वर्धा, 25 मार्च 2018. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के महात्मा गांधी
फ्यूजी गुरुजी सामाजिक कार्य अध्ययन केंद्र एवं राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थान परिषद, हैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित सात दिवसीय ग्रामीण सहभागिता
में संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के अंतिम दिन प्रथम सत्र
में महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ
मेडिकल साइंस के मेडिसिन विभाग के निदेशक प्रो. उल्हास जाजू ने पिछले चार दशकों के
अपने अनुभव के आधार पर सामुदायिक स्वास्थ्य को लेकर किए गए प्रयोग पर अपनी बात
रखी। उन्होंने कहा कि हमारे काम की शुरुआत 40 साल पहले इस संदर्भ में शुरू किया था
ताकि स्वास्थ्य सुविधाएं ग्रामीण लोगों तक पहुँच सके और इसी कड़ी में ग्रामीण
स्वच्छता का मुद्दा हमारे सामने आया। इस कार्य को पूर्ण करने के लिए हमने गांधी, विनोबा तथा सुशीला नायर आदि के
विचारों को अपनाया। जिससे हमने ग्रामीण भारत के साथ जुडने की कला सीखी। इसी कड़ी
में हमने जयप्रकाश नारायण के विचारों को भी अपनाया।
उन्होंने आगे कहा कि समता, स्वतंत्रता तथा मैत्री के आधार पर ही
अपने ध्येय को प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए सत्ता का विकेन्द्रीकरण आवश्यक
शर्त बन जाती है। गांधी के अनुसार ग्रामीणों में सत्ता का विकेन्द्रीकरण ही सच्चा 'हिन्द स्वराज' लाएगा। इसी कड़ी में हमने गांधी-जीवन
के आदर्शों को अपनाते हुए श्रम आधारित समाज रचना की स्वीकार्यता को अपनाया। प्रो.
जाजू ने आगे कहा कि गांधी ने ग्राम स्वराज का सपना देखा जिसे विनोबा जी ने भूदान-ग्रामदान
के जरिये आगे बढ़ाने की कोशिश की थी। विदर्भ के गढ़चिरौली जिले में मेंढ़ा-लेखा इसी
तरह का प्रयोग है जो आज भी हमें देखने को मिलता है।
उन्होंने कहा कि गांधी अंत्योदय से
सर्वोदय अर्थात समन्वय की बात करते थे। हमने लाओत्से का निम्न मंत्र अपनाया-
लोगों की ओर जाओ
उनके साथ काम करो
उन्हें समझो
उनसे सीखें
उन्हें प्रेम करें
उनके साथ नियोजन करें
उनके साथ कार्य करें!
उन्होंने
कहा कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करते हुए हमने यह ध्यान रखा कि यह 'for the people' अर्थात जनता के लिए
हो। हमें कुछ समस्याओं के साथ भी जूझना पड़ा। यहाँ के लोगों के लिए आज सबसे महंगा
स्वास्थ्य खर्च माना जाता है। गांवों की संस्कृति, उनका जीवन
अनुभव आदि को समझे बगैर तथाकथित पढ़े-लिखे लोग केवल विकास के नाम पर आउटसाइडर के
रूप में काम करने की सोचते हैं। जिसमें उन्हें भीख से ज्यादा नहीं देते, ऐसे में हम इसे समुदाय सहभागिता कैसे कहें! यह एक गंभीर प्रश्न है। अक्सर
हम गाँव वालों पर थोंपने की ही कोशिश करते हैं। आज एक ओर विज्ञान नये-नये लक्ष्यों
की प्राप्ति की है लेकिन कहीं भी इसको अच्छे उपयोग के लिए नहीं अपनाया गया। इसे
ज़्यादातर दुरुपयोग के लिए ही उपयोग में लाया जाता है। विनोबा को उद्धृत करते हुए
उन्होंने कहा कि विज्ञान रथ के घोड़े की तरह है जिसकी लगाम अपने अच्छे लोगों के हाथ
में होने की आवश्यकता है।
उन्होंने कहा कि गांवों में हम ऐसा
क्यों समझते हैं कि ग्रामीणों को हम अक्ल सिखाने जा रहे हैं? गांवों के लोगों के विज़डम को भी हमें
समझना होगा। एक घटना का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि गाँव में वट वृक्ष की पूजा
करने वाली महिलाओं से यह पूछा गया कि आपने किसकी पूजा की तो उनका उत्तर था पति
अर्थात शिव की। मेरे प्रश्न के जवाबी उत्तर में कि क्या किसी देवी की पूजा होती है
तो उनका जवाब था 'साहब उनकी पूजा तो रोज ही होती है।' अर्थात 85% महिलाओं को आज भी पति के द्वारा पीटा जाता है, जिसे वे महिलाएं व्यंग्यपूर्वक पूजा कह रही थी।
उन्होंने आगे कहा कि आम लोगों तक वास्तविक
लाभ पहुँचाने के लिए हमें समाज की संरचना को बदलना होगा जिसके लिए राजनैतिक मंशा
की आवश्यकता ज्यादा है। अपने प्रयोग पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि हमने गांवों
में फ्री में कोई भी सेवा नहीं दी और वहाँ के लोगों की सहभागिता के आधार पर ज्वार, धान आदि को इकट्ठा कर उन्हें
स्वास्थ्य सुविधाएं दी गई। इस गतिविधि के माध्यम से ग्रामीणों में 'राइट टू डिमांड' के प्रति जागरूकता को बढ़ाने की
कोशिश की। उन्होंने ट्रस्टीशिप की भावना के विकास पर भी ज़ोर दिया। उन्होंने कहा कि
भारत में आज भी स्वास्थ्य पर कुल GDP का मात्र 1.4 फीसदी ही
खर्च किया जाता है। जबकि यूएनडीपी के मुताबिक यह 5 से लेकर 10 फीसदी तक होना
चाहिए। उन्होंने कहा कि प्रति व्यक्ति के आधार पर ग्राम सभा के जरिये संसाधनों का
बंटवारा हो और ग्रामीण लोगों के हाथों में निर्णय प्रक्रिया हो तभी गांवों का
समुचित विकास मुमकिन हो सकता है। साथ ही उन्होंने समुदाय सहभागिता के मूलतत्व
बताएं जिसमें से कुछ इस प्रकार है-
-समुदाय द्वारा स्वीकृति
-समुदाय द्वारा सहयोग
-समुदाय द्वारा पार्टनरशिप
-समुदाय द्वारा सहभागिता
उन्होंने इसका उदाहरण बताते हुए बताया
कि क्रांति सातत्यपूर्ण होती है, नित-नवीनतम होती है। मेंढ़ा-लेखा जैसे गाँव में ग्राम सभा को भूस्वामित्व
ग्रामसभा को सौंपने में 35 साल लगे। ऐसे गाँव में सही मायने में ग्रामीण सहभागिता के
उक्त सभी मूल तत्वों को देखा जा सकता है। आगे उन्होंने कहा कि हमने गांवों में
स्वच्छता के प्रति लोगों को जागरूक करने हेतु जिस तरीके को अपनाया वह यह थी- शुरुआत
में हमने घर-घर जाकर ग्राम वासियों को स्वच्छता के बारे में बताना शुरू किया। इस
कार्य में ग्रामीणों की सहभागिता के साथ-साथ कुछ संस्थाओं से मदद ली गई। खुले में
शौच जाने को खत्म करने हेतु अलग-अलग मोहल्ले में एक-एक टाइलेट बनाया गया लेकिन
इसका उपयोग देखा कि लोग लकड़ी, बकरी आदि को रखने के लिए किया
जाने लगा। जब हमने वहाँ की वृद्ध महिलाओं से बातचीत की कि ऐसा क्यों हुआ! तब
उन्होंने बताया कि 'हर परिवार की महिलाओं को ही दूर-दूर के
कुएं से पानी ढोकर लाना होता है। घर के सात लोगों के लिए नहाने, कपड़े धोने से लेकर पीने व रसोई के लिए पानी लेकर वे ही आती हैं। उसमें भी
अब आपकी टाइलेट के लिए अलग से पानी लाकर मेरी बहू को मारना है क्या? तब जवाब में मैंने खिसियाहट के साथ कहा कि फिर सुबह-सुबह सलामी देने का
शौक क्यों है? वृद्धा ने जवाब दिया कि गीली जमीन, बिजली की कमी तथा बिच्छू, साँप के डर से
महिला-पुरुष रास्ते के दोनों अलग-अलग किनारे पर टायलेट के लिए जाते हैं। इस तरह
हमने उनसे वहाँ से अक्ल प्राप्त की और विज्ञान का आधार लेते हुए उनकी आवश्यकताओं
के अनुसार कम पानी खर्च होने वाला शौचालय बनाया गया। इसे बनाने एवं उपयोग में लाने
में पाँच साल लगे। आगे इस परियोजना को गांवों में क्रियान्वित करने के लिए
ग्रामीणों के द्वारा ही किये जाने की प्रविधि को अपनाया गया जिसका अंतिम उद्देश्य 'ग्राम स्वराज' था। उन्होंने कहा कि बिना लोकशक्ति के
गाँव में कोई भी परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है। शक्ति के आधार पर, नैतिकता के आधार पर हमने वहाँ कार्य किया,
जाति-धर्म से अलग आर्थिक क्षमताओं के आधार पर सामाजिक संरचना का निर्माण करना। व्यक्ति
तथा सामाजिक योगदान को बढ़ावा दिया। श्रमदान, समर्थ की पहचान
की गयी इसी से सहभागितापूर्ण नेतृत्व का निर्माण हुआ।
उन्होंने आगे कहा कि हमने अपने
प्रयोगों में से जो पाया वह यह था कि ग्रामीण लोगों के अनुभवों के आधार पर ही उनकी
आवश्यकताओं के अनुरूप कार्य होना चाहिए। दान का स्वरूप भीख न हो बल्कि लोकशक्ति के
रूप में उसका उभार होना चाहिए। दानकर्ता को ट्रस्टी के रूप में होना चाहिए न कि
दाता के रूप में। संसाधन ग्राम सभाओं के हाथ में होने चाहिए। इस पूरे कार्य को
करने के लिए तंत्र-मंत्र के साथ-साथ व्रत लेना जरूरी है। हम सब जब व्रती के रूप
में सामाजिक जीवन का निर्वहन करेंगे तभी अच्छे समाज का निर्माण होगा। मेंढ़ा-लेखा
इस मामले में काफी आगे निकाल चुका है। हम भी समाज का मंगल चाहते हैं तो इस तरह के
प्रयोगों को आगे बढ़ाना होगा।
द्वितीय
सत्र में ग्रुप प्रस्तुति हुई। अशोक सातपूते, राहुल निकम, गजानन नीलामे, डिसेन्ट कुमार द्वारा लेखा-मेंढ़ा के सामाजिक,
आर्थिक तथा शैक्षिक स्थिति के अध्ययन के आधार पर अपना रिपोर्ट प्रस्तुत किया। रिपोर्ट
में उन्होंने कहा कि वहाँ की शैक्षिक स्थिति बहुत ही निम्नतर है तथा गाँव में इसको
लेकर एक प्राथमिक स्कूल के अलावा दूसरा कुछ संसाधन भी नहीं दिखाई दिया। निकम ने
अपने अनुभव बताते हुए कहा कि उस गाँव में दोपहर के अनुचित समय में जाने के कारण ज्यादा
जानकारी नहीं प्राप्त हो सकी, किन्तु ग्रामीणों की सहभागिता
काबिल-ए-तारीफ़ है। गांवों में कई सारे गलत चीजों पर प्रतिबंध लगाया गया है। वहीं अशोक
सातपूते ने मेंढ़ा लेखा के विवाह संस्था का विस्तृत विश्लेषण सबके सामने रखा। अंत
में सभी ने सेवाग्राम गाँव की संरचना पर अपनी बात रखी।
समृद्धि डाबरे ने अपने ग्रुप का
प्रतिनिधित्व करते हुए महिलाओं से संबन्धित समस्याओं पर बात रखी। डॉ. शिव सिंह
बघेल ने मेंढ़ा लेखा पर विस्तृत प्रस्तुति दी। साथ ही सेवाग्राम गाँव की महिलाओं से
जुड़े मुद्दों पर बात की। अंत में दोनों की तुलना के आधार पर गांवों के बेहतरी के
लिए विकल्प प्रस्तुत किए।
खेती-किसानी और शिक्षा के मसले पर
गठित समूह ने मेंढ़ा-लेखा और सेगांव के शैक्षिक भ्रमण के हवाले से अपने अनुभव साझा
किए। इस समूह में डॉ. मुकेश कुमार, डॉ. देवशीष मित्रा एवं डॉ. पार्थसारथी मालिक, नरेश गौतम शामिल थे। इस समूह की तरफ से डॉ. पार्थसारथी ने अपने अनुभव
रखते हुए कहा कि पढ़े-लिखे लोग सैद्धान्तिक चर्चा मात्र करते हैं किन्तु गाँव के
लोग उसको व्यवहार में उपयोग में लाते हैं। श्याम शर्मा ने भी मेंढ़ा लेखा के अपने
अनुभव शेयर किए। उन्होंने गाँव के सांस्कृतिक पहलू को रेखांकित किया। टी. राजु ने
भी अपने अनुभव बताए। मेंढ़ा लेखा गाँव में की जा रही बांस की खेती के बारे में भी
उन्होंने चर्चा की।
चर्चा के अंत में प्रो. उल्हास जाजू
ने मेंढ़ा-लेखा गाँव के बनने की पूरी प्रक्रिया की संक्षिप्त चर्चा की। उन्होंने
बताया कि वनों पर सामुदायिक अधिकार कानून बनाने के साथ-साथ इस गाँव ने सबसे पहले उसे
हासिल भी किया। तत्कालीन केंद्रीय वन-पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने उस गाँव में
आकार वनों पर सामुदायिक अधिकार की घोषणा की थी। उन्होंने बताया कि तीन वर्ष पूर्व
इस गाँव ने अपनी भूमि ग्राम सभा को दान कर दिया है। अब वहाँ भूमि की मिल्कियत पर
व्यक्तिगत मालिकी नहीं है। ग्राम सभा ने हर किसी को उस भूमि पर कृषि करने हेतु दे
रखी है। श्रमजीवी समाज के लिए इस गाँव ने एक नया आदर्श खड़ा किया।
इस सात
दिवसीय कार्यशाला के समापन-सत्र की अध्यक्षता महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी
विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति प्रो. आनंद वर्धन शर्मा ने की। संचालन डॉ. मिथिलेश
कुमार ने किया। उक्त मौके पर प्रो. उल्हास जाजू, विश्वविद्यालय के कुलसचिव कादर नवाज खान, डॉ शंभू जोशी एवं एनसीआरआई के डॉ. डी. एन. दास मौजूद थे। एनसीआरआई के डॉ.
डी. एन. दास को प्रतिकुलपति ने अंगवस्त्र, सूत की माला व
चरखा भेंट कर सम्मानित किया। समापन सत्र में पूरे कार्यक्रम की संक्षिप्त रिपोर्ट
डॉ. मुकेश कुमार ने प्रस्तुत किया। समापन सत्र में दो प्रतिभागियों टी. राजू एवं
डॉ. राहुल निकम ने बारी-बारी से अपने अनुभव शेयर करते हुए बताया कि इस कार्यशाला
से उन्हें काफी फायदा मिला और ग्रामीण समुदाय को सूक्ष्मता से जानने-समझने का मौका
मिला। दोनों ने कहा कि इस किस्म का फ़ैकल्टी डेवलपमेंट प्रोग्राम एक सप्ताह मात्र न
होकर पंद्रह दिनों का होना चाहिए। उक्त मौके पर एनसीआरआई के डॉ. डी. एन. दास ने
अपना मत प्रकट करते हुए कहा कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय
ने यह आयोजन कर महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने प्रतिकुलपति और कुलसचिव से
ग्रामीण समुदाय से लगाव बढ़ाने हेतु इसे पाठ्यक्रम का अंग बनाने में सहयोग का
अनुरोध किया। समापन सत्र में ही प्रतिकुलपति एवं कुलसचिव के हाथों सभी
प्रतिभागियों के बीच प्रमाण-पत्र वितरित किया गया।
समापन सत्र में अध्यक्षीय वक्तव्य
देते हुए महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति प्रो.
आनंद वर्धन शर्मा ने कहा कि ग्रामीण समुदाय पर केन्द्रित महत्वपूर्ण कार्यशाला
सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए आप सभी बधाई के पात्र हैं। उन्होंने कहा कि भारत
के गाँव तमाम अभावों के बावजूद विशिष्टता लिए हुए हैं। गाँव में आतिथ्य भाव आज भी
कायम है। गाँव से आज भी बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। गांव में आज सुविधाओं का अभाव
है, लोग बड़े पैमाने पर
गाँव से विस्थापित हो रहे हैं। उन्होंने महाराष्ट्र के चर्चित मॉडल गाँव हिबरे
बाजार के प्रयोग की भी चर्चा की। प्रतिकुलपति ने एनसीआरआई से महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय
हिन्दी विश्वविद्यालय में एक स्थायी केंद्र बनाने का भी निवेदन किया, जहां वर्ष भर इस प्रकार के ग्राम केन्द्रित कार्यक्रम संचालित किए जा
सकें। समापन सत्र में सभी प्रतिभागियों को कुलसचिव कादर नवाज खान ने धन्यवाद
ज्ञापित किया।
रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, नरेश गौतम,
गजानन एस. निलामे एवं डिसेन्ट कुमार साहू.