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Friday, October 5, 2018

सोशल वर्क के छात्र-छात्राओं ने गांधी को याद करते हुये किया वृक्षारोपण

महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती के मौके पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी समाज कार्य अध्ययन केन्द्र के छात्र- छात्रओं ने 150 पौधे लगाकर उन्हें याद किया।
पौधा रोपण की शुरुआत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने पौधा लगाकर किया। उसके उपरांत विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो. के. के. सिंह एवं केंद्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने पौधा रोपण किया। उसके पश्चात केंद्र के सहायक प्रोफेसर क्रमशः डॉ. शिवसिंह बघेल, डॉ. मुकेश कुमार, डॉ. पल्लवी शुक्ला, गजानन एस.निलामे एवं केंद्र के बीएसडब्ल्यू, एमएसडब्ल्यू एवं एमफिल, पी-एच.डी. के विभिन्न सेमेस्टर के छात्र-छात्राओं ने कुल मिलाकर 150 पौधे लगाए।
उक्त अवसर पर विभाग के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने कहा कि महात्मा गांधी को रचनात्मक तरीके से ही सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है। हमने गांधी जी को रस्म अदायगी के तौर पर याद करने के बजाय पर्यावरण को समृद्ध करने के लिए 150 पौधे लागए हैं। इसमें आम, अमरूद, सीताफल, चीकू आदि फलदार पौधों के साथ- साथ पॉम, मेहंदी, मोरपंखी आदि के भी पौधे शामिल हैं। हमारे बच्चों ने मौजूदा पर्यावरणीय संकट के दौर में यह सराहनीय कार्य कर एक संदेश देने का प्रयास किया है। उन्होंने बताया कि केंद्र के छात्र- छात्रओं ने स्वतः ही एक- एक पौधे को लगाने से लेकर उसके पालन- पोषण की जिम्मेदारी ली है। गांधी जी को याद करते हुए हमें वर्तमान चुनौतियों के बरक्स रचनात्मक कार्य की दिशा में कदम उठाने की जरूरत है। इसी रास्ते गांधी को सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है।

















Thursday, October 4, 2018

गाँधी जीवन दृष्टि एवं प्रयोग



वर्धा, 2 अक्टूबर 2018। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150 वी जयंती के अवसर पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के गालिब सभागार में एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ। गांधी का आलोकविषयक इस एक दिवसीय परिचर्चा में गाँधी जीवन दृष्टि एवं प्रयोगविषयक दूसरे चर्चा सत्र का संचालन गाँधी एवं शांति अध्ययन विभाग के प्राध्यापक डॉ. धूपनाथ प्रसाद ने किया। सत्र में मुख्य वक्ता के रूप में वरिष्ट पत्रकार अरविन्द मोहन, विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. अरमेंद्र शर्मा एवं ऋषभ मिश्र उपस्थिति थे। सत्र की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के प्रो. अनिल कुमार राय ने की।
सत्र को संबोधित करते हुए विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. अरमेंद्र शर्मा ने कहा कि गाँधी का निजी जीवन नहीं रहा है। गाँधी की पूरी जीवन-पद्धति में निजी और सार्वजनिक के बीच का भेद मिट गया प्रतीत होता है। उनकी ज़िन्दगी में कुछ भी छिपा हुआ नहीं है। गाँधी सतत प्रयोगशील रहे। गाँधी ने अंतिम सत्य का दावा नहीं किया। उनके चिंतन में गतिशीलता है। इसलिए गाँधी को समझने के लिए इसका ध्यान रखा जाना चाहिए। गाँधी हमेंशा आम जनता के पक्ष में रहे। उनसे हमें यह प्रेरणा प्राप्त होती है। अंत में उन्होंने कहा कि इस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए कि गाँधी की प्रयोगधर्मिता आज भी बनी रहनी चाहिए।
सत्र के अगले वक्ता शिक्षा विद्यापीठ के प्राध्यापक ऋषभ मिश्र ने कहा कि बुनियादी शिक्षा गांधीजी की अनुपम देन है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आजाद भारत में बुनियादी तालीम को तिलांजलि दे दी गयी। गाँधी के बुनियादी तालीम का विचार मौजूदा शिक्षा व्यवस्था से भिन्न है। मौजूदा शिक्षा व्यवस्था मनुष्य को अपनी जड़ों से, अपनी संस्कृति से अलग करती है। पाश्चात्य शिक्षा श्रम से काटती है। गाँधी बच्चे को मातृभाषा में परिवार के बीच रहकर उद्योगमूलक शिक्षा देने की बात करते हैं। स्वावलंबन उनकी शिक्षा की अनिवार्य शर्त है। गाँधी की बुनियादी तालीम का दर्शन और प्रयोग हमारे लिए काफी उपयोगी है। यह शिक्षा हमें जीवन और जीविका दोनों के लिए तैयार करती है ।
सत्र के मुख्य वक्ता चर्चित वरिष्ट पत्रकार-लेखक अरविन्द मोहन ने भारत में गाँधी के प्रथम सत्याग्रह- चंपारण सत्याग्रह की सूक्ष्म चर्चा की और उससे निकलने वाली प्रेरणा की शिनाख्त की। गाँधी के संचार कौशल की भी उन्होंने विस्तृत चर्चा की। तार, चिट्ठी आदि का संचार के रूप में गाँधी भरपूर प्रयोग करते हैं। उन्होंने तत्कालीन ब्रिटिश साम्राज्य के संचार तकनीक की भी संक्षिप्त चर्चा की। रेल-मार्ग, सड़क मार्ग, जलमार्ग और दूरसंचार आदि के विकास की भी संक्षिप्त चर्चा की। चंपारण में मोहम्मद मुनिस की संचार में भूमिका पर भी उन्होंने प्रकाश डाला डाला। उन्होंने बताया कि गाँधी के संचार कौशल और संचार की ईमानदारी ने अंग्रेजों के मनसूबे को नाकाम कर दिया। गाँधी ने अपने व्यक्तित्व से भी लोगों से आसानी से संपर्क स्थापित कर लिया। उनके कथनी और करनी में समानता ने भी आम लोगों में प्रभाव स्थापित किया। गाँधी ने बिना किसी अफवाह और अतिरेक के संचार किया और अंग्रेजों के साथ- साथ चंपारण के किसानों का भी भरोसा हासिल किया। गाँधी के चंपारण के प्रयोग से हमें  आज भी काफी सिख मिलती है।

अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो.अनिल कुमार राय ने कहा कि गाँधी के विचार एवं जीवनप्रयोग को उस वक्त के देशकाल- परिस्थिति के आधार पर समझने की जरुरत है। किन्तु यह भी सच है कि गांधी ने देशकाल- परिस्थिति का खुद ही अतिक्रमण किया। गाँधी ने भारतीय परंपरा के साथसाथ पश्चिमी परंपरा के भी उद्दात मूल्यों को ग्रहण किया था। गाँधी के विचार को किसी वाद में नहीं बांधा जा सकता है। गांधी का व्यक्तित्व अत्यंत ही उद्दात था। आज भी हमें उनका जीवन और चिंतन प्रेरणा प्रदान करता है।
संगोष्ठी में विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों के शिक्षकों एवं सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने हिस्सा लिया।

रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, प्रेरित बाथरी, माधुरी श्रीवास्तव, खुशबू साहू, अजय गौतम, अक्षय कदम, सुधीर कुमार, मोहिता एवं सपना पाठक

Friday, March 31, 2017

बेड़िया समुदाय: जाति, यौनिकता और राष्ट्र–राज्य के पीड़ित

photo google
बेड़िया समुदाय जो कि कभी एक घुमंतू और आपराधिक प्रवृत्ति वाला समुदाय माना जाता रहा है लेकिन राज्य ने उसे अनुसूचित जाति की श्रेणी में श्रेणीबद्ध किया है और उनके विकास लिए तमाम तरह की योजनाएं भी चला रहा है ताकि उनका उत्थान हो सके लेकिन जैसा कि हमेशा होता है वैसा ही इन योजनाओं के साथ भी हुआ है। यह भी मात्र कागजों पर ही सीमित रह गयी हैं।
मध्य प्रदेश के जिला सागर और अशोकनगर, बीना के आस पास बहुत से गाँव है, जहाँ बेड़िया समुदाय के लोग निवास करते हैं। सिर्फ एक ही गाँव जिसका नाम पथरिया है वहाँ परिवर्तन देखने को मिलता है। उसके भी कारण हैं क्योंकि वहाँ 1984 से सत्य शोधन आश्रम की शुरुआत चम्पा बेन के द्वारा की गयी जिसका मुख्य उद्देश्य बेड़िया समुदाय का उत्थान करना था।
चम्पा बेन के द्वारा सबसे पहला कार्य बेड़िया समुदाय की बालिकाओं को शिक्षा देना था और वहाँ देह व्यापार में लगी महिलाओं को जागरूक करना था ताकि वह देह व्यापार जैसे कार्य से बाहर निकल सकें। साथ ही बेड़िया समुदाय में इससे पहले शादी जैसे संस्कारों का भी कोई मूल्य नहीं था, इसके लिए भी लोगों को जागरूक करने का काम किया गया। बाकी गाँव जहाँ बेड़िया समुदाय के लोग निवास करते हैं, वहाँ की स्थितियाँ बहुत ही खराब हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन राज्य की नीतियाँ भी इसके लिए बहुत हद तक जिम्मेदार हैं।

बेड़िया समुदाय पहले से ही शोषित रहा है क्योंकि उनके संपर्क हमेशा राजे-रजवाड़े, जमींदारों, मालगुजारों जैसे सामन्ती लोगों के साथ रहे हैं, जहाँ लगातार उनका शोषण किया गया। जिस तरह से सामन्ती लोगों ने इनका शोषण किया उसी तरह से आज भी हो रहा है।
 सरकार ने भूमिहीनों के लिए कृषि हेतु जो भूमि आवंटित की है, वह  इन्हें भी आवंटित की गयी, लेकिन यह उनके निवास स्थान से 20 या 35 किलोमीटर की दूरी पर है। इनमें से बहुत सारे लोगों को आज भी उस भूमि पर कब्जे नहीं मिले हैं। बहुत सारे ऐसे भी लोग हैं जिन्हें आज तक यह भी नहीं पता है कि उनकी भूमि आखिर आवंटित कहाँ है? जब भी बेड़िया समुदाय के लोगों ने अपने आप को परम्परागत पेशे से बाहर निकालना चाहा है तो उनके सामने कई तरह के सवाल खड़े हो जाते हैं। सबसे पहला सवाल उनकी पहचान का बनता है। जैसे ही लोगों को पता चलता है कि वे बेड़िया समुदाय से हैं तो लोग सहज उपलब्धता के कारण उनसे यौन संबंधो की अपील करते हैं या उन्हें उसी नजरिये से देखते हैं। इस तरह के सामाजिक दबाव को झेलना पड़ता है। यह समुदाय हमेशा किसी न किसी पर आश्रित होकर अपना जीवन निर्वाह करता रहा है। दूसरा यह समुदाय कभी कृषि कार्य से भी नहीं जुड़ा रहा। अब जिन परिवारों में दलित चेतना का विकास हुआ है और जिन्होंने अपने आप को अनुसूचित जाति की श्रेणी में भी गिनना शुरू कर दिया है, और अपने आप को इस कलंक से बाहर भी निकालना चाहते हैं, न तो उन्हें समाज इस कार्य से बाहर निकलने दे रहा है और न सरकार उनके लिए कोई ठोस कदम उठा रही है।

पूरा समुदाय हमेशा से ही उपेक्षा की नजर से देखा जाता है। यदि आप उस गाँव का नाम तक लेते हैं तो आप को लोग ओछी नजर से देखते हैं। लोगों की मानसिकता जाकर वहीं रुकती है कि आप उनके साथ अपने यौन संबंध बनाने जा रहे हैं। बुंदेलखंड में बसे ये लोग अपने लिए ही जीवन और नयी संभावनाएँ तलाश करने में जुटे तो हैं लेकिन यह सभ्य समाज ही उन्हें इस दलदल से बाहर नहीं निकलने दे रहा है। दूसरा कारण यह भी है कि राज्य सरकार इनको अनुसूचित जाति की श्रेणी में श्रेणीगत करती है, लेकिन इस समुदाय में आज भी वह चेतना नहीं जागी है। यहाँ तक कि बहुत से बेड़िया आज भी अपने को उच्च श्रेणी में ही गिनते हैं। ये उन लाभों को भी नहीं ले पाते हैं, जो सरकार अनुसूचित जाति के लिए देती है। पूरे समुदाय में शिक्षा की कमी भी इनके विकास में सबसे बड़ी अवरोधक है, जो इन्हें इस काम से बाहर नहीं निकलने दे रही है।

यदि पूरे बुंदेलखंड और उसकी परिस्थितियों को देखेँ तो ये भी कृषि के लिए अनुकूल नहीं है। जब इनके इतिहास पर नजर डालते हैं तो यह समुदाय कभी भी कृषि कार्य या अन्य व्यवसाय से जुड़ा दिखायी नहीं देता है। अतः इनके लिए कृषि कार्य से जुड़ना अपने आप में एक मुश्किल कार्य है। जिस तरह से इस समुदाय कि निर्मिति के साक्ष्य मिलते हैं उससे तो यही लगता है कि इस समुदाय के उत्थान के लिए सरकार या अन्य संस्थायें इनको इस देह व्यापार के व्यवसाय से बाहर निकालना नहीं चाहती हैं, अन्यथा इनके लिए किसी उचित व्ययसाय की व्यवस्था की जानी चाहिए थी।

ग्राम परसरी की बेला कहती हैं कि- “मुझे यह काम छोड़े काफी साल हो गए हैं। अभी तक मेरा पूरा परिवार इस काम से बाहर आ गया है लेकिन जब से हमने देह व्यापार और राई को छोड़ा है, तब से हम लोग अपने लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ भी ठीक से नहीं कर पाते हैं। हमारे ही गाँव के लोग आज हमसे बहुत धनी हैं और उनके पास आधुनिक सुख सुविधा के साधन हैं, रहने के लिए अच्छे घर हैं। हम तो रोटी के लिए भी मोहताज हैं, बीड़ी बनाने और मजदूरी से घर का खर्च तो किसी तरह चल जाता है लेकिन किसी और काम के लिए पैसे नहीं बचते हैं। कई बार तो यही लगता है कि हमने राई को छोड़ कर बहुत गलत किया। कई बार वापस जाने का मन भी करता है लेकिन फिर सोच कर रह जाती हूँ ”।

यह कहानी किसी एक महिला की नहीं है। बेड़िया समुदाय में इस तरह के बहुत से परिवार मिल जाएंगे। करीला की एक महिला बताती हैं कि सामाजिक दबाव के चलते मैंने राई तो छोड़ दी, लेकिन कोई और काम भी नहीं था। घर के मर्द कुछ भी नहीं करते और पूरे दिन दारू के नशे में घूमते हैं। दारू के लिए भी पैसे मुझसे ही माँगते हैं, इसलिए वापस यहाँ करीला मंदिर पर ‘बधाई’ करती हूँ। शाम तक 2-3 सौ रुपए मिल जाते हैं पर कभी-कभी कुछ भी नहीं मिलता, लेकिन अपने साथ साज वाले को रोज पैसे देने पड़ते हैं।  यह किस्सा किसी एक महिला का नहीं है ऐसे किस्सों से बेड़िया समुदाय भरा पड़ा है।

बेड़िया समुदाय की पहचान एक यौन कर्म करने वाले समुदाय के रूप में सभ्य समाज करता है, लेकिन किसी भी समुदाय और उसके व्यवसाय को समझने के लिए, उस समुदाय की निर्मिति एवं इतिहास को देखना आवश्यक है, क्योंकि बिना किसी की निर्मिति के बारे में जाने उसके बारे में ठीक-ठीक कुछ कहना मुश्किल हो जाता है या कई बार हम उनके लिए गलत निर्णय भी ले लेते हैं। बेड़िया समुदाय को राज्य एक वेश्यावृत्ति करने वाला समुदाय मानता है। क्योंकि यह समुदाय अपने सेक्सुअल रिलेशन कई पुरुषों और सभ्य समाज के संबंधों से इतर बनाता है और उन संबंधो में काफी खुलापन भी होता है। यह समुदाय इस तरह के संबंध बनाने को बुरा नहीं मानता। लेकिन राज्य की विधि और सभ्य बनाने की जो राज्यजनित अवधारणा है, यह समुदाय एक ख़तरे के रूप में उसके सामने खड़ा है। जब इस समुदाय में कभी भी यौन कर्म को बुरा नहीं माना गया और समुदाय यौन कर्म को मान्यता भी देता है, तो उस समुदाय को यह सभ्य समाज या राज्य बुरा कर्म करने वालों की नजर से क्यों देखता है? जब कि इनकी संस्कृति का यह एक अहम हिस्सा भी है। यदि इनके पूरे इतिहास को देखा जाए तो यह एक घुमंतू समुदाय रहा है और कभी भी शादी-ब्याह जैसे संस्कारों को मान्यता न देते हुये अपना विकास करता रहा है। इस समुदाय के लिए यह एक सहज प्रक्रिया है लेकिन राज्य और समाज की नजर में तो नहीं।

राज्य इस तरह के समुदाय को मुख्य धारा में लाने के प्रयास में लगा है, क्योंकि यह समुदाय मुख्य धारा के विपरीत अपने संबंध मुख्य धारा के लोगों के साथ ही स्थापित करता है। लेकिन वही समाज जो इन्हें अपनी रखैल या जो भी नाम दिया जाए के रूप में इस्तेमाल करता है तब ये बेड़िया उनके लिए असभ्य क्यों नहीं होते? यही वो सभ्य समाज है जो इन्हें वेश्यावृत्ति करने वाला भी कहता है और इन्हीं के साथ अपने अनैतिक संबंध भी स्थापित करता है।  
    
समुदाय की निर्मिति में सामन्ती लोगों की भूमिका अधिक दिखायी देती है क्योंकि ऐतिहासिक तथ्यों को देखें तो बेड़िया समुदाय की महिलाएँ राजे-रजवाडों और सामन्ती लोगों से ही अपने संबंध बनाती दिखती हैं। इसका यह कारण भी था कि बेड़िया समुदाय की महिलाएँ अन्य समुदायों की अपेक्षा अधिक सुंदर होती थीं तो इन्हें अन्य समुदायों की अपेक्षा ख़तरे भी अधिक थे। अपने संरक्षण और आर्थिक जरूरतों को पूर्ण करना भी इसमें शामिल था। यहाँ तक इनके सामने कोई समस्या नहीं थी। ब्रिटिश काल में इन्हें पहचान कर, श्रेणी बद्ध किया गया और अपराधी प्रवृत्ति की  संज्ञा दी गयी। लेकिन आजादी के बाद से इनके लिए संकट बढ़ गए। उसके कारण यह थे कि भारत के लगभग सभी ऐसे समुदायों को मुख्य धारा में लाने के लिए जनजाति से जाति व्यवस्था में लाना था क्योंकि राज्य की सत्ता जाति व्यवस्था पर चलती है। इसमें शामिल होने के लिए आप को जाति व्यवस्था में आना पड़ेगा। इनके साथ भी वही किया गया। इन्हें अब जनजाति से बदल कर अनुसूचित जाति में परिवर्तित कर दिया गया। अब जब यह जाति व्यवस्था में आ चुके थे, तो राज्य की विधि के अनुसार ही इन्हें भी चलना था।

हालांकि समुदाय में खुले तौर पर संबंध बनाने की छूट थी। इसी आधार को देखते हुये राज्य ने इन्हें वेश्यावृत्ति करने वाले समुदाय के रूप में पहचान दी। औपनिवेशिक मानसिकता के साथ इन्हें शिक्षित करने की प्रक्रिया और उनकी संस्कृति को समाप्त करने के प्रयास शुरू किए गए। अब इनके सामाजिक मूल्यों, इनकी संस्कृति सभी पर हमला होना तय था। अब इन्हें ‘Open Relation रखने वाले समुदाय या व्यक्ति कभी सभ्य नहीं हो सकते’ इस मानसिकता के साथ सभ्य बनाने के लिए शिक्षित करना था। लेकिन यहाँ एक बात सबसे जरूरी हो जाती है कि इस राष्ट्र-राज्य की अवधारणा में जहाँ इस तरह के समुदाय (बेड़िया समुदाय) जो शादी ब्याह जैसे संस्कारों और सभ्य समाज के बनाए मूल्यों से अलग थे, जो किसी भी पुरुष से अपने स्वच्छंद संबंध बना सकता था, जब राज्य उसे वेश्या का संबोधन दे रहा है तब उसने कभी इस बात पर गौर नहीं किया कि इनके लिए आखिर ग्राहक कहाँ से आ रहें हैं? जो राज्य इन्हें वेश्या का संबोधन दे रहा है दरअसल वही राज्य ही इन्हें ग्राहक भी उपलब्ध कराने का कार्य करता है। अभी तक जिन भी संस्थाओं ने इनके लिए काम करने शुरू किए, वे सभी इन्हें सभ्य समाज की धारा में लाना चाहते हैं। आखिर एक ऐसा समुदाय जो अपने आप को अलग रखकर स्वच्छंद रहता है, किसी से भी अपने संबंध स्थापित करता है और अपने किसी भी निजी मामले में बंधन नहीं रखता, तो उन्हें बदलने की आवश्यकता क्यों पड़ी? लेकिन जिन भी संस्थाओं ने इनके उत्थान के लिए काम शुरू किये, वे भी इन्हें राज्य की नजर से ही देखते रहे।

जब हम इन्हें सभ्य बनाने की बात करते हैं तो हम उन्हें खुद संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में ला रहे हैं। लेकिन कार्य के आधार से समुदाय की पहचान को देखें तो राज्य उन्हें निम्न श्रेणी में ही श्रेणीबद्ध करता है। तो जाहिर सी बात है एक जाति से उठकर यदि वह दूसरी नीची जाति में प्रवेश करते है तो इनके लिए संकट और बढ़ जाते हैं।
राज्य की भूमिका पर गौर किया जाए तो राज्य जहाँ एक तरफ वेश्यावृत्ति को खत्म करना चाहता है, वहीं दूसरी तरफ उन्हीं जगहों को पहचान कर जहाँ वेश्यावृत्ति होती है, वहाँ एड्स जैसे प्रोग्राम चला कर, घर-घर में condom बाँट रहा है, यानि राज्य उन्हें संरक्षण देता हुआ प्रतीत होता है। दूसरी तरफ समुदाय के साथ व्यवहार का रवैया मुख्य धारा की मूल्य व्यवस्था (value system) से मिलता हुआ दिखयी देता है। The Hindu[1] में छपी एक रिपोर्ट को यदि देखा जाए तो राम सनेही जो एक समाज कार्यकर्ता हैं, वह इसे अनैतिक बताते हैं और बेड़िया समुदाय की परंपराओं को खत्म करने के लिए सरकार पर दबाव बना रहे हैं। जब कि सरकार की तमाम एजेंसियां इन्हें संरक्षण दे रही हैं। मुख्य धारा की मूल्य व्यवस्था के आग्रह वाले राम सनेही अकेले नहीं हैं, बल्कि अन्य कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थायें भी इसमें संलग्न हैं। कुल मिला कर बेड़िया समुदाय की यौनिकता समाज और राष्ट्र-राज्य के विरोधाभासी दबाव का शिकार बनती है। जहाँ एक तरफ राष्ट्र-राज्य समुदाय की यौनिकता को अपनी यौनिक अर्थव्यवस्था के तहत बचाए भी रखना चाहता है, वहीं दूसरी तरफ मुख्य धारा के समाज के नैतिक और सांस्कृतिक आग्रहों को ख़ारिज भी नहीं करना चाहता। ये संस्थायें अपने सामुदायिक कार्यों में बेड़िया समुदाय के साथ सांस्कृतिक राजनीति की एजेंट दिखाई देती हैं।

समुदाय यौनिकता के संस्कृतिकरण की प्रक्रिया खास संदर्भों में घटित होती है, जहाँ सामुदायिक/संस्कृति विशेष ज्ञान को अपनी व्यवस्था में शामिल करने से पहले उसका रूपांतरण व प्रसंस्करण होना अनिवार्य हो जाता है। बेड़िया समुदाय के चलायमान होने की जीवनशैली से उपजी संस्कृति उनकी सांस्कृतिक विशेषताओं में परिलक्षित होगी। इस आधार पर सेक्सुअलिटी व उनके स्त्री-पुरुष संबंधों, उनके औपचारिक-अनौपचारिक व्यवहारों, यहां तक कि जीवन और नृत्य-गीतों की अल्हड़ता का अध्ययन और व्याख्या अपनी सम्पूर्णता में गैर विषयीकृत (Non Subjectifed) होकर ही संभव है।
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नरेश गौतम
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
nareshgautam0071@gmail.com
8007840158


Thursday, March 24, 2016

मैं हिजड़ा... मैं लक्ष्मी


डिसेंट कुमार साहू
उत्पीड़ित समूहों द्वारा लिखी जाने वाली आत्मकथाओं ने हाल के समय में ब्राम्हणवादी-पितृसत्तात्मक समाज के वर्चस्वकारी मूल्यों को उद्घाटित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इन आत्मकथाओं ने दमन, शोषण तथा वर्चस्व के अमानवीय पहलुओं को सामने रखा। आत्मकथा लेखक के जीवनानुभव होते हैं. जिसके माध्यम से वह अपनी जीवन, सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य तथा महत्वपूर्ण घटनाओं को रेखांकित करते हैं। इसी क्रम में यह आत्मकथा पितृसत्तात्मक दमन का शिकार हिजड़ा समूह के लक्ष्मी का है। जिस समूह को स्वयं के 'मैं' के पहचान में वर्षों लग जातेहैं, इस 'मैं' के प्रकट होने पर समाज बदले में सिर्फ अपमान, घृणा, तिरस्कार तथा कलंकित जीवन प्रदान करता है। उस 'मैं' का प्रकटीकरण हमारे सामने आत्मकथा के रूप में है। इस आत्मकथा के माध्यम से लक्ष्मी, हिजड़ा पहचान के साथ ही एक मानव होने तथा मानवीय क्षमताओं को बिना किसी भेद-भाव के स्वीकार करने का आग्रह करती है। हमारे समाज व्यवस्था में मुख्य रूप से द्विलिंगीय समाज है। जहां सिर्फ स्त्री-पुरुष को ही मान्यता प्राप्त है तथा इनके बीच होने वाले उत्पादक यौन संबंध ही कानूनी रूप से वैध हैं। नारीवादी विमर्श से पहले तक 'शिश्न' आधारित पहचान की बात की जाती थी अर्थात, 'मैं' का केंद्र 'शिश्न' रहा। इसलिए माना जाता रहा हैं कि बालिका 'शिश्न अभाव' के कारण अपने को बालकों की तुलना में हिन मानती है, इस तरह वह पुरुष सत्ता को स्वीकार कर लेती है। हालांकि फ्रायड के इन विचारों का व्यापक रूप से विरोध हुआ।

नवफ्रायडवादियों में कैरेन हर्नी फ्रायड के विचारों की आलोचना करती हैं। उनका कहना है कि प्रत्येक लिंग(सेक्स) के व्यक्ति समान होते हैं, जरूरत उन्हें प्रोत्साहित करने की होती है। स्त्री-पुरुष के अलावा हमारे समाज में तीसरे लिंग के लोगों का भी अस्तित्व है.जिन्हें हिजड़ा, किन्नर तथा स्थानीय भाषाओं में विभिन्न नामों से जाना जाता है। थर्ड जेंडर लोगों का उल्लेख पौराणिक मिथकीय ग्रन्थों से लेकर कामसूत्र तथा बौद्ध साहित्य में भी मिलता है। इसके बाद भी यह समूह समाज से बहिष्कृत होकर अमानवीय परिस्थितियों में जीवन गुजारने के लिए अभिशप्त है। लक्ष्मी की आत्मकथा इस देश में रहने वाले लाखों थर्ड जेंडर की दिन-प्रतिदिन के अनुभवों का प्रतिनिधित्व करती है। अपनी आत्मकथा के माध्यम से थर्ड जेंडर समूह के व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक तथा संस्थानिक जीवनानुभव को साझा करने का प्रयास किया है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी एक समूह ऐसा है जो अपने इंसानी पहचान तथा मूलभूत मानवाधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है। अप्रैल 2014 में थर्ड जेंडर के रूप में कानूनी मान्यता मिलने के बाद भी आज तक अधिकतर सरकारी तथा गैर-सरकारी आवेदन पत्रों में दो ही जेंडर का उल्लेख मिलता है। क्या इस व्यवस्था में आज भी इस तरह की भिन्नता रखने वाले लोगों के लिए कोई जगह नहीं है?

हमारे समाज में हिजड़ा समूह को लेकर सच्चाई कम और भ्रांतियाँ ज्यादा फैलाई गई हैं। शारीरिक-मानसिक संरचना से लेकर उनके सामाजिक संरचना के बारे में बहुत ही कम लोगों को पता है। यह पुस्तक लगभग उन सभी प्रश्नों का उत्तर देते हुए थर्ड जेंडर के लिए इस समाज में मानवीय गरिमा की मांग करता है। नारीवादी विमर्श ने पितृसत्ता का आधार स्त्री की प्रजनन क्षमता पर नियंत्रण को माना। यही कारण है कि समाज में विवाहित स्त्री-पुरुष (स्वजाति, स्वधर्म में) जो प्रजनन कर सकें, ऐसे जोड़े पितृसत्तात्मक व्यवस्था के केंद्र में होते हैं। जबकि इस व्यवस्था को चुनौती देने वाले लोगों को हाशिये पर ढाकेल दिया जाता है। इस दृष्टिकोण से विचार करें तो तीसरे लिंग के व्यक्ति, जेंडर आइडेंटिटी तथा सेक्सुयलिटी दोनों ही स्तर पर पितृसत्ता के सामने चुनौती पेश करती हैं। यह पुस्तक एक खास तरह के नजरिए के साथ पढ़े जाने की मांग करती है. कि अगर थर्ड जेंडर के लोगों को पारिवारिक तथा सामाजिक सहयोग प्राप्त हो तो वे लोग भी स्त्री-पुरुष के साथ कंधा मिलाकर चल सकते हैं।

इस पुस्तक को पढ़ते हुए जेंडर तथा सेक्स का विभेद भी स्पष्ट होता है। जन्म के बाद जैविक सेक्स के साथ जेंडर भी निर्धारित कर दिया जाता है. लेकिन थर्ड जेंडर बच्चे समाज द्वारा निर्धारित जेंडर को स्वीकार्य नहीं करते हैं। 'उचित व्यवहार' के साँचे में ढालने के लिए समाज में गाली समझे जाने वाले शब्दों (हिजड़ा, छक्का, मामू, गांडु, नामर्द, मऊगा आदि) से चिढ़ाया जाता है, कई बार परिवार के लोगों द्वारा हिंसात्मक व्यवहार भी किया जाता है। थर्ड जेंडर होने वाले बच्चे को अधिकांशतः 13-14वर्ष की उम्र में अपने अलग होने का एहसास हो जाता है। लेकिन उनके लिए यह एक असमंजस की स्थिति होती है। "मैं अन्य लड़के/लड़कियों से अलग हूँ, इसका एहसास होने पर मन में बेचैनी होने लगती है.वह चिंतित होने लगते हैं,उन्हें खुद पर गुस्सा आने लगता है। वह लड़का इस एहसास को दबाकर पुरुषों जैसा बर्ताव करने की कोशिश करता है। लेकिन किशोरावस्था में अपने इस अंतर का एहसास उसे प्रखरता से होता है। उसे लड़कियों-जैसा जीने में खुशी मिलती है और लड़कों-जैसा व्यवहार करने में मुश्किल लगने लगता है।" इसी तरह का अनुभव कोलकाता की थर्ड जेंडर सामाजिक कार्यकर्ता राजर्षि चक्रवर्ती भी लिखती हैं- "चौदह साल की उम्र में मैं हस्तमैथुन करने लगा। मुझे लगा कि कोई बीमारी हो गई है। उसे बंद करने के ख्याल दिमाग में कौंधने लगे। मैं लिंग के ऊपर के बालों को साफ किया करता था। मैं पवित्र बनना चाहता था।" वास्तव में थर्ड जेंडरव्यक्ति बहुसंख्यक समाज (स्त्री-पुरुष की द्विलिंगी समाज) में अपने व्यवहार को घृणित तथा असामान्य मानने लगते हैं तथा इसे समाज में प्रचलित मानकों के अनुरूप ढालने का प्रयत्न भी करते हैं।

लक्ष्मी थर्ड जेंडर होने के साथ एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं. उन्होंने जीवन के वे तमाम पहलूओं कोइस पुस्तक के माध्यम से सामने रखने की कोशिश की है, जो सभ्य कहें जाने वाले समाज में सामाजिक बदनामी के डर से छिपा दिऐजाते हैं । उनकी कोशिश है कि समाज थर्ड जेंडर लोगों को जाने, उनसे बात करें, उनके साथ किसी परग्रही (एलियन) की तरह व्यवहार न किया जाए, इस तरह वह पब्लिक स्पेस में थर्ड जेंडर लोगों की उपस्थिती चाहती हैं। एक थर्ड जेंडर के सामने अपनी पहचान स्थापित करने से पहले खुद भी उस पहचान को स्वीकार करने की चुनौती होती है। इस तरह पहचान का संघर्ष पहले व्यक्तिगत फिर पारिवारिक और बाद में सामाजिक होता है। किसी भी थर्ड जेंडर के लिए अपने जेंडर की पहचान (आइडेंटिटी) निर्धारित करना सबसे बड़ी चुनौती होती है। क्योंकि आस-पास स्वयं (थर्ड जेंडर) जो महसूस कर रहा है. ऐसे लोग दिखायी नहीं देते. ऐसे में खुद को कई बार असामान्य भी मान लिया जाता है। यही कारण है कि जब लक्ष्मी अपने जैसे अन्य लोगों से मिलती है तो उसे बहुत अच्छा लगता है। लक्ष्मी के परिवार वालों ने थोड़ी-बहुत समस्याओं के बाद उसकी पहचान को स्वीकार कर लिया। लक्ष्मी के पापा कहते हैं- "अपने ही बेटे को मैं घर से बाहर क्यों निकालु? मैं बाप हूँ उसका, मुझ पर ज़िम्मेदारी है उसकी। और ऐसा किसी के भी घर में हो सकता है। ऐसे लड़कों को घर से बाहर निकालकर क्या मिलेगा? उनके सामने हम भीख मांगने के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं छोड़ते हैं।" अधिकांश थर्ड जेंडर बच्चों के सामने आजीविका का ही प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण होता है। परिवार तथा समाज में किए जा रहे भेदभावपूर्ण व्यवहार के कारण ऐसे बच्चे अपने पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते। लक्ष्मी इसे थर्ड जेंडर समूह के पिछड़ेपन का मुख्य कारण मानती हैं। वह कहती हैं कि "मुझे प्रोग्रेसिव हिजड़ा होना है...और सिर्फ मैं ही नहीं अपनी पूरी कम्यूनिटी को मुझे प्रोग्रेसिव बनाना है..."

लक्ष्मी, हिजड़ा पहचान स्वीकार करते हुए, गुरु-चेला परंपरा में रहते के बाद भी उन नियमों तो चुनौती देती है जो उसके सम्पूर्ण विकास में बाधा के रूप में सामने आती हैं। ऐसे कई वाकये हैं जब लक्ष्मी अपने समुदाय के हितों के लिए कदम उठाती है। ऐसी ही एक घटना है जब एचआईवी एड्स की स्थिति को लेकर मीटिंग में शामिल होने के लिए लक्ष्मी को बुलाया जाता है तो उनकी गुरु कहती है-"क्यों जाना चाहिए वहाँ...क्या जरूरत है इतना सामने आने की? हम भले, हमारा समाज भला और अपना काम भला। लेकिन मुझे (लक्ष्मी) ऐसा नहीं लगता था। बाकी समाज में हम जितना घुल-मिल जाएंगे, समाज हमें और भी उतना जानने लगेगा, ऐसा मुझे लगता था।" इस पुस्तक में गुरु-चेला परंपरा का विस्तृत वर्णन पढ़ने को मिलता है। वास्तव में परिवार से निकाले गए थर्ड जेंडर बालक के लिए गुरु-चेला संबंधों का जाल सुरक्षा, अपनेपन तथा आजीविका के दृष्टि से एकमात्र स्थान होता है। हिजड़ा समूह स्वीकार कर लेने के बाद परिवार वालों तथा पिछली ज़िंदगी से संबंध समाप्त करताहै। समूह के नियमानुसार बधाई मांगना या नाचना ही उनकी जीविका का साधन होता है, लेकिन लक्ष्मी अपने परिवार वालो के साथ संबंध रखते हुए सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम करती है। इस तरह उसकी लड़ाई समाज तथा अपने ही समूह के नियमों के विरुद्ध दोनों ही स्तर पर जारी रहती है। थर्ड जेंडर सामाजिक कार्यकर्ता होने के कारण लक्ष्मी की आत्मकथा से तत्कालीन हिजड़ा समाज की स्थिति, उनके प्रति तथाकथित मुख्यधारा के समाज का नजरिया तथा हिजड़ा समुदाय की स्थिति में परिवर्तन के लिए किए जा रहे कार्यों का पता चलता है। ये कार्य व्यक्तिगत तथा पारिवारिक स्तर पर काउन्सलिन्ग, संस्थानिक स्तर पर स्वास्थ्य, शिक्षा, पुलिस प्रशासन के लोगों के साथ बातचीत आदि शामिल है। नीति निर्माण के लिए भी संवैधानिक स्तर पर हस्तक्षेप किया जाना भी आवश्यक है।

बहुत सारे पहलू ऐसे होते हैं जिनसे प्रत्येक थर्ड जेंडर को गुजरना पड़ता है, लक्ष्मी उन पहलुओं को पाठक के सामने रखती है। "पहले पुरुषों के शरीर के अंदर की औरत के मन का दम घुटना... बाद में हिजड़ा होने पर परिवार का सहारा छुटना... करीबी कोई नहीं था... समाज द्वारा किया हुआ क्रूर व्यवहार, उसकी वजह से होने वाली तकलीफ... उत्पादन का साधन नहीं... कोई नौकरी नहीं देता था... पर जीने के लिए पैसा तो चाहिए था... फिर उसके लिए किया गया सेक्स वर्क... मन में हमेशा डर... तनाव... हमेशा उपस्थित होने वाला सवाल... 'मैं कौन हूँ?'... उसके जवाब तो मिलते ही नहीं थे, उल्टा आनेवाले नाना तरह के अनुभवों से मन की उलझनें बढ़ती जाती थी। उससे आने वाला नैराश्य, संभ्रम... ज़िंदगी की कोई कीमत ही नहीं... ना परिवार में, ना समाज में... और फिर खुद की ही नजरों से खुद गिर जाना... साला क्या लाइफ है?" वास्तव में ये विवरण प्रत्येक थर्ड जेंडर व्यक्ति के जीवन की कहानी है, शायद ही कोई ऐसाथर्ड जेंडर हो जो इस तरह के अनुभव से न गुजरा हो।
हिजड़ा समूह तथा उनके जीवन संघर्षों के बारे में बहुत शुरुआती लेखन होने के बाद भी लगभग सभी पक्षों को इसमें शामिल करने की कोशिश की गई है। बिना किसी औपचारिक अध्यायीकरण के यह आत्मकथा पाठकों के सामने 176 पृष्ठों में है। यह आत्मकथा मराठी में लिखी गई आत्मकथा का हिन्दी अनुवाद है इसलिए वाक्य संरचना के स्तर पर मराठी वाक्य संरचना का प्रभाव दिखायी देता है। आत्मकथा की शुरुआत लक्ष्मी के बचपन से होती है और उम्र के अलग-अलग पड़ाओं को रेखांकित करते हुए आगे बढ़ती है। इसके बावजूद घटनाओं में क्रमबद्धता नहीं है, घटनाओं को सुविधानुसार लिया गया है। इससे पहले भी हिन्दी में कुछ उपन्यास हिजड़ा समुदाय तथा उनकी ज़िंदगी के बारे में लिखेगएहैं लेकिन यह आत्मकथा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि स्वयं उस समूह के व्यक्ति के द्वारा लिखा गया है। जो इस दंभ को झेल रहा है. हिन्दी के पाठकों के लिए बहुत सारी ऐसी बातें हैं जो नयी होंगी, लेकिन वह इस बात को समझने की कोशिश करेंगे कि हिजड़ा व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक संरचना किस तरह की होती है।

लक्ष्मीनारायण  त्रिपाठी की आत्मकथा हिन्दी में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है .

लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के समाजकार्य विभाग में शोधार्थी हैं . संपर्क : dksahu171@gmail.com  

Sunday, March 8, 2015

महिला सशक्तिकरण और गांधीजी

भारत में भी महिला सशक्तिकरण के लिए विशेष प्रयास किए जा रहे है। लेकिन इस सब के बावजूद महिलाएँ सबसे अधिक उपेक्षा की शिकार हैं और भय के साये में है। दक्षिण अफ्रीका में अपने आंदोलन से ही बापू ने महिला सशक्तिकरण पर जोर दिया था लेकिन लड़के और लड़कियों में आज भी फर्क किया जा रहा है। गांधीजी के अनुसार “हमारे समाज में कोई सबसे अधिक हताश हुआ है तो वे स्त्री ही हैं और इस वजह से हमारा अध: पतन भी हुआ है। स्त्री-पुरुष के बीच जो फर्क प्रकृति के पहले है और जिसे खुली आँखों से देखा जा सकता है, उसके आलावा मै किसी किस्म के फर्क को नहीं मानता।”[1] गांधी जी ने स्त्रियों को देश की लड़ाई के साथ जोड़कर साथ ही आश्रम में उनको समान हक व स्वतंत्रता प्रदान कर समाज में स्त्रियों का दर्जा कैसा होना चाहिए, इसकी अच्छी मिसाल हमें उनके जीवन से मिलती है। दरअसल हमें समाज में ऐसा वातावरण निर्माण करना चाहिए कि जिस प्रकार स्त्री घर के कामकाज को पूर्ण आत्म-विश्वास तथा उत्साहपूर्वक करती है उसी तरह समाज के कामकाज में भी साझेदारी करने लगे और स्त्री-पुरुष दोनों स्वाभाविक सह-जीवन का आनंद उठा सकें। मनुष्य के रूप में यदि स्त्री का मूल्य प्रतिष्ठित नहीं होता तो स्त्री की प्रकृति संभव नहीं होती। स्त्री के मूल्य को लेकर समाज बहुत ही अज्ञानी है यह केवल पुरुष वर्ग में ही नहीं स्त्रियों में भी पाया जाता है। स्त्रियों के क्या-क्या कर्त्तव्य हैं, उनका क्या योगदान है ? समानताएं और विभिन्नताएँ क्या हैं इन सबका हिसाब लगाया जाना चाहिए ? देश में भिन्न-भिन्न जातियाँ वर्ग और धर्म हैं। उनके विभिन्न रीति-रिवाज हैं परंतु किसी भी समाज में स्त्री का जीवन कष्टदायक एवं दबा हुआ ही दिखाई देती है।
महिला सशक्तिकरण का प्रश्न विश्व के बुद्धिजीवियों, समाज सुधारकों एवं नेताओं के लिए चिंता का विषय रहा है लेकिन सशक्तिकरण का क्या अर्थ है? और किस प्रकार विकास के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है? यह शब्दावली विवादित है फिर भी इसे (सशक्तिकरण) आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की सहभागिता के रूप में नहीं लेना चाहिए क्योंकि आर्थिक गतिविधियाँ हमेशा महिलाओं की स्थिति सुधारने वाली नहीं होती और प्राय: महिलाओं पर अधिक कार्य अथवा भार लाद देती हैं। सशक्तिकरण शब्द में ही अति विवादित शक्ति का सिद्धांत अंतर्निहित है जिसका अलग-अलग होना अलग-अलग अर्थ लेता हैं। ‘सशक्तिकरण क्या है’ विषय पर जो रालैंड ने अपने एक लेख में ‘के ऊपर शक्ति’ तथा ‘को शक्ति’ के बीच अंतर स्पष्ट किया है जिसके अनुसार पहले (के ऊपर शक्ति) का अभिप्राय है कि कुछ लोगों के पास दूसरों को नियंत्रित करने की शक्ति का होना अर्थात् प्रभुत्व का एक साधन और दुसरे (को शक्ति) का अभिप्राय है शक्ति का उपार्जन, विचार करने की शक्ति, हितों में संघर्ष के बिना नेतृत्व करने की शक्ति, ऐसी शक्ति जो ‘के ऊपर शक्ति’ वालों की दमनकारी लक्ष्यों और इच्छाओं को चुनौती दे सके तथा विरोध भी कर सके। सामान्यतः महिला सशक्तिकरण को निर्णय लेने की प्रक्रिया से बाहर महिलाओं को इस प्रक्रिया में शामिल करने के रूप में परिभाषित किया जाता है और महिलाओं को निर्णय लेने की प्रक्रिया में इस प्रकार शामिल करना कि उनकी राजनितिक ढाँचों तथा निर्णय लेने की प्रक्रिया, बाजार, आय और अधिक सामान्य ढंग से कहें तो राज्य तक पहुँच हो जहाँ वे परिवार, समुदाय अथवा राज्य के बंधनों के बिना अपने लिए अवसरों को अधिकतम बढ़ा सकें।
महिला सशक्तिकरण के संबंध में महिलावादियों की परिभाषा विस्तृत है क्योंकि ये सशक्तिकरण से अभिप्राय लेते हैं कि व्यक्ति अपने हितों के प्रति जागरूक हो तथा वे किस प्रकार अपने हितों को दूसरों के हितों के साथ जोड़ते हैं ताकि निर्णय लेने की प्रक्रिया अपने तथा दूसरों के ज्ञान पर आधारित हो तथा इसका अभिप्राय प्रभाव डालने की क्षमता का आंकलन भी है। महिलावादी विचार के अनुसार सशक्तिकरण का अर्थ है ‘के ऊपर शक्ति’ तथा ‘को शक्ति’ जिसके आधार पर विरोध, वार्ता अथवा सौदेबाजी तथा परिवर्तन किये जा सकें। सक्रिय होने तथा प्रभाव डालने की योग्यता के लिए सशक्तिकरण की आवश्यकता है जिससे दमन और दमनकारी नीतियों के संचालन को इस ढंग से समझा जा सके कि शक्ति न तो दी और न ही ली जाती है अपितु यह तो भीतर से ही पैदा होती है। इस प्रकार सशक्तिकरण एक प्रक्रिया है और इसे विकास का पर्याय नहीं समझना चाहिए। विकास लिंग-निरपेक्ष नहीं है। जब विकास की प्रक्रिया में समानता तथा सभी मानवों की, स्त्री और पुरुष की सहभागिता के बारे में बहस की जाती है, तो यह और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि हम जीव विज्ञान के सामाजिक आश्यों के प्रति उदासीन न हो जाएँ और न ही इसके द्वारा महिलाओं के प्रति। महिला विकास का एक महत्वपूर्ण घटक है। किसी भी देश के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक एवं नैतिक विकास में महिलाओं की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। गाँधी जी इस सत्य से पूरी तरह अवगत थे और इसीलिए गांधी जी का मानना था कि विकास की धारा से यदि स्त्रियों को जोड़ा नही गया तो विकास की परिकल्पना कभी साकार नहीं ही सकेगी। यंग इडिया में स्त्रियों के अधिकारों पर बल देते हुए लिखा था कि “स्त्रियों के अधिकारों पर के सवाल पर मैं किसी तरह का समझौता नहीं कर सकता। मेरी राय में उन पर ऐसा कोई क़ानूनी प्रतिबन्ध नहीं लगाना चाहिए जो पुरुषों पर न लगाया गया हो। पुत्रों और कन्याओं में किसी तरह का भेद नहीं होना चाहिए। उनके साथ पूरी समानता होनी चाहिए।”[2] इस विचारों को गांधी जी ने सैद्धांतिक रूप में रखा नहीं बल्कि अपने व्यवहार में भी इस का कार्यान्वयन किया है इसके उदाहरण अभी भी आश्रम के रूप में जीवित हैं।
गांधाजी १९१८ में भंगनी महिला समाज को शक्ति के साथ पुरुष की सही अर्थो में सहयोगी कहा है। मनुष्य के किसी भी कार्यक्षेत्र में भाग लेने का वह अधिकार रखती है। इसीलिए उसे आजादी के अधिकार समान रूप से मिलने चाहिए। राष्ट्रिय एवं अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में बहुत कम महिलाएँ राजनीति में अपनी पहचान बना पायी हैं, गांधी के कथनानुसार, “स्त्रियों को मताधिकार तो होना ही चाहिए। उन्हें कानून के तहत समान दर्जा भी मिलना चाहिए।” संविधान की कलम १५ के तहत “स्त्री-पुरुष के बीच किसी भी मामले में भेदभाव नहीं बरता जा सकेगा। जो कुछ राजनीतिक क्षेत्र में उपलब्धि हो पायी है उसका अधिक श्रेय गांधी जी को जाता है।  गांधी जी के मानस-पटल में यह बात स्पष्ट थी कि “महिला सशक्तिकरण केवल नैतिक अनिवार्यता नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक परम्पराओं को सुदृढ़ करने तथा अन्याय व उत्पीडन के खिलाफ संघर्ष करने की पूर्व शर्त भी है। गांधीजी ने जिस बात का स्वप्न देखा था, वह अधिकारों, समान अवसर और समान भागीदारी वाली अधिक न्यायोचित और मानवीय दुनिया की दिशा में की जा रही है यात्रा का एक कदम भर है।”[3] क्योंकि जब किसी महिला का विकास होता है तो उसके परिवार-समाज का भी विकास होता है क्योंकि परिवार-समाज के विकास की दिशा पर ही प्रदेश, देश एवं विदेशों को लाभ मिलना संभव है। इसीलिए जब तक महिलाएँ एकजुट नहीं होंगी तब तक मानवता के इस बड़े हिस्से के पक्ष में महात्मा गाँधी के संघर्ष को अंजाम तक नहीं पहुँचाया जा सकता है। शिक्षा एक ऐसा क्षेत्र है जिसके लिए पूरी दुनिया में जोरदार अभियान चलाने की जरूरत है क्योंकि विश्व का एक बड़ा हिस्सा आज भी शिक्षा के अधिकार से वंचित है। शिक्षा के विषय पर गांधी के विचार पूर्णतः स्पष्ट थे। गांधी कहते हैं कि “स्त्रियों की विशेष शिक्षा का रूप क्या हो और वह कब से आरम्भ होनी चाहिए, इस विषय में यद्यपि मैंने सोचा और लिखा है, पर अपने विचारों को निश्चयात्मक नहीं बना सका। इतनी तो पक्की राय है कि जितनी सुविधा पुरुष को है, उतनी ही स्त्री को भी मिलनी चाहिए और जहाँ विशेष सुविधा की आवश्यकता हो, वहाँ सुविधा मिलनी चाहिए।”[4]
सत्य एवं अहिंसा की नींव पर निर्मित नवीन विश्व-व्यवस्था की योजना में जितना और जैसा अधिकार पुरुष को अपने भविष्य की रचना का है। उतना और वैसा ही अधिकार स्त्री को भी अपना भविष्य तय करने का है।”[5] गांधी का मानना था कि अहिंसक समाज स्त्री एवं पुरुष दोनों के कर्तव्यों का ही शुभ परिमाण है। अर्थात् गांधी के अनुसार आदर्श विश्व-व्यवस्था में सामाजिक आचार- व्यवहार के नियम स्त्री और पुरुष दोनों आपस में मिलकर और राजी- ख़ुशी से तय करेंगे। अहिंसक समाज ऐसी मान्यता पर आधारित होगा कि “स्त्री पुरुष की साथिन है जिसकी बौद्धिक क्षमताएं परूषों के जैसी ही क्षमताओं से किसी तरह कम नहीं है। पुरुष की प्रवृत्तियों, उन प्रवृत्तियों के प्रत्येक अंग और उपांग में भाग लेने का उसे अधिकार है और आजादी तथा स्वाधीनता का उसे उतना ही अधिकार है, जितना एक पुरुष को। जिस तरह पुरुष अपनी प्रवृत्ति के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान का अधिकारी माना गया है, उसी तरह स्त्री भी अपनी प्रवृति के क्षेत्र में मानी जानी चाहिए।”[6]



[1] गांधी,हरिजन सेवक, २१.१.१९४७.
[2] यंग इंडिया, १७.१०.१९२९.
[3] सिंह, सविता (२००२) गांधी और महिला सशक्तिकरण, अंक २७,२८ सितम्बर रोजगार समाचार, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली.
[4] किशोरी लाल मशरूवाला, गांधी दोहन, पृ.१६९.
[5] रचनात्मक कार्यक्रम, नवजीवन प्रकाशन. पृ. ३२-३४.
[6] सच्ची शिक्षा, नवजीवन प्रकाशन,१९५९ पृ.१५-६१.

संदर्भ ग्रंथ-सूची
गांधीजी, (१९६०) मेरे सपनों का भारत, नवजीवन मुद्रणालय, अहमदाबाद। 
शर्मा,रमा.एवं मिश्रा, एम.के. (२०१०) महिला विकास, अर्जुन पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली।
पाण्डेय, उपासना. (२००७) उत्तर-आधुनिकतावाद और गांधी, राउत पब्लिकेशन, जयपुर।
मोदी, नृपेन्द्र पी. (२००७)  गांधी-दृष्टि, मानक पब्लिकेशन्स, दिल्ली।
सिंह, सविता. (२००२) गांधी और महिला सशक्तिकरण, अंक २७,२८ सितम्बर रोजगार समाचार, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली.
जोगदंड शिवाजी रघुनाथराव
पी.एच-डी.अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग

म. गां. अं. हिं. विश्वविद्यालय वर्धा (महा.)
shivajir.jogdand111@gmail.com 
 मो.९६५७५१८२०२

Friday, February 20, 2015

वर्धा का प्राकृतिक सौन्दर्य

Photo By Naresh Gautam

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नरेश गौतम
76, गोरख पाण्डेय हॉस्टल
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
nareshgautam0071@gmail.com
8007840158

Friday, February 13, 2015

थर्ड जेंडर 'कल और आज'

“हम ऐसा काम क्यों करें, जिसे समाज घृणा की दृष्टि से देखता है। मुझ जैसी सभी थर्ड जेंडर चाहती हैं कि वो गुरु-शिष्य परम्परा में बंधकर न रहे, वह भी पढ़ना चाहती हैं, काम करना चाहती हैं, आगे बढ़ना चाहती है, समाज में अपनी पहचान बनाना चाहती हैं।”
साभार मितवा संकल्प समिति
ये कहना वाक्य एक थर्ड जेंडर का है। यह वाक्य थर्ड जेंडर व्यक्तियों की आशा और इच्छाओं को व्यक्त करता है। जिसे समाज ने हमेशा से ही अनदेखा किया है। उनकी समस्याओं को समझने के बजाए, समाज ने उनको ही समस्या समझा और लगातार बहिष्कृत किया। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में समाज के हाशिए पर जीवन जी रहे थर्ड जेंडर मुख्यधारा के समाज में बहिष्कृत, व्यंग्य, घृणा, तिरस्कार आदि सहने को अभिशप्त रहे हैं। अगर ऐतिहासिक रूप से भी देखा जाए तो इनकी सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक स्थिति या उपयोगिता अय्याश राजा-महाराजाओं व नवाबों के हरमों तक ही सीमित थी।  
इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि देश में भिन्न यौन स्थिति के कारण सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से दीन-हीन थर्ड जेंडर के पुनर्वास, उनके जीवन स्तर में सुधार, सामाजिक संरक्षण आदि के लिए सरकारी स्तर पर कोई प्रयास नहीं किया गया। भारतीय नागरिक होने के बावजूद थर्ड जेंडर संविधान प्रदत्त अधिकारों से वंचित रहे हैं।
भारतीय समाज में जिस तरह के परम्परागत ढांचे का विकास थर्ड जेंडर को लेकर हुआ है, अब उसमें बदलाव आ रहे हैं। इसका कारण वैश्विक स्तर पर ऐसी विभिन्नता रखने वाले लोगों का संगठित होना तथा पिछले कुछ समय से इनके मानव अधिकार संबंधी संघर्ष को माना जा सकता है। थर्ड जेंडर अब अपनी पारम्परिक पहचान को नकारते हुए अपनी अलग पहचान निर्माण के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वह अब नहीं चाहते कि वे गुरु-शिष्य परम्परा में बंधकर जीवन व्यतीत करें या हिजड़ा पहचान अपनाये। वे चाहते हैं कि समाज उन्हें घृणा की दृष्टि से न देखे बल्कि एक मनुष्य होने के नाते उन्हें भी वे सभी अधिकार प्राप्त हो जिससे स्वतंत्र, गरिमापूर्ण जीवन व्यतीत किया जा सके। थर्ड जेंडर की स्थिति में आ रहे परिवर्तन को इसलिए भी महत्वपूर्ण माना जा सकता है क्योंकि परिवार तथा समाज अभी भी ऐसे लोगों को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में जो परिवर्तन हुए भी हैं। वह सूक्ष्म स्तर पर ही माने जा सकते हैं, फिर भी यह भारतीय समाज में बने हिजड़ा पहचान को टक्कर दे रही हैं। इसी परिवर्तन की कहानी है चाँदनी की जिसे अन्य थर्ड जेंडर के भांति भेद-भाव, छीटा-कसी व कई तरह के प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा। इसके बावजूद चाँदनी अपनी अस्मिता और अधिकारों के लिए लड़ती रही। साथ ही पारम्परिक रूप से जो सांस्कृतिक घेरा बनाया गया है उनके काम को लेकर, जीविकोपार्जन के साधन को लेकर, इन सब को चाँदनी ने तोड़ती हुई शिक्षा, स्वरोजगार के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दी है। चाँदनी की कहानी उसी की जुबानी....
क्षेत्र अध्ययन के दौरान चाँदनी से मिलने का मौका मिला। चाँदनी 24 साल की हैं और एक गैर-सरकारी संगठन में काम करती हैं। वह मूलतः रहने वाली कोरबा की हैं लेकिन पिछले 4-5 साल से रायपुर में ही रहती हैं। अपने अलग होने का एहसास 12-13 साल की उम्र में हो जाने पर उनकी कोशिश रही है कि वह 12वीं के बाद कोई व्यवसायिक शिक्षा प्राप्त करके अपने पैरों पर खड़ी हो जाएं। यही कारण रहा कि उन्होंने 12वीं के बाद प्रोफेशनल इन मल्टी मीडिया तथा फैशन डिजाइनिंग विद इंटीरियर डिजाइनिंग की पढ़ाई पूरी की।
चाँदनी अपने बारे में बताती हैं कि -जब मैं 11-12 साल की थी, तो मेरे हाव-भाव को देखकर मेरे दोस्त, भाई तथा अन्य साथी मुझे छक्का, हिजड़ा कहते थे। तब मुझे ये पता नहीं था कि ये क्या होते हैं और किसे कहते हैं। जब मैं लड़को की तरफ आकर्षित होने लगी और मुझे लगने लगा की वो मुझे प्यार करें। तब मैं सोचती थी कि मैं एक लड़का हूँ, लेकिन Filling लड़कियों जैसी क्यों?
उम्र बढ़ने के साथ जब मेरे व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया तो परिवार वाले कहने लगे कि तुम एक लड़के हो तो लड़के जैसा ही रहो, तुम्हें लड़की जैसा व्यवहार करने की जरूरत नहीं, समाज स्वीकार नहीं करेगा, आगे जाकर तुम्हारा कोई भविष्य नहीं होगा, तुम क्या करोगे, कहाँ रहोगे, ये सब बोलकर घर वाले दबाव बनाते थे। आगे चाँदनी कहती हैं, उनका ये कहना जायज ही था क्योंकि उन्होंने तो पैदा लड़का ही किया था। उन्हें तो मेरे बारे में पता भी नहीं है कि मैं क्या महसूस करती हूँ। बाद में जैसे ही उनको मेरे बारे में थोड़ा बहुत पता चला तो मेरी बहन, भाई, मम्मी, पापा सभी लोग मुझे छक्का, हिजड़ा, गांडु, मामू ये सब बोलना चालू कर दिया था। मेरे पापा तो मुझे गंदी-गंदी गालियां भी दिया करते थे। थर्ड जेण्डर की आधी ज़िंदगी तो यही समझने में निकल जाती है कि हम औरत हैं या मर्द और फिर इस सवाल में उलझ जाती है कि हम इन दोनों में से कुछ क्यों नहीं है? जब दस-बीस सालों की जद्दोजहद के बाद हम खुद को स्वीकार करते हैं, तो समाज हमें स्वीकार नहीं करता।
मैं कई बार घंटो रोती हुई सोचती रहती, मैं ऐसी क्यों हूँ? और मैं अकेली ही ऐसी हूँ क्या? उस समय मैं अपने जैसे लोगों के बारे में जानती भी नहीं थी। कोई 12-13 साल का बच्चा जानेगा भी कैसे? मैंने बहुत कोशिश की अपने को बदलने की, सेविंग करती थी ताकि बाल आ जाए, लड़कों के साथ घूमती थी, बड़े भाई को मैं जिद करती थी उनके साथ जाने के लिए, गाली देना सीखती थी, वो सब करती थी जो लड़के किया करते हैं। मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि वो सब मेरे लायक था। फिर मैंने निश्चय किया कि जो मैं महसूस करती हूँ वैसे ही रहूँगी। आज से 2 साल पहले मैं टी. आई. में काम करती थी, अच्छी-ख़ासी नौकरी थी, सब कुछ अच्छा चल रहा था। अचानक पापा को लगा कि मेरी क्रिया-कलाप कुछ ज्यादा ही बढ़ गये हैं तो उन्होंने मुझे घर से रात के 1 बजे निकाल दिया। ऐसे में मेरे पास कोई विकल्प नहीं था कि मैं कहाँ जाऊ और कहाँ रात बिताऊँ? ऐसे में मैंने सरकारी अस्पताल में लाश रखने वाले कमरे के बगल में एक महीना बिताया, ये सोचकर की कभी तो घर वाले मुझे ले जाएंगे। इस बीच न परिवार वाले, न रिस्तेदार और न ही किसी मित्र ने मुझसे संपर्क करने की कोशिश की। अस्पताल के गार्ड को मेरे हाव-भाव से मेरे थर्ड जेंडर होने का एहसास हो गया था, तो मुझे वह परेशान करने लगा और फाइनली मुझे हास्पिटल भी छोड़ना पड़ा।

मैंने हिजड़ों से संपर्क किया, उन्होंने मुझे बुलाया। वहाँ जाने के बाद उन्होंने मुझे बताया कि जो हमारे पास जो आय का साधन है तुम भी चाहों तो वैसा कर सकती हो। हिजड़ों के साथ रही, गुरु बनाई, ट्रेन में लगभग डेढ़ साल तक पैसे मांगकर अपनी ज़िंदगी चलाई। इस बीच लगातार लोगों की उपेक्षाओं, गाली-गलौच, अभद्र व्यवहार, छीटा-कसी का शिकार होती रही। फिर मुझे लगा की मैं अपनी अलग ज़िंदगी बनाऊ क्योंकि लोग सिर्फ हमसे घृणा करते हैं, हमारे साथ दुर्व्यवहार करते हैं। इस संबंध में जब मैंने अपने गुरु से बात की तो पहले थोड़ा गुस्सा हुई, बाद में मान गई और आज मैं यहाँ हूँ। अपने जैसे लोगों की मदद कर रही हूँ।
साभार मितवा संकल्प समिति 
चाँदनी अपने काम को लेकर खुश हैं, और हो भी क्यों न। वह आत्मनिर्भर  हो गई हैं, आज उनका खुद का घर है, आस-पास के लोगों के साथ उठना-बैठना होता है। चाँदनी बताती हैं कि कभी भी आस-पास के लोगों के द्वारा यह महसूस नहीं हुआ कि मैं थर्ड जेंडर हूँ, या वो लोग मुझे नापसंद करते हो। घर के बारे में पूछने पर कहती हैं कि माँ और भाभी से चोरी-छुपे बात होती है, पापा गंभीर रूप से बीमार हैं, तब भी वो कहते हैं कि उनका सिर्फ एक ही बेटा है। मैं तो इसी में खुश हूँ कि मेरी माँ मुझे स्वीकार कर चुकी है। भले ही चाँदनी खुश हो लेकिन अपनो की कमी उसे आज भी है। इस कमी का एहसास करती हुई वह चुप हो जाती हैं फिर वह भावुक होकर कहती हैं- आज मेरे पास सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है। आत्मनिर्भर होने से कुछ नहीं होता इंसान को भावनात्मक लगाव की आवश्यकता होती है, लगता है कि अपना कोई साथ हो। कल के दिन अगर मेरा पैर थोड़ा भी लड़खड़ाए तो वो संभाल सके। आज तो खड़ी हो गई हूँ लेकिन कल कोई संभालने वाला नहीं है। आज का तो ठीक है पर कल का पता नहीं, ऐसे में कहीं न कहीं दिल में डर भी है, एक खालीपन भी है। मुझे भी अपने परिवार की कमी खलती है। लोग कहते हैं कि किस्मत से ज्यादा और वक्त से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता तो मैं उसी वक्त का इंतजार कर रही हूँ। 

  डिसेन्ट कुमार साहू
   जूनियर रिसर्च फ़ेलोयूजीसीसमाज-कार्य

   महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालयवर्धा - 442005, महाराष्ट्र.
   ई-मेल: dksahu171@gmail.com