Sunday, March 17, 2019
Photo Phobia: ITOKRI ने दिया सैकड़ों महिलाओं को रोजगार (परिवर्तन ...
Photo Phobia: ITOKRI ने दिया सैकड़ों महिलाओं को रोजगार (परिवर्तन ...: ITOKRI ( www.itokri.com ) ग्वालियर में मौजूद एक ऐसा संस्थान है जो बाजार में हजारों विकल्पों के बाद भी अपनी एक अलग पहचान रखता है। आधुनिकत...
Friday, October 5, 2018
सोशल वर्क के छात्र-छात्राओं ने गांधी को याद करते हुये किया वृक्षारोपण
महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती के मौके पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी समाज कार्य अध्ययन केन्द्र के छात्र- छात्रओं ने 150 पौधे लगाकर उन्हें याद किया।
पौधा रोपण की शुरुआत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने पौधा लगाकर किया। उसके उपरांत विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो. के. के. सिंह एवं केंद्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने पौधा रोपण किया। उसके पश्चात केंद्र के सहायक प्रोफेसर क्रमशः डॉ. शिवसिंह बघेल, डॉ. मुकेश कुमार, डॉ. पल्लवी शुक्ला, गजानन एस.निलामे एवं केंद्र के बीएसडब्ल्यू, एमएसडब्ल्यू एवं एमफिल, पी-एच.डी. के विभिन्न सेमेस्टर के छात्र-छात्राओं ने कुल मिलाकर 150 पौधे लगाए।
उक्त अवसर पर विभाग के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने कहा कि महात्मा गांधी को रचनात्मक तरीके से ही सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है। हमने गांधी जी को रस्म अदायगी के तौर पर याद करने के बजाय पर्यावरण को समृद्ध करने के लिए 150 पौधे लागए हैं। इसमें आम, अमरूद, सीताफल, चीकू आदि फलदार पौधों के साथ- साथ पॉम, मेहंदी, मोरपंखी आदि के भी पौधे शामिल हैं। हमारे बच्चों ने मौजूदा पर्यावरणीय संकट के दौर में यह सराहनीय कार्य कर एक संदेश देने का प्रयास किया है। उन्होंने बताया कि केंद्र के छात्र- छात्रओं ने स्वतः ही एक- एक पौधे को लगाने से लेकर उसके पालन- पोषण की जिम्मेदारी ली है। गांधी जी को याद करते हुए हमें वर्तमान चुनौतियों के बरक्स रचनात्मक कार्य की दिशा में कदम उठाने की जरूरत है। इसी रास्ते गांधी को सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है।
Thursday, October 4, 2018
संविधान,समाज और गांधी
वर्धा,3 अक्टूबर 2018। गांधी जयंती के 150 वर्ष पूरे होने के अवसर पर महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के गालिब सभागार मे ‘संविधान,समाज और गांधी ’विषयक
संगोष्ठी आयोजित हुई। संगोष्ठी की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो .
गिरीश्वर मिश्र ने की। मुख्य वक्ता के बतौर प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एवं संविधान
विशेषज्ञ प्रो. एम. एल. कासारे मौजूद थे। संगोष्ठी का संचालन विश्वविद्यालय के
प्राध्यापक डॉ. सुरजीत कुमार सिंह ने की। सूत की माला पहनाकर स्वागत किया गया।
संगोष्ठी
को संबोधित करते हुये महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी सामाज कार्य अध्ययन केंद्र के
निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने कहा की
संविधान समाज के लिए होता है। संविधान कितना लागू हो पाया, कितना समयानुकूल। समाज के विकास के लिए संविधान की भूमिका पर नए सिरे से
विमर्श की जरूरत है। संविधान मे निरंतर सुविधा नुसार,
संकुचिता किया जाता है।
सत्ता
आज निरंकुश हुआ है। लोकतन्त्र मे सत्याग्रह की भूमिका है। लोकतन्त्र आज कितना
पारदर्शी हुआ है। ये सारे पहलू है जिस पर गहराई मे जा कर चिंतन करने की जरूरत है।
लोकतंत्र मे असहमति के लिए भी समुचित स्थान होना चाहिए।
प्रो.
नंदकिशोर आचार्य ने संगोष्ठी को संबोषित करते हुये कहा की, किसी भी समाज मे संविधान की
आवश्यकता क्यों होती है ? हजारों वर्षो पुराने समाज मे तरह
तरह के मर्यादाएं रहती है। स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान वर्तमान भारत की रूप रेखा
निर्मित हुई। गांधी संसदीय लोकतंत्र के पक्ष मे नही थे। संसद समस्याओं को बदलती
रहती है, वह समस्याओं को निर्मूल नही करती । किन्तु
तात्कालिक तौर पर गांधी संसदीय प्रणाली को
स्वीकार करते थे। सम्पूर्ण प्रभुसत्ता को एक जगह केन्द्रित कर देना गांधी
की परंपरा नही थी। जब संविधान बना उसमे गांधी काही दिखाई नहीं देते। संविधान का
बड़ा हिस्सा 1935 का अधिनियम है। भारतीय समाज मे परभुसत्ता केन्द्रित नही होती थी।
चक्रवती सम्राट के दौर मे भी यही स्थिति थी।
याज्ञवल्कय
स्मृती के उदाहरण के जरिये भी उन्होने
इसकी पुष्टि की। आधुनिक संदर्भ मे इसका अर्थ यह है की, एक विकेंद्रीकृत शासन प्रणाली
होनी चाहिए । गांधी ने इसी की बात की थी। विधायिका,न्यायपालिका
एवं कार्य पालिका को भी विकेंद्रीकृत करने के पक्षधर थे । लोकतन्त्र मे प्रत्येक
व्यक्ति का महत्व है । किन्तु लोकतंत्र जब केन्द्रित हो जाता है तो वह खतरनाक होता
है। दुनिया का अनुभव बताता है की संसदीय लोकतंत्र तानाशाही स्थापित होने का खतरा
बना रहता है। उन्होने कहा की भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्वों ने गांधी के
पंचयाती राज की कल्पना को शामिल किया गया । किन्तु गांधी पंचायतों को पूर्ण
स्वाययत्ता की बात कहे थे किन्तु वर्तमान पंचायत इससे भिन्न है। वर्तमान पंचायत
राज्य के एजेंट की भूमिका मे है। लोकतंत्र वास्तविक अर्थ मे जनता की सहभागिता का
नाम है।
संगोष्ठी
के मुख्य वक्ता प्रो. एम. एल. कासारे ने अपने सम्बोधन मे कहा की, महात्मा गांधी और डॉ. आंबेडकर के सम्बन्धों के बारे मे जानना आवश्यक है।
डॉ. आंबेडकर ने गोलमेज़ सम्मेलन मे भारत की पूरी आज़ादी की मांग की थी। इसके बाद
गांधी ने डॉ. आंबेडकर से मिलनेकी इच्छा व्यक्त की थी । डॉ. आंबेड़कर उनसे मिले थे। गांधी ने उन्हे महान देश भक्त
बताया था। दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन के बाद गांधी और आंबेडकर के बीच पुना पेक्ट के बीच
दूसरी मुलाक़ात हुई। 1936 मे सेवाग्राम आश्रम मे डॉ. आंबेड़कर और गांधी के बीच आखरी मुलाक़ात हुई। डॉ. अंबेडकर ने
इस मुलाक़ात मे गणफ़्हि से यह वादा किया था की उनका धर्म परिवर्तन से देश की एकता
अखंडता को कोई नुकसान नही पाहुचेगा। 1935 के अधिनियम के निर्माण मे भी डॉ. अंबेडकर
की महत्वपूर्ण भूमिका थी। जब भारत का संविधान बनाने की बारी आयी तो नेहरू जी, प्रसिद्ध संविधान विशेषज्ञ एडवर्ड जेनिंग को संविधान निर्माण की
ज़िम्मेदारी देना चाहते थे। किन्तु गांधी ने नेहरू से डॉ. आंबेडकर को संविधान
निर्मिति सभा अध्यक्ष बनने की बात की थी। भारत
मे जनतंत्र है , इसका सारा श्रेय भारत के संविधान को जाता
है। भारत मे सामाजिक लोकतन्त्र का अभाव है। यहा का सामाजिक नियतिवाद सामाजिक
लोकतन्त्र स्थापित करने की दिशा मे बाधक है। भारतीय संविधान मे न्याय, स्वतन्त्रता, समानता और बंधुत्वका मूल भाव निहित
है। भारतीय संविधान ने जाती व्यवस्था पर गंभीर चोट किया है। भारतीय संविधान समाज
व्यवस्था के रिपनतर का घोषणा पत्र है।
आगे
उन्होने कहा की , भारतीय एकात्मता अत्यंत ही
कमजोर है। यहाँ स्तरीय असमानता मौजूद है।
जातिवाद और समप्रदयिकता जैसी चीजें यहाँ मौजूद है। भारत मे आज भी यह समस्याएँ है, जो बेहतर समाज बनाने की दिशा मे रोड़े अटकाती है। धर्म निरपेक्ष राज्य, धर्म निरपेक्ष समाज और धर्म निरपेक्ष संस्कृति विकसित करना होगा। सदियों
पुराने मुल्य आज कलबाहय हो गए है, उसके जगह पर नए न्याय
पूर्ण मुल्य अपनाने की जरूरत है। अपने
अध्यक्षीय वक्तव्य मे कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने कहा की स्वतन्त्रता का अर्थ
स्वछ्न्दता नही है। भारत के संविधान का पालन करना सभी नागरिकों का दायित्व है ।
संविधान के संशोधन की भी व्यवस्था हो, संविधान जड़ नही है।
भारतीय संविधान गांधीजी के सर्वधर्म समभाव को फलीभूत करना है। गांधी अपने व्यवहार
मे सर्वधर्म समभाव का अद्भुत ढ़ंग से पालन करते थे। ऐसे महान भारतीयों की परंपरा को
हमलोग अपने जीवन मे उतारें।
आभार ज्ञापन प्रो. मनोज कुमार ने किया ।
गांधी एवं समकालीन समय
वर्धा, 2
अक्टूबर 2018। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150 वी जयंती के अवसर पर महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के गालिब सभागार में एक दिवसीय
राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ। ‘गांधी का आलोक’ विषयक इस एक दिवसीय परिचर्चा में ‘गांधी एवं समकालीन
समय’ विषयक अंतिम चर्चा सत्र की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के
कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने किया। जबकि संचालन गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग के सहायक प्रोफेसर
डॉ. मनोज कुमार राय ने किया। इस सत्र के मुख्य वक्ता गांधी विचार परिषद, वर्धा के प्रोफेसर आर.सी. प्रधान एवं विशिष्ट वक्ता अरुण कुमार त्रिपाठी
थे।
सत्र को संबोधित करते हुए प्रो. आर. सी.
प्रधान ने कहा कि, गांधी पर कोई गंभीर शोध नहीं हो रहे हैं। उन्होंने चिंता जाहिर करते हुए
कहा कि भारतीय शोधार्थी पश्चिमी चिंतकों के विचार सरणी पर आधारित शोध करते हैं और
उसमें पुछल्ले के तौर पर गांधी का नाम जोड़ भर दिया जाता है।
उन्होंने कहा कि हमें गांधी की परंपरा पर शोध
करने की जरूरत है। गांधी के बाद के महत्वपूर्ण गांधीवादियों पर नए सिरे से शोध किए
जाने की आवश्यकता है। भारतीय विद्या, भारतीय ज्ञान परंपरा को गांधी
के योगदानों पर शोध किया जाना जरूरी है। उन्होंने कहा कि 1945 के बाद गांधी भारतीय
राजनीति के हाशिये पर धकेल दिया गया था। उसके बाद नेहरू की भूमिका बढ़ जाती है।
नेहरू गांधी के सपनों के भारत को खारिज करते हुए, भारत को
शहरीकरण-औद्योगिकरण की तरफ ले जाने का स्पष्ट संकेत देते हैं। इसमें न केवल नेहरू
की ही भूमिका होती है। अपितु राजेंद्र प्रसाद से लेकर सरदार पटेल, जे. बी. कृपलानी जैसे लोगों की भी भूमिका थी। हालांकि ये सभी त्यागी
पुरुष थे, इनकी नीयत पर शक नहीं किया जा सकता। इन लोगों ने
काफी योगदान किया है। इन महापुरुषों की नज़र में राज्य की भूमिका अहम थी। जबकि गांधी
राज्य की भूमिका को सीमित कर देखते थे और अंतिम तौर पर राज्य विहीन समाज बनाना
चाहते थे। इसी कारण गांधीजी और कांग्रेस के अन्य नेताओं के बीच यह विरोध दिखाई
पड़ता है। किन्तु आज पूरी दुनिया में गांधी पर काफी कुछ लिखा-पढ़ा जा रहा है, जिससे यह साबित होता है कि दुनिया नए सिरे से उनपर विचार कर रही है।
मौजूदा समस्याओं पर बात करते हुए उन्होंने कहा
कि आज भी भारत में सांप्रदायिकता, सवर्ण-अवर्ण के बीच भेदभाव, अमीर-गरीब के बीच फर्क कायम है। इन समस्याओं से नज़र चुराने से समस्या
ख़त्म नहीं होने वाली है। मनुष्य आज काफी सिमटता जा रहा है। आत्म केन्द्रीयता बढ़ती
जा रही है। आज यह जाँचने की जरूरत है कि इन संकटों को दूर करने का गांधी के पास
क्या उत्तर है! हर महापुरुष अपने युग की समस्याओं के खिलाफ लड़ने-जूझने के साथ-साथ
मनुष्य समाज की शाश्वत समस्याओं पर भी दृष्टि देते हैं। गांधीजी एक नई वैकल्पिक
व्यवस्था बनाना चाहते हैं। गांधी ने हिन्द स्वराज उस वक्त लिखी जिस वक्त पूरी
दुनिया अद्योगिकरण के चकाचौंध से वशीभूत थी। उस वक्त गांधीजी ने इस सभ्यता की
तीक्ष्ण आलोचना करते हुए उसे हिंसा पर आधारित विनाशकारी सभ्यता करार दिया था।
गांधी ने आवश्यकता और लोभ में फर्क किया है। मनुष्य की जरूरतें और लोभ में फर्क
होता है। गांधी ने मनुष्य को अपनी जरूरतों को भी सीमित करने की बात की है। गांधी
ने अद्वैत की बात ज़ोर-शोर से की थी। गांधी आम आदमी को केंद्र में लाने की व्यवस्था
सुझाते हैं। इसके लिए उन्होंने विकेंद्रित व्यवस्था की वकालत की थी। गांधी ने साधन-साध्य की शुचिता पर ज़ोर दिया है।
अंत में उन्होंने कहा कि देश-दुनिया
की लगभग सारी समस्याओं का समाधान गांधी के एकादश व्रत में निहित है। गांधी ने राज्य
सत्ता हाथ में आए बगैर रचनात्मक कार्यों के जरिये भारतीय समाज को खड़ा होना सिखाय। गांधी
ने राज्य सत्त्ता के अन्याय पूर्ण निर्णय के खिलाफ अहिंसक लड़ाई के लिए सत्याग्रह का
शक्तिशाली मार्ग सुझाया।
वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी
ने अपने सम्बोधन में कहा कि गांधी की आखिरी और अहम लड़ाई साम्प्रदायिकता के खिलाफ है।
गांधी और भगत सिंह की मृत्यु लगभग एक जैसी है। कानपुर दंगे में गणेश शंकर
विद्यार्थी की हत्या पर गांधी ने कहा था कि ऐसी मौत से मुझे ईर्ष्या होती है। और सचमुच
में गांधी की मौत भी ठीक वैसी ही हुई। आज भी देश में साम्प्रदयिक हिंसा थमने का नाम
नहीं ले रहा है। देश में जातीय विद्वेष और हिंसा भी चरम पर है। गांधी के देश में ये
सारी घटनाएं अत्यंत ही चिंताजनक है। गांधी 1857 की हिंसा से भयभीत थे वहीं भगत सिंह 1857 को दुहराना चाहते थे।
गांधी उस किस्म की हिंसा को भारत की जनता के लिए अनिष्टकारी मानते थे। अंग्रेजी हुकूमत
लगातार हिन्दू-मुस्लिम एकता से चिंतित
थी और इस एकता को तोड़ने में वे कामयाब रहे। गांधी को समझने के लिए राष्ट्रवाद के विमर्श
को गंभीर तरीके से समझने की आवश्यकता है। गांधी के राष्ट्र की परिकल्पना में भारत सहित
विश्वमानवता की चिंता समाहित है। आगे उन्होंने कहा कि, गांधी ने कहा था कि मैं कब्र से भी बोलूंगा! आज गांधी कब्र
से बोल रहे हैं, अब हम उसे सुनते हैं अथवा
नहीं यह हमारे ऊपर निर्भर करता है। गांधी सत्य के अन्वेषी थे। किंतु उन्होंने अंतिम
सत्य प्राप्ति का कभी दंभ नहीं किया। कुछ लोग गांधी को विफल करार देते हैं, किन्तु गांधी की विफलता
के आगे सफलता भी छोटी प्रतीत होती है।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कुलपति
प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने कहा कि आज रचनात्मक कार्यक्रमों को नए रूप में किए
जाने पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है। गांधीजी का समाज के प्रति ज्यादा
विश्वास था। सत्ता का मुंह ताकने के वजाय गांधी समाज के छोर से विकल्प प्रस्तुत करने
में यकीन रखते थे। उन्होंने कहा कि गांधीवादी संस्थाएं आज अपना आकर्षण खोती जा रही
हैं। इन्हें नए सिरे से खड़ा करने की आवश्यकता है। गांधीजी प्रयोगधर्मी थे। उनके प्रयोग
आज भी हमारे लिए प्रेरणास्रोत की भांति है। गांधी में अद्धभुत चारित्रिक-नैतिक बल था।
आज उसी चारित्रिक-नैतिक बल की आवश्यकता है। देश-दुनिया आज जिस अंधाधुंध भौतिक प्रगति
के मार्ग की तरफ बढ़ रही है उसपर भी नए सिरे से विचार करना होगा अन्यथा संकट और भी गहराता
जाएगा। आज समाज को इसके लिए तैयार करना होगा। आज साम्रज्यवाद के नए-नए स्वरूपों के
खिलाफ गांधी से प्रेरणा ग्रहण कर प्रतिरोध करने की भी आवश्यता है। मौजूदा साम्प्रदायिक
हिंसा के समाधान पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि हमें आज एक अच्छे हिन्दू, अच्छे मुस्लिम, एक अच्छे सिख और एक अच्छे
ईसाई बनने की जरूरत है। तभी सारे झगड़े मिटेंगे।
इस एक दिवसीय संगोष्ठी का समापन महात्मा
गांधी फ्यूजी
गुरुजी समाज कार्य अध्ययन केंद्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार के आभार ज्ञापन से हुआ।
संगोष्ठी में विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों के शिक्षकों एवं सैकड़ों
छात्र-छात्राओं ने हिस्सा लिया।
रिपोर्टिंग टीम : डॉ.
मुकेश कुमार, प्रेरित बाथरी, माधुरी श्रीवास्तव, खुशबू साहू, अजय गौतम, अक्षय
कदम, सुधीर कुमार, मोहिता एवं सपना
पाठक
गांधी दर्शन के विविध पक्ष
वर्धा, 2
अक्टूबर 2018। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150 वी जयंती के अवसर पर महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के गालिब सभागार में एक दिवसीय
राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ। ‘गांधी का आलोक’ विषयक इस एक दिवसीय परिचर्चा में ‘गांधी दर्शन के विविध पक्ष’ विषयक चर्चा सत्र की अध्यक्षता विश्विद्यालय के
कुलसचिव प्रो. कृष्ण कुमार सिंह ने किया। जबकि संचालन गांधी एवं शांति अध्ययन
विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ. चित्रा माली
ने किया।
सत्र
को संबोधित करते हुए महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी समाज कार्य अध्ययन केंद्र के
निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने कहा कि गांधी के विचारों का
क्षितिज अत्यंत ही व्यापक है। आज गांधी से किसी की असहमति हो सकती है। उन
असहमतियों से आज सार्थक संवाद की आवश्यकता है। गांधी जी अपने आलोचकों का काफी
सम्मान करते थे और आलोचनाओं को संजीदगी के साथ जानने-समझने और खुद को जांचने की
कोशिश करते रहते थे।
बिहार के मुजफ्फरपुर से आए प्रो. प्रमोद कुमार सिंह ने सत्र को संबोधित करते हुए कहा कि भूलना हमारी
फितरत हो गई है। विचारधाराओं के अंत और इतिहास के अंत की घोषणा हो चुकी है। कागजी
मुद्रा पर गांधी को अंकित कर अमरत्व प्रदान कर दिया गया है। किन्तु यह गांधी जी के
अमरत्व का चिह्न नहीं है। दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी ने जो आश्रम बनाया था उसका
नाम फीनिक्स रखा था। जिसका अर्थ होता है बार-बार जीवित होने वाला पक्षी। गांधी खुद
भी उसी फीनिक्स पक्षी की भांति हैं। गांधी पल-पल प्रासंगिक हो उठे हैं। गांधी ने
सत्याग्रह का विकास दक्षिण अफ्रीका में किया था। भारत में उनका पहला सत्याग्रह
बिहार के चम्पारण से प्राम्भ हुआ था।
भारतीय राजनीति के केंद्र में किसानों को लाने का श्रेय गांधी को ही जाता
है। गांधी ने प्राचीन चिकित्सा पद्धति का भी प्रयोग किया। गांधी ने स्वदेशी के लिए
अभियान चलाया, खादी ग्रामोद्योग पर प्रयोग किया। वे कृष्ण की
तरह ही जिये और उन्हीं की तरह कर्म किया। गुजराती भाषी होने के बावजूद गांधी ने
हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बढ़-चढ़ कर वकालत की थी। गांधी ने जैन, बौद्ध धर्म के भी मूल्यों को आत्मसात किया था।
उन्होंने पश्चिम के भी उद्यत मूल्यों को ग्रहण किया था किन्तु पश्चिम की भौतिक
प्रगति केंद्रित सभ्यता को शैतानी सभ्यता करार दिया था। किन्तु आजादी के बाद भारत
ने गांधी के रास्ते पर चलने के बजाय उसी शैतानी सभ्यता के विकास मॉडल पर चलना जारी
रखा है। आज गांधी की हर रोज हत्या की जा रही है, किन्तु गांधी बार-बार हमारे सामने मशाल लेकर उपस्थित हो जाते हैं। गांधी ने
देश-दुनिया के सामने विकल्प पेश किया था। आज आधुनिक विश्व जिन समस्याओं से घिरा
हुआ है उसका विकल्प हमें गांधी के पास दिखाई देता है। यही गांधी का अमरत्व है।
जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है वैसे-वैसे गांधी के नाम की चमक बढ़ती जा रही है।
गांधी सामान्य में असामान्य, साधारण में असाधारण थे।
गांधी आज लोकमानस में चिरायु हो गये हैं।
विवि के सहायक प्रोफेसर डॉ. अमित राय ने इस मौके पर कहा कि गांधी एक
कुशल नेता थे। भारतीय राजनीति के रंगमंच पर गांधी जिस समय आए उस वक्त यहाँ एक
किस्म की निराशा छाई हुई थी। गांधी ने इस निराशा को तोड़ते हुए भारतीय जनमानस को नए
सिरे से खड़ा किया। उत्पीड़ितों के वर्तमान प्रतिरोधों को भी इसके बरक्स देखने-समझने
की आवश्यकता है।
अध्यक्षीय वक्तव्य में विवि के कुलसचिव प्रो. के.के सिंह ने कहा कि
महात्मा गांधी का भारत के निर्माण में अतुलनीय योगदान है। उनका व्यक्तित्व, दर्शन
और कार्य अत्यंत ही व्यापक है। गांधी की एक आवाज पर पूरा देश उठ खड़ा होता था, जबकि
उस वक्त आज की तरह की विकसित संचार की सुविधा भी नहीं थी। गांधी को उस वक्त ही
जनमानस ने ईश्वर तुल्य मान लिया था। गांधी जी ने जनता की इस आस्था को सकारात्मक
दिशा देने का प्रयत्न किया। संगोष्ठी में
विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों के शिक्षकों एवं सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने
हिस्सा लिया।
रिपोर्टिंग टीम : डॉ.
मुकेश कुमार, प्रेरित बाथरी, माधुरी श्रीवास्तव, खुशबू साहू, अजय गौतम, अक्षय
कदम, सुधीर कुमार, मोहिता एवं सपना
पाठक
गाँधी जीवन दृष्टि एवं प्रयोग
वर्धा, 2 अक्टूबर 2018। राष्ट्रपिता महात्मा
गांधी की 150 वी जयंती के अवसर पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी
विश्वविद्यालय के गालिब सभागार में एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ। ‘गांधी का आलोक’ विषयक इस एक दिवसीय परिचर्चा में ‘गाँधी जीवन दृष्टि एवं प्रयोग’ विषयक दूसरे चर्चा
सत्र का संचालन गाँधी एवं शांति अध्ययन विभाग के प्राध्यापक डॉ. धूपनाथ प्रसाद
ने किया। सत्र में मुख्य वक्ता के रूप में वरिष्ट पत्रकार अरविन्द मोहन, विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. अरमेंद्र शर्मा एवं ऋषभ मिश्र उपस्थिति थे।
सत्र की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के प्रो. अनिल कुमार राय ने की।
सत्र
को संबोधित करते हुए विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. अरमेंद्र शर्मा
ने कहा कि गाँधी का निजी जीवन नहीं रहा है। गाँधी की पूरी जीवन-पद्धति में निजी और
सार्वजनिक के बीच का भेद मिट गया प्रतीत होता है। उनकी ज़िन्दगी में कुछ भी छिपा
हुआ नहीं है। गाँधी सतत प्रयोगशील रहे। गाँधी ने अंतिम सत्य का दावा नहीं किया।
उनके चिंतन में गतिशीलता है। इसलिए गाँधी को समझने के लिए इसका ध्यान रखा जाना
चाहिए। गाँधी हमेंशा आम जनता के पक्ष में रहे। उनसे हमें यह प्रेरणा प्राप्त होती
है। अंत में उन्होंने कहा कि इस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए कि गाँधी की
प्रयोगधर्मिता आज भी बनी रहनी चाहिए।
सत्र
के अगले वक्ता शिक्षा विद्यापीठ के प्राध्यापक ऋषभ मिश्र ने कहा कि
बुनियादी शिक्षा गांधीजी की अनुपम देन है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आजाद भारत
में बुनियादी तालीम को तिलांजलि दे दी गयी। गाँधी के बुनियादी तालीम का विचार
मौजूदा शिक्षा व्यवस्था से भिन्न है। मौजूदा शिक्षा व्यवस्था मनुष्य को अपनी जड़ों
से, अपनी संस्कृति से अलग करती है। पाश्चात्य शिक्षा श्रम से काटती है। गाँधी
बच्चे को मातृभाषा में परिवार के बीच रहकर उद्योगमूलक शिक्षा देने की बात करते
हैं। स्वावलंबन उनकी शिक्षा की अनिवार्य शर्त है। गाँधी की बुनियादी तालीम का
दर्शन और प्रयोग हमारे लिए काफी उपयोगी है। यह शिक्षा हमें जीवन और जीविका दोनों
के लिए तैयार करती है ।
सत्र के
मुख्य वक्ता चर्चित वरिष्ट पत्रकार-लेखक अरविन्द मोहन ने भारत में गाँधी के
प्रथम सत्याग्रह- चंपारण सत्याग्रह की सूक्ष्म चर्चा की और उससे निकलने वाली
प्रेरणा की शिनाख्त की। गाँधी के संचार कौशल की भी उन्होंने विस्तृत चर्चा की। तार, चिट्ठी
आदि का संचार के रूप में गाँधी भरपूर प्रयोग करते हैं। उन्होंने तत्कालीन ब्रिटिश
साम्राज्य के संचार तकनीक की भी संक्षिप्त चर्चा की। रेल-मार्ग, सड़क मार्ग, जलमार्ग और दूरसंचार आदि के विकास की भी
संक्षिप्त चर्चा की। चंपारण में मोहम्मद मुनिस की संचार में भूमिका पर भी उन्होंने
प्रकाश डाला डाला। उन्होंने बताया कि गाँधी के संचार कौशल और संचार की ईमानदारी ने
अंग्रेजों के मनसूबे को नाकाम कर दिया। गाँधी ने अपने व्यक्तित्व से भी लोगों से
आसानी से संपर्क स्थापित कर लिया। उनके कथनी और करनी में समानता ने भी आम लोगों
में प्रभाव स्थापित किया। गाँधी ने बिना किसी अफवाह और अतिरेक के संचार किया और
अंग्रेजों के साथ- साथ चंपारण के किसानों का भी भरोसा हासिल किया। गाँधी के चंपारण
के प्रयोग से हमें आज भी काफी सिख मिलती
है।
अपने
अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो.अनिल कुमार राय ने कहा कि गाँधी के विचार एवं
जीवन–प्रयोग को उस वक्त के देश–काल- परिस्थिति के आधार पर
समझने की जरुरत है। किन्तु यह भी सच है कि गांधी ने देश– काल-
परिस्थिति का खुद ही अतिक्रमण किया। गाँधी ने भारतीय परंपरा के साथ–साथ पश्चिमी परंपरा के भी उद्दात मूल्यों को ग्रहण किया था। गाँधी के
विचार को किसी ‘वाद’ में नहीं बांधा जा
सकता है। गांधी का व्यक्तित्व अत्यंत ही उद्दात था। आज भी हमें उनका जीवन और चिंतन
प्रेरणा प्रदान करता है।
संगोष्ठी में
विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों के शिक्षकों एवं सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने
हिस्सा लिया।
रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार,
प्रेरित बाथरी, माधुरी श्रीवास्तव,
खुशबू साहू, अजय गौतम, अक्षय कदम, सुधीर कुमार, मोहिता एवं सपना पाठक
गांधी जयंती : गांधी का आलोक
वर्धा, 2 अक्टूबर 2018। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150 वी जयंती के अवसर पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय
के गालिब सभागार में एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ। ‘गांधी का आलोक’ विषयक इस एक दिवसीय परिचर्चा का
उदघाटन सत्र ‘हिंसा के विविध पक्ष एवं गांधी’ पर केंद्रित था।
इस सत्र की अध्यक्षता
विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने की। संचालन गांधी एवं शांति
अध्ययन विभाग के प्राध्यापक डॉ. राकेश मिश्र ने किया। संगोष्ठी में मुख्य वक्ता
पूर्व प्रोफेसर एमेंरिट्स प्रो. नंदकिशोर आचार्य एवं विशिष्ट वक्ता के रूप में
स्कूल ऑफ लिबरल स्टडीज़, अंबेडकर विश्वविद्यालय,
दिल्ली के प्रो.सलिल मिश्र मौजूद थे। दोनों अतिथियों का खादी के सूत
की माला पहनाकर कुलपति ने स्वागत किया। जबकि कुलपति का स्वागत महात्मा गांधी
फ्यूजी गुरुजी समाज कार्य अध्ययन केंद्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने सूत की
माला पहनाकर सम्मानित किया।
महात्मा गांधी फ्यूजी
गुरुजी समाज कार्य अध्ययन केंद्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने स्वागत व्यक्तव्य
दिया। अपने स्वागत वक्तव्य में उन्होंने पूरे कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की।
उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी को अकादमिक और कार्यात्मक दोनों स्तर पर याद किए जाने
की आवश्यकता है।
संगोष्ठी को संबोधित
करते हुए प्रो. सलिल मिश्र ने कहा कि हिंसा और अहिंसा को समझने के लिए बने– बनाए ढांचे के बाहर जाकर समझना होगा। सामाजिक, नैतिक
और दार्शनिक तीनों पहलुओं में समझना होगा। आज अहिंसा का देश-दुनिया के लिए क्या
महत्व है, इसे भी समझना होगा। उन्होंने गांधी के पूर्व भारत
में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन के प्रयत्नों की सीमाओं की विस्तृत चर्चा की।
अंग्रेजी हुकूमत ने केवल बंदूक के बल पर ही शासन किया, बल्कि
उसने भारतीयों के दिलो-दिमाग पर असर डालने की व्यवस्था की। इसके लिए अंग्रेजों ने
कई संस्थान बनाए थे। गांधी ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद का तीनों जगह- इंग्लैंड,
दक्षिण अफ्रीका और भारत में अनुभव किया। इन अनुभवों के आधार पर उनका
निष्कर्ष था। कई नैतिक मानदंडों के आधार पर ब्रिटिशस को शर्मिंदा किया जा सकता था।
गांधी की मान्यता बनी थी कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद को अहिंसा के तौर-तरीके से ही
कारगर ढ़ंग से चुनौती दी जा सकती है।
आगे उन्होंने कहा कि
पिछली सदी की तुलना में 20 वीं और 21वीं सदी भिन्न है। यह सबलिकरण की
सदी है। दुनिया की सरकारें पूर्व के मुताबिक ज्यादा सबल हुई है। पूर्व के लोगों पर
सत्ता का इतना नियंत्रण मुमकिन नहीं था। सरकारों के साथ साथ जनता का भी सबलीकरण हुआ है। जनता ने सरकारें गिराई है। 21वीं सदी में इस दोहरे सबलीकरण की ज्यादा समभावनाएं है। 20वीं सदी में संघर्ष एवं टकराव की संभावना पूर्व की सदियों की तुलना में
ज्यादा बढ़ी है। 21वीं सदी में भी टकराव और संघर्ष की संभावना
बढ़ी है। 20 वीं सदी के संघर्ष महज स्वार्थ पर आधारित नहीं
रहे हैं। यह सिद्धान्त के लिए संघर्ष रहा है। इस सदी में जीत-हार एवं समझौता भी
कठिन हुआ है।
प्रोफेसर मिश्र ने
आगे कहा कि आज सम्पूर्ण विनाश की संभावना प्रबल हो गई है। सम्पूर्ण विनाश की तकनीक
आज दुनिया के पास मौजूद है। 20वीं– 21वीं सदी प्रगति, समृद्धि की सदी है। भूख, गरीबी में कमी आई है। गरीबी-भुखमरी से अब पूर्व की तुलना में कम मौतें हो
रही है। किन्तु यह सदी अंतर्विरोधों से भरी हुई है। एक तरफ प्रगति- तरक्की भी हुई
है तो दूसरी तरफ विध्वंश भी तेज हुआ है। ऐसी परिस्थिति में गांधी और अहिंसा
अत्यन्त ही जरूरी है। गांधी जीत– हार के बजाय समस्या के
समाधान का प्रयास करते हैं। उनकी नजर में ईमानदार सत्याग्रही हमेंशा समझौते के लिए
तैयार होता है। गांधी के लिए सत्याग्रह राजनीति न होकर समस्याओं को सुलझाने की
तरकीब है। उनके सत्याग्राह में दुराग्रह के लिए कोई स्थान नहीं है। गांधी पाप से
घृणा करते हैं, पापी से नहीं। गांधी शोषितों के साथ-साथ
शोषकों की भी मुक्ति के हिमायती हैं। आज दुनिया के पास न्यूक्लियर बम जैसे विनाशक
हथियार हैं। गांधी इससे मुक्ति के लिए भी अहिंसा का रास्ता बताते हैं। दुनिया की
मौजूदा हालत में गांधी हमारे लिए बेहतरीन मार्गदर्शक हैं।
सत्र के मुख्य वक्ता
प्रो. नंदकिशोर आचार्य ने कहा कि, समाज में हिंसा विभिन्न
रूपों में रही है, किन्तु यह क्यों है? इसे गहराई में जाकर समझना होगा। हिंसा मनुष्य के स्वभाव का अनिवार्य अंग
नहीं है। हिंसा एक हद तक संस्कृति सापेक्ष है। संस्कृति पूरे जीवन को अपनी परिधि
में लेती है। बाह्य परिस्थिति मनुष्य को हिंसा की तरफ ढकेलती है। किन्तु हिंसा से
किसी मसले का हल नहीं होता। दुनिया की तकरीबन आधी आबादी में हिंसा की प्रवृत्ति
काफी कम रही है, उन्होंने हिंसात्मक युद्धों में भाग नहीं
लिया है। दुनिया को अणुबम अथवा गांधी दोनों में से एक को चुनना होगा। गांधी अहिंसा
के चरम रूप हैं। गांधी मानव प्रकृति के बर्बरीकरण को लेकर काफी चिंतित थे। इसी के
बरक्स उनका सत्याग्रह है।
आगे उन्होंने कहा कि
उत्पादन शक्तियों में बदलाव के बगैर समाज दीर्घकालीन तौर पर नहीं बदल सकता है।
अर्थसत्ता का आज केन्द्रीकरण हुआ है। इसलिए आज राज्य कॉर्पोरेट शक्तियों के एजेंट
की भूमिका में आ गया है। संसाधन के लूट के बगैर आज किसी विकास की कल्पना नहीं की
जा सकती है। आज विकास के लिए कीमत चुकाने की बात की जा रही है। लेकिन इसकी कीमत
हमेंशा दूसरे से चुकाई जा रही है। जबकि जिसे लाभ हो रहा है, कीमत तो उसे ही चुकानी चाहिए! ये सारी परिस्थितियां हिंसा– हिंसा की प्रवृत्तियों को प्रभावित करती है। केवल बाह्य तथा छिट- पुट
परिवर्तन से बेहतर समाज नहीं बनाया जा सकता है। देश-दुनिया की मौजूदा परिस्थिति
में अगर आज गांधी होते तो कॉर्पोरेट शक्तियों के उत्पाद का बहिष्कार और असहयोग
करते! गांधी की इस भूमिका को नए सिरे से समझने की आवश्यकता है।
प्रो. नंदकिशोर ने
कहा कि आधुनिक तकनीक में सृजन और विध्वंस दोनों संभावनाएं मौजूद है। तकनीक अपने आप
में विज्ञान नहीं है। विज्ञान तो प्रकृति के नियम की एक खोज है। कोई समाज तकनीक
विहीन नहीं रहा है। अगर हम चाहते हैं कि दुनिया में सुख-शांति कायम हो तो तकनीक के
इस्तेमाल के पीछे के उद्देश्य को साफ करना होगा। यदि तकनीक का उद्देश्य सभी मानव
का कल्याण करना है, तभी वह तकनीक मानव सभ्यता के
लिए कल्याणकारी होगी। वर्तमान तकनीक मानव
और प्रकृति के प्रति हिंसक है। इसकी जगह अहिंसक तकनीक के बारे में सोचना होगा।
मनुष्य स्वार्थवश हिंसा करता है। मार्क्स और गांधी दोनों मनुष्य को स्वतंत्र करने
की बात करते हैं।
अपने अध्यक्षीय
वक्तव्य में कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने कहा कि हिंसा के कई रूप हैं। इसमें
छद्म रूप भी है। हिंसा आज गंभीर चुनौती के रूप में मानव समाज के सामने अहिंसा की
चेतावनी भिन्न-भिन्न प्रकार से परम्पराओं में मौजूद रहा है। संघर्ष के स्थान पर
सहकार मनुष्य का स्वभाव है। किन्तु यह सच है कि तकनीक मानव समाज को भी बदल देती
है। आज मनुष्य के यंत्रीकरण की कोशिशें चल रही है। यह मनुष्य के बदलते स्वभाव का
द्योतक है। मनुष्य के पास कल्पना की शक्ति है। वह अपने को पुनर्परिभाषित करता रहता
है। समर्थवान बनाने की कोशिश करता रहता है। यह प्रक्रिया चलती रहती है। मनुष्य में
रचनात्मकता-सृजनात्मकता है, जो उसे हिंसा-अहिंसा दोनों
तरफ ले जा सकती है। मनुष्य में असीम समभावनाएं है। जीवन-मृत्यु दोनों प्रवृत्तियाँ
मौजूद है। हिंसा की प्रवृत्तियों को काबू में करने के बारे में गंभीरता से सोचना
होगा। गांधी जी ने इन चीजों पर गहराई से चिंतन और प्रयोग किया। भौतिक उन्नति की
बढ़ती आकांक्षा ने मनुष्य के सामने नए-नए संकट पैदा किए हैं। इन समस्त चुनौतियों का
समाधान गांधी मार्ग में निहित है।
संगोष्ठी में
विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों के शिक्षकों एवं सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने
हिस्सा लिया।
रिपोर्टिंग टीम : डॉ.
मुकेश कुमार, प्रेरित बाथरी, माधुरी
श्रीवास्तव, खुशबू साहू, अजय गौतम,
अक्षय कदम, सुधीर कुमार, मोहिता एवं सपना पाठक
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