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Saturday, March 24, 2018

वर्धा : संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के चौथे दिन ग्रामीण स्वास्थ्य व अन्य मुद्दों पर हुई गहन चर्चा



वर्धा, 22 मार्च 2018. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी सामाजिक कार्य अध्ययन केंद्र एवं राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थान परिषदहैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में सात दिवसीय ग्रामीण सहभागिता में संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के चौथे दिन दत्ता मेघे इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंस के संकायाध्यक्ष डॉ. अभय मूढ़े ने 'सामुदायिक स्वास्थ्य एवं स्वच्छता' विषय पर केन्द्रित सत्र को संबोधित किया। ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति शहरों से अलग है। गांवों की स्थिति आज पहले से काफी बदल गई है। गांवों का कई मामलों में विकास हुआ है। गांवों में बिजली, इंटरनेट की सुविधाएं पहुंची है, गांवों में शौचालय बने हैं। बावजूद इसके आज भी ढेर सारे गांवों में जागरूकता का अभाव है। गाँव में शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति आज भी बहुत बेहतर नहीं है। गाँव में आंगनबाड़ी केंद्र बने हैं। गांवों में स्कूल हैं, पर वहाँ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है। ग्रामीण क्षेत्र में बच्चों के बीच में ही स्कूल छोड़ने की तादाद सबसे ज्यादा है। स्वच्छता की भारी कमी है। नालियाँ खुली पड़ी हुई हैं, उसके साफ-सफाई की नियमित व्यवस्था नहीं है।

उन्होंने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों के लिए स्वास्थ्य केंद्र और स्वास्थ्य उपकेंद्र तो बने हुए हैं, किन्तु वहाँ चिकित्सकों का अभाव है। तीन हजार से ज्यादा आबादी वाले गाँव में छोटा स्वास्थ्य केंद्र का प्रावधान है, किन्तु ज़्यादातर गांवों में आज भी इसकी गारंटी नहीं हो पाई है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में एक पुरुष व महिला डाक्टर होना चाहिए। किन्तु ढेर सारे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ऐसे हैं जहां डाक्टर तो हैं, किन्तु जरूरी दवाओं की भारी कमी है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी आधा से अधिक गाँव में खुले में शौच जाना जारी है। इसका स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है। इससे खाद्यान्न, शाक-सब्जी के संक्रमित होने का खतरा बढ़ जाता है। गाँव में शरीर और हाथों की साफ-सफाई को लेकर भी समुचित जागरूकता का अभाव है। भारत सरकार ने 1998 से सभी शहर और गाँव को स्वच्छ व निरोगी बनाने का संकल्प लिया है। सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान भी चलाया जा रहा है। इन सबके बीच ग्रामीण क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल का अभाव बना हुआ है।
            आगे उन्होंने बताया कि निर्मल भारत अभियान के तहत ग्रामीण स्कूलों के बच्चों को स्वच्छता के प्रति जागरूक किया जाता है। निर्मल ग्राम पुरस्कार भी दिए जाते हैं। स्वच्छता रथ के जरिए भी जागरूकता लाने की कोशिश की जा रही है। 9 से 15 अगस्त तक स्वच्छता सप्ताह के रूप में मनाया जाता है। जनजागरूकता लाने में मीडिया की भी अहम भूमिका होती है।
            सत्र का संचालन डॉ. मिथिलेश कुमार ने और धन्यवाद डॉ. मुकेश कुमार ने किया।

चौथे दिन के दूसरे चर्चा सत्र में नेशनल इस्टिट्यूट आफ रुरल डेवलपमेंट एंड पंचायती राज, भारत सरकार, हैदराबाद के पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर एवं मातृसेवा संघ इंटीट्यूट आफ सोशल वर्क, नागपुर में एसोसिएट प्रोफेसर रहे इंडियन जर्नल आफ सोशल वर्क एंड सोशल साइंसेज के इश्यू एडिटर रह चुके डॉ. अजित कुमार ने '14 वें वित्त आयोग: ग्राम पंचायत डेवलपमेंट प्लान' को दो केस स्टडी- सिंघाना ग्राम पंचायत (मध्यप्रदेश) एवं पटोदा (महाराष्ट्र) के संदर्भ में इसकी विस्तृत चर्चा की। महाराष्ट्र के प्रत्येक ग्राम पंचायत को औसतन 48 लाख रुपए का अनुदान प्राप्त हुआ है। एंड, फंक्शन और फंक्शनरी के बीच बेहतर तालमेल के बगैर ग्राम पंचायतों का विकास मुश्किल है। कई राज्यों में ग्राम पंचायतों को शक्तियाँ तो दी गई हैं, किन्तु वहाँ स्टाफ वगैरह की व्यवस्था समुचित तौर पर नहीं किया गया है। केंद्र सरकार द्वारा ग्राम पंचायत को 29 तरह के अधिकार दिए हैं किन्तु ज़्यादातर राज्य सरकारों ने ग्राम पंचायतों को अब तक ये सारे अधिकार नहीं दिए हैं।
            उन्होंने कहा कि वित्त आयोग ही विभिन्न योजनाओं पर खर्च किए जाने वाली राशि का बंटवारा करता है। आज तक ग्राम पंचायतों को समुचित राशि उपलब्ध नहीं कराई जा सकी है। ग्राम पंचायतों के पास आज न तो सत्ता है और न ही समुचित संसाधन है। भारत के कुछ राज्यों में ग्राम पंचायतों को एक हद तक शक्ति का हस्तांतरण किया गया है किन्तु ज़्यादातर राज्यों में ऐसा नहीं हो पाया है। हर ग्राम पंचायतों को अपनी परिस्थिति के विश्लेषण का भी वैधानिक प्रावधान है। ग्राम पंचायतों के पास जितने स्थानीय संसाधन हैं, उसका भी सम्पूर्ण ब्योरा ग्राम पंचायतों के पास होना चाहिए। देश में यथार्थपरक अध्ययन के तथ्य और आंकड़ों की भारी कमी है। इसमें सामाजिक कार्यकर्ताओं की अहम भूमिका हो सकती है।
            मध्यप्रदेश के धार जिले के मनावर ब्लाक के सिंघाना ग्राम पंचायत की केस स्टडी के आधार पर डॉ. अजित कुमार ने कहा कि यह मध्यप्रदेश के पिछड़े जिले में आता है। यहाँ ज्यादातर भीलों की आबादी है। 2005 के पूर्व इस ग्राम पंचायत के लोगों के पास पेय जल की व्यवस्था नहीं थी। लोगों का पानी की तलाश में ही ज़्यादातर वक्त खर्च हो जाता था। सड़क भी नहीं थी, दूसरे गाँव के लोग इस गाँव में अपनी लड़की की शादी करने तक को तैयार नहीं होते थे। इस ग्राम पंचायत में आए बदलाव का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि आज गाँव की सड़क बन गई है, 60 फीसदी घरों में शौचालय है। पुल-पुलिया बन गए हैं। सामुदायिक भवन हैं। घर-घर नल का पानी पहुँच गया है। मनरेगा के तहत इस गाँव में जबरदस्त काम हुआ। ग्राम पंचायत अपनी सारी गतिविधियों का सुव्यवस्थित ढंग से दस्तावेजीकरण कर रहा है।
            उक्त गाँव में कृषि के उत्पादन में भी वृद्धि हुई है। सिंचाई के लिए कुएं खोदे गए हैं। सुव्यवस्थित ग्राम पंचायत भवन सुचारु ढंग से चल रहा है। यह सारा परिवर्तन 2005 से 2015 के बीच हुआ है। इसमें मनरेगा योजना की अहम भूमिका रही। मनरेगा से इस गाँव का विकास हुआ। संदीप अग्रवाल नामक एक स्थानीय व्यक्ति के कुशल नेतृत्व की इसमें अहम भूमिका रही। आज यह धार जिले का चमकता हुआ तारा बन चुका है। उन्होंने कहा कि मनरेगा योजना के ठप्प हो जाने से सिंघाना के लोग एक बार फिर पलायन करने को विवश हो गए हैं। यहाँ से छोटी उम्र के बच्चे को गुजरात के सूरत आदि जघों पर कपास बिनने के लिए ले जाया जाता है।  
            डॉ. अजीत कुमार ने महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के पटोदा ग्राम पंचायत की केस स्टडी के आधार पर बताया कि इस गाँव की आबादी 3350 है। यह मराठा बाहुल्य गाँव है। 2005 में जहां इस ग्राम पंचायत को 2,14,000 रुपए मात्र का अनुदान प्राप्त हुआ था वहीं 2012-13 में 28,30,627 रुपए का अनुदान प्राप्त हुआ। पूर्व में गाँव में चार आटा चक्की था, जिसकी जगह पर ग्रामसभा ने चारों को बंद कर आपसी सहयोग से एक बड़ी आटा चक्की स्थापित की। इस गाँव में हुए अभिनव प्रयोग की उन्होंने विस्तृत चर्चा की। अंत में प्रतिभागियों के प्रश्नों का भी उन्होंने उत्तर दिया। इस सत्र का संचालन एवं आभार ज्ञापन डॉ. आमोद गुर्जर ने किया।   

तीसरे चर्चा सत्र का संयोजन एनसीआरआई के डीएन दास ने किया। सत्र में सभी सहभागियों ने सिलसिलेवार ढंग से अपने-अपने सबन्धित विषय पर प्रस्तुति दी। प्रथम सहभागी के रूप मे डॉ आमोद गुर्जर ने अपने शोध के अंतर्गत आनेवाली विभिन्न प्रक्रियाओं तथा टूल्स- टेकनिक्स की बात की। प्रस्तुति के दरम्यान उन्होंने ग्रामीण क्षेत्र में प्रयुक्त विभिन्न पद्धतियां जैस-पीआरए, आरआरए पर चर्चा की। इसके साथ ही उन्होंने पीएलए को केंद्र मे रखते हुए ग्रामीण क्षेत्र की सहभागिता पर अपनी बात रखी। प्रस्तुति के बाद प्रश्नोत्तरी में Practice Based Research Methodology पर बात हुई। दूसरे प्रतिभागी के रूप में डॉ. शिवसिंह बघेल ने शोध-प्रविधि के अंतर्गत आनेवाली पीआरए, आरआरए तथा एलएफए की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए अपनी प्रस्तुति की। पीआरए पर विशेष रूप से बात करते हुए उन्होंने सोशल मैपिंग, चपाती डायग्राम तथा अन्य मैट्रिक्स पर विस्तृत चर्चा की। उन्होंने आगे बताया कि ग्रामीण सहभागिता के लिए गावों में प्रवेश करते ही पहले 'ट्रांज़िट वाक' करना पड़ता है। जिसमें गाँव के प्रति ज़्यादातर जानकारी शोधकर्ता को प्राप्त किया जा सकता है। सामाजिक मानचित्रण पर बात करते हुए उन्होंने गाँववालों को इस प्रक्रिया में सहभागिता की तकनीकों के बारे में बताया।
रिसोर्स मैपिक पर बात करते हुए ग्रामीणों की सहभागिता से ग्रामीण संसाधन की पहचान करने की तकनीक पर भी बात की। इसके बाद चपाती डायग्राम तथा Service Mapping के उपयोग की भी उन्होंने चर्चा की। डॉ. बघेल ने पीआरए के साथ-साथ एलएफए की प्रविधि की भी संक्षिप्त चर्चा की। इसके साथ ही केंद्र के विद्यार्थियों के द्वारा सेवाग्राम गाँव में प्रयुक्त पीआरए प्रविधि के अंतर्गत किए गए कार्य को भी उन्होंने प्रस्तुत किया।
            सत्र को आगे बढ़ाते हुए केंद्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने ग्रामीण क्षेत्र में क्षेत्र सबंधी परियोजना पर शिक्षकों के सामने विभिन्न क्षेत्र तथा सुझाव प्रस्तुत किया। उन्होंने शिक्षकों का इस ओर ध्यान केन्द्रित किया कि हमें आदर्शवादी तरीके के बजाय इसे गाँव के लोगों की स्वीकार्यता से जोड़ना होगा। हम क्या चाहते हैं, इससे ज्यादा जरूरी है कि गाँव के लोग क्या चाहते हैं। इसी को मद्देनजर रखते हुए शोधकर्ता को गैप ढूँढने की कोशिश करनी होगी। अपने अनुभव बताते हुए उन्होंने बिहार के ग्रामीण क्षेत्र में प्रयुक्त पीएसपी की उपयोगिता को भी इसके साथ जोड़कर देखने की बात की। गांवों में कार्य करते समय एक दिन में समझकर उनकी समस्याओं का समाधान नहीं ढूंढा जा सकता, उसके लिए छोटे-छोटे मुद्दों को लेकर गहन कार्य करने की आवश्यकता है।
            अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने सभी शिक्षकों से यह निवेदन किया कि दो दिन के क्षेत्र-कार्य में आपके द्वारा किए जाने वाले कार्य का कच्चा ड्राफ्ट तैयार करने की अपेक्षा जाहिर की। साथ ही उन्होंने शिक्षकों से यह अपेक्षा जाहिर की कि हम लोगों को ग्रामीण भारत के लोगों की प्राथमिकता तय करने में उनकी मदद करनी होगी अन्यथा उनका भटकाव देश के विकास को अवरुद्ध करेगा। गांधी, कुमारप्पा एवं शुमाखर की बात उद्घृत करते हुए उन्होंने इसके भटकाव को रोकने की प्रविधि को अपनाने पर ज़ोर दिया।
            सत्र में आगे नागपुर से आयी प्रतिभागी डॉ. समृद्धि डाबरे ने ग्रामीण महिलाओं से संबन्धित मुद्दों पर कार्य करने की जिज्ञासा व्यक्त की। डॉ. पल्लवी शुक्ला ने अपने विषय - पर्यावरण पर बात करते हुए सामाजिक पर्यावरण के अध्ययन में अपनी रुचि जाहिर की। अगले प्रतिभागी अभिषेक त्रिपाठी ने गांवों को समझने में नैतिकता की ओर ध्यान केन्द्रित किया। पार्थसारथी मणिकाम ने शोध एवं पाठ्यक्रम को एक-दूसरे के साथ जोड़ने की बात करते हुए कहा कि व्यावसायिक जीवन से बाहर निकलकर स्वतः प्रयत्न से आगे निकलना होगा। उन्होंने आगे थ्योरी एवं प्रैक्टिकल को जोड़ने की संभावना पर अपनी बात रखी। इसके लिए कम से कम 15 दिन से लेकर 1 माह तक क्षेत्र में रहकर समुदाय के जीवन को समझने की आवश्यकता जताई। साथ ही सहभागिता को महत्वपूर्ण टूल्स बताया। सुझाव देते हुए उन्होंने पिछले तीन दिनों के अनुभवों को शेयर करते हुए इस बात की ओर ध्यान आकर्षित किया कि सेसन लेक्चर मोड से ज्यादा समस्या ओरिएंटेड तथा प्रश्नोत्तरी आधारित होना चाहिए। श्री वाघमारे तथा डॉ. भरत खंडागले ने यह सुझाव दिया कि लेक्चर मेथड के साथ विडियो विजुअल का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करने की बात की तथा प्रतिभागियों से फीडबैक लेने की महत्ता को रेखांकित की।

चतुर्थ सत्र में समूह '' ने Socio-Economic and Educational Problem पर अपनी बात रखी। इसमें डॉ. सोनवाने, डॉ. सतपुते तथा अन्य ने अपनी प्रस्तुति दी। ग्रामीण विकास के समाधान प्रस्तुत करते हुए उन्होंने विभिन्न स्टेक होल्डरों को साथ लेते हुए ग्रामीणों से जुड़ी विभिन्न समस्याओं पर अपनी बात रखी। इस कार्य में विभिन्न राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय तथा स्थानीय संगठनों की भूमिका का महत्व रेखांकित किया। पर्यावरणीय मुद्दों का घटना अध्ययन करते हुए उन्होंने अपनी बात रखी। समाज कार्य प्रविधियों में से एक सामाजिक वैयक्तिक सेवा कार्य की 'सहायक प्रक्रिया' पर बात रखी। जिसमें उन्होंने 'एडिक्सन' की समस्या पर विस्तृत चर्चा की। इसके अंतर्गत एडिक्सन के विभिन्न प्रकारों व उसकी विशेषताएँ तथा उसके शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक आदि प्रक्रियाओं पर पड़ता है। उन्होंने कहा कि इसको समझने के लिए उसके विभिन्न कारणों की चर्चा की। इसी कड़ी में आगे डॉ. अशोक सातपूते ने भारत में जनसंख्या वृद्धि की समस्या पर अपनी बात रखी। इसमें उन्होंने जनसंख्या वृद्धि के कारणों तथा प्रभावों को बताते हुए उन्होंने उसके समाधान की बात की। इन समाधानों में समाज के विभिन्न संस्थाओं एवं संगठनों की भूमिका की चर्चा की। प्रस्तुति के अंत में 'भूमिका निर्वहन' में एडिक्सन समस्या में सामाजिक वैयक्तिक सेवा कार्य की उपयोगिता को प्रस्तुत किया।
            सत्र के अंत में डॉ. मुकेश कुमार ने महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के मेंढ़ा-लेखा मॉडल विलेज की संक्षिप्त चर्चा की। तदुपरान्त एनसीआरआई के डीएन दास ने धन्यवाद ज्ञापन किया।


रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, नरेश गौतम, गजानन एस. निलामे, डिसेन्ट कुमार साहू, सुधीर कुमार, माधुरी श्रीवास्तव, खुशबू साहू एवं सोनम बौद्ध.

Thursday, May 18, 2017

'हमारा होना शर्म की नहीं, गर्व की बात है'

जिन लोगों के जेंडर तथा यौनिक व्यवहारों को लेकर हमारे समाज में ढेर सारी गालियां बनी हो, वहाँ ऐसे लोगों पर उपहास करना, उनके साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार व उन्हें समाज में कलंकित मान लेना अभी भी आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन जब शोषित समूह के लोग स्वयं को छुपाने के बजाए समाज के सामने ढ़ोल की ताल पर थिरकते हुए, लाउडस्पीकर पर अपनी पहचान को समाज के सामने रखते हुए नारा लगाए कि 'हमारा होना शर्म की नहीं, गर्व की बात है।', 'हमें चाहिए आज़ादी -प्यार करने की आज़ादी, भेदभाव के बिना जीने की आज़ादी।'  तो लोगों को यह दृश्य आश्चर्यचकित कर रही थी। यह मौका था नागपुर में आयोजित दूसरे LGBTQ प्राइड मार्च का जिसमें समूह के लोग तथा देशभर से आए LGBTQ अधिकारों के समर्थक एकत्रित हुए थे। मार्च के द्वारा धारा 377 का विरोध करते हुए स्वीकार्यता, सम्मान, स्वतन्त्रता, शिक्षा, रोजगार, जैसे मानवीय अधिकारों की मांग भी की गई।
बैंगलोर से आए समीर कहते है - 'आज मैं विशेष तौर से इस मार्च में शामिल होने के लिए आया हूँ। मैं इस लड़ाई में अपने लोगों के साथ हूँ। आज इतने सारे लोगों को देखकर बहुत अच्छा लग रहा है। संविधान में हमें जो भी वैयक्तिक अधिकार मिले है वो हमें भी मिलना चाहिए। धारा 377 हटाई जाए और संवैधानिक अधिकार दी जाए, हमें भी जीने का अधिकार है।'
प्राइड मार्च समाज के लिए जरूरी क्यों है? पुछें जाने पर मुख्य अतिथि के रूप में गुजरात से आए मानवेंद्र गोहील ने कहा कि 'जरूरत इसलिए है कि हमें समाज को बताना है कि हमारी संख्या भले ही कम है, लेकिन हमारी उपस्थिती है और हमें गर्व है कि हम क्या है। प्रत्येक इंसान को आज़ादी से जीने का हक है तो हमें क्यों नहीं मिला है? जब भारतीय संविधान में सभी लोगों को समानता और सम्मान से जीने का हक है तो हमें क्यों नहीं? हमें हमारे तरीके से जीने दिया जाए, प्यार करने की आज़ादी हो। हम पैदाइशी ही ऐसे है, हमारा कोई दोष नहीं कि हम ऐसे है। ये हमारे लिए आज़ादी की लड़ाई है।'
आगे उन्होंने कहा कि 'हमें अब दूसरे लोगों का भी सहयोग मिल रहा है, कुछ माँ-बाप भी समझने लगे है कि बच्चों से ज़बरदस्ती नहीं की जा सकती, उन्हें अपने जीवन साथी चुनने का अधिकार देना होगा।' मीडिया किस तरह से उन्हें अब पेश कर रही है? पुछे जाने पर उन्होंने कहा कि 'LGBTQ समूह को लेकर मीडिया प्रेजेंटेशन में बहुत ज्यादा परिवर्तन आया है। मीडिया काफी सकारात्मक हुई है, अब हमारी समस्याओं के बारे में भी लिख रहे है। युवाओं में एक बड़ा परिवर्तन देखने को मिलता है, अब वे भी इन विविधताओं के बारे में जानना चाहते है।'

पिऊ जो नागपुर की ही है, वे कहती है 'आज पहली बार लड़कियों की तरह तैयार होकर इस मार्च में शामिल हो रही हूँ। थोड़ी सी डरी हुई हूँ कि कहीं घर वालों को पता न चल जाएँ, लेकिन मैं खुश हूँ कि जैसा मैं महसूस करती हूँ उसी रूप में समाज के सामने हूँ।'

सुप्रीम कोर्ट द्वारा 13 अप्रैल 2014 को ट्रान्सजेंडर को थर्ड जेंडर के रूप में मान्यता देने तथा उनके स्थिति में सुधार के लिए उचित कदम उठाने के दिशानिर्देश के बावजूद अभी भी सरकारी प्रयास न के बराबर ही है। यही कारण है की पिऊ तथा पिऊ के जैसे हजारों ट्रान्सजेंडर को अपनी पहचान छुपाकर जीवन व्यतित करने के लिए मजबूर हैं।

जब भी LGBTQ अधिकारों की बात की जाती है तो समलैंगिकता को लेकर प्राकृतिक-अप्राकृतिक, नैतिक-अनैतिक, वैध-अवैध कि बहसे तेज हो जाती है। धारा 377 को हटाने के लिए एक लंबी बहस समलैंगिकता के अपराधीकरण को मानव अधिकारों के हनन के रूप में हुई है। संवैधानिक बहसो में जिन अधिकारों को लेकर चर्चा हुई है उनमें समानता, सम्मान, गोपनियता तथा भेदभाव व स्वतन्त्रता शामिल है। इन तमाम बहसों के बाद भी भारतीय कानून समलैंगिकता को अपराध मानता है। भारतीय दंड संहिता, धारा 377 (अप्राकृतिक अपराध) इस प्रकार से है - “जो भी कोई स्वेच्छा से किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध कामुक संभोग करता है, उसे आजीवन कारावास या फिर 10 वर्षों तक बढ़ाई जा सकती है और जुर्माना भी हो सकता था।" धारा यह स्पष्ट नहीं करती कि 'अप्राकृतिक' यौन क्या-क्या है, इसके साथ ही लिंग प्रवेश यौनिक संभोग को स्थापित करने के लिए पर्याप्त है।' इस व्याख्या के कारण इसमें मुख व गुदा भी शामिल हो जाता है।  

यह कानून औपनिवेशिक काल में 'यौन आनंद' के निषेध के लिए बनाया गया था इस तरह ऐसे सभी यौनिक व्यवहारों को आपराधिक करार देने के लिए बनाया गया था जो प्रजनन प्रक्रिया से जुड़े नहीं है। यह कानून समलिंगी गतिविधियों के साथ विषमलैंगिक व्यवहार वाले जोड़े पर उस दशा में लागू होता है जब वह मुख मैथुन (oral sex), गुदा मैथुन (anal sex) या हस्तमैथुन करते हैं। फिर भी होमोफोबिया (समलैंगिकता के प्रति भय) के कारण हमेशा ही समलैंगिक गतिविधियों वाले लोगों को ही निशाना बनाया जाता रहा है। इसलिए धारा 377 का विरोध सभी नागरिकों को करना चाहिए, इसे सिर्फ समलैंगिक सम्बन्धों से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। भारत में समलैंगिकता को लेकर राजनैतिक मांग के रूप में धारा 377 के खिलाफ संघर्ष की शुरुवात वैश्विक परिदृश्य की तुलना में बहुत बाद में 1990 से मान सकते हैं जब पहचान आधारित आंदोलनों के उभार ने हाशिए के समाजों को अपने अधिकारों के लिए संगठित किया।   

डिसेन्ट कुमार साहू
शोधार्थी - समाजकार्य विभाग
म. गां. अं. हि. वि. वि. वर्धा 

मनुष्यता से जुड़ा हुआ है पर्यावरण का मुद्दा: प्रो. मनोज कुमार


तथाकथित विकास से उत्पन्न समस्याओं ने आज पूरे विश्व को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि विकास की इस राह पर ज्यादा दिनों तक चला नहीं जा सकता है। वैसे तो यह सोचते-सोचते 50 वर्ष से भी अधिक का समय गुजर चुका है क्योंकि इसकी शुरुवात 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ के स्टाकहोम सम्मेलन से होती है, जहां विकास से उपजे पर्यावरणीय प्रदूषण और संसाधनों के खत्म होने की चिंता को लेकर सौ से अधिक देशइकट्ठा हुए। विकास की इन समस्याओं को देखते हुए 'बुंटलैंड आयोग' ने 'स्थायी विकास' का नारा दिया। तब से लेकर अब तक विभिन्न मंचों से सतत या स्थायी विकास का नारा बुलंद किया जाता रहा है। इस वर्ष के विश्व समाज कार्य दिवस का उद्देश्य भी पर्यावरण और इंसानी अस्तित्व की निरंतरता (Sustainability) को बढ़ावा देना रहा। इसी क्रम में 21 मार्च को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी समाज कार्य अध्ययन केंद्र के द्वारा विश्व समाजकार्य दिवस, 2017 पर एक परिचर्चा कार्यक्रम का आयोजन किया गया। परिचर्चा इस वर्ष का विषय ग्लोबल एजेंडे का तीसरा स्तम्भ 'सामुदायिक और पर्यावरणीय स्थिरता को बढ़ावा देना' रहा।
केन्द्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि पर्यावरणीय मुद्दे पर दुनिया की तमाम सरकारें एक तरह से सोच रही हैं और जनता दूसरे तरीके से सोच रही है। जब तक हम अपनी आवश्यकताओं को सीमित नहीं करेंगे तब तक पर्यावरण की सुरक्षा नहीं होगी। आगे उन्होने कहा कि पर्यावरण का मुद्दा मनुष्यता से जुड़ा हुआ है। इस परिचर्चा को आगे बढ़ते हुए सहायक प्रोफेसर श्री आमोद गुर्जर ने कहा कि सतत विकास की अवधारणा व्यक्ति केन्द्रित है जबकि इसे समग्र उपागम (holisticapproach) को अपनाना होगा। हमने मानव अस्तित्व पर संकट आने के बाद ही 'सतत विकास' की अवधारणा अपनाई।डॉ. शिव सिंह बघेल ने विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए यह कहा कि विद्यार्थियों को अपना लक्ष्य ऐसा बनाना चाहिए ताकि वे स्वयं को वैश्विक एजेंडे से जोड़ सके और ग्राम स्तर तक पहुंचाए।
डॉ. मिथिलेश ने कहा कि वैश्विक स्तर तथा भारत में भी संसाधनों के बड़े भाग पर चंद लोगों का आधिपत्य है जबकि एक बड़ा भाग अपना जीवन गरीबी और अभाव में व्यतीत कर रहा है इसलिए हमें संसाधनों के न्याय पूर्ण वितरण पर ध्यान देना होगा। परिचर्चा के दौरान उपस्थित सभी सहभागियों नेइस मुद्दे पर अपनी बात रखी। ज़्यादातर विद्यार्थियों ने अपने आस-पास विकास के नाम पर उत्पन्न हो रहे विसंगतियों को प्रमुखता के साथ रखा।
कार्यक्रम का संचालन नरेन्द्र कुमार दिवाकर ने किया। प्रास्ताविक डिसेन्ट कुमार साहू ने रखा और आभार गजानन निलामे ने किया। इस परिचर्चा में केंद्र के निदेशक प्रो.मनोज कुमार,डॉ. मिथिलेश कुमार, डॉ. शिव सिंह बघेल, सहायक प्रोफेसर श्री आमोद गुर्जर तथा केंद्र केनरेश गौतम, श्याम सिंह, आशुतोष, छविनाथ यादव,विलास चुनारकर, अनुराग पाण्डेय, शीना नेगी, सुधीर कुमार,अदिति, आनीता और शुभांगी सहित बड़ी संख्या में समाज कार्य के शोधार्थी/विद्यार्थी और एन जी ओ प्रबंधन के विद्यार्थी उपस्थित रहे।
नरेंद्र कुमार दिवाकर
शोधार्थी समाजकार्य

Friday, March 31, 2017

बेड़िया समुदाय: जाति, यौनिकता और राष्ट्र–राज्य के पीड़ित

photo google
बेड़िया समुदाय जो कि कभी एक घुमंतू और आपराधिक प्रवृत्ति वाला समुदाय माना जाता रहा है लेकिन राज्य ने उसे अनुसूचित जाति की श्रेणी में श्रेणीबद्ध किया है और उनके विकास लिए तमाम तरह की योजनाएं भी चला रहा है ताकि उनका उत्थान हो सके लेकिन जैसा कि हमेशा होता है वैसा ही इन योजनाओं के साथ भी हुआ है। यह भी मात्र कागजों पर ही सीमित रह गयी हैं।
मध्य प्रदेश के जिला सागर और अशोकनगर, बीना के आस पास बहुत से गाँव है, जहाँ बेड़िया समुदाय के लोग निवास करते हैं। सिर्फ एक ही गाँव जिसका नाम पथरिया है वहाँ परिवर्तन देखने को मिलता है। उसके भी कारण हैं क्योंकि वहाँ 1984 से सत्य शोधन आश्रम की शुरुआत चम्पा बेन के द्वारा की गयी जिसका मुख्य उद्देश्य बेड़िया समुदाय का उत्थान करना था।
चम्पा बेन के द्वारा सबसे पहला कार्य बेड़िया समुदाय की बालिकाओं को शिक्षा देना था और वहाँ देह व्यापार में लगी महिलाओं को जागरूक करना था ताकि वह देह व्यापार जैसे कार्य से बाहर निकल सकें। साथ ही बेड़िया समुदाय में इससे पहले शादी जैसे संस्कारों का भी कोई मूल्य नहीं था, इसके लिए भी लोगों को जागरूक करने का काम किया गया। बाकी गाँव जहाँ बेड़िया समुदाय के लोग निवास करते हैं, वहाँ की स्थितियाँ बहुत ही खराब हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन राज्य की नीतियाँ भी इसके लिए बहुत हद तक जिम्मेदार हैं।

बेड़िया समुदाय पहले से ही शोषित रहा है क्योंकि उनके संपर्क हमेशा राजे-रजवाड़े, जमींदारों, मालगुजारों जैसे सामन्ती लोगों के साथ रहे हैं, जहाँ लगातार उनका शोषण किया गया। जिस तरह से सामन्ती लोगों ने इनका शोषण किया उसी तरह से आज भी हो रहा है।
 सरकार ने भूमिहीनों के लिए कृषि हेतु जो भूमि आवंटित की है, वह  इन्हें भी आवंटित की गयी, लेकिन यह उनके निवास स्थान से 20 या 35 किलोमीटर की दूरी पर है। इनमें से बहुत सारे लोगों को आज भी उस भूमि पर कब्जे नहीं मिले हैं। बहुत सारे ऐसे भी लोग हैं जिन्हें आज तक यह भी नहीं पता है कि उनकी भूमि आखिर आवंटित कहाँ है? जब भी बेड़िया समुदाय के लोगों ने अपने आप को परम्परागत पेशे से बाहर निकालना चाहा है तो उनके सामने कई तरह के सवाल खड़े हो जाते हैं। सबसे पहला सवाल उनकी पहचान का बनता है। जैसे ही लोगों को पता चलता है कि वे बेड़िया समुदाय से हैं तो लोग सहज उपलब्धता के कारण उनसे यौन संबंधो की अपील करते हैं या उन्हें उसी नजरिये से देखते हैं। इस तरह के सामाजिक दबाव को झेलना पड़ता है। यह समुदाय हमेशा किसी न किसी पर आश्रित होकर अपना जीवन निर्वाह करता रहा है। दूसरा यह समुदाय कभी कृषि कार्य से भी नहीं जुड़ा रहा। अब जिन परिवारों में दलित चेतना का विकास हुआ है और जिन्होंने अपने आप को अनुसूचित जाति की श्रेणी में भी गिनना शुरू कर दिया है, और अपने आप को इस कलंक से बाहर भी निकालना चाहते हैं, न तो उन्हें समाज इस कार्य से बाहर निकलने दे रहा है और न सरकार उनके लिए कोई ठोस कदम उठा रही है।

पूरा समुदाय हमेशा से ही उपेक्षा की नजर से देखा जाता है। यदि आप उस गाँव का नाम तक लेते हैं तो आप को लोग ओछी नजर से देखते हैं। लोगों की मानसिकता जाकर वहीं रुकती है कि आप उनके साथ अपने यौन संबंध बनाने जा रहे हैं। बुंदेलखंड में बसे ये लोग अपने लिए ही जीवन और नयी संभावनाएँ तलाश करने में जुटे तो हैं लेकिन यह सभ्य समाज ही उन्हें इस दलदल से बाहर नहीं निकलने दे रहा है। दूसरा कारण यह भी है कि राज्य सरकार इनको अनुसूचित जाति की श्रेणी में श्रेणीगत करती है, लेकिन इस समुदाय में आज भी वह चेतना नहीं जागी है। यहाँ तक कि बहुत से बेड़िया आज भी अपने को उच्च श्रेणी में ही गिनते हैं। ये उन लाभों को भी नहीं ले पाते हैं, जो सरकार अनुसूचित जाति के लिए देती है। पूरे समुदाय में शिक्षा की कमी भी इनके विकास में सबसे बड़ी अवरोधक है, जो इन्हें इस काम से बाहर नहीं निकलने दे रही है।

यदि पूरे बुंदेलखंड और उसकी परिस्थितियों को देखेँ तो ये भी कृषि के लिए अनुकूल नहीं है। जब इनके इतिहास पर नजर डालते हैं तो यह समुदाय कभी भी कृषि कार्य या अन्य व्यवसाय से जुड़ा दिखायी नहीं देता है। अतः इनके लिए कृषि कार्य से जुड़ना अपने आप में एक मुश्किल कार्य है। जिस तरह से इस समुदाय कि निर्मिति के साक्ष्य मिलते हैं उससे तो यही लगता है कि इस समुदाय के उत्थान के लिए सरकार या अन्य संस्थायें इनको इस देह व्यापार के व्यवसाय से बाहर निकालना नहीं चाहती हैं, अन्यथा इनके लिए किसी उचित व्ययसाय की व्यवस्था की जानी चाहिए थी।

ग्राम परसरी की बेला कहती हैं कि- “मुझे यह काम छोड़े काफी साल हो गए हैं। अभी तक मेरा पूरा परिवार इस काम से बाहर आ गया है लेकिन जब से हमने देह व्यापार और राई को छोड़ा है, तब से हम लोग अपने लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ भी ठीक से नहीं कर पाते हैं। हमारे ही गाँव के लोग आज हमसे बहुत धनी हैं और उनके पास आधुनिक सुख सुविधा के साधन हैं, रहने के लिए अच्छे घर हैं। हम तो रोटी के लिए भी मोहताज हैं, बीड़ी बनाने और मजदूरी से घर का खर्च तो किसी तरह चल जाता है लेकिन किसी और काम के लिए पैसे नहीं बचते हैं। कई बार तो यही लगता है कि हमने राई को छोड़ कर बहुत गलत किया। कई बार वापस जाने का मन भी करता है लेकिन फिर सोच कर रह जाती हूँ ”।

यह कहानी किसी एक महिला की नहीं है। बेड़िया समुदाय में इस तरह के बहुत से परिवार मिल जाएंगे। करीला की एक महिला बताती हैं कि सामाजिक दबाव के चलते मैंने राई तो छोड़ दी, लेकिन कोई और काम भी नहीं था। घर के मर्द कुछ भी नहीं करते और पूरे दिन दारू के नशे में घूमते हैं। दारू के लिए भी पैसे मुझसे ही माँगते हैं, इसलिए वापस यहाँ करीला मंदिर पर ‘बधाई’ करती हूँ। शाम तक 2-3 सौ रुपए मिल जाते हैं पर कभी-कभी कुछ भी नहीं मिलता, लेकिन अपने साथ साज वाले को रोज पैसे देने पड़ते हैं।  यह किस्सा किसी एक महिला का नहीं है ऐसे किस्सों से बेड़िया समुदाय भरा पड़ा है।

बेड़िया समुदाय की पहचान एक यौन कर्म करने वाले समुदाय के रूप में सभ्य समाज करता है, लेकिन किसी भी समुदाय और उसके व्यवसाय को समझने के लिए, उस समुदाय की निर्मिति एवं इतिहास को देखना आवश्यक है, क्योंकि बिना किसी की निर्मिति के बारे में जाने उसके बारे में ठीक-ठीक कुछ कहना मुश्किल हो जाता है या कई बार हम उनके लिए गलत निर्णय भी ले लेते हैं। बेड़िया समुदाय को राज्य एक वेश्यावृत्ति करने वाला समुदाय मानता है। क्योंकि यह समुदाय अपने सेक्सुअल रिलेशन कई पुरुषों और सभ्य समाज के संबंधों से इतर बनाता है और उन संबंधो में काफी खुलापन भी होता है। यह समुदाय इस तरह के संबंध बनाने को बुरा नहीं मानता। लेकिन राज्य की विधि और सभ्य बनाने की जो राज्यजनित अवधारणा है, यह समुदाय एक ख़तरे के रूप में उसके सामने खड़ा है। जब इस समुदाय में कभी भी यौन कर्म को बुरा नहीं माना गया और समुदाय यौन कर्म को मान्यता भी देता है, तो उस समुदाय को यह सभ्य समाज या राज्य बुरा कर्म करने वालों की नजर से क्यों देखता है? जब कि इनकी संस्कृति का यह एक अहम हिस्सा भी है। यदि इनके पूरे इतिहास को देखा जाए तो यह एक घुमंतू समुदाय रहा है और कभी भी शादी-ब्याह जैसे संस्कारों को मान्यता न देते हुये अपना विकास करता रहा है। इस समुदाय के लिए यह एक सहज प्रक्रिया है लेकिन राज्य और समाज की नजर में तो नहीं।

राज्य इस तरह के समुदाय को मुख्य धारा में लाने के प्रयास में लगा है, क्योंकि यह समुदाय मुख्य धारा के विपरीत अपने संबंध मुख्य धारा के लोगों के साथ ही स्थापित करता है। लेकिन वही समाज जो इन्हें अपनी रखैल या जो भी नाम दिया जाए के रूप में इस्तेमाल करता है तब ये बेड़िया उनके लिए असभ्य क्यों नहीं होते? यही वो सभ्य समाज है जो इन्हें वेश्यावृत्ति करने वाला भी कहता है और इन्हीं के साथ अपने अनैतिक संबंध भी स्थापित करता है।  
    
समुदाय की निर्मिति में सामन्ती लोगों की भूमिका अधिक दिखायी देती है क्योंकि ऐतिहासिक तथ्यों को देखें तो बेड़िया समुदाय की महिलाएँ राजे-रजवाडों और सामन्ती लोगों से ही अपने संबंध बनाती दिखती हैं। इसका यह कारण भी था कि बेड़िया समुदाय की महिलाएँ अन्य समुदायों की अपेक्षा अधिक सुंदर होती थीं तो इन्हें अन्य समुदायों की अपेक्षा ख़तरे भी अधिक थे। अपने संरक्षण और आर्थिक जरूरतों को पूर्ण करना भी इसमें शामिल था। यहाँ तक इनके सामने कोई समस्या नहीं थी। ब्रिटिश काल में इन्हें पहचान कर, श्रेणी बद्ध किया गया और अपराधी प्रवृत्ति की  संज्ञा दी गयी। लेकिन आजादी के बाद से इनके लिए संकट बढ़ गए। उसके कारण यह थे कि भारत के लगभग सभी ऐसे समुदायों को मुख्य धारा में लाने के लिए जनजाति से जाति व्यवस्था में लाना था क्योंकि राज्य की सत्ता जाति व्यवस्था पर चलती है। इसमें शामिल होने के लिए आप को जाति व्यवस्था में आना पड़ेगा। इनके साथ भी वही किया गया। इन्हें अब जनजाति से बदल कर अनुसूचित जाति में परिवर्तित कर दिया गया। अब जब यह जाति व्यवस्था में आ चुके थे, तो राज्य की विधि के अनुसार ही इन्हें भी चलना था।

हालांकि समुदाय में खुले तौर पर संबंध बनाने की छूट थी। इसी आधार को देखते हुये राज्य ने इन्हें वेश्यावृत्ति करने वाले समुदाय के रूप में पहचान दी। औपनिवेशिक मानसिकता के साथ इन्हें शिक्षित करने की प्रक्रिया और उनकी संस्कृति को समाप्त करने के प्रयास शुरू किए गए। अब इनके सामाजिक मूल्यों, इनकी संस्कृति सभी पर हमला होना तय था। अब इन्हें ‘Open Relation रखने वाले समुदाय या व्यक्ति कभी सभ्य नहीं हो सकते’ इस मानसिकता के साथ सभ्य बनाने के लिए शिक्षित करना था। लेकिन यहाँ एक बात सबसे जरूरी हो जाती है कि इस राष्ट्र-राज्य की अवधारणा में जहाँ इस तरह के समुदाय (बेड़िया समुदाय) जो शादी ब्याह जैसे संस्कारों और सभ्य समाज के बनाए मूल्यों से अलग थे, जो किसी भी पुरुष से अपने स्वच्छंद संबंध बना सकता था, जब राज्य उसे वेश्या का संबोधन दे रहा है तब उसने कभी इस बात पर गौर नहीं किया कि इनके लिए आखिर ग्राहक कहाँ से आ रहें हैं? जो राज्य इन्हें वेश्या का संबोधन दे रहा है दरअसल वही राज्य ही इन्हें ग्राहक भी उपलब्ध कराने का कार्य करता है। अभी तक जिन भी संस्थाओं ने इनके लिए काम करने शुरू किए, वे सभी इन्हें सभ्य समाज की धारा में लाना चाहते हैं। आखिर एक ऐसा समुदाय जो अपने आप को अलग रखकर स्वच्छंद रहता है, किसी से भी अपने संबंध स्थापित करता है और अपने किसी भी निजी मामले में बंधन नहीं रखता, तो उन्हें बदलने की आवश्यकता क्यों पड़ी? लेकिन जिन भी संस्थाओं ने इनके उत्थान के लिए काम शुरू किये, वे भी इन्हें राज्य की नजर से ही देखते रहे।

जब हम इन्हें सभ्य बनाने की बात करते हैं तो हम उन्हें खुद संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में ला रहे हैं। लेकिन कार्य के आधार से समुदाय की पहचान को देखें तो राज्य उन्हें निम्न श्रेणी में ही श्रेणीबद्ध करता है। तो जाहिर सी बात है एक जाति से उठकर यदि वह दूसरी नीची जाति में प्रवेश करते है तो इनके लिए संकट और बढ़ जाते हैं।
राज्य की भूमिका पर गौर किया जाए तो राज्य जहाँ एक तरफ वेश्यावृत्ति को खत्म करना चाहता है, वहीं दूसरी तरफ उन्हीं जगहों को पहचान कर जहाँ वेश्यावृत्ति होती है, वहाँ एड्स जैसे प्रोग्राम चला कर, घर-घर में condom बाँट रहा है, यानि राज्य उन्हें संरक्षण देता हुआ प्रतीत होता है। दूसरी तरफ समुदाय के साथ व्यवहार का रवैया मुख्य धारा की मूल्य व्यवस्था (value system) से मिलता हुआ दिखयी देता है। The Hindu[1] में छपी एक रिपोर्ट को यदि देखा जाए तो राम सनेही जो एक समाज कार्यकर्ता हैं, वह इसे अनैतिक बताते हैं और बेड़िया समुदाय की परंपराओं को खत्म करने के लिए सरकार पर दबाव बना रहे हैं। जब कि सरकार की तमाम एजेंसियां इन्हें संरक्षण दे रही हैं। मुख्य धारा की मूल्य व्यवस्था के आग्रह वाले राम सनेही अकेले नहीं हैं, बल्कि अन्य कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थायें भी इसमें संलग्न हैं। कुल मिला कर बेड़िया समुदाय की यौनिकता समाज और राष्ट्र-राज्य के विरोधाभासी दबाव का शिकार बनती है। जहाँ एक तरफ राष्ट्र-राज्य समुदाय की यौनिकता को अपनी यौनिक अर्थव्यवस्था के तहत बचाए भी रखना चाहता है, वहीं दूसरी तरफ मुख्य धारा के समाज के नैतिक और सांस्कृतिक आग्रहों को ख़ारिज भी नहीं करना चाहता। ये संस्थायें अपने सामुदायिक कार्यों में बेड़िया समुदाय के साथ सांस्कृतिक राजनीति की एजेंट दिखाई देती हैं।

समुदाय यौनिकता के संस्कृतिकरण की प्रक्रिया खास संदर्भों में घटित होती है, जहाँ सामुदायिक/संस्कृति विशेष ज्ञान को अपनी व्यवस्था में शामिल करने से पहले उसका रूपांतरण व प्रसंस्करण होना अनिवार्य हो जाता है। बेड़िया समुदाय के चलायमान होने की जीवनशैली से उपजी संस्कृति उनकी सांस्कृतिक विशेषताओं में परिलक्षित होगी। इस आधार पर सेक्सुअलिटी व उनके स्त्री-पुरुष संबंधों, उनके औपचारिक-अनौपचारिक व्यवहारों, यहां तक कि जीवन और नृत्य-गीतों की अल्हड़ता का अध्ययन और व्याख्या अपनी सम्पूर्णता में गैर विषयीकृत (Non Subjectifed) होकर ही संभव है।
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नरेश गौतम
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
nareshgautam0071@gmail.com
8007840158


Thursday, March 24, 2016

मैं हिजड़ा... मैं लक्ष्मी


डिसेंट कुमार साहू
उत्पीड़ित समूहों द्वारा लिखी जाने वाली आत्मकथाओं ने हाल के समय में ब्राम्हणवादी-पितृसत्तात्मक समाज के वर्चस्वकारी मूल्यों को उद्घाटित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इन आत्मकथाओं ने दमन, शोषण तथा वर्चस्व के अमानवीय पहलुओं को सामने रखा। आत्मकथा लेखक के जीवनानुभव होते हैं. जिसके माध्यम से वह अपनी जीवन, सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य तथा महत्वपूर्ण घटनाओं को रेखांकित करते हैं। इसी क्रम में यह आत्मकथा पितृसत्तात्मक दमन का शिकार हिजड़ा समूह के लक्ष्मी का है। जिस समूह को स्वयं के 'मैं' के पहचान में वर्षों लग जातेहैं, इस 'मैं' के प्रकट होने पर समाज बदले में सिर्फ अपमान, घृणा, तिरस्कार तथा कलंकित जीवन प्रदान करता है। उस 'मैं' का प्रकटीकरण हमारे सामने आत्मकथा के रूप में है। इस आत्मकथा के माध्यम से लक्ष्मी, हिजड़ा पहचान के साथ ही एक मानव होने तथा मानवीय क्षमताओं को बिना किसी भेद-भाव के स्वीकार करने का आग्रह करती है। हमारे समाज व्यवस्था में मुख्य रूप से द्विलिंगीय समाज है। जहां सिर्फ स्त्री-पुरुष को ही मान्यता प्राप्त है तथा इनके बीच होने वाले उत्पादक यौन संबंध ही कानूनी रूप से वैध हैं। नारीवादी विमर्श से पहले तक 'शिश्न' आधारित पहचान की बात की जाती थी अर्थात, 'मैं' का केंद्र 'शिश्न' रहा। इसलिए माना जाता रहा हैं कि बालिका 'शिश्न अभाव' के कारण अपने को बालकों की तुलना में हिन मानती है, इस तरह वह पुरुष सत्ता को स्वीकार कर लेती है। हालांकि फ्रायड के इन विचारों का व्यापक रूप से विरोध हुआ।

नवफ्रायडवादियों में कैरेन हर्नी फ्रायड के विचारों की आलोचना करती हैं। उनका कहना है कि प्रत्येक लिंग(सेक्स) के व्यक्ति समान होते हैं, जरूरत उन्हें प्रोत्साहित करने की होती है। स्त्री-पुरुष के अलावा हमारे समाज में तीसरे लिंग के लोगों का भी अस्तित्व है.जिन्हें हिजड़ा, किन्नर तथा स्थानीय भाषाओं में विभिन्न नामों से जाना जाता है। थर्ड जेंडर लोगों का उल्लेख पौराणिक मिथकीय ग्रन्थों से लेकर कामसूत्र तथा बौद्ध साहित्य में भी मिलता है। इसके बाद भी यह समूह समाज से बहिष्कृत होकर अमानवीय परिस्थितियों में जीवन गुजारने के लिए अभिशप्त है। लक्ष्मी की आत्मकथा इस देश में रहने वाले लाखों थर्ड जेंडर की दिन-प्रतिदिन के अनुभवों का प्रतिनिधित्व करती है। अपनी आत्मकथा के माध्यम से थर्ड जेंडर समूह के व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक तथा संस्थानिक जीवनानुभव को साझा करने का प्रयास किया है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी एक समूह ऐसा है जो अपने इंसानी पहचान तथा मूलभूत मानवाधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है। अप्रैल 2014 में थर्ड जेंडर के रूप में कानूनी मान्यता मिलने के बाद भी आज तक अधिकतर सरकारी तथा गैर-सरकारी आवेदन पत्रों में दो ही जेंडर का उल्लेख मिलता है। क्या इस व्यवस्था में आज भी इस तरह की भिन्नता रखने वाले लोगों के लिए कोई जगह नहीं है?

हमारे समाज में हिजड़ा समूह को लेकर सच्चाई कम और भ्रांतियाँ ज्यादा फैलाई गई हैं। शारीरिक-मानसिक संरचना से लेकर उनके सामाजिक संरचना के बारे में बहुत ही कम लोगों को पता है। यह पुस्तक लगभग उन सभी प्रश्नों का उत्तर देते हुए थर्ड जेंडर के लिए इस समाज में मानवीय गरिमा की मांग करता है। नारीवादी विमर्श ने पितृसत्ता का आधार स्त्री की प्रजनन क्षमता पर नियंत्रण को माना। यही कारण है कि समाज में विवाहित स्त्री-पुरुष (स्वजाति, स्वधर्म में) जो प्रजनन कर सकें, ऐसे जोड़े पितृसत्तात्मक व्यवस्था के केंद्र में होते हैं। जबकि इस व्यवस्था को चुनौती देने वाले लोगों को हाशिये पर ढाकेल दिया जाता है। इस दृष्टिकोण से विचार करें तो तीसरे लिंग के व्यक्ति, जेंडर आइडेंटिटी तथा सेक्सुयलिटी दोनों ही स्तर पर पितृसत्ता के सामने चुनौती पेश करती हैं। यह पुस्तक एक खास तरह के नजरिए के साथ पढ़े जाने की मांग करती है. कि अगर थर्ड जेंडर के लोगों को पारिवारिक तथा सामाजिक सहयोग प्राप्त हो तो वे लोग भी स्त्री-पुरुष के साथ कंधा मिलाकर चल सकते हैं।

इस पुस्तक को पढ़ते हुए जेंडर तथा सेक्स का विभेद भी स्पष्ट होता है। जन्म के बाद जैविक सेक्स के साथ जेंडर भी निर्धारित कर दिया जाता है. लेकिन थर्ड जेंडर बच्चे समाज द्वारा निर्धारित जेंडर को स्वीकार्य नहीं करते हैं। 'उचित व्यवहार' के साँचे में ढालने के लिए समाज में गाली समझे जाने वाले शब्दों (हिजड़ा, छक्का, मामू, गांडु, नामर्द, मऊगा आदि) से चिढ़ाया जाता है, कई बार परिवार के लोगों द्वारा हिंसात्मक व्यवहार भी किया जाता है। थर्ड जेंडर होने वाले बच्चे को अधिकांशतः 13-14वर्ष की उम्र में अपने अलग होने का एहसास हो जाता है। लेकिन उनके लिए यह एक असमंजस की स्थिति होती है। "मैं अन्य लड़के/लड़कियों से अलग हूँ, इसका एहसास होने पर मन में बेचैनी होने लगती है.वह चिंतित होने लगते हैं,उन्हें खुद पर गुस्सा आने लगता है। वह लड़का इस एहसास को दबाकर पुरुषों जैसा बर्ताव करने की कोशिश करता है। लेकिन किशोरावस्था में अपने इस अंतर का एहसास उसे प्रखरता से होता है। उसे लड़कियों-जैसा जीने में खुशी मिलती है और लड़कों-जैसा व्यवहार करने में मुश्किल लगने लगता है।" इसी तरह का अनुभव कोलकाता की थर्ड जेंडर सामाजिक कार्यकर्ता राजर्षि चक्रवर्ती भी लिखती हैं- "चौदह साल की उम्र में मैं हस्तमैथुन करने लगा। मुझे लगा कि कोई बीमारी हो गई है। उसे बंद करने के ख्याल दिमाग में कौंधने लगे। मैं लिंग के ऊपर के बालों को साफ किया करता था। मैं पवित्र बनना चाहता था।" वास्तव में थर्ड जेंडरव्यक्ति बहुसंख्यक समाज (स्त्री-पुरुष की द्विलिंगी समाज) में अपने व्यवहार को घृणित तथा असामान्य मानने लगते हैं तथा इसे समाज में प्रचलित मानकों के अनुरूप ढालने का प्रयत्न भी करते हैं।

लक्ष्मी थर्ड जेंडर होने के साथ एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं. उन्होंने जीवन के वे तमाम पहलूओं कोइस पुस्तक के माध्यम से सामने रखने की कोशिश की है, जो सभ्य कहें जाने वाले समाज में सामाजिक बदनामी के डर से छिपा दिऐजाते हैं । उनकी कोशिश है कि समाज थर्ड जेंडर लोगों को जाने, उनसे बात करें, उनके साथ किसी परग्रही (एलियन) की तरह व्यवहार न किया जाए, इस तरह वह पब्लिक स्पेस में थर्ड जेंडर लोगों की उपस्थिती चाहती हैं। एक थर्ड जेंडर के सामने अपनी पहचान स्थापित करने से पहले खुद भी उस पहचान को स्वीकार करने की चुनौती होती है। इस तरह पहचान का संघर्ष पहले व्यक्तिगत फिर पारिवारिक और बाद में सामाजिक होता है। किसी भी थर्ड जेंडर के लिए अपने जेंडर की पहचान (आइडेंटिटी) निर्धारित करना सबसे बड़ी चुनौती होती है। क्योंकि आस-पास स्वयं (थर्ड जेंडर) जो महसूस कर रहा है. ऐसे लोग दिखायी नहीं देते. ऐसे में खुद को कई बार असामान्य भी मान लिया जाता है। यही कारण है कि जब लक्ष्मी अपने जैसे अन्य लोगों से मिलती है तो उसे बहुत अच्छा लगता है। लक्ष्मी के परिवार वालों ने थोड़ी-बहुत समस्याओं के बाद उसकी पहचान को स्वीकार कर लिया। लक्ष्मी के पापा कहते हैं- "अपने ही बेटे को मैं घर से बाहर क्यों निकालु? मैं बाप हूँ उसका, मुझ पर ज़िम्मेदारी है उसकी। और ऐसा किसी के भी घर में हो सकता है। ऐसे लड़कों को घर से बाहर निकालकर क्या मिलेगा? उनके सामने हम भीख मांगने के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं छोड़ते हैं।" अधिकांश थर्ड जेंडर बच्चों के सामने आजीविका का ही प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण होता है। परिवार तथा समाज में किए जा रहे भेदभावपूर्ण व्यवहार के कारण ऐसे बच्चे अपने पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते। लक्ष्मी इसे थर्ड जेंडर समूह के पिछड़ेपन का मुख्य कारण मानती हैं। वह कहती हैं कि "मुझे प्रोग्रेसिव हिजड़ा होना है...और सिर्फ मैं ही नहीं अपनी पूरी कम्यूनिटी को मुझे प्रोग्रेसिव बनाना है..."

लक्ष्मी, हिजड़ा पहचान स्वीकार करते हुए, गुरु-चेला परंपरा में रहते के बाद भी उन नियमों तो चुनौती देती है जो उसके सम्पूर्ण विकास में बाधा के रूप में सामने आती हैं। ऐसे कई वाकये हैं जब लक्ष्मी अपने समुदाय के हितों के लिए कदम उठाती है। ऐसी ही एक घटना है जब एचआईवी एड्स की स्थिति को लेकर मीटिंग में शामिल होने के लिए लक्ष्मी को बुलाया जाता है तो उनकी गुरु कहती है-"क्यों जाना चाहिए वहाँ...क्या जरूरत है इतना सामने आने की? हम भले, हमारा समाज भला और अपना काम भला। लेकिन मुझे (लक्ष्मी) ऐसा नहीं लगता था। बाकी समाज में हम जितना घुल-मिल जाएंगे, समाज हमें और भी उतना जानने लगेगा, ऐसा मुझे लगता था।" इस पुस्तक में गुरु-चेला परंपरा का विस्तृत वर्णन पढ़ने को मिलता है। वास्तव में परिवार से निकाले गए थर्ड जेंडर बालक के लिए गुरु-चेला संबंधों का जाल सुरक्षा, अपनेपन तथा आजीविका के दृष्टि से एकमात्र स्थान होता है। हिजड़ा समूह स्वीकार कर लेने के बाद परिवार वालों तथा पिछली ज़िंदगी से संबंध समाप्त करताहै। समूह के नियमानुसार बधाई मांगना या नाचना ही उनकी जीविका का साधन होता है, लेकिन लक्ष्मी अपने परिवार वालो के साथ संबंध रखते हुए सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम करती है। इस तरह उसकी लड़ाई समाज तथा अपने ही समूह के नियमों के विरुद्ध दोनों ही स्तर पर जारी रहती है। थर्ड जेंडर सामाजिक कार्यकर्ता होने के कारण लक्ष्मी की आत्मकथा से तत्कालीन हिजड़ा समाज की स्थिति, उनके प्रति तथाकथित मुख्यधारा के समाज का नजरिया तथा हिजड़ा समुदाय की स्थिति में परिवर्तन के लिए किए जा रहे कार्यों का पता चलता है। ये कार्य व्यक्तिगत तथा पारिवारिक स्तर पर काउन्सलिन्ग, संस्थानिक स्तर पर स्वास्थ्य, शिक्षा, पुलिस प्रशासन के लोगों के साथ बातचीत आदि शामिल है। नीति निर्माण के लिए भी संवैधानिक स्तर पर हस्तक्षेप किया जाना भी आवश्यक है।

बहुत सारे पहलू ऐसे होते हैं जिनसे प्रत्येक थर्ड जेंडर को गुजरना पड़ता है, लक्ष्मी उन पहलुओं को पाठक के सामने रखती है। "पहले पुरुषों के शरीर के अंदर की औरत के मन का दम घुटना... बाद में हिजड़ा होने पर परिवार का सहारा छुटना... करीबी कोई नहीं था... समाज द्वारा किया हुआ क्रूर व्यवहार, उसकी वजह से होने वाली तकलीफ... उत्पादन का साधन नहीं... कोई नौकरी नहीं देता था... पर जीने के लिए पैसा तो चाहिए था... फिर उसके लिए किया गया सेक्स वर्क... मन में हमेशा डर... तनाव... हमेशा उपस्थित होने वाला सवाल... 'मैं कौन हूँ?'... उसके जवाब तो मिलते ही नहीं थे, उल्टा आनेवाले नाना तरह के अनुभवों से मन की उलझनें बढ़ती जाती थी। उससे आने वाला नैराश्य, संभ्रम... ज़िंदगी की कोई कीमत ही नहीं... ना परिवार में, ना समाज में... और फिर खुद की ही नजरों से खुद गिर जाना... साला क्या लाइफ है?" वास्तव में ये विवरण प्रत्येक थर्ड जेंडर व्यक्ति के जीवन की कहानी है, शायद ही कोई ऐसाथर्ड जेंडर हो जो इस तरह के अनुभव से न गुजरा हो।
हिजड़ा समूह तथा उनके जीवन संघर्षों के बारे में बहुत शुरुआती लेखन होने के बाद भी लगभग सभी पक्षों को इसमें शामिल करने की कोशिश की गई है। बिना किसी औपचारिक अध्यायीकरण के यह आत्मकथा पाठकों के सामने 176 पृष्ठों में है। यह आत्मकथा मराठी में लिखी गई आत्मकथा का हिन्दी अनुवाद है इसलिए वाक्य संरचना के स्तर पर मराठी वाक्य संरचना का प्रभाव दिखायी देता है। आत्मकथा की शुरुआत लक्ष्मी के बचपन से होती है और उम्र के अलग-अलग पड़ाओं को रेखांकित करते हुए आगे बढ़ती है। इसके बावजूद घटनाओं में क्रमबद्धता नहीं है, घटनाओं को सुविधानुसार लिया गया है। इससे पहले भी हिन्दी में कुछ उपन्यास हिजड़ा समुदाय तथा उनकी ज़िंदगी के बारे में लिखेगएहैं लेकिन यह आत्मकथा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि स्वयं उस समूह के व्यक्ति के द्वारा लिखा गया है। जो इस दंभ को झेल रहा है. हिन्दी के पाठकों के लिए बहुत सारी ऐसी बातें हैं जो नयी होंगी, लेकिन वह इस बात को समझने की कोशिश करेंगे कि हिजड़ा व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक संरचना किस तरह की होती है।

लक्ष्मीनारायण  त्रिपाठी की आत्मकथा हिन्दी में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है .

लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के समाजकार्य विभाग में शोधार्थी हैं . संपर्क : dksahu171@gmail.com  

Friday, February 13, 2015

थर्ड जेंडर 'कल और आज'

“हम ऐसा काम क्यों करें, जिसे समाज घृणा की दृष्टि से देखता है। मुझ जैसी सभी थर्ड जेंडर चाहती हैं कि वो गुरु-शिष्य परम्परा में बंधकर न रहे, वह भी पढ़ना चाहती हैं, काम करना चाहती हैं, आगे बढ़ना चाहती है, समाज में अपनी पहचान बनाना चाहती हैं।”
साभार मितवा संकल्प समिति
ये कहना वाक्य एक थर्ड जेंडर का है। यह वाक्य थर्ड जेंडर व्यक्तियों की आशा और इच्छाओं को व्यक्त करता है। जिसे समाज ने हमेशा से ही अनदेखा किया है। उनकी समस्याओं को समझने के बजाए, समाज ने उनको ही समस्या समझा और लगातार बहिष्कृत किया। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में समाज के हाशिए पर जीवन जी रहे थर्ड जेंडर मुख्यधारा के समाज में बहिष्कृत, व्यंग्य, घृणा, तिरस्कार आदि सहने को अभिशप्त रहे हैं। अगर ऐतिहासिक रूप से भी देखा जाए तो इनकी सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक स्थिति या उपयोगिता अय्याश राजा-महाराजाओं व नवाबों के हरमों तक ही सीमित थी।  
इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि देश में भिन्न यौन स्थिति के कारण सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से दीन-हीन थर्ड जेंडर के पुनर्वास, उनके जीवन स्तर में सुधार, सामाजिक संरक्षण आदि के लिए सरकारी स्तर पर कोई प्रयास नहीं किया गया। भारतीय नागरिक होने के बावजूद थर्ड जेंडर संविधान प्रदत्त अधिकारों से वंचित रहे हैं।
भारतीय समाज में जिस तरह के परम्परागत ढांचे का विकास थर्ड जेंडर को लेकर हुआ है, अब उसमें बदलाव आ रहे हैं। इसका कारण वैश्विक स्तर पर ऐसी विभिन्नता रखने वाले लोगों का संगठित होना तथा पिछले कुछ समय से इनके मानव अधिकार संबंधी संघर्ष को माना जा सकता है। थर्ड जेंडर अब अपनी पारम्परिक पहचान को नकारते हुए अपनी अलग पहचान निर्माण के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वह अब नहीं चाहते कि वे गुरु-शिष्य परम्परा में बंधकर जीवन व्यतीत करें या हिजड़ा पहचान अपनाये। वे चाहते हैं कि समाज उन्हें घृणा की दृष्टि से न देखे बल्कि एक मनुष्य होने के नाते उन्हें भी वे सभी अधिकार प्राप्त हो जिससे स्वतंत्र, गरिमापूर्ण जीवन व्यतीत किया जा सके। थर्ड जेंडर की स्थिति में आ रहे परिवर्तन को इसलिए भी महत्वपूर्ण माना जा सकता है क्योंकि परिवार तथा समाज अभी भी ऐसे लोगों को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में जो परिवर्तन हुए भी हैं। वह सूक्ष्म स्तर पर ही माने जा सकते हैं, फिर भी यह भारतीय समाज में बने हिजड़ा पहचान को टक्कर दे रही हैं। इसी परिवर्तन की कहानी है चाँदनी की जिसे अन्य थर्ड जेंडर के भांति भेद-भाव, छीटा-कसी व कई तरह के प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा। इसके बावजूद चाँदनी अपनी अस्मिता और अधिकारों के लिए लड़ती रही। साथ ही पारम्परिक रूप से जो सांस्कृतिक घेरा बनाया गया है उनके काम को लेकर, जीविकोपार्जन के साधन को लेकर, इन सब को चाँदनी ने तोड़ती हुई शिक्षा, स्वरोजगार के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दी है। चाँदनी की कहानी उसी की जुबानी....
क्षेत्र अध्ययन के दौरान चाँदनी से मिलने का मौका मिला। चाँदनी 24 साल की हैं और एक गैर-सरकारी संगठन में काम करती हैं। वह मूलतः रहने वाली कोरबा की हैं लेकिन पिछले 4-5 साल से रायपुर में ही रहती हैं। अपने अलग होने का एहसास 12-13 साल की उम्र में हो जाने पर उनकी कोशिश रही है कि वह 12वीं के बाद कोई व्यवसायिक शिक्षा प्राप्त करके अपने पैरों पर खड़ी हो जाएं। यही कारण रहा कि उन्होंने 12वीं के बाद प्रोफेशनल इन मल्टी मीडिया तथा फैशन डिजाइनिंग विद इंटीरियर डिजाइनिंग की पढ़ाई पूरी की।
चाँदनी अपने बारे में बताती हैं कि -जब मैं 11-12 साल की थी, तो मेरे हाव-भाव को देखकर मेरे दोस्त, भाई तथा अन्य साथी मुझे छक्का, हिजड़ा कहते थे। तब मुझे ये पता नहीं था कि ये क्या होते हैं और किसे कहते हैं। जब मैं लड़को की तरफ आकर्षित होने लगी और मुझे लगने लगा की वो मुझे प्यार करें। तब मैं सोचती थी कि मैं एक लड़का हूँ, लेकिन Filling लड़कियों जैसी क्यों?
उम्र बढ़ने के साथ जब मेरे व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया तो परिवार वाले कहने लगे कि तुम एक लड़के हो तो लड़के जैसा ही रहो, तुम्हें लड़की जैसा व्यवहार करने की जरूरत नहीं, समाज स्वीकार नहीं करेगा, आगे जाकर तुम्हारा कोई भविष्य नहीं होगा, तुम क्या करोगे, कहाँ रहोगे, ये सब बोलकर घर वाले दबाव बनाते थे। आगे चाँदनी कहती हैं, उनका ये कहना जायज ही था क्योंकि उन्होंने तो पैदा लड़का ही किया था। उन्हें तो मेरे बारे में पता भी नहीं है कि मैं क्या महसूस करती हूँ। बाद में जैसे ही उनको मेरे बारे में थोड़ा बहुत पता चला तो मेरी बहन, भाई, मम्मी, पापा सभी लोग मुझे छक्का, हिजड़ा, गांडु, मामू ये सब बोलना चालू कर दिया था। मेरे पापा तो मुझे गंदी-गंदी गालियां भी दिया करते थे। थर्ड जेण्डर की आधी ज़िंदगी तो यही समझने में निकल जाती है कि हम औरत हैं या मर्द और फिर इस सवाल में उलझ जाती है कि हम इन दोनों में से कुछ क्यों नहीं है? जब दस-बीस सालों की जद्दोजहद के बाद हम खुद को स्वीकार करते हैं, तो समाज हमें स्वीकार नहीं करता।
मैं कई बार घंटो रोती हुई सोचती रहती, मैं ऐसी क्यों हूँ? और मैं अकेली ही ऐसी हूँ क्या? उस समय मैं अपने जैसे लोगों के बारे में जानती भी नहीं थी। कोई 12-13 साल का बच्चा जानेगा भी कैसे? मैंने बहुत कोशिश की अपने को बदलने की, सेविंग करती थी ताकि बाल आ जाए, लड़कों के साथ घूमती थी, बड़े भाई को मैं जिद करती थी उनके साथ जाने के लिए, गाली देना सीखती थी, वो सब करती थी जो लड़के किया करते हैं। मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि वो सब मेरे लायक था। फिर मैंने निश्चय किया कि जो मैं महसूस करती हूँ वैसे ही रहूँगी। आज से 2 साल पहले मैं टी. आई. में काम करती थी, अच्छी-ख़ासी नौकरी थी, सब कुछ अच्छा चल रहा था। अचानक पापा को लगा कि मेरी क्रिया-कलाप कुछ ज्यादा ही बढ़ गये हैं तो उन्होंने मुझे घर से रात के 1 बजे निकाल दिया। ऐसे में मेरे पास कोई विकल्प नहीं था कि मैं कहाँ जाऊ और कहाँ रात बिताऊँ? ऐसे में मैंने सरकारी अस्पताल में लाश रखने वाले कमरे के बगल में एक महीना बिताया, ये सोचकर की कभी तो घर वाले मुझे ले जाएंगे। इस बीच न परिवार वाले, न रिस्तेदार और न ही किसी मित्र ने मुझसे संपर्क करने की कोशिश की। अस्पताल के गार्ड को मेरे हाव-भाव से मेरे थर्ड जेंडर होने का एहसास हो गया था, तो मुझे वह परेशान करने लगा और फाइनली मुझे हास्पिटल भी छोड़ना पड़ा।

मैंने हिजड़ों से संपर्क किया, उन्होंने मुझे बुलाया। वहाँ जाने के बाद उन्होंने मुझे बताया कि जो हमारे पास जो आय का साधन है तुम भी चाहों तो वैसा कर सकती हो। हिजड़ों के साथ रही, गुरु बनाई, ट्रेन में लगभग डेढ़ साल तक पैसे मांगकर अपनी ज़िंदगी चलाई। इस बीच लगातार लोगों की उपेक्षाओं, गाली-गलौच, अभद्र व्यवहार, छीटा-कसी का शिकार होती रही। फिर मुझे लगा की मैं अपनी अलग ज़िंदगी बनाऊ क्योंकि लोग सिर्फ हमसे घृणा करते हैं, हमारे साथ दुर्व्यवहार करते हैं। इस संबंध में जब मैंने अपने गुरु से बात की तो पहले थोड़ा गुस्सा हुई, बाद में मान गई और आज मैं यहाँ हूँ। अपने जैसे लोगों की मदद कर रही हूँ।
साभार मितवा संकल्प समिति 
चाँदनी अपने काम को लेकर खुश हैं, और हो भी क्यों न। वह आत्मनिर्भर  हो गई हैं, आज उनका खुद का घर है, आस-पास के लोगों के साथ उठना-बैठना होता है। चाँदनी बताती हैं कि कभी भी आस-पास के लोगों के द्वारा यह महसूस नहीं हुआ कि मैं थर्ड जेंडर हूँ, या वो लोग मुझे नापसंद करते हो। घर के बारे में पूछने पर कहती हैं कि माँ और भाभी से चोरी-छुपे बात होती है, पापा गंभीर रूप से बीमार हैं, तब भी वो कहते हैं कि उनका सिर्फ एक ही बेटा है। मैं तो इसी में खुश हूँ कि मेरी माँ मुझे स्वीकार कर चुकी है। भले ही चाँदनी खुश हो लेकिन अपनो की कमी उसे आज भी है। इस कमी का एहसास करती हुई वह चुप हो जाती हैं फिर वह भावुक होकर कहती हैं- आज मेरे पास सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है। आत्मनिर्भर होने से कुछ नहीं होता इंसान को भावनात्मक लगाव की आवश्यकता होती है, लगता है कि अपना कोई साथ हो। कल के दिन अगर मेरा पैर थोड़ा भी लड़खड़ाए तो वो संभाल सके। आज तो खड़ी हो गई हूँ लेकिन कल कोई संभालने वाला नहीं है। आज का तो ठीक है पर कल का पता नहीं, ऐसे में कहीं न कहीं दिल में डर भी है, एक खालीपन भी है। मुझे भी अपने परिवार की कमी खलती है। लोग कहते हैं कि किस्मत से ज्यादा और वक्त से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता तो मैं उसी वक्त का इंतजार कर रही हूँ। 

  डिसेन्ट कुमार साहू
   जूनियर रिसर्च फ़ेलोयूजीसीसमाज-कार्य

   महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालयवर्धा - 442005, महाराष्ट्र.
   ई-मेल: dksahu171@gmail.com 

Saturday, February 7, 2015

शोधार्थी जाने अपने हक



विद्यार्थियों, शिक्षकों, प्रशासकों व संस्थानों के सहयोग के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग [यु.जी.सी] द्वारा निम्न दिशा-निर्देश ज़ारी किये गए हैं. ये दिशा-निर्देश देश के समस्त कॉलेजों व विश्वविद्यालयों [इसमें उच्च शिक्षा से जुड़े सभी संस्थान शामिल हैं, चाहे उन्हें कॉलेज या विश्वविद्यालय ना कहा जाये], पर बिना किसी अपवाद के लागु होगें. ये सभी कॉलेजों व विश्वविद्यालयों के लिए अनिवार्य होगा की वो इन्हें अपने विवरणिका [Prospectus] व वेबसाइट के मुख्य पृष्ठ पर जगह दें.
इन अधिकारों को लागु करना शैक्षणिक संस्थानों, प्रशासकों, निति निर्माताओं, शिक्षकों व विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य होगा. अगर इन अधिकारों को लागु नहीं किया जाये तो विद्यार्थी शिकायत व पूर्ति अधिकारी से शिकायत कर सकता है. इन अधिकारों के सन्दर्भ में कोई भी गंभीर या गैर-ज़िम्मेदाराना अवहेलना यु.जी.सी के सूचना में लाई जा सकती है, और साथ ही गलती करने वाले के खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही की जा  सकती है. कुछ उल्लेखित प्रावधान यु.जी.सी के नियमों व दिशा- निर्देशों में पहले से ही शामिल हैं. लेकिन विद्यार्थियों को उन सभी नियमों व  दिशा-निर्दशों का लाभ उठाना चाहिए जो यहाँ शामिल नहीं हैं:-
1.] प्रवेश
1.1] किसी भी पाठ्यक्रम के घोषणा या प्रचार के समय ये स्पष्ट किया जाये कि प्राप्त होने वाली डिग्री यु.जी.सी द्वारा सुनिश्चित हो और दुसरे जुड़े हुए प्रावधान [यु.जी.सी एक्ट22 स के अंतर्गत, नवीन सूची यु.जी.सी. के वेबसाइट पर उपलब्ध] और डिग्री प्रदान करने वाला विश्विद्यालय यु.जी.सी. द्वारा निर्मित सूची में उपलब्ध हो. [सूची यु.जी.सी के वेबसाइट पर उपलब्ध].
1.2] प्रवेश लेने के इच्छुक विद्यार्थियों को विवरणिका [Prospectus] प्राप्त करने का अधिकार है, जिसमें पाठ्यक्रम का नाम, अकादमिक रूपरेखा और शिक्षकों की विशेषज्ञता, मूल्यांकन का तरीका, पाठ्यक्रम की अवधि, अकादमिक कैलेन्डर, शिक्षण शुल्क व अन्य शुल्कों के बारे में स्पष्ट सूचना हो. विवरणिका[Prospectus] में दी गई सूचना पाठ्यक्रम के दौरान ना बदली जाये, जिससे की विद्यार्थियों को कोई असुविधा हो, अगर किसी भी प्रकार का कोई बदलाव अनिवार्य हो तो हर विद्यार्थी को व्यक्तिगत रूप से सूचित किया जाये, कारण के साथ.
1.3]विवरणिका [Prospectus] में प्रवेश से जुडी प्रक्रियाओं व योग्यताओं को स्पष्ट किया जाये. इस प्रक्रिया में विगत अकादमिक प्रदर्शन, प्रवेश परीक्षा व साक्षात्कार को महत्त्व दिया जाये. प्रवेश परीक्षा के लिए पाठ्यकर्म व रुपरेखा स्पष्ट की जाये. प्रवेश परीक्षा में बैठे अभियार्थियों द्वारा प्राप्त कुल अंक व वेटिंग लिस्ट उन्हें उपलब्ध कराया जाये.
1.4] आरक्षण के सन्दर्भ में सूचना या वर्ग विशेष का कोटा, इन आरक्षणों के लिए योग्यता, प्रवेश के लिए ज़रूरी प्रमाण पत्रों की सूचना विवरणिका [Prospectus] में स्पष्ट किया जाये.
1.5] जिन कागजातों या प्रमाण-पत्रों का उल्लेख विवरणिका [Pospectus] में ना हो उन्हें विद्यार्थियों से जाँच के लिए प्रस्तुत करने के लिए ना कहा जाये. जबकि संस्थान विद्यार्थी से जाँच के लिए मूल कागजातों या प्रमाण-पत्रों की मांग कर सकता है[ जैसे स्थानान्तरण प्रमाण पत्र, प्रमाण पत्र, जाति प्रमाण पत्र आदी]. संस्थान किसी विद्यार्थी का मूल प्रमाण पत्र नहीं रख सकता. [As notified by UGC on 23rd April 2007, F. No. 1-3/2007(CPP II)]
2.] अध्ययन और अधिगम का स्तर
2.1] ये कॉलेजों व विश्वविद्यालयों की ज़िम्मेदारी है कि विद्यार्थियों में अधिगम [सीखने] के गुणों का विकास करे, उन्हें सीखने के लिए ऐसा वातावरण दिया जाए जो उच्च स्तर का हो. विद्यार्थियों को ये भी अधिकार है की वो शिक्षण से जुडी सामग्री संस्थान द्वारा पारित सभी भाषाओं में शिक्षण व परीक्षा के लिए पा सकते हैं.
2.2] वो विद्यार्थी जो अपने सामाजीक पिछड़ेपन या शिक्षण माध्यम में बदलाव के कारण कठिनाई का सामना करते हैं उन्हें विशेष सहयोग प्राप्त करने का अधिकार है.
2.3] विद्यार्थियों को ये भी अधिकार है की उन्हें प्रशिक्षित शिक्षक, शिक्षण अवधि, हर पाठ्यकर्म के लिए संपर्क समय, जैसी जानकारियां दी जाए व पाठ्यक्रम समय पर पूरा किया जाये. [शिक्षकों के निम्नतम शेक्षणिक योग्यताओं के लिए देखें यु.जी.सी के दिशा-निर्देश2010]
2.4] विद्यार्थियों को ये भी अधिकार है की उन्हें उचीत सुविधाएँ, सेवाएं व संसाधन दिए जाये, जैसे-पुस्तकालय [उसकी पाठ्यपुस्तकें, सन्दर्भ पुस्तकें, जर्नल्स, ई-संसाधन आदि] प्रयोगशालायें और ICT की भाषाओं से जुड़ी सुविधाएँ शिक्षण के माध्यम व परीक्षा दोनों के लिए.
2.5] विद्यार्थी इसके भी अधिकारी हैं कि उनका उचित, पारदर्शी व समय पर मूल्यांकन हो. मूल्यांकन प्रक्रिया में कोई भी शिकायत आने पर उनके उत्तर पुस्तिकाओं का पुनः परिक्षण व मूल्यांकन हो. विद्यार्थियों को ये भी अधिकार है कि उन्हें परिणाम की घोषणा के बाद उत्तर पुस्तिकायें दी जाये.
2.6] विद्यार्थी इसके अधिकारी हैं कि उनके लिए समय पर परीक्षा आयोजित हो और विवरणिका [Prospectus] में दर्ज़ अकादमीक कैलेन्डर के अनुसार परिणाम घोषित किया जाये. वो इसके हकदार हैं कि उनके परिणाम घोषीत हो जाने के 180 दिनों के भीतर उनको डिग्री प्रदान कर दी जाये.
2.7] विद्यार्थी इसके अधिकारी हैं कि वो शिक्षण के स्तर व संस्थान के ढांचा के बारे में नियमीत प्रतिक्रिया दें. कॉलेज व विश्वविद्यालय इसकी व्यवस्था करे की वो विद्यार्थियों से इन प्रतिक्रियायों को नियमित रूप से लें और इसका उपयोग संस्थान के समीक्षा व संवर्धन के लिए करे.
3.] शुल्क और आर्थीक मदद
3.1] विद्यार्थी इसके अधिकारी हैं कि उन्हें कुल रकम व शुल्क, भुगतान के माध्यम व भुगतानों की सूचना पूर्व में दी जाये. अगर विद्यार्थी किसी पाठ्यक्रम में प्रवेश से पहले छोड़ता है तो अधिकतम 1000/- काटने के बाद, उसे बाकी राशी का भुगतान कर दिया जाये.[As notified by UGC on 23rd April2007, F. No. 1-3/2007 (CPP II)]
3.2] कॉलेज व विश्वविद्यालय अपने तरफ से भरसक कोशिश करेगें कि वो आर्थीक संसाधनों के आभाव में रहे किसी विद्यार्थी को स्तरीय शिक्षा के अवसर से वंचित नहीं करेगा. यह निति निर्मातावों की जिम्मेदारी है कि वो इन नीतियों को लागु करने के लिए उचित कोष की व्यवस्था करें. साथ ही विवरणिका [Prospectus] में छात्रवृत्ति/शोधवृती व आर्थिक सहायता योजना के बारे में विद्यार्थी को जानकारी उपलब्ध कराया जाये. साथ ही चयन प्रक्रिया पूर्णत: वैधानिक व पारदर्शी हो.
4.] आधारभूत संरचना:-
4.1] विद्यार्थी इसके अधिकारी हैं कि उन्हें उचित संसाधन उपलब्ध कराये जाये, जैसे-क्लासरूम, पुस्तकालय, प्रयोगशाला और अन्य अकादमिक सुविधाएँ जो उच्च शिक्षा के लिए ज़रूरी हों. [UGC rules and regulations for fitness of universities and colleges for Grants under section 12 B of the UGC Act 1956, Private University Regulation, Deemed University Regulation]
4.2] विद्यार्थी इसके अधिकारी हैं कि उन्हें खेलकूद और मनोरंजन की सुविधायेंसहित और अन्य दूसरे क्रियाकालापों के लिए सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाये.
4.3] विद्यार्थी इसके अधिकारी हैं कि उनकी चिकिस्ता व स्वास्थ्य से जुडी ज़रूरतें पूरी की जाये, जैसे मुफ्त व क्रमिक स्वास्थ्य जाँच और उपचार की सुविधा व आपातकाल के स्थिति में हॉस्पिटल की सुविधा.
4.4] विद्यार्थी इसके अधिकारी हैं कि उन्हें उचित, साफ-सुथरा छात्रावास उपलब्ध कराया जाये, जिसमे सारी मुलभूत सुविधाएँ हो. ऐसे आवास किफायती हों व संस्थान द्वारा इसका उपयोग  किसी और उद्देश्य के लिए ना किया जाये.
4.5] शारीरिक रूप से अक्षम विद्यार्थी को विश्वविद्यालय की सभी योजनाओं, सुविधाएँ व सेवाएं बिना भेदभाव के उपलब्ध कराई जाएँकॉलेज व विश्वविद्यालय ये कोशिश करे कि वो इस तरह के पाठ्यक्रम की रचना करे, जो अधिकतम विद्यार्थियों को संबोधित करे, जिनमें उनके लिए निम्नतम अवरोध व अधिकतम सीखने के अवसर हो. शारीरिक रूप से अक्षम सभी विद्यार्थियों के लिए विशेष पुस्तकालय उपलब्ध कराये जाये[ जैसे-ब्रेल और ICT संसाधन, सांकेतीक भाषा को समझने वाले दुभाषियों की उपलब्धता, आवश्यक यंत्रों व इलेक्ट्रॉनिक संसाधनों की उपलब्धता और  शारीरिक रूप से अक्षम विद्यार्थियों के लिए परिक्षा में छूट. [(Equal Opportunity, Protection of Rights and Full Participation) Act, 1995; UGC
D.O.No.F-6-1/2006 (CPPII), F.No.6-1/2012 (SCT)]
5.] विद्यार्थियों को ये भी अधिकार है कि  उनके साथ बिना किसी भेदभाव के व्यवहार किया जाये [अर्थात् प्रर्त्याडना या बहिष्कार के लिए जगह ना हो]. संस्थान अपने किसी भी आयाम व क्रिया कलाप में जाति, लिंग, नस्ल, रंग, धर्म, जन्मस्थान, राजनितिक मान्यतायों आदि को निषेध करेगा.
5.1] विशेषतः किसी भी क्षेत्र या समूह से नाता रखने वाले पिछड़े जाति और आदिवासी विद्यार्थियों के साथ संस्थान किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं करेगा.[ [UGC (Promotion of Equity in Higher Educational Institutions) Regulations, 2012]
5.2] विद्यार्थियों को ये भी अधिकार है कि वो यौन हिंसा की स्थिति मेंगठित समिति से शिकायत कर सकते है. ये हर कॉलेज या विश्वविद्यालय के लिए ज़रूरी है कि वो इस समीती की आम सूचना दे औए ये समिति उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों व नियमों का पालन करे. [Vishaka and Others vs. State of Rajasthan and Others (JT 1997 (7) SC 384)]
5.3] सभी विद्यार्थियों को रैगिंग से बचने का अधिकार है.  [UGC (Curbing the Menace of Ragging) Regulation, 2009]
6.] लोकतंत्र का नागरिक होने के नाते विद्यार्थियों को संस्थान के अन्दर व बाहर अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का पूर्ण अधिकार है. संस्थान विचारों के आदान-प्रदान के लिए एक मंच उपलब्ध कराये जिससे विद्यार्थियों में सांस्कृतिकता, आलोचनात्मकता व तार्किकता विकसित हो सके.
7.]  विद्यार्थियों को संगठन और संघ बनाने का अधिकार है, जिसमें छात्र संघ के प्रतिनिधियों को वो सीधे तौर पर चुन सकते है. इन प्रतिनिधियों को कॉलेज या विश्वविद्यालय स्तर पर आतंरिक स्तरीय मुल्यांकन, शिकायत समितियों और अकादमिक समितियों में भाग लेने का अधिकार होगा. कॉलेज या विश्वविद्यालय इस तरह की कार्यप्रणाली अपनाये जिसमें वो विद्यार्थियों के सन्दर्भ में लिए जाने वाले मुख्य निर्णयों को लागु करने से पहले छात्र प्रतिनिधियों से सलाह-परामर्श लें.
8.] विद्यार्थियों को ये भी अधिकार है कि जिस भी संस्थान में वो पढ़ रहे है या पढ़ना चाहते, उसके बारे में उन्हें पूर्ण व सही जानकारी दी जाये. अतः ये हर कॉलेज या विश्वविद्यालय के लिए ज़रूरी है कि वो निम्नलिखित जानकारियाँ अपने वेबसाइट, विवरणिका [Prospectus] पर उपलब्ध कराये, जैसे-संस्थान की स्थिति, मान्यता, प्राप्त रेटिंग, भौतिक संसाधन व संपत्ति, कार्यकारी समूहों की सदयस्ता और संस्थान के आय के स्रोत और आर्थिक स्थिति व अन्य जानकारियां जो विद्यार्थी के लिए ज़रूरी हो.  [Section 4 (1) of Right to Information Act 2005]
9.] विद्यार्थियों को अपने शिकायत का समाधान शिकायत व समाधान समिति से 10 दिनों के भीतर प्राप्त करने का अधिकार है. अगर वो संतुष्ट ना हो तो उन्हें विश्वविद्यालय के मुखिया के समक्ष शिकायत दर्ज़ करने पर 30 दिनों के भीतर समाधान प्राप्त करने का अधिकार है.
 [UGC (Grievance Redressal) Regulations, 2012]
10.] यु.जी.सी इन सभी दिशा-निर्देशों को सटीक रूप से लागू करने के लिए निर्देश जारी कर सकती है.

Translated by—Rakesh K. Mishra
M.phil Comparative Literature and Translation Studies 
Central University of Gujarat
e-mail—rakeshansh90@gmail.com











Guidelines for Students’ Entitlement

These guidelines have been issued by the University Grants Commission (UGC) in order to help students, teachers, administrators and institutions understand what the minimum entitlements of the students are. These guidelines apply to all the colleges and universities in the country (this expression includes every institutions of higher education even if it is not called college/university) without any exception. It shall be mandatory for every college/university to publish the present Guidelines in full in its Prospectus and also post it on the homepage of its website.

Fulfillment of these entitlements imposes obligations on educational institutions, administrators, policy makers, teachers and students themselves. If these obligations are not met, a student can approach the Grievance Redressal Authority or the Ombudsman. Any serious or persistent violation of these Guidelines can be brought to the notice of the University Grants Commission and can be the basis of punitive action against the offender.

Some of the provisions stated here are already covered by existing laws or Rules and Regulations of the UGC. But the students shall continue to enjoy all the right under existing laws, rules and regulations which may not have been mentioned in these Guidelines.

1.       Admission

1.1.    An announcement or advertisement for any course of study must clearly specify whether the degree granted is notified by the UGC and other relevant statutory authorities [Under Section 22 c of the UGC Act, latest list available at the UGC website] and whether the university that awards the degree figures in the list of universities maintained by the UGC [available at the UGC website].

1.2.    A student seeking admission is entitled to a document (usually called ‘Prospectus’) that specifies the curricula including syllabi, names and academic profile and status of the faculty, mode and frequency of evaluation, duration of the course, academic calendar, comprehensive information about fees or charges of any kind, and refund rules. The information given in the prospectus should not be changed to the disadvantage of the student during the course of study; any change if necessary must be communicated to each student individually spelling out reasons for such a change.

1.3.    The Prospectus must spell out exactly the process and criteria for admissions. This includes weightage given to previous academic performance, entrance examination and interview. The syllabi and format of the entrance examination must be spelt out. The final scores of each candidate who appeared for entrance examination including all the components and the entire waiting list must be made public.

1.4.    Information about any reservations or quota for any category, the eligibility criteria for these reservations/quotas, certificate required for seeking admission under these must be stated clearly in the Prospectus.

1.5.    The student must not be asked to produce documents which have not been mentioned in the Prospectus. While the institution can ask the student to produce the original documents (such as School Leaving Certificate, Marksheet, Caste certificate) for verification, they cannot retain

any original documents of any students. [As notified by UGC on 23rd April 2007, F. No. 1-3/2007 (CPP II)]

2.       Quality of teaching and learning

2.1.    It is the responsibility of the college/university to help the students develop their learning skills by facilitating the creation of learner centric environment conducive for quality education. The students are entitled to receiving instruction and reading material in all the languages allowed by the institution as medium of instruction or examination.

2.2.    The students who begin with a difficulty due to social handicap or a shift in the medium of instruction are entitled to special support to bridge the gap.

2.3.    The students are entitled to availability and presence of qualified teacher, fulfillment of the specified number of teaching days and contact hours for each course and completion of syllabus on time. [UGC Regulations on Minimum Qualification of Teachers… 2010]

2.4.    The students are entitled to reasonable access to facilities, services and resources including library (that stocks textbooks, reference books, journals, e-resources), laboratories, and ICT facilities in the languages permitted as medium of instruction or examination.

2.5.    The student are entitled to fair, transparent and timely evaluation, including fair provisions for timely re-checking or re-evalutation of the scripts and redressal of any grievance related to the evaluation process. The students are entitled to a copy of their answer scripts after the declaration of results.

2.6.    The students are entitled to timely conduct of examination and declaration of results as specified in the academic calendar in the Prospectus. They shall be entitled to the award of degree within 180 days of the declaration of results.

2.7.    The students are entitled to give regular feedback on the quality of teaching, students services and institutional infrastructure. The college/university shall establish mechanisms for seeking this feedback regularly and taking student feedback into account for review and improvement.

3.       Fee and financial aid

3.1.    The students are entitled to prior and full information about amount, components, frequency and mode of any kind of payment including fees or charges of any other kind and refund rules.

If a student withdraws before the beginning of the course, the student should be refunded the

entire fee given to it with a maximum deduction of Rs. 1000. [As notified by UGC on 23rd April 2007, F. No. 1-3/2007 (CPP II)]

3.2.    A college/university will make utmost effort to ensure that no student is deprived of opportunities of quality education for lack of sufficient financial resources. It is the responsibility of the policy makers to ensure that sufficient funds are made available to implement this principle. The Prospectus shall contain consolidated information about scholarship/fellowship/financial aid scheme of any type that that is available to the students. It shall bring to notice and assist the students in accessing such schemes. It shall ensure that the procedure for selection is fair and transparent.

4.       Infrastructure

4.1.    The students are entitled to access to appropriate resources including classrooms, libraries, laboratories and other academic facilities necessary for quality education. [UGC rules and regulations for fitness of universities and colleges for Grants under section 12 B of the UGC Act 1956, Private University Regulation, Deemed University Regulation].

4.2.    The students are entitled to reasonable access to sports and recreation facilities, avenues for literary, aesthetic and other extra-curricular pursuits.

4.3.    The student are entitled to reasonable attention to medical and heath requirements including free and periodic health check-up and treatment/hospitalization in case of medical emergencies.

4.4.    The students are entitled to a reasonable access to adequate, clean and hygienic hostel/residence accommodation that provides basic amenities including recreational facilities. Such accommodation should be affordable and must not be utilized by the institution for profit making. Accommodation meant for students must not be encroached upon by the institution for any other purpose.

4.5.    Student with disability are entitled to access to all schemes, facilities and services in the university without discrimination. The college/university shall strive towards a universal design of learning based curriculum that can address the needs of the broadest possible range of students by minimizing barriers and maximizing learning for all students. The college/university shall provide barrier free access, special library resources (including Braille and ICT resources], provisions for sign language interpreter/transcriber, the required equipments and electronic resources and the required relaxation in examination to all students with disability. [Person with Disabilities (Equal Opportunity, Protection of Rights and Full Participation) Act, 1995; UGC D.O.No.F-6-1/2006(CPPII), F.No.6-1/2012(SCT)]

5.       The students are entitled to non-discriminatory treatment (in the sense of absence of harassment, victimization or exclusion) in every aspect of institutional functioning. Any discrimination based on caste, gender, creed, colour, race, religion, place of birth, political conviction, language and disability shall be prohibited.

5.1.    In particular, institutions shall not discriminate against students belonging to Scheduled Caste and Scheduled Tribes and racial profiling of students from any region or ethnic group. [UGC (Promotion of Equity in Higher Educational Institutions) Regulations, 2012]

5.2.    The students are entitled to protection from sexual harassment by complaining to the Gender Sensitization Committees against Sexual Harassment. It is mandatory for each college/university to constitute and publicize this committee as per the Guidelines and norms laid down by the Hon’ble Supreme Court [Vishaka and Others Vs. State of Rajasthan and Others(JT 1997 (7) SC 384)]

5.3.    All students are entitled to protection from ragging in any form [UGC (Curbing the Menace of Ragging) Regulation, 2009]

6.       As democratic citizens, the students are entitled to freedom of thought and expression within and outside their institution. The college/university must allow space for free exchange of ideas and


public debate so as to foster a culture of critical reasoning and questioning. College/university authorities must not impose unreasonable, partisan or arbitrary restrictions on organizing seminars, lecture and debates that do not otherwise violate any law.

7.       The students are entitled to forming associations and unions, directly electing their representatives to Students Unions and having their representatives on the college/university decision making bodies including internal quality assessment, grievance committees, Gender Sensitization Committees against Sexual Harassment and the Academic/Executive council. University/colleges shall evolve mechanisms for adequate consultations with students’ representatives before taking any major decision affecting the students.

8.       The students are entitled to full and correct information about any institution of higher education in which they study or propose to study. Therefore, every college/university must disclose the following information on its website and Prospectus: status of the institution, its affiliation, accreditation rating, physical assets and amenities, membership of governing bodies and minutes of the meetings of bodies like Academic/Executive council, sources of income and the financial situation and any other information about its functioning necessary for a student to make a fully informed choice. [Section 4 (1) of Right to Information Act 2005]

9.       The students are entitled to redressal of their grievance by the Grievance Redressal Committee of the institution within 10 days of making a representation. If they are not satisfied, they are also entitled to an appeal to the Ombudsman of the University concerned for redressal within 30 days. [UGC (Grievance Redressal) Regulations, 2012]

10.   The UGC may issue instructions for proper implementation of these Guidelines.