“हम
ऐसा काम क्यों करें, जिसे समाज घृणा की दृष्टि से देखता है। मुझ जैसी सभी थर्ड
जेंडर चाहती हैं कि वो गुरु-शिष्य
परम्परा में बंधकर न रहे, वह भी पढ़ना चाहती हैं, काम करना चाहती हैं,
आगे बढ़ना चाहती है, समाज में अपनी पहचान बनाना चाहती हैं।”
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साभार मितवा संकल्प समिति |
ये कहना वाक्य एक थर्ड जेंडर का है। यह वाक्य थर्ड जेंडर
व्यक्तियों की आशा और इच्छाओं को व्यक्त करता है। जिसे समाज ने हमेशा से ही अनदेखा
किया है। उनकी समस्याओं को समझने के बजाए, समाज ने उनको ही समस्या समझा और लगातार बहिष्कृत
किया। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में समाज के हाशिए पर जीवन जी रहे थर्ड जेंडर
मुख्यधारा के समाज में बहिष्कृत, व्यंग्य, घृणा, तिरस्कार आदि सहने को अभिशप्त रहे
हैं। अगर ऐतिहासिक रूप से भी देखा जाए तो इनकी सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक
स्थिति या उपयोगिता अय्याश राजा-महाराजाओं व नवाबों के हरमों तक ही सीमित थी।
इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि देश में भिन्न यौन स्थिति के
कारण सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से दीन-हीन थर्ड जेंडर के पुनर्वास, उनके जीवन स्तर
में सुधार, सामाजिक संरक्षण आदि के लिए सरकारी स्तर पर कोई प्रयास नहीं किया गया।
भारतीय नागरिक होने के बावजूद थर्ड जेंडर संविधान प्रदत्त अधिकारों से वंचित रहे हैं।
भारतीय समाज में जिस तरह के परम्परागत ढांचे का विकास थर्ड
जेंडर को लेकर हुआ है, अब उसमें बदलाव आ रहे हैं। इसका कारण वैश्विक स्तर पर ऐसी
विभिन्नता रखने वाले लोगों का संगठित होना तथा पिछले कुछ समय से इनके मानव अधिकार
संबंधी संघर्ष को माना जा सकता है। थर्ड जेंडर अब अपनी पारम्परिक पहचान को नकारते
हुए अपनी अलग पहचान निर्माण के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वह अब नहीं चाहते कि वे
गुरु-शिष्य परम्परा में बंधकर जीवन व्यतीत करें या हिजड़ा पहचान अपनाये। वे चाहते
हैं कि समाज उन्हें घृणा की दृष्टि से न देखे बल्कि एक मनुष्य होने के नाते उन्हें
भी वे सभी अधिकार प्राप्त हो जिससे स्वतंत्र, गरिमापूर्ण जीवन व्यतीत किया जा सके।
थर्ड जेंडर की स्थिति में आ रहे परिवर्तन को इसलिए भी महत्वपूर्ण माना जा सकता है
क्योंकि परिवार तथा समाज अभी भी ऐसे लोगों को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हैं।
ऐसे में जो परिवर्तन हुए भी हैं। वह सूक्ष्म स्तर पर ही माने जा सकते हैं, फिर भी
यह भारतीय समाज में बने हिजड़ा पहचान को टक्कर दे रही हैं। इसी परिवर्तन की कहानी
है चाँदनी की जिसे अन्य थर्ड जेंडर के भांति भेद-भाव, छीटा-कसी व कई तरह के प्रताड़ना का शिकार
होना पड़ा। इसके बावजूद चाँदनी अपनी
अस्मिता और अधिकारों के लिए लड़ती रही। साथ ही पारम्परिक रूप से जो सांस्कृतिक घेरा
बनाया गया है उनके काम को लेकर, जीविकोपार्जन के साधन को लेकर, इन सब को चाँदनी ने
तोड़ती हुई शिक्षा, स्वरोजगार के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दी है। चाँदनी की कहानी
उसी की जुबानी....
क्षेत्र अध्ययन के दौरान चाँदनी से मिलने का मौका मिला। चाँदनी
24 साल की हैं और एक गैर-सरकारी संगठन में काम करती हैं। वह मूलतः रहने वाली कोरबा
की हैं लेकिन पिछले 4-5 साल से रायपुर में ही रहती हैं। अपने अलग होने का एहसास
12-13 साल की उम्र में हो जाने पर उनकी कोशिश रही है कि वह 12वीं के बाद कोई
व्यवसायिक शिक्षा प्राप्त करके अपने पैरों पर खड़ी हो जाएं। यही कारण रहा कि उन्होंने
12वीं के बाद प्रोफेशनल इन मल्टी मीडिया तथा फैशन डिजाइनिंग विद इंटीरियर
डिजाइनिंग की पढ़ाई पूरी की।
चाँदनी अपने बारे में बताती हैं कि -जब मैं 11-12 साल की थी, तो मेरे हाव-भाव को देखकर मेरे दोस्त, भाई तथा अन्य साथी मुझे छक्का, हिजड़ा कहते थे। तब
मुझे ये पता नहीं था कि ये क्या होते हैं और किसे कहते हैं। जब मैं लड़को की तरफ
आकर्षित होने लगी और मुझे लगने लगा की वो मुझे प्यार करें। तब मैं सोचती थी कि मैं
एक लड़का हूँ, लेकिन Filling लड़कियों
जैसी क्यों?
उम्र बढ़ने के साथ जब मेरे व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया
तो परिवार वाले कहने लगे कि तुम एक लड़के हो तो लड़के जैसा ही रहो, तुम्हें लड़की जैसा व्यवहार करने की जरूरत
नहीं, समाज स्वीकार नहीं करेगा, आगे
जाकर तुम्हारा कोई भविष्य नहीं होगा, तुम क्या करोगे, कहाँ रहोगे, ये सब बोलकर घर वाले दबाव बनाते थे।
आगे चाँदनी कहती हैं, उनका ये कहना जायज ही था क्योंकि उन्होंने
तो पैदा लड़का ही किया था। उन्हें तो मेरे बारे में पता भी नहीं है कि मैं क्या
महसूस करती हूँ। बाद में जैसे ही उनको मेरे बारे में थोड़ा बहुत पता चला तो मेरी
बहन, भाई, मम्मी,
पापा सभी लोग मुझे छक्का, हिजड़ा, गांडु, मामू ये सब बोलना चालू कर दिया था। मेरे पापा तो मुझे गंदी-गंदी गालियां भी
दिया करते थे। थर्ड जेण्डर की आधी ज़िंदगी तो यही समझने में निकल जाती है कि हम औरत
हैं या मर्द और फिर इस सवाल में उलझ जाती है कि हम इन दोनों में से कुछ क्यों नहीं
है? जब दस-बीस सालों की जद्दोजहद के बाद हम खुद को स्वीकार
करते हैं, तो समाज हमें स्वीकार नहीं करता।
मैं कई बार घंटो रोती हुई सोचती रहती, मैं ऐसी क्यों हूँ?
और मैं अकेली ही ऐसी हूँ क्या? उस समय मैं अपने जैसे लोगों
के बारे में जानती भी नहीं थी। कोई 12-13 साल का बच्चा जानेगा भी कैसे? मैंने बहुत कोशिश की अपने को बदलने की, सेविंग करती
थी ताकि बाल आ जाए, लड़कों के साथ घूमती थी, बड़े भाई को मैं जिद करती थी उनके साथ जाने के लिए,
गाली देना सीखती थी, वो सब करती थी जो लड़के किया करते हैं।
मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि वो सब मेरे लायक था। फिर मैंने निश्चय किया कि जो मैं
महसूस करती हूँ वैसे ही रहूँगी। आज से 2 साल पहले मैं टी. आई. में काम करती थी, अच्छी-ख़ासी नौकरी थी, सब कुछ अच्छा चल रहा था।
अचानक पापा को लगा कि मेरी क्रिया-कलाप कुछ ज्यादा ही बढ़ गये हैं तो उन्होंने मुझे
घर से रात के 1 बजे निकाल दिया। ऐसे में मेरे पास कोई विकल्प नहीं था कि मैं कहाँ
जाऊ और कहाँ रात बिताऊँ? ऐसे में मैंने सरकारी अस्पताल में
लाश रखने वाले कमरे के बगल में एक महीना बिताया, ये सोचकर की
कभी तो घर वाले मुझे ले जाएंगे। इस बीच न परिवार वाले, न
रिस्तेदार और न ही किसी मित्र ने मुझसे संपर्क करने की कोशिश की। अस्पताल के गार्ड
को मेरे हाव-भाव से मेरे थर्ड जेंडर होने का एहसास हो गया था, तो मुझे वह परेशान करने लगा और फाइनली मुझे हास्पिटल भी छोड़ना पड़ा।
मैंने हिजड़ों से संपर्क किया, उन्होंने मुझे बुलाया। वहाँ जाने के बाद उन्होंने मुझे बताया
कि जो हमारे पास जो आय का साधन है तुम भी चाहों तो वैसा कर सकती हो। हिजड़ों के साथ
रही, गुरु बनाई, ट्रेन में लगभग डेढ़
साल तक पैसे मांगकर अपनी ज़िंदगी चलाई। इस बीच लगातार लोगों की उपेक्षाओं, गाली-गलौच, अभद्र व्यवहार,
छीटा-कसी का शिकार होती रही। फिर मुझे लगा की मैं अपनी अलग ज़िंदगी बनाऊ क्योंकि
लोग सिर्फ हमसे घृणा करते हैं, हमारे साथ दुर्व्यवहार करते
हैं। इस संबंध में जब मैंने अपने गुरु से बात की तो पहले थोड़ा गुस्सा हुई, बाद में मान गई और आज मैं यहाँ हूँ। अपने जैसे लोगों की मदद कर रही हूँ।
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साभार मितवा संकल्प समिति |
चाँदनी अपने काम को लेकर खुश हैं, और हो भी क्यों न। वह आत्मनिर्भर हो गई हैं, आज उनका खुद का घर है, आस-पास के लोगों के साथ
उठना-बैठना होता है। चाँदनी बताती हैं कि कभी भी आस-पास के लोगों के द्वारा यह
महसूस नहीं हुआ कि मैं थर्ड जेंडर हूँ, या वो लोग मुझे नापसंद
करते हो। घर के बारे में पूछने पर कहती हैं कि माँ और भाभी से चोरी-छुपे बात होती
है, पापा गंभीर रूप से बीमार हैं, तब
भी वो कहते हैं कि उनका सिर्फ एक ही बेटा है। मैं तो इसी में खुश हूँ कि मेरी माँ
मुझे स्वीकार कर चुकी है। भले ही चाँदनी खुश हो लेकिन अपनो की कमी उसे आज भी है।
इस कमी का एहसास करती हुई वह चुप हो जाती हैं फिर वह भावुक होकर कहती हैं- आज मेरे
पास सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है। आत्मनिर्भर होने से कुछ नहीं होता इंसान को
भावनात्मक लगाव की आवश्यकता होती है, लगता है कि अपना कोई
साथ हो। कल के दिन अगर मेरा पैर थोड़ा भी लड़खड़ाए तो वो संभाल सके। आज तो खड़ी हो गई
हूँ लेकिन कल कोई संभालने वाला नहीं है। आज का तो ठीक है पर कल का पता नहीं, ऐसे में कहीं न कहीं दिल में डर भी है, एक खालीपन
भी है। मुझे भी अपने परिवार की कमी खलती है। लोग कहते हैं कि किस्मत से ज्यादा और
वक्त से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता तो मैं उसी वक्त का इंतजार कर रही हूँ।
डिसेन्ट कुमार साहू,
जूनियर रिसर्च फ़ेलो, यूजीसी, समाज-कार्य
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा - 442005, महाराष्ट्र.
ई-मेल: dksahu171@gmail.com