भी तरह के अन्य भुगतान संबंधी खर्च ग्राम सभा वहन करती है। साथ ही ग्राम-सभा
के सामूहिक मालिकाने से अब कोई भी एक व्यक्ति किसी जमीन को बेच नहीं सकता। इस
फैसले से भविष्य में कंपनियों के लिए वहाँ जमीन खरीदने की संभावनाओं के दरवाजे बंद
कर दिये गए हैं। क्योंकि कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी अब मेंढ़ा के किसी एक को बहला-फुसला
कर जमीन नहीं खरीद सकती। जमीन संबंधी सारे फैसले अब ग्राम सभा में सामूहिक चर्चा से
तय किए जाते हैं। इसलिए ग्रामसभा की सहमति के बिना भविष्य में यहाँ कोई कारखाना भी
नहीं खुल सकता। यह अपने आप में एक ऐतिहासिक फैसला है और अपने संसाधनों को बचाने के
लिए संघर्ष कर रहे लोगों के लिए एक मिसाल भी।
संपूर्ण सामुदायिक रोजगार :
इस गाँव में सभी
व्यक्तियों को साल भर सौ फीसदी रोजगार की पूरी व्यवस्था की है। स्त्री हो या पुरुष
सभी को पूरे वर्ष काम उपलब्ध कराने का दायित्व ग्रामसभा पर है। जिस व्यक्ति को जो
काम आता है, उसे वैसा ही काम दिया जाता है। बांस की कटाई में सभी गांव वालों का शामिल
होना एक तरह से अनिवार्य है। एक बांस का मूल्य 20 रुपए तय किया गया है, जबकि इससे
पहले सरकारी कटाई में एक बांस का मूल्य 2 से 5 रुपए था। ये खुद ही जंगल
की निगरानी भी करते हैं। यह काम भी पूरे साल में बारी-बारी से कुछ दिनों के लिए सभी
को करना पड़ता है और इसमें महिलाएं भी शामिल होती हैं। इसके लिए निश्चित मजदूरी दी
जाती है। अपनी विशिष्टता के चलते पूरे देश में आकर्षण का केंद्र बने इस गाँव को
देखने, इससे सीखने और निरीक्षण एवं अध्ययन के लिए बड़ी तादाद में आने आने वाले
लोगों की देखरेख एवं गाँव से संबंधित जानकारी उपलब्ध कराने का काम भी ग्रामसभा
द्वारा नियुक्त अलग-अलग लोग करते हैं, जो रोटेशन पर बदलते
रहते हैं। इन सबको मजदूरी का भुगतान ग्रामसभा करती है। यहाँ तक कि बाहर से आए
लोगों के खाने का इंतजाम करने वाले भी हर दिन बदल जाते हैं, ताकि
सभी को काम मिल सके। यहाँ बांस से सामान बनाने वाली मशीनें भी लगाई गई हैं। जो लोग
प्रशिक्षित हो चुके हैं, वे यहाँ काम करते हैं और दूसरे
लोगों को प्रशिक्षित भी करते हैं। यहाँ शहद निकालने के लिए भी एक केंद्र बनाया गया
है। गाँव के लोग जंगलों में जाकर शहद निकालने का काम करते हैं जिसके लिए उन्हें ग्राम-सभा
द्वारा निर्धारित मूल्य मिलता है और इसकी बिक्री का काम ग्राम-सभा करती है।
स्त्री पुरुष की समान भागीदारी :
ग्राम-सभा में
सक्रिय सहभागिता से लेकर सभी तरह के कामों में गाँव के स्त्री-पुरुषों की समान
भागीदारी रहती है। बल्कि कई बार सार्वजनिक क्षेत्र के कामों में महिलाओं की
भागीदारी ज्यादा दिखाई देती है। चाहे बांस की कटाई हो या ग्राम सभा में कोई योजना
बनानी हो, जब तक महिलाओं की पूरी भागीदारी नहीं होती, कोई भी
फैसला पूरा नहीं होता। कृषि से लेकर जंगल की सुरक्षा तक के सभी कामों में समान
तरीके से सबको शामिल किया जाता है। किसी विषय पर उसके अच्छे-बुरे पक्षों को
देखते-समझते हुए आम राय से ही किसी निर्णय पर पहुंचा जाता है। साथ ही यह कोशिश भी
होती है कि सिर्फ बहुमत के आधार पर ही कोई फैसला न हो बल्कि सभी को किसी कॉमन
बिंदु पर राजी कर सर्व सहमति से निर्णय लिए जाएँ।
शराब उत्पादन पर पूर्ण पाबंदी :
मेंढ़ा-लेखा में
शराब उत्पादन पर पूर्ण रूप से रोक लगाई गई है। यहाँ कोई भी शराब नहीं बनाता चाहे वह
व्यक्तिगत उपयोग के लिए हो या सामूहिक। शराबबंदी की यह व्यापक पहल तीन दशक पहले महिलाओं
के द्वारा की गई है। 1984 में ही यहाँ शराबबंदी शुरू हो गई थी और तब से कोई भी व्यक्ति यहाँ
शराब नहीं बनाता। खुलेआम शराब पीने पर भी यहाँ प्रतिबंध है, हालांकि
यह अलग बात है कि कुछ लोग कभी-कभार चोरी-छिपे दूसरे गाँव से शराब पीकर आ जाते हैं।
जिसे बुरा नहीं माना आता। लेकिन अगर कोई शराब पीकर झगड़ा करता है तो उसे सामूहिक
तौर पर दंड दिया जाता है जिसके लिए आर्थिक और सामाजिक दंड के अलग-अलग नियम बनाये गए
हैं।
शिक्षा, स्वास्थ्य,
आवास एवं परिवार नियोजन पर पूर्ण जागरूकता :
मेंढ़ा-लेखा में नई
पीढ़ी के सभी लोग शिक्षित और साक्षर हैं। सभी बच्चे स्कूल जाते हैं जो ग्राम-सभा भवन
के पास ही स्थित है। वैसे देवाजी तोफा इस शिक्षा-प्रणाली से संतुष्ट नहीं हैं।
उनका मानना है कि यह शिक्षा-व्यवस्था हमारे बच्चों को परिवारों से अलग करती है।
भविष्य की उनकी योजनाओं में वैकल्पिक शिक्षा एक जरूरी विषय है जिसमें गांधी की ‘नई तालीम’ को लेते हुए उसे नए संदर्भों में क्रियान्वित किए जाने का लक्ष्य है।
स्वास्थ्य और आवास
को लेकर भी उनके पास भविष्य की अनेक योजनाएं हैं। इस गाँव की एक खासियत यह भी है
कि यहाँ सारे घर एक ही पैटर्न पर एक ही तरह से बने हैं जिसमें प्राकृतिक रूप से हवा
के आने-जाने व रौशनी की पर्याप्त व्यवस्था है। इसके अलावा पूरा गाँव परिवार नियोजन
को लेकर भी जागरूक है और नई पीढ़ी ने तो इसे पूरी तरह से अपनाया है। अन्य पारंपरिक
गांवों के मुक़ाबले यहाँ किसी भी घर में दो-तीन से ज्यादा बच्चे नहीं हैं।
आय-व्यय की पारदर्शी और टिकाऊ व्यवस्था
पूरी ग्राम-पंचायत
में आय-व्यय का भुगतान बैंक के माध्यम से ही किया जाता है। सभी व्यक्तियों के अपने
निजी खाते हैं और किसी भी तरह का भुगतान इन खातों के जरिए ही होता है जिसका पूरा
ब्यौरा ग्राम-पंचायत के दस्तावेजों में कभी भी देखा जा सकता है। भ्रष्टाचार की
तमाम गुंजाइशों पर विराम लगाते हुए बिना बैंक खातों के किसी भी तरह के पैसे का
लेन-देन नहीं किया जाता। यदि किसी योजना का भी पैसा आता है तो वह भी ग्राम-सभा के
खाते में ही आता है और फिर उसका भुगतान किया जाता है। कौन सा पैसा किस मद में खर्च
किया गया है, इसका पूरा ब्यौरा संपूर्ण पारदर्शिता के साथ ग्राम-सभा के पास देखा जा
सकता है। आपदा या किसी अन्य तरह की जरूरत के लिए अलग से ग्राम सुरक्षा कोष बनाया
गया है जहाँ सभी गाँव वालों को अपनी आय का 10 प्रतिशत सालाना जमा करना
पड़ता है। इसी तरह का एक और कोष भी बनाया गया है, जहाँ साल भर के लिए सामूहिक
अनाज जमा किया जाता है ताकि सूखा या इसी तरह की किसी अन्य आकस्मिक आपदा के वक्त इसका
इस्तेमाल किया जा सके।
वन संरक्षण की वैज्ञानिक दृष्टि :
ग्राम-सभा द्वारा वन
संरक्षण के लिए भी नियमावली बनाई गई है। इसमें पेड़ों की गिनती, उनकी आयु, मोटाई एवं लंबाई के साथ ही उसकी उपयोगिता से संबंधित सारे ब्योरे सुरक्षित
हैं। अगर कोई एक पेड़ काटा जाना है तो उसकी जगह पर दूसरा लगा दिया जाता है। जंगल
में किस-किस तरह की घास पाई जाती है और कौन सी किस तरह के काम में आती है, इसका भी पूरा ब्यौरा रखा गया है। अमूमन किस पेड़ की आयु कितने वर्ष की
होती है, यह भी उन्हें पता है और इसीलिए किसी पेड़ के सूखने
के साथ ही उसकी जगह नया पेड़ लगा दिया जाता है। जंगल में पाये जाने वाले औषधीय
पौधों के विस्तृत ब्योरे भी उनके पास हैं। गाँव में पशुओं के लिए अलग से चारागाह भी
बनाया गया है।
परंपरा के प्रति तार्किक दृष्टिकोण
आधुनिकता के प्रति
अपने सकरात्मक दृष्टिकोण के साथ ही अपनी परंपरा को लेकर भी यहाँ के लोग काफी सचेत हैं
और इसे बचाने-संभालने की उनकी कोशिशे जारी हैं। यहाँ किसी पेड़ को काटने से पहले
उसकी पूजा करने का नियम है। इसके पीछे उनके तर्क हैं कि चूंकि पेड़ ही हमारा जीवन
है, इसलिए काटने के पहले उसकी पूजा करना उसकी महत्ता और जीवन के प्रति हमारे
द्वारा सम्मान एवं आभार प्रदर्शन करने का ही एक तरीका है। इसके अतिरिक्त आदिवासी
समाजों में मासिक धर्म के समय महिलाओं को उनके रोज़मर्रा के कामों से छुट्टी देते
हुए अलग से उनके आराम की व्यवस्था का नियम था। मेंढ़ा गाँव में भी स्त्रियों के लिए
मासिक धर्म के समय उनके आराम करने की उचित व्यवस्था के अंतर्गत हर चार से छः घरों
के बीच स्त्रियों के लिए अलग से विश्राम घर जैसी व्यवस्था की गई है। इसके अलावा सामुदायिक
शिक्षा एवं परंपरागत ज्ञान के पीढ़ीगत हस्तांतरण के लिए आदिवासी समाज में मौजूद रही
पारंपरिक संस्था ‘घोंटुल’ भी यहाँ है
जिसके जरिए समुदाय का जो व्यक्ति जिस ज्ञान में पारंगत है,
वह सामुदायिक रूप से नई पीढ़ी को यह ज्ञान हस्तांतरित करता है।
कैसे संभव हुआ यह सब :
27 अप्रैल, 2011 का दिन न केवल मेंढ़ा
लेखा गाँव के लिए बल्कि पूरे आदिवासी आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण दिन था जब गढ़चिरौली
जिले की धनोरा तहसील के इस गाँव को 2006 के वन अधिकार अधिनियम के तहत सरकार द्वारा 1890 हेक्टेयर वन जमीन
का सामुदायिक स्वामित्व प्रदान किया गया। यद्यपि यह अधिकार एक लंबे संघर्ष का
परिणाम था लेकिन कागजों पर सीमित इन अधिकारों को वन विभाग के झमेलों से मुक्त कराने
के लिए इन्हें काफी जद्दोजहद करनी पड़ी। अपने उपयोग के लिए तो ये बांस काट सकते थे
लेकिन जंगल पर अपना अधिकार होने के बाद भी बांस की बिक्री पर मनाही थी। यहाँ तक की
सरकारी अधिकारियों द्वारा यहाँ से बांस खरीदने वालों पर मुक़दमा करने की धमकी भी दी
जाती थी। इसके खिलाफ वन विभाग और सरकार से दो साल लंबी लड़ाई लड़ने के बाद अंततः 2013 में इनकी बात
मानी गई और जंगल के संसाधनों पर इन्हें इनका पूरा हक़ दिया गया। आज मेंढ़ा-लेखा
सिर्फ कोई गाँव मात्र नहीं रह गया है, अपने लंबे संघर्ष और सामूहिक-सामुदायिक
प्रयासों से आज यह जिस मुकाम तक पहुंचा है, वह न केवल जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ रहे तमाम आंदोलनों के लिए
प्रेरणास्रोत है बल्कि इससे कहीं आगे विकल्पहीन होती जा रही दुनिया में विकल्प और
उम्मीद की किरण बनकर सामने आया है।...
मेढ़ालेखा क्षेत्र भ्रमण के दौरान मेरे सहयोगी रहे- डॉ. शिव सिंह बघेल, डॉ. मुकेश कुमार, शोध छात्र डिसेन्ट कुमार साहू, नरेश गौतम
nareshgautam0071@gmail.com