स्वतन्त्रता
आंदोलन के दौरान रवीन्द्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन विश्वविद्यालय बनाया था। वहाँ
श्रीनिकेतन था, जो ग्रामीण समुदाय से जुड़ा हुआ था। जिसे
उनके शिष्य जी. रामचंद्रन ने 'गांधीग्राम रुरल विश्वविद्यालय' के रूप में आगे विकसित किया था। उन्होंने कहा कि देश के मौजूदा विश्वविद्यालय
अत्यंत ही बदहाली के दौर से गुजर रहे हैं। विश्वविद्यालय ज्ञान का केंद्र है। इस
ज्ञान का समाज के बदलाव-विकास में भूमिका होनी चाहिए। टैगोर और गांधी ने शिक्षा और
समाज के बीच तालमेल स्थापित करने का प्रयास किया था। गांधी की बुनियादी शिक्षा
पद्धति शिक्षा का बेहतरीन मॉडल है। शिक्षा को व्यवहारिक और प्रायोगिक दोनों होना
चाहिए। सिद्धान्त और व्यवहार के बीच समुचित तालमेल आवश्यक है।
उन्होंने
टैगोर, गांधी के साथ-साथ उत्तरप्रदेश के चित्रकूट
विश्वविद्यालय के शिक्षा मॉडल की चर्चा की। आदर्शवाद और व्यवहारिकता के बीच तालमेल
की जरूरत को भी उन्होंने रेखांकित किया। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि वर्तमान
हालात को बदलने में शिक्षण शालाओं की भूमिका होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि भारत में
लाखों ग्राम पंचायत हैं। किन्तु ग्राम पंचायतों के अधिकार और कर्त्तव्य की लोगों
को कोई समुचित जानकारी तक नहीं है। पंचायत प्रतिनिधियों को प्रशिक्षित किए जाने की
भी कोई व्यवस्था नहीं है। विश्वविद्यालयों की इस कार्य में भूमिका हो सकती है। विश्वविद्यालयों
का समाज को अपराधीकरण से मुक्त करने में तथा सामाजिक चुनौतियों के सार्थक समाधान
में अहम योगदान हो सकता है। उन्होंने कहा कि शिक्षकों को सृजनात्मक कार्य की तरफ
बढ़ना होगा।
सत्र
के अंत में प्रतिभागियों ने भी अपनी जिज्ञासा रखी जिसका समाधान विषय विशेषज्ञ ने
किया। सत्र का संचालन डॉ. मिथिलेश कुमार ने किया और धन्यवाद एनसीआरआई के डी.
एन. दास ने किया।
महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट
ऑफ मेडिकल साइंस के डिपार्टमेन्ट ऑफ मेडिसिन के प्रो. प्रदीप देशमुख ने 'सामुदायिक सशक्तिकरण : पद्धति
और तकनीक' विषयक चर्चा सत्र को संबोधित करते हुए कहा कि सामुदायिक सशक्तिकरण अत्यंत ही
प्रचलित शब्द है। समुदाय के साथ अंतरसंबंध स्थापित करते हुए ही सामुदायिक सशक्तिकरण
किया जा सकता है। समुदाय की जरूरतों की शिनाख़्त करते हुए उसे प्राथमिकता के आधार
पर हल किया जाना आवश्यक है। समुदाय के साथ अर्थपूर्ण ढंग से जुड़ाव के जरिए
सामुदायिक सशक्तिकरण के लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है। सामुदायिक सशक्तिकरण की
प्रक्रिया में यह ध्यान रखा जाना आवश्यक है कि सभी किस्म की शक्तियाँ समुदाय को अनिवार्य
तौर पर हस्तांतरित हों। पीआरए प्रक्रिया की भी उन्होंने विस्तृत चर्चा की। सत्र का
संचालन डॉ. मिथिलेश कुमार ने किया।
तीसरे दिन भोजनावकाश
के उपरांत चर्चा सत्र में राष्ट्रीय संत तुकड़ोजी महाराज विश्वविद्यालय, नागपुर के राजनीति विज्ञान विभाग के
असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. विकास जांभुलकर ने 'पॉलिसी प्लानिंग इन इंडिया' विषय पर अपनी बात रखते हुए कहा कि भारत
में शहरी और ग्रामीण प्लानिंग अलग-अलग है। इसी कारण 'इंडिया' और 'भारत' की भी संकल्पनाएँ चर्चा में आती रहती हैं। प्लानिंग की
पूरी प्रक्रिया में नौकरशाही की प्रधान भूमिका होती है और नौकरशाही के सोचने का
अपना अलग ढर्रा होता है। प्लानिंग में विश्वविद्यालय महज बाजार की जरूरतों के
अनुरूप वर्कर तैयार करने का केंद्र मात्र बनकर रह गया है।
उन्होंने कहा कि
प्रधानमंत्री आवास योजना 2016 से चल रही है। इससे पूर्व इंदिरा आवास योजना चलाई जा
रही थी। अभी ग्रामीण क्षेत्र के लिए 1, 20,000 रुपए की राशि आवास के लिए दी जा
रही है। दुर्गम क्षेत्र के लिए एक लाख तीस हजार रुपए दिए जाते हैं। इस योजना में
20 हजार घर बनाने वाले कारीगरों को वर्ष 2022 तक ट्रेनिंग दिए जाने की भी योजना
है। उसी प्रकार मनरेगा योजना में वर्ष 2017-18 के लिए 48 हजार करोड़ का प्रावधान
किया गया है। इस योजना के तहत कंक्रीट की सड़कें बनी है, गाँव को नजदीकी मुख्य सड़क से जोड़ा गया है। सरकार ने 'मेरी सड़क' नाम से एप भी शुरू किया है, जिसपर शिकायत दर्ज किया जा सकता है। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर
पर चलाई जाने वाली कई महत्वपूर्ण योजना, उसके निर्धारित लक्ष्य, योजना हेतु आवंटित की जाने वाली राशि आदि की विस्तृत चर्चा की। उन्होंने
बताया कि दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल विकास योजना के 2 लाख लक्ष्य के विरुद्ध अब
तक मात्र 83 हजार लोग ही प्रशक्षित किए जा सके हैं। और इसमें से मात्र 40 हजार लोगों
को ही जॉब दिया जा सका है। उन्होंने योजनाओं के निर्माण के पीछे की राजनीति की भी
चर्चा करते हुए कहा कि योजनाओं के निर्माण में लक्षित समूह का प्रतिनिधत्व ही नहीं
होता, यह भारी कमी है।
तीसरे दिन के अंतिम
चर्चा सत्र में विदर्भ के किसान आंदोलन एवं सर्व सेवा संघ से जुड़े चर्चित किसान नेता
अविनाश काकड़े द्वारा भारत में कृषि परिवर्तन पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि
कृषि परिवर्तन को उच्च स्तर पर जाकर देखना होगा। समाज द्वारा कृषि को देखने के
नजरिए को हमें समझना होगा। भारतीय कृषि पर यहाँ की जाति, वर्ग से लेकर आज के ग्लोबलाइजेशन आदि प्रक्रियाओं का असर
पड़ा है। भारतीय कृषि व्यवस्था की समस्याओं को सरकार के सामने लाने का कार्य पहली
बार ज्योतिबा फुले द्वारा 18वीं सदी में हुआ। उन्होंने 'किसान का कोड़ा' नामक अपनी पुस्तिका में जो समस्याएं बतायी थी वह आज भी अनुत्तरित है।
1930 के बाद की
कृषि में कुछ खास परिवर्तन नहीं हुआ है। उस समय कृषि उत्पादन का मूल्यांकन उसी
वर्ष के आधार पर होता था, जिस वर्ष फसल अच्छी होती थी। आंदोलनों से कृषि मुद्दे जुड़े थे, जैसे कि नील खेती का आंदोलन। ऐसे कई
सारे मुद्दों की ख़ासी भूमिका आज़ादी आंदोलन में रही है। उन्होंने आगे कहा कि
अंग्रेजों के समय में अंग्रेजों ने अपनी व्यवस्था के लिए यहाँ पाटिल, कुलकर्णी तथा देशपांडे जैसे वर्ग का
निर्माण किया था किन्तु आज़ादी के बाद 'लगान' पद्धति को बंद कराया गया था, जिसके चलते कृषकों को
50% तक हिस्सा सरकार को देना पड़ता था।
उन्होंने आगे कहा
कि सौ में से 99 फीसदी कृषकों में अपने व्यवसाय के प्रति अज्ञानता है। इसके कारण
उनका बड़े पैमाने पर शोषण हुआ है। आज़ादी के बाद की सरकारों ने कृषि सुधार हेतु
निम्न कार्य किए- जमींदारी उन्मूलन कानून, सीलिंग कानून, देश में कृषि उत्पादन की बढ़ोत्तरी हेतु प्रयास करना आदि कई महत्वपूर्ण कार्य किए
गए थे। इन सभी मामलों को लेकर केंद्र व राज्य की सरकारों ने कई कार्य किया किन्तु
जनसंख्या नियंत्रण जैसे चीज छुट गई। आज हम जितना उत्पादन कर रहे हैं उतने में ही काफी
हो जाता, अगर हमने शिक्षा जैसी बुनियादी
चीजों पर ध्यान दिया होता। नतीजतन इतनी बड़ी जनसंख्या का भार कृषि पर पड़ने लगा और
जमीन का छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटवारा होने लगा। 80 फीसदी कृषक अन्य भू-धारक के
रूप में तब्दील हो गए। 2011 का एक सर्वे बताता है कि गांवों के 39 फीसदी लोगों के
पास अब जमीन ही नहीं बची है। स्वतन्त्रता के बाद 4 फीसदी एरिगेशन को हम 40 फीसदी
पर ले गए। 8 करोड़ हेक्टेयर एरिगेशन तथा बड़े बांधों से तथा 12 करोड़ हेक्टेयर जमीन
पर खेती की जा सकती है। लेकिन सुरक्षित खेती के लिए कम से कम 50 से 60 फीसदी
एरिगेशन होना चाहिए। ऐसे में हमारा यह लक्ष्य एरिगेशन क्षेत्र का विस्तार करना होना
चाहिए। केंद्र सरकार द्वारा 75 लाख हेक्टेयर जमीन के एरिगेशन का लक्ष्य रखा गया और
10-12 लाख हेक्टेयर ही अब तक पहुँच पाया है।
अंत में उन्होंने
यह कहा कि जब हम सोचते हैं कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है तब हमें अपनी ओर देखना
होगा। बिना शिक्षा के किसानों की समझ में नहीं आएगा कि हमें करना क्या है। हमारे
साथ क्या हो रहा है? उचित शिक्षा से ही उनका विवेक जागृत हो सकता है। इसके बाद ही वे अपने
अधिकारों के प्रति जागरूक हो सकेंगे। उन्होंने कहा कि भारत का विकास खेती के विकास
के बगैर मुमकिन नहीं है। भारत की शुरुआती दो पंचवर्षीय योजनाएँ कृषि से संबन्धित
रही है। 80 के दशक के पूर्व लोग नौकरी से ज्यादा खेती को प्राथमिकता देते थे।
किन्तु आज स्थिति ऐसी होती जा रही है कि लोग खेत बेचकर चपरासी की भी नौकरी करने के
लिए तैयार हैं। उन्होंने आज़ादी के पूर्व भारत में हुए किसानों के आंदोलन का जिक्र
किया। उन्होंने महात्मा फुले, महात्मा गांधी से लेकर अन्य नेताओं के योगदानों की चर्चा की। उन्होंने आज़ादी
के बाद किसानों के हित में उठाए गए कदमों की भी विस्तृत चर्चा की। आज़ादी के बाद
किसानों का लगान माफ कर दिया गया। पूर्व में अंग्रेज़ बड़े पैमाने पर किसानों से लगान वसूलते थे। उन्होंने कहा कि कृषक
आज भी अपने व्यवसाय को लेकर, बाजार को लेकर अशिक्षित हैं। किसान आज कर्ज में डूबते जा रहे हैं। पूर्व
में भी अंग्रेजी राज में किसान महाजनों के कर्ज में डूबकर अपनी जमीन गंवा बैठते
थे। आज वे आत्महत्या करने पर विवश हैं।
उन्होंने कहा कि भूमि उसी की होनी चाहिए जो कृषि का कार्य करें। विनोबा जी को
42 लाख एकड़ जमीन दान में मिली थी, किन्तु उसमें से आधी से ज्यादा खेती योग्य नहीं थी। केवल 12 लाख एकड़ जमीन
ही वितरित हो पायी है। सरकार ने सीलिंग एक्ट बनाया, सीलिंग
से फाजिल भूमि एक हद तक ही किसानों के बीच वितरित की जा सकी। भारत में कृषि के लिए
आवश्यक सिंचाई व्यवस्था का अभाव आज भी बना हुआ है। यहाँ की ज्यादातर खेती मानसून पर
निर्भर है। 1200 लाख हेक्टेयर भूमि असिंचित है जबकि सरकार का लक्ष्य मात्र 75 लाख
हेक्टेयर सिंचित करने का ही है, जो 10 फीसदी से भी कम है। इस
सत्र का संचालन डॉ. मुकेश कुमार ने किया और आभार ज्ञापन डॉ. मिथिलेश कुमार ने किया।
रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, गजानन निलामे, नरेश गौतम, डिसेन्ट कुमार साहू, सुधीर कुमार, कुमारी आशु, माधुरी श्रीवास्तव, खुशबू साहू एवं सोनम बौद्ध.
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