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Thursday, October 4, 2018

गांधी दर्शन के विविध पक्ष




वर्धा, 2 अक्टूबर 2018। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150 वी जयंती के अवसर पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के गालिब सभागार में एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ। गांधी का आलोकविषयक इस एक दिवसीय परिचर्चा में गांधी दर्शन के विविध पक्ष विषयक चर्चा सत्र की अध्यक्षता विश्विद्यालय के कुलसचिव प्रो. कृष्ण कुमार सिंह ने किया। जबकि संचालन गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ. चित्रा माली ने किया।
            सत्र को संबोधित करते हुए महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी समाज कार्य अध्ययन केंद्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने कहा कि गांधी के विचारों का क्षितिज अत्यंत ही व्यापक है। आज गांधी से किसी की असहमति हो सकती है। उन असहमतियों से आज सार्थक संवाद की आवश्यकता है। गांधी जी अपने आलोचकों का काफी सम्मान करते थे और आलोचनाओं को संजीदगी के साथ जानने-समझने और खुद को जांचने की कोशिश करते रहते थे।
 बिहार के मुजफ्फरपुर से आए प्रो. प्रमोद कुमार सिंह ने सत्र को संबोधित करते हुए कहा कि भूलना हमारी फितरत हो गई है। विचारधाराओं के अंत और इतिहास के अंत की घोषणा हो चुकी है। कागजी मुद्रा पर गांधी को अंकित कर अमरत्व प्रदान कर दिया गया है। किन्तु यह गांधी जी के अमरत्व का चिह्न नहीं है। दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी ने जो आश्रम बनाया था उसका नाम फीनिक्स रखा था। जिसका अर्थ होता है बार-बार जीवित होने वाला पक्षी। गांधी खुद भी उसी फीनिक्स पक्षी की भांति हैं। गांधी पल-पल प्रासंगिक हो उठे हैं। गांधी ने सत्याग्रह का विकास दक्षिण अफ्रीका में किया था। भारत में उनका पहला सत्याग्रह बिहार के चम्पारण से प्राम्भ हुआ था।
 भारतीय राजनीति के केंद्र में किसानों को लाने का श्रेय गांधी को ही जाता है। गांधी ने प्राचीन चिकित्सा पद्धति का भी प्रयोग किया। गांधी ने स्वदेशी के लिए अभियान चलाया, खादी ग्रामोद्योग पर प्रयोग किया। वे कृष्ण की तरह ही जिये और उन्हीं की तरह कर्म किया। गुजराती भाषी होने के बावजूद गांधी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बढ़-चढ़ कर वकालत की थी। गांधी ने जैन, बौद्ध धर्म के भी मूल्यों को आत्मसात किया था। उन्होंने पश्चिम के भी उद्यत मूल्यों को ग्रहण किया था किन्तु पश्चिम की भौतिक प्रगति केंद्रित सभ्यता को शैतानी सभ्यता करार दिया था। किन्तु आजादी के बाद भारत ने गांधी के रास्ते पर चलने के बजाय उसी शैतानी सभ्यता के विकास मॉडल पर चलना जारी रखा है। आज गांधी की हर रोज हत्या की जा रही है, किन्तु गांधी बार-बार हमारे सामने मशाल लेकर उपस्थित हो जाते हैं। गांधी ने देश-दुनिया के सामने विकल्प पेश किया था। आज आधुनिक विश्व जिन समस्याओं से घिरा हुआ है उसका विकल्प हमें गांधी के पास दिखाई देता है। यही गांधी का अमरत्व है। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है वैसे-वैसे गांधी के नाम की चमक बढ़ती जा रही है। गांधी सामान्य में असामान्य, साधारण में असाधारण थे। गांधी आज लोकमानस में चिरायु हो गये हैं।

विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. शम्भू जोशी ने सत्र को संबोधित करते हुए कहा कि वर्तमान में हमारा संकट नैतिकता का संकट है। गांधी हमें इसी संकट से उबारने का रास्ता देते हैं। गांधी का सभ्यता विमर्श देश-दुनिया को मुक्ति का मार्ग दिखाती है। गांधी जी ने भारतीय सभ्यता की भी समीक्षा की है और नीति और संयम एवं सत्य और अहिंसा को सभ्यता विमर्श का आधार बनाया है। गांधी ने शिक्षा, धर्म, समाज, अर्थनीति, राजनीति सबमें नीति, नैतिकता, सादगी, प्रेम दाखिल करने की कोशिश करते हैं और उसे मानवीय मूल्यों की बुनियाद पर संगठित करने का प्रयास करते हैं। गांधी ने भारत के खोये हुए आत्मविश्वास को वापस लौटाया और उसी के आधार पर भारत को आजाद कराने में सफलता हासिल की। किन्तु आज भारत एक बार फिर उपभोक्तावाद के मकड़जाल में फसता जा रहा है,  इससे पर्यावरणीय संकट के साथ-साथ कई अन्य गंभीर संकट उपस्थित हुए हैं। इससे मुक्ति के लिए एक बार फिर हमें गांधी की शरण में जाना पड़ेगा।


विवि के सहायक प्रोफेसर डॉ. अमित राय ने इस मौके पर कहा कि गांधी एक कुशल नेता थे। भारतीय राजनीति के रंगमंच पर गांधी जिस समय आए उस वक्त यहाँ एक किस्म की निराशा छाई हुई थी। गांधी ने इस निराशा को तोड़ते हुए भारतीय जनमानस को नए सिरे से खड़ा किया। उत्पीड़ितों के वर्तमान प्रतिरोधों को भी इसके बरक्स देखने-समझने की आवश्यकता है।
अध्यक्षीय वक्तव्य में विवि के कुलसचिव प्रो. के.के सिंह ने कहा कि महात्मा गांधी का भारत के निर्माण में अतुलनीय योगदान है। उनका व्यक्तित्व, दर्शन और कार्य अत्यंत ही व्यापक है। गांधी की एक आवाज पर पूरा देश उठ खड़ा होता था, जबकि उस वक्त आज की तरह की विकसित संचार की सुविधा भी नहीं थी। गांधी को उस वक्त ही जनमानस ने ईश्वर तुल्य मान लिया था। गांधी जी ने जनता की इस आस्था को सकारात्मक दिशा देने का प्रयत्न किया। संगोष्ठी में विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों के शिक्षकों एवं सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने हिस्सा लिया।





रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, प्रेरित बाथरी, माधुरी श्रीवास्तव, खुशबू साहू, अजय गौतम, अक्षय कदम, सुधीर कुमार, मोहिता एवं सपना पाठक

गाँधी जीवन दृष्टि एवं प्रयोग



वर्धा, 2 अक्टूबर 2018। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150 वी जयंती के अवसर पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के गालिब सभागार में एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ। गांधी का आलोकविषयक इस एक दिवसीय परिचर्चा में गाँधी जीवन दृष्टि एवं प्रयोगविषयक दूसरे चर्चा सत्र का संचालन गाँधी एवं शांति अध्ययन विभाग के प्राध्यापक डॉ. धूपनाथ प्रसाद ने किया। सत्र में मुख्य वक्ता के रूप में वरिष्ट पत्रकार अरविन्द मोहन, विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. अरमेंद्र शर्मा एवं ऋषभ मिश्र उपस्थिति थे। सत्र की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के प्रो. अनिल कुमार राय ने की।
सत्र को संबोधित करते हुए विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. अरमेंद्र शर्मा ने कहा कि गाँधी का निजी जीवन नहीं रहा है। गाँधी की पूरी जीवन-पद्धति में निजी और सार्वजनिक के बीच का भेद मिट गया प्रतीत होता है। उनकी ज़िन्दगी में कुछ भी छिपा हुआ नहीं है। गाँधी सतत प्रयोगशील रहे। गाँधी ने अंतिम सत्य का दावा नहीं किया। उनके चिंतन में गतिशीलता है। इसलिए गाँधी को समझने के लिए इसका ध्यान रखा जाना चाहिए। गाँधी हमेंशा आम जनता के पक्ष में रहे। उनसे हमें यह प्रेरणा प्राप्त होती है। अंत में उन्होंने कहा कि इस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए कि गाँधी की प्रयोगधर्मिता आज भी बनी रहनी चाहिए।
सत्र के अगले वक्ता शिक्षा विद्यापीठ के प्राध्यापक ऋषभ मिश्र ने कहा कि बुनियादी शिक्षा गांधीजी की अनुपम देन है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आजाद भारत में बुनियादी तालीम को तिलांजलि दे दी गयी। गाँधी के बुनियादी तालीम का विचार मौजूदा शिक्षा व्यवस्था से भिन्न है। मौजूदा शिक्षा व्यवस्था मनुष्य को अपनी जड़ों से, अपनी संस्कृति से अलग करती है। पाश्चात्य शिक्षा श्रम से काटती है। गाँधी बच्चे को मातृभाषा में परिवार के बीच रहकर उद्योगमूलक शिक्षा देने की बात करते हैं। स्वावलंबन उनकी शिक्षा की अनिवार्य शर्त है। गाँधी की बुनियादी तालीम का दर्शन और प्रयोग हमारे लिए काफी उपयोगी है। यह शिक्षा हमें जीवन और जीविका दोनों के लिए तैयार करती है ।
सत्र के मुख्य वक्ता चर्चित वरिष्ट पत्रकार-लेखक अरविन्द मोहन ने भारत में गाँधी के प्रथम सत्याग्रह- चंपारण सत्याग्रह की सूक्ष्म चर्चा की और उससे निकलने वाली प्रेरणा की शिनाख्त की। गाँधी के संचार कौशल की भी उन्होंने विस्तृत चर्चा की। तार, चिट्ठी आदि का संचार के रूप में गाँधी भरपूर प्रयोग करते हैं। उन्होंने तत्कालीन ब्रिटिश साम्राज्य के संचार तकनीक की भी संक्षिप्त चर्चा की। रेल-मार्ग, सड़क मार्ग, जलमार्ग और दूरसंचार आदि के विकास की भी संक्षिप्त चर्चा की। चंपारण में मोहम्मद मुनिस की संचार में भूमिका पर भी उन्होंने प्रकाश डाला डाला। उन्होंने बताया कि गाँधी के संचार कौशल और संचार की ईमानदारी ने अंग्रेजों के मनसूबे को नाकाम कर दिया। गाँधी ने अपने व्यक्तित्व से भी लोगों से आसानी से संपर्क स्थापित कर लिया। उनके कथनी और करनी में समानता ने भी आम लोगों में प्रभाव स्थापित किया। गाँधी ने बिना किसी अफवाह और अतिरेक के संचार किया और अंग्रेजों के साथ- साथ चंपारण के किसानों का भी भरोसा हासिल किया। गाँधी के चंपारण के प्रयोग से हमें  आज भी काफी सिख मिलती है।

अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो.अनिल कुमार राय ने कहा कि गाँधी के विचार एवं जीवनप्रयोग को उस वक्त के देशकाल- परिस्थिति के आधार पर समझने की जरुरत है। किन्तु यह भी सच है कि गांधी ने देशकाल- परिस्थिति का खुद ही अतिक्रमण किया। गाँधी ने भारतीय परंपरा के साथसाथ पश्चिमी परंपरा के भी उद्दात मूल्यों को ग्रहण किया था। गाँधी के विचार को किसी वाद में नहीं बांधा जा सकता है। गांधी का व्यक्तित्व अत्यंत ही उद्दात था। आज भी हमें उनका जीवन और चिंतन प्रेरणा प्रदान करता है।
संगोष्ठी में विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों के शिक्षकों एवं सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने हिस्सा लिया।

रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, प्रेरित बाथरी, माधुरी श्रीवास्तव, खुशबू साहू, अजय गौतम, अक्षय कदम, सुधीर कुमार, मोहिता एवं सपना पाठक

गांधी जयंती : गांधी का आलोक


वर्धा, 2 अक्टूबर 2018। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150 वी जयंती के अवसर पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के गालिब सभागार में एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ। गांधी का आलोकविषयक इस एक दिवसीय परिचर्चा का उदघाटन सत्र हिंसा के विविध पक्ष एवं गांधीपर केंद्रित था।

इस सत्र की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने की। संचालन गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग के प्राध्यापक डॉ. राकेश मिश्र ने किया। संगोष्ठी में मुख्य वक्ता पूर्व प्रोफेसर एमेंरिट्स प्रो. नंदकिशोर आचार्य एवं विशिष्ट वक्ता के रूप में स्कूल ऑफ लिबरल स्टडीज़, अंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्रो.सलिल मिश्र मौजूद थे। दोनों अतिथियों का खादी के सूत की माला पहनाकर कुलपति ने स्वागत किया। जबकि कुलपति का स्वागत महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी समाज कार्य अध्ययन केंद्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने सूत की माला पहनाकर सम्मानित किया।
महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी समाज कार्य अध्ययन केंद्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने स्वागत व्यक्तव्य दिया। अपने स्वागत वक्तव्य में उन्होंने पूरे कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी को अकादमिक और कार्यात्मक दोनों स्तर पर याद किए जाने की आवश्यकता है।
संगोष्ठी को संबोधित करते हुए प्रो. सलिल मिश्र ने कहा कि हिंसा और अहिंसा को समझने के लिए बनेबनाए ढांचे के बाहर जाकर समझना होगा। सामाजिक, नैतिक और दार्शनिक तीनों पहलुओं में समझना होगा। आज अहिंसा का देश-दुनिया के लिए क्या महत्व है, इसे भी समझना होगा। उन्होंने गांधी के पूर्व भारत में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन के प्रयत्नों की सीमाओं की विस्तृत चर्चा की। अंग्रेजी हुकूमत ने केवल बंदूक के बल पर ही शासन किया, बल्कि उसने भारतीयों के दिलो-दिमाग पर असर डालने की व्यवस्था की। इसके लिए अंग्रेजों ने कई संस्थान बनाए थे। गांधी ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद का तीनों जगह- इंग्लैंड, दक्षिण अफ्रीका और भारत में अनुभव किया। इन अनुभवों के आधार पर उनका निष्कर्ष था। कई नैतिक मानदंडों के आधार पर ब्रिटिशस को शर्मिंदा किया जा सकता था। गांधी की मान्यता बनी थी कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद को अहिंसा के तौर-तरीके से ही कारगर ढ़ंग से चुनौती दी जा सकती है।

आगे उन्होंने कहा कि पिछली सदी की तुलना में 20 वीं और 21वीं सदी भिन्न है। यह सबलिकरण की सदी है। दुनिया की सरकारें पूर्व के मुताबिक ज्यादा सबल हुई है। पूर्व के लोगों पर सत्ता का इतना नियंत्रण मुमकिन नहीं था। सरकारों के  साथ साथ जनता का भी सबलीकरण  हुआ है। जनता ने सरकारें गिराई है। 21वीं सदी में इस दोहरे सबलीकरण की ज्यादा समभावनाएं है। 20वीं सदी में संघर्ष एवं टकराव की संभावना पूर्व की सदियों की तुलना में ज्यादा बढ़ी है। 21वीं सदी में भी टकराव और संघर्ष की संभावना बढ़ी है। 20 वीं सदी के संघर्ष महज स्वार्थ पर आधारित नहीं रहे हैं। यह सिद्धान्त के लिए संघर्ष रहा है। इस सदी में जीत-हार एवं समझौता भी कठिन हुआ है।

प्रोफेसर मिश्र ने आगे कहा कि आज सम्पूर्ण विनाश की संभावना प्रबल हो गई है। सम्पूर्ण विनाश की तकनीक आज दुनिया के पास मौजूद है। 20वीं– 21वीं सदी प्रगति, समृद्धि की सदी है। भूख, गरीबी में कमी आई है। गरीबी-भुखमरी से अब पूर्व की तुलना में कम मौतें हो रही है। किन्तु यह सदी अंतर्विरोधों से भरी हुई है। एक तरफ प्रगति- तरक्की भी हुई है तो दूसरी तरफ विध्वंश भी तेज हुआ है। ऐसी परिस्थिति में गांधी और अहिंसा अत्यन्त ही जरूरी है। गांधी जीतहार के बजाय समस्या के समाधान का प्रयास करते हैं। उनकी नजर में ईमानदार सत्याग्रही हमेंशा समझौते के लिए तैयार होता है। गांधी के लिए सत्याग्रह राजनीति न होकर समस्याओं को सुलझाने की तरकीब है। उनके सत्याग्राह में दुराग्रह के लिए कोई स्थान नहीं है। गांधी पाप से घृणा करते हैं, पापी से नहीं। गांधी शोषितों के साथ-साथ शोषकों की भी मुक्ति के हिमायती हैं। आज दुनिया के पास न्यूक्लियर बम जैसे विनाशक हथियार हैं। गांधी इससे मुक्ति के लिए भी अहिंसा का रास्ता बताते हैं। दुनिया की मौजूदा हालत में गांधी हमारे लिए बेहतरीन मार्गदर्शक हैं।

सत्र के मुख्य वक्ता प्रो. नंदकिशोर आचार्य ने कहा कि, समाज में हिंसा विभिन्न रूपों में रही है, किन्तु यह क्यों है? इसे गहराई में जाकर समझना होगा। हिंसा मनुष्य के स्वभाव का अनिवार्य अंग नहीं है। हिंसा एक हद तक संस्कृति सापेक्ष है। संस्कृति पूरे जीवन को अपनी परिधि में लेती है। बाह्य परिस्थिति मनुष्य को हिंसा की तरफ ढकेलती है। किन्तु हिंसा से किसी मसले का हल नहीं होता। दुनिया की तकरीबन आधी आबादी में हिंसा की प्रवृत्ति काफी कम रही है, उन्होंने हिंसात्मक युद्धों में भाग नहीं लिया है। दुनिया को अणुबम अथवा गांधी दोनों में से एक को चुनना होगा। गांधी अहिंसा के चरम रूप हैं। गांधी मानव प्रकृति के बर्बरीकरण को लेकर काफी चिंतित थे। इसी के बरक्स उनका सत्याग्रह है।


आगे उन्होंने कहा कि उत्पादन शक्तियों में बदलाव के बगैर समाज दीर्घकालीन तौर पर नहीं बदल सकता है। अर्थसत्ता का आज केन्द्रीकरण हुआ है। इसलिए आज राज्य कॉर्पोरेट शक्तियों के एजेंट की भूमिका में आ गया है। संसाधन के लूट के बगैर आज किसी विकास की कल्पना नहीं की जा सकती है। आज विकास के लिए कीमत चुकाने की बात की जा रही है। लेकिन इसकी कीमत हमेंशा दूसरे से चुकाई जा रही है। जबकि जिसे लाभ हो रहा है, कीमत तो उसे ही चुकानी चाहिए! ये सारी परिस्थितियां हिंसाहिंसा की प्रवृत्तियों को प्रभावित करती है। केवल बाह्य तथा छिट- पुट परिवर्तन से बेहतर समाज नहीं बनाया जा सकता है। देश-दुनिया की मौजूदा परिस्थिति में अगर आज गांधी होते तो कॉर्पोरेट शक्तियों के उत्पाद का बहिष्कार और असहयोग करते! गांधी की इस भूमिका को नए सिरे से समझने की आवश्यकता है।
प्रो. नंदकिशोर ने कहा कि आधुनिक तकनीक में सृजन और विध्वंस दोनों संभावनाएं मौजूद है। तकनीक अपने आप में विज्ञान नहीं है। विज्ञान तो प्रकृति के नियम की एक खोज है। कोई समाज तकनीक विहीन नहीं रहा है। अगर हम चाहते हैं कि दुनिया में सुख-शांति कायम हो तो तकनीक के इस्तेमाल के पीछे के उद्देश्य को साफ करना होगा। यदि तकनीक का उद्देश्य सभी मानव का कल्याण करना है, तभी वह तकनीक मानव सभ्यता के लिए कल्याणकारी  होगी। वर्तमान तकनीक मानव और प्रकृति के प्रति हिंसक है। इसकी जगह अहिंसक तकनीक के बारे में सोचना होगा। मनुष्य स्वार्थवश हिंसा करता है। मार्क्स और गांधी दोनों मनुष्य को स्वतंत्र करने की बात करते हैं।

अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने कहा कि हिंसा के कई रूप हैं। इसमें छद्म रूप भी है। हिंसा आज गंभीर चुनौती के रूप में मानव समाज के सामने अहिंसा की चेतावनी भिन्न-भिन्न प्रकार से परम्पराओं में मौजूद रहा है। संघर्ष के स्थान पर सहकार मनुष्य का स्वभाव है। किन्तु यह सच है कि तकनीक मानव समाज को भी बदल देती है। आज मनुष्य के यंत्रीकरण की कोशिशें चल रही है। यह मनुष्य के बदलते स्वभाव का द्योतक है। मनुष्य के पास कल्पना की शक्ति है। वह अपने को पुनर्परिभाषित करता रहता है। समर्थवान बनाने की कोशिश करता रहता है। यह प्रक्रिया चलती रहती है। मनुष्य में रचनात्मकता-सृजनात्मकता है, जो उसे हिंसा-अहिंसा दोनों तरफ ले जा सकती है। मनुष्य में असीम समभावनाएं है। जीवन-मृत्यु दोनों प्रवृत्तियाँ मौजूद है। हिंसा की प्रवृत्तियों को काबू में करने के बारे में गंभीरता से सोचना होगा। गांधी जी ने इन चीजों पर गहराई से चिंतन और प्रयोग किया। भौतिक उन्नति की बढ़ती आकांक्षा ने मनुष्य के सामने नए-नए संकट पैदा किए हैं। इन समस्त चुनौतियों का समाधान गांधी मार्ग में निहित है।

संगोष्ठी में विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों के शिक्षकों एवं सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने हिस्सा लिया।

रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, प्रेरित बाथरी, माधुरी श्रीवास्तव, खुशबू साहू, अजय गौतम, अक्षय कदम, सुधीर कुमार, मोहिता एवं सपना पाठक


Thursday, April 12, 2018

महात्मा फुले और कस्तूरबा गांधी का जीवन-संघर्ष हमारे लिए पथ-प्रदर्शक है : प्रो. आनंदवर्द्धन शर्मा


वर्धा, 11 अप्रैल, 2018. महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिन्‍दी विश्‍वविद्यालय के महात्‍मा गांधी फ्यूजी गुरूजी सामाजिक कार्य अध्‍ययन केंद्र में महात्‍मा ज्‍योतिबा फुले एवं कस्‍तूरबा गांधी की जयंती मनाई गई। दोनों महान विभूतियों के जीवन-संघर्षों को याद करते हुए उक्‍त अवसर पर संगोष्‍ठी का आयोजन हुआ। संगोष्‍ठी को संबोधित करते हुए विश्‍वविद्यालय के प्रतिकुलपति प्रो. आनंदवर्द्धन शर्मा ने कहा कि आज भारत के इतिहास का अति महत्वपूर्ण दिन है। आज देश के विभिन्न हिस्सों में कई महान विभूतियों का जन्‍म हुआ था। आज ही के दिन गांधीजी की सहधर्मिनी कस्तूरबा गांधी का जन्‍म हुआ था। आज ही महात्‍मा ज्योतिबा फुले और राहुल सांकृत्‍यायन की भी जयंती है। उन्होंने कहा कि महान कार्य करने वाली आत्‍माओं को ही महात्‍मा की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। महात्मा फुले ने शिक्षा के लिए अद्वितीय कार्य किए हैं। राष्ट्र निर्माण की दृष्टि से उनके कार्य आज भी हमारे लिए पथ-प्रदर्शक हैं। स्‍त्री शिक्षा के लिए किए गए उनके कार्यों व संघर्षों को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। आगे उन्होंने कहा कि महाराष्‍ट्र की धरती हमेशा से विभूतियों की धरती रही है। कई महापुरूष या तो सीधे यहीं पैदा हुए हैं अथवा कई एक की यह कर्मभूमि रही है। महात्मा ज्‍योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले की यह जन्‍मभूमि और कर्मभूमि दोनों रही है। वहीं यह बाबासाहब डॉ. भीमराव अंबेडकर और महात्मा गांधी एवं कस्तूरबा गांधी की यह कर्मभूमि रही है। उन्‍होंने छात्र-छात्राओं से कहा कि उन्‍हें महापुरूषों की जन्‍मभूमि व कर्मभूमि का दर्शन करने जाना चाहिए। ये स्‍थल आज भी हमें आज भी प्रेरित करते हैं। उन्‍होंने देशभर में महापुरूषों की जन्मभूमि और कर्मभूमि से जुड़े अपने अनुभवों को छात्र-छात्राओं से साझा किया। उन्‍होंने बताया कि हमारे महापुरूषों के जीवन में हमें कथनी और करनी के बीच गहरा तालमेल देखने को मिलता है। उन्होंने यह भी कहा कि महापुरूषों को किसी जाति-धर्म-संप्रदाय अथवा देश-काल की सीमाओं तक सीमित नहीं किया जा सकता है। उन्‍होंने सभी छात्र-छात्राओं से महात्‍मा फुले और कस्‍तुरबा गांधी सरीखे महापुरूषों से संबंधित साहित्‍य का अध्‍ययन करने और उससे प्रेरणा गृहन करने की बात कही। अंत में उन्होंने कहा कि हमें अपने इन महापुरूषों से मानवता और भ्रातृत्‍व का संदेश सीखना चाहिए।

संगोष्ठी को संबोधित करते हुए विश्वविद्यालय के गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. नृपेन्‍द्र प्रसाद मोदी ने कहा कि कस्‍तूरबा गांधी जी से उम्र में 6 माह के लगभग बड़ी थी और यह वर्ष बा-बापू की जयंती का 150 वां वर्ष भी है। उन्‍होंने बा-बापू से जुड़े हुए स्‍थलों के भ्रमण के अपने निजी अनुभवों की भी चर्चा की। उन्‍होंने महात्‍मा ज्‍योतिबा फुले के ऐतिहासिक योगदानों की विस्तृत चर्चा की। अंग्रेजों की गुलामी के दौर में इन महापुरूषों के कार्यों की विस्‍तृत चर्चा करते हुए उन्‍होंने बा-बापू के दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत में किए गए सत्‍याग्रह की भी चर्चा की।

विभाग की छात्रा माधुरी श्रीवास्तव ने कस्तूरबा गांधी के ईव्न संघर्ष की विस्तृत चर्चा करते हुए कहा कि कस्‍तूरबा महान समाज सेविका थी। उन्‍होंने महात्‍मा गांधी का कदम-कदम पर साथ दिया था। कस्‍तूरबा का जीवन-संघर्ष हमें आज भी प्रेरित करता है। वहीं विभाग की छात्रा सुजाता थुल ने कहा कि महात्‍मा फुले ने न केलव दलितों-पिछड़ों के लिए ही काम किया था अपितु महिलाओं की शिक्षा में उनका अभूतपूर्व योगदान है। उसी प्रकार कस्‍तूरबा गांधी ने महात्मा गांधी के साथ देश की आजादी की आंदोलन में महत्‍वपूर्ण योगदान था। एमफिल शोधार्थी राजन प्रकाश ने कहा कि थासम पेन की रचनाओं का महात्‍मा फुले एवं सावित्री फुले पर काफी प्रभाव था। विभाग के ही एमएसडब्ल्यू के छात्र रविचन्‍द्र ने कहा कि आज पूरे देश में महात्‍मा फूले की 191 वीं जयंती मनाई जा रही है। फुले ने ऐसे तबके के लिए शिक्षा का मार्ग खोला था जिन्‍हें उस वक्त तक शिक्षा के वंचित रखा गया था। किन्तु नव उदारवादी नीतियों की आड़ में आज शिक्षा के निजीकरण के नाम पर एक बार फिर आम लोगों के लिए शिक्षा के दरवाजे बंद किए जा रहा है।

संगोष्ठी के अंत में धन्‍यवाद ज्ञापन विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ. मिथिलेश कुमार ने तथा संचालन डॉ. मुकेश कुमार ने किया। उक्‍त अवसर पर विभाग के प्राध्‍यापक डॉ. शिवसिंह बघेल, गजानन निलामे, डॉ. पल्‍लवी शुक्‍ला आदि उपस्थित थे। संगोष्ठी में विभाग के दर्जनों पी-एच.डी, एम‍ फिल, एम.एस.डब्‍ल्‍यू. एवं बी.एस.डब्‍ल्‍यू की छात्र-छात्राएं शामिल हुए।    


रिपोर्टिंग टीम- डॉ मुकेश कुमार, नरेश गौतम, डिसेंट साहू    

Sunday, March 25, 2018

वर्धा : सात दिवसीय संकाय संवर्द्धन कार्यशाला का प्रतिकुलपति ने किया समापन



वर्धा, 25 मार्च 2018. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी सामाजिक कार्य अध्ययन केंद्र एवं राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थान परिषदहैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित सात दिवसीय ग्रामीण सहभागिता में संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के अंतिम दिन प्रथम सत्र में महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस के मेडिसिन विभाग के निदेशक प्रो. उल्हास जाजू ने पिछले चार दशकों के अपने अनुभव के आधार पर सामुदायिक स्वास्थ्य को लेकर किए गए प्रयोग पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि हमारे काम की शुरुआत 40 साल पहले इस संदर्भ में शुरू किया था ताकि स्वास्थ्य सुविधाएं ग्रामीण लोगों तक पहुँच सके और इसी कड़ी में ग्रामीण स्वच्छता का मुद्दा हमारे सामने आया। इस कार्य को पूर्ण करने के लिए हमने गांधी, विनोबा तथा सुशीला नायर आदि के विचारों को अपनाया। जिससे हमने ग्रामीण भारत के साथ जुडने की कला सीखी। इसी कड़ी में हमने जयप्रकाश नारायण के विचारों को भी अपनाया।

उन्होंने आगे कहा कि समता, स्वतंत्रता तथा मैत्री के आधार पर ही अपने ध्येय को प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए सत्ता का विकेन्द्रीकरण आवश्यक शर्त बन जाती है। गांधी के अनुसार ग्रामीणों में सत्ता का विकेन्द्रीकरण ही सच्चा 'हिन्द स्वराज' लाएगा। इसी कड़ी में हमने गांधी-जीवन के आदर्शों को अपनाते हुए श्रम आधारित समाज रचना की स्वीकार्यता को अपनाया। प्रो. जाजू ने आगे कहा कि गांधी ने ग्राम स्वराज का सपना देखा जिसे विनोबा जी ने भूदान-ग्रामदान के जरिये आगे बढ़ाने की कोशिश की थी। विदर्भ के गढ़चिरौली जिले में मेंढ़ा-लेखा इसी तरह का प्रयोग है जो आज भी हमें देखने को मिलता है।
            उन्होंने कहा कि गांधी अंत्योदय से सर्वोदय अर्थात समन्वय की बात करते थे। हमने लाओत्से का निम्न मंत्र अपनाया-
            लोगों की ओर जाओ
            उनके साथ काम करो
            उन्हें समझो
            उनसे सीखें
            उन्हें प्रेम करें
            उनके साथ नियोजन करें
            उनके साथ कार्य करें!
उन्होंने कहा कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करते हुए हमने यह ध्यान रखा कि यह 'for the people' अर्थात जनता के लिए हो। हमें कुछ समस्याओं के साथ भी जूझना पड़ा। यहाँ के लोगों के लिए आज सबसे महंगा स्वास्थ्य खर्च माना जाता है। गांवों की संस्कृति, उनका जीवन अनुभव आदि को समझे बगैर तथाकथित पढ़े-लिखे लोग केवल विकास के नाम पर आउटसाइडर के रूप में काम करने की सोचते हैं। जिसमें उन्हें भीख से ज्यादा नहीं देते, ऐसे में हम इसे समुदाय सहभागिता कैसे कहें! यह एक गंभीर प्रश्न है। अक्सर हम गाँव वालों पर थोंपने की ही कोशिश करते हैं। आज एक ओर विज्ञान नये-नये लक्ष्यों की प्राप्ति की है लेकिन कहीं भी इसको अच्छे उपयोग के लिए नहीं अपनाया गया। इसे ज़्यादातर दुरुपयोग के लिए ही उपयोग में लाया जाता है। विनोबा को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि विज्ञान रथ के घोड़े की तरह है जिसकी लगाम अपने अच्छे लोगों के हाथ में होने की आवश्यकता है।
            उन्होंने कहा कि गांवों में हम ऐसा क्यों समझते हैं कि ग्रामीणों को हम अक्ल सिखाने जा रहे हैं? गांवों के लोगों के विज़डम को भी हमें समझना होगा। एक घटना का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि गाँव में वट वृक्ष की पूजा करने वाली महिलाओं से यह पूछा गया कि आपने किसकी पूजा की तो उनका उत्तर था पति अर्थात शिव की। मेरे प्रश्न के जवाबी उत्तर में कि क्या किसी देवी की पूजा होती है तो उनका जवाब था 'साहब उनकी पूजा तो रोज ही होती है।' अर्थात 85% महिलाओं को आज भी पति के द्वारा पीटा जाता है, जिसे वे महिलाएं व्यंग्यपूर्वक पूजा कह रही थी।
            उन्होंने आगे कहा कि आम लोगों तक वास्तविक लाभ पहुँचाने के लिए हमें समाज की संरचना को बदलना होगा जिसके लिए राजनैतिक मंशा की आवश्यकता ज्यादा है। अपने प्रयोग पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि हमने गांवों में फ्री में कोई भी सेवा नहीं दी और वहाँ के लोगों की सहभागिता के आधार पर ज्वार, धान आदि को इकट्ठा कर उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं दी गई। इस गतिविधि के माध्यम से ग्रामीणों में 'राइट टू डिमांड' के प्रति जागरूकता को बढ़ाने की कोशिश की। उन्होंने ट्रस्टीशिप की भावना के विकास पर भी ज़ोर दिया। उन्होंने कहा कि भारत में आज भी स्वास्थ्य पर कुल GDP का मात्र 1.4 फीसदी ही खर्च किया जाता है। जबकि यूएनडीपी के मुताबिक यह 5 से लेकर 10 फीसदी तक होना चाहिए। उन्होंने कहा कि प्रति व्यक्ति के आधार पर ग्राम सभा के जरिये संसाधनों का बंटवारा हो और ग्रामीण लोगों के हाथों में निर्णय प्रक्रिया हो तभी गांवों का समुचित विकास मुमकिन हो सकता है। साथ ही उन्होंने समुदाय सहभागिता के मूलतत्व बताएं जिसमें से कुछ इस प्रकार है-
            -समुदाय द्वारा स्वीकृति
            -समुदाय द्वारा सहयोग
            -समुदाय द्वारा पार्टनरशिप
            -समुदाय द्वारा सहभागिता
            उन्होंने इसका उदाहरण बताते हुए बताया कि क्रांति सातत्यपूर्ण होती है, नित-नवीनतम होती है। मेंढ़ा-लेखा जैसे गाँव में ग्राम सभा को भूस्वामित्व ग्रामसभा को सौंपने में 35 साल लगे। ऐसे गाँव में सही मायने में ग्रामीण सहभागिता के उक्त सभी मूल तत्वों को देखा जा सकता है। आगे उन्होंने कहा कि हमने गांवों में स्वच्छता के प्रति लोगों को जागरूक करने हेतु जिस तरीके को अपनाया वह यह थी- शुरुआत में हमने घर-घर जाकर ग्राम वासियों को स्वच्छता के बारे में बताना शुरू किया। इस कार्य में ग्रामीणों की सहभागिता के साथ-साथ कुछ संस्थाओं से मदद ली गई। खुले में शौच जाने को खत्म करने हेतु अलग-अलग मोहल्ले में एक-एक टाइलेट बनाया गया लेकिन इसका उपयोग देखा कि लोग लकड़ी, बकरी आदि को रखने के लिए किया जाने लगा। जब हमने वहाँ की वृद्ध महिलाओं से बातचीत की कि ऐसा क्यों हुआ! तब उन्होंने बताया कि 'हर परिवार की महिलाओं को ही दूर-दूर के कुएं से पानी ढोकर लाना होता है। घर के सात लोगों के लिए नहाने, कपड़े धोने से लेकर पीने व रसोई के लिए पानी लेकर वे ही आती हैं। उसमें भी अब आपकी टाइलेट के लिए अलग से पानी लाकर मेरी बहू को मारना है क्या? तब जवाब में मैंने खिसियाहट के साथ कहा कि फिर सुबह-सुबह सलामी देने का शौक क्यों है? वृद्धा ने जवाब दिया कि गीली जमीन, बिजली की कमी तथा बिच्छू, साँप के डर से महिला-पुरुष रास्ते के दोनों अलग-अलग किनारे पर टायलेट के लिए जाते हैं। इस तरह हमने उनसे वहाँ से अक्ल प्राप्त की और विज्ञान का आधार लेते हुए उनकी आवश्यकताओं के अनुसार कम पानी खर्च होने वाला शौचालय बनाया गया। इसे बनाने एवं उपयोग में लाने में पाँच साल लगे। आगे इस परियोजना को गांवों में क्रियान्वित करने के लिए ग्रामीणों के द्वारा ही किये जाने की प्रविधि को अपनाया गया जिसका अंतिम उद्देश्य 'ग्राम स्वराज' था। उन्होंने कहा कि बिना लोकशक्ति के गाँव में कोई भी परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है। शक्ति के आधार पर, नैतिकता के आधार पर हमने वहाँ कार्य किया, जाति-धर्म से अलग आर्थिक क्षमताओं के आधार पर सामाजिक संरचना का निर्माण करना। व्यक्ति तथा सामाजिक योगदान को बढ़ावा दिया। श्रमदान, समर्थ की पहचान की गयी इसी से सहभागितापूर्ण नेतृत्व का निर्माण हुआ।
            उन्होंने आगे कहा कि हमने अपने प्रयोगों में से जो पाया वह यह था कि ग्रामीण लोगों के अनुभवों के आधार पर ही उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप कार्य होना चाहिए। दान का स्वरूप भीख न हो बल्कि लोकशक्ति के रूप में उसका उभार होना चाहिए। दानकर्ता को ट्रस्टी के रूप में होना चाहिए न कि दाता के रूप में। संसाधन ग्राम सभाओं के हाथ में होने चाहिए। इस पूरे कार्य को करने के लिए तंत्र-मंत्र के साथ-साथ व्रत लेना जरूरी है। हम सब जब व्रती के रूप में सामाजिक जीवन का निर्वहन करेंगे तभी अच्छे समाज का निर्माण होगा। मेंढ़ा-लेखा इस मामले में काफी आगे निकाल चुका है। हम भी समाज का मंगल चाहते हैं तो इस तरह के प्रयोगों को आगे बढ़ाना होगा।

द्वितीय सत्र में ग्रुप प्रस्तुति हुई। अशोक सातपूते, राहुल निकम, गजानन नीलामे, डिसेन्ट कुमार द्वारा लेखा-मेंढ़ा के सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षिक स्थिति के अध्ययन के आधार पर अपना रिपोर्ट प्रस्तुत किया। रिपोर्ट में उन्होंने कहा कि वहाँ की शैक्षिक स्थिति बहुत ही निम्नतर है तथा गाँव में इसको लेकर एक प्राथमिक स्कूल के अलावा दूसरा कुछ संसाधन भी नहीं दिखाई दिया। निकम ने अपने अनुभव बताते हुए कहा कि उस गाँव में दोपहर के अनुचित समय में जाने के कारण ज्यादा जानकारी नहीं प्राप्त हो सकी, किन्तु ग्रामीणों की सहभागिता काबिल-ए-तारीफ़ है। गांवों में कई सारे गलत चीजों पर प्रतिबंध लगाया गया है। वहीं अशोक सातपूते ने मेंढ़ा लेखा के विवाह संस्था का विस्तृत विश्लेषण सबके सामने रखा। अंत में सभी ने सेवाग्राम गाँव की संरचना पर अपनी बात रखी। 
            समृद्धि डाबरे ने अपने ग्रुप का प्रतिनिधित्व करते हुए महिलाओं से संबन्धित समस्याओं पर बात रखी। डॉ. शिव सिंह बघेल ने मेंढ़ा लेखा पर विस्तृत प्रस्तुति दी। साथ ही सेवाग्राम गाँव की महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर बात की। अंत में दोनों की तुलना के आधार पर गांवों के बेहतरी के लिए विकल्प प्रस्तुत किए।
            खेती-किसानी और शिक्षा के मसले पर गठित समूह ने मेंढ़ा-लेखा और सेगांव के शैक्षिक भ्रमण के हवाले से अपने अनुभव साझा किए। इस समूह में डॉ. मुकेश कुमार, डॉ. देवशीष मित्रा एवं डॉ. पार्थसारथी मालिक, नरेश गौतम शामिल थे। इस समूह की तरफ से डॉ. पार्थसारथी ने अपने अनुभव रखते हुए कहा कि पढ़े-लिखे लोग सैद्धान्तिक चर्चा मात्र करते हैं किन्तु गाँव के लोग उसको व्यवहार में उपयोग में लाते हैं। श्याम शर्मा ने भी मेंढ़ा लेखा के अपने अनुभव शेयर किए। उन्होंने गाँव के सांस्कृतिक पहलू को रेखांकित किया। टी. राजु ने भी अपने अनुभव बताए। मेंढ़ा लेखा गाँव में की जा रही बांस की खेती के बारे में भी उन्होंने चर्चा की।
            चर्चा के अंत में प्रो. उल्हास जाजू ने मेंढ़ा-लेखा गाँव के बनने की पूरी प्रक्रिया की संक्षिप्त चर्चा की। उन्होंने बताया कि वनों पर सामुदायिक अधिकार कानून बनाने के साथ-साथ इस गाँव ने सबसे पहले उसे हासिल भी किया। तत्कालीन केंद्रीय वन-पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने उस गाँव में आकार वनों पर सामुदायिक अधिकार की घोषणा की थी। उन्होंने बताया कि तीन वर्ष पूर्व इस गाँव ने अपनी भूमि ग्राम सभा को दान कर दिया है। अब वहाँ भूमि की मिल्कियत पर व्यक्तिगत मालिकी नहीं है। ग्राम सभा ने हर किसी को उस भूमि पर कृषि करने हेतु दे रखी है। श्रमजीवी समाज के लिए इस गाँव ने एक नया आदर्श खड़ा किया।

इस सात दिवसीय कार्यशाला के समापन-सत्र की अध्यक्षता महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति प्रो. आनंद वर्धन शर्मा ने की। संचालन डॉ. मिथिलेश कुमार ने किया। उक्त मौके पर प्रो. उल्हास जाजू, विश्वविद्यालय के कुलसचिव कादर नवाज खान, डॉ शंभू जोशी एवं एनसीआरआई के डॉ. डी. एन. दास मौजूद थे। एनसीआरआई के डॉ. डी. एन. दास को प्रतिकुलपति ने अंगवस्त्र, सूत की माला व चरखा भेंट कर सम्मानित किया। समापन सत्र में पूरे कार्यक्रम की संक्षिप्त रिपोर्ट डॉ. मुकेश कुमार ने प्रस्तुत किया। समापन सत्र में दो प्रतिभागियों टी. राजू एवं डॉ. राहुल निकम ने बारी-बारी से अपने अनुभव शेयर करते हुए बताया कि इस कार्यशाला से उन्हें काफी फायदा मिला और ग्रामीण समुदाय को सूक्ष्मता से जानने-समझने का मौका मिला। दोनों ने कहा कि इस किस्म का फ़ैकल्टी डेवलपमेंट प्रोग्राम एक सप्ताह मात्र न होकर पंद्रह दिनों का होना चाहिए। उक्त मौके पर एनसीआरआई के डॉ. डी. एन. दास ने अपना मत प्रकट करते हुए कहा कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय ने यह आयोजन कर महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने प्रतिकुलपति और कुलसचिव से ग्रामीण समुदाय से लगाव बढ़ाने हेतु इसे पाठ्यक्रम का अंग बनाने में सहयोग का अनुरोध किया। समापन सत्र में ही प्रतिकुलपति एवं कुलसचिव के हाथों सभी प्रतिभागियों के बीच प्रमाण-पत्र वितरित किया गया।

समापन सत्र में अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति प्रो. आनंद वर्धन शर्मा ने कहा कि ग्रामीण समुदाय पर केन्द्रित महत्वपूर्ण कार्यशाला सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए आप सभी बधाई के पात्र हैं। उन्होंने कहा कि भारत के गाँव तमाम अभावों के बावजूद विशिष्टता लिए हुए हैं। गाँव में आतिथ्य भाव आज भी कायम है। गाँव से आज भी बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। गांव में आज सुविधाओं का अभाव है, लोग बड़े पैमाने पर गाँव से विस्थापित हो रहे हैं। उन्होंने महाराष्ट्र के चर्चित मॉडल गाँव हिबरे बाजार के प्रयोग की भी चर्चा की। प्रतिकुलपति ने एनसीआरआई से महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में एक स्थायी केंद्र बनाने का भी निवेदन किया, जहां वर्ष भर इस प्रकार के ग्राम केन्द्रित कार्यक्रम संचालित किए जा सकें। समापन सत्र में सभी प्रतिभागियों को कुलसचिव कादर नवाज खान ने धन्यवाद ज्ञापित किया।

रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, नरेश गौतम, गजानन एस. निलामे एवं डिसेन्ट कुमार साहू.


वर्धा : संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के छठे दिन प्रतिभागियों के अलग-अलग समूहों के बीच हुई चर्चा


वर्धा, 24 मार्च 2018. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी सामाजिक कार्यअध्ययन केंद्र एवं राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थान परिषद, हैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में सात दिवसीय ग्रामीण सहभागिता में संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के छठे दिन सेवाग्राम स्थित गांधी आश्रम का अवलोकन करते हुए सेगांव ग्राम का शैक्षणिक भ्रमण किया गया।
शनिवार को भोजनोपरांत सत्र का प्रारंभ हुआ। सत्र के प्रारंभ में डॉ. मिथिलेश कुमार ने शेष कार्यक्रम की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की। उसके उपरांत एनसीआरआई के डी. एन. दास ने चर्चा के लिए बाकी बचे दो समूहों को आमंत्रित किया। समूह चर्चा टीम ने खेती, किसानी और शिक्षा पर चर्चा की। चर्चा की शुरुआत डॉ. मुकेश कुमार ने की। चर्चा में डॉ. देवाशीष मित्रा ने ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था के इतिहास की संक्षिप्त चर्चा की। उन्होंने कहा कि भारत में कृषि अत्यंत ही विविधतापूर्ण इसलिए भारत में कृषि का कोई एकसमान पाठ्यक्रम नहीं बन सकता है। सभी राज्यों की भौगोलिक स्थिति में भी काफी भिन्नता है।

वहीं इस समूह के सदस्य डॉ. पार्थसारथी मल्लिक ने समूह चर्चा में कहा कि ग्रामीण समुदाय की बहुसंख्या कृषि पर निर्भर है। ग्रामीण क्षेत्र में कृषि की स्थिति बदहाल बनी हुई है। आज की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित नहीं रह गई है। लोग गाँव से पलायन कर रहे हैं। गाँव के लोगों को आज बिजली चाहिए, शिक्षा चाहिए, स्वास्थ्य चाहिए। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के चर्चित मेंढ़ा लेखा मॉडेल विलेज की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि सबकुछ के बावजूद उस गाँव में शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी और वहाँ शिक्षा को लेकर जागरूकता का अभाव था। सरकारी शिक्षा व्यवस्था अत्यंत ही बदहाल है। निजी शिक्षा संस्थानों में अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए संसाधन नहीं है। हर गाँव में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। गाँव केन्द्रित पाठ्यक्रम विकसित करने की जरूरत है।

डॉ. देवाशीष मित्रा ने चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि शिक्षा की आदर्शवादी परिकल्पना को सरजमीं पर उतार पाना काफी मुश्किल है। डॉ. पार्थसारथी मल्लिक ने गांधी के बुनियादी तालीम की भी चर्चा की। डॉ. मुकेश कुमार ने गांधी के बुनियादी तालीम के हृदय, हाथ और मस्तिस्क के संतुलित विकास के सिद्धान्त और व्यवहार पर प्रकाश डाला। शोधार्थी नरेश गौतम ने कहा कि आज 'वन इंडिया वन प्लान' की कोशिश की जा रही है। जबकि भारत के अलग-अलग राज्यों में भूमि का वितरण अत्यंत ही असमान है, मुट्ठीभर हाथों में आज भी भूमि का ज़्यादातर हिस्सा है जबकि ज़्यादातर लोग खेत-मज़दूर हैं।
समूह ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि कृषि केन्द्रित पाठ्यक्रम बनना चाहिए। समूह ने यह बात स्पष्टता के साथ कहा कि पूरे भारत के लिए कृषि पर केन्द्रित कोई एक पाठ्यक्रम नहीं हो सकता, कृषि की विभिन्नता, भौगोलिक भिन्नता आदि का ख्याल रखते हुए ही कृषि का कोई पाठ्यक्रम विकसित व निर्धारित किया जाना चाहिए। समूह चर्चा टीम की प्रस्तुति के उपरांत उपस्थित प्रतिभागियों ने अपने-अपने सुझाव दिए। चर्चा के अंत में एनसीआरआई के डी.एन. दास ने भी अपनी बातें रखी।


महाराष्ट्र के वर्धा जिले के देवली ब्लाक के लोनी गाँव में किए जा रहे प्रयोग को सीएम फ़ेलो अतुल ए. राऊत ने प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि ग्राम परिवर्तन अभियान के तहत महाराष्ट्र सरकार राज्य के एक हजार गांवों की शिनाख्त कर उसे विकसित करने का कार्यक्रम चला रही है। फिलहाल 450 गाँव में काम करने हेतु 350 सीएम फ़ेलो बहाल किए गए हैं। 9 बड़े कॉरपोरेट घरानों के कॉरपोरेट सोशल रेस्पोन्सिबिलिटी के तहत इस कार्य को आर्थिक सहयोग कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि राज्य सरकार ने हमें योजना बनाने और उसे लागू करने की एक साथ ज़िम्मेदारी दी है। गाँव के सामुदायिक स्वास्थ्य को लेकर चलाई जा रही योजना की उन्होंने विस्तृत चर्चा की। गाँव में आसपास के सहयोग से पुस्तकालय की व्यवस्था करने, कृषि के विकास आदि क्षेत्रों में किए जा रहे कार्यों पर भी उन्होंने विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला।
एनसीआरआई के डी.एन. दास ने ग्रामीण समुदाय के साथ सहभागिता बढ़ाने हेतु पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने हेतु महत्वपूर्ण सुझाव पेश किए। उन्होंने विश्वविद्यालय के छात्रों-शिक्षकों को गाँव से जुडने, उनके बीच कार्य करने हेतु कदम बढ़ाने पर ज़ोर दिया। गाँव के लोगों से जुड़ते हुए सरकार द्वारा चलाई जा रही विकास योजनाओं को बेहतर ढंग से लागू करने में शिक्षकों-विद्यार्थियों की भूमिका भी उन्होंने रेखांकित किया।

सत्र का अंत सामाजिक कार्यकर्ताओं की भूमिका के लिए गठित समूह ने नाट्य प्रस्तुति के जरिये सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवियों व छात्र-छात्राओं की भूमिका कॉ बेहतरीन ढंग से रेखांकित किया। इस समूह ने एक निरक्षर व्यक्ति को रोज़मर्रा की जिंदगी में आने वाली कठिनाइयों का चित्रण करते हुए शिक्षा की महत्ता को संवेदनशील ढंग से सामने लाने का प्रयास किया। शिक्षा के प्रति जागरूकता लाने में सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों व छात्र-छात्राओं की भूमिका को भी भली भांति चित्रित किया। समूह ने शिक्षा के सशक्त माध्यम के बतौर नाट्य प्रस्तुति की महत्ता पर भी प्रकाश डाला। इस समूह में टी. राजू, डॉ. विजय कुमार वाघमारे, डॉ. भरत खंडागढ़े एवं श्याम शर्मा शामिल थे। अंत में एनसीआरआई के डी.एन. दास ने इसपर अपने विचार व्यक्त किए। गजानन एस. निलामे द्वारा धन्यवाद ज्ञापन के साथ सत्र की समाप्ति हुई। 
 
रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, नरेश गौतम, गजानन एस. निलामे, डिसेन्ट कुमार साहू

Saturday, March 24, 2018

वर्धा : संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के चौथे दिन ग्रामीण स्वास्थ्य व अन्य मुद्दों पर हुई गहन चर्चा



वर्धा, 22 मार्च 2018. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी सामाजिक कार्य अध्ययन केंद्र एवं राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थान परिषदहैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में सात दिवसीय ग्रामीण सहभागिता में संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के चौथे दिन दत्ता मेघे इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंस के संकायाध्यक्ष डॉ. अभय मूढ़े ने 'सामुदायिक स्वास्थ्य एवं स्वच्छता' विषय पर केन्द्रित सत्र को संबोधित किया। ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति शहरों से अलग है। गांवों की स्थिति आज पहले से काफी बदल गई है। गांवों का कई मामलों में विकास हुआ है। गांवों में बिजली, इंटरनेट की सुविधाएं पहुंची है, गांवों में शौचालय बने हैं। बावजूद इसके आज भी ढेर सारे गांवों में जागरूकता का अभाव है। गाँव में शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति आज भी बहुत बेहतर नहीं है। गाँव में आंगनबाड़ी केंद्र बने हैं। गांवों में स्कूल हैं, पर वहाँ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है। ग्रामीण क्षेत्र में बच्चों के बीच में ही स्कूल छोड़ने की तादाद सबसे ज्यादा है। स्वच्छता की भारी कमी है। नालियाँ खुली पड़ी हुई हैं, उसके साफ-सफाई की नियमित व्यवस्था नहीं है।

उन्होंने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों के लिए स्वास्थ्य केंद्र और स्वास्थ्य उपकेंद्र तो बने हुए हैं, किन्तु वहाँ चिकित्सकों का अभाव है। तीन हजार से ज्यादा आबादी वाले गाँव में छोटा स्वास्थ्य केंद्र का प्रावधान है, किन्तु ज़्यादातर गांवों में आज भी इसकी गारंटी नहीं हो पाई है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में एक पुरुष व महिला डाक्टर होना चाहिए। किन्तु ढेर सारे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ऐसे हैं जहां डाक्टर तो हैं, किन्तु जरूरी दवाओं की भारी कमी है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी आधा से अधिक गाँव में खुले में शौच जाना जारी है। इसका स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है। इससे खाद्यान्न, शाक-सब्जी के संक्रमित होने का खतरा बढ़ जाता है। गाँव में शरीर और हाथों की साफ-सफाई को लेकर भी समुचित जागरूकता का अभाव है। भारत सरकार ने 1998 से सभी शहर और गाँव को स्वच्छ व निरोगी बनाने का संकल्प लिया है। सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान भी चलाया जा रहा है। इन सबके बीच ग्रामीण क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल का अभाव बना हुआ है।
            आगे उन्होंने बताया कि निर्मल भारत अभियान के तहत ग्रामीण स्कूलों के बच्चों को स्वच्छता के प्रति जागरूक किया जाता है। निर्मल ग्राम पुरस्कार भी दिए जाते हैं। स्वच्छता रथ के जरिए भी जागरूकता लाने की कोशिश की जा रही है। 9 से 15 अगस्त तक स्वच्छता सप्ताह के रूप में मनाया जाता है। जनजागरूकता लाने में मीडिया की भी अहम भूमिका होती है।
            सत्र का संचालन डॉ. मिथिलेश कुमार ने और धन्यवाद डॉ. मुकेश कुमार ने किया।

चौथे दिन के दूसरे चर्चा सत्र में नेशनल इस्टिट्यूट आफ रुरल डेवलपमेंट एंड पंचायती राज, भारत सरकार, हैदराबाद के पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर एवं मातृसेवा संघ इंटीट्यूट आफ सोशल वर्क, नागपुर में एसोसिएट प्रोफेसर रहे इंडियन जर्नल आफ सोशल वर्क एंड सोशल साइंसेज के इश्यू एडिटर रह चुके डॉ. अजित कुमार ने '14 वें वित्त आयोग: ग्राम पंचायत डेवलपमेंट प्लान' को दो केस स्टडी- सिंघाना ग्राम पंचायत (मध्यप्रदेश) एवं पटोदा (महाराष्ट्र) के संदर्भ में इसकी विस्तृत चर्चा की। महाराष्ट्र के प्रत्येक ग्राम पंचायत को औसतन 48 लाख रुपए का अनुदान प्राप्त हुआ है। एंड, फंक्शन और फंक्शनरी के बीच बेहतर तालमेल के बगैर ग्राम पंचायतों का विकास मुश्किल है। कई राज्यों में ग्राम पंचायतों को शक्तियाँ तो दी गई हैं, किन्तु वहाँ स्टाफ वगैरह की व्यवस्था समुचित तौर पर नहीं किया गया है। केंद्र सरकार द्वारा ग्राम पंचायत को 29 तरह के अधिकार दिए हैं किन्तु ज़्यादातर राज्य सरकारों ने ग्राम पंचायतों को अब तक ये सारे अधिकार नहीं दिए हैं।
            उन्होंने कहा कि वित्त आयोग ही विभिन्न योजनाओं पर खर्च किए जाने वाली राशि का बंटवारा करता है। आज तक ग्राम पंचायतों को समुचित राशि उपलब्ध नहीं कराई जा सकी है। ग्राम पंचायतों के पास आज न तो सत्ता है और न ही समुचित संसाधन है। भारत के कुछ राज्यों में ग्राम पंचायतों को एक हद तक शक्ति का हस्तांतरण किया गया है किन्तु ज़्यादातर राज्यों में ऐसा नहीं हो पाया है। हर ग्राम पंचायतों को अपनी परिस्थिति के विश्लेषण का भी वैधानिक प्रावधान है। ग्राम पंचायतों के पास जितने स्थानीय संसाधन हैं, उसका भी सम्पूर्ण ब्योरा ग्राम पंचायतों के पास होना चाहिए। देश में यथार्थपरक अध्ययन के तथ्य और आंकड़ों की भारी कमी है। इसमें सामाजिक कार्यकर्ताओं की अहम भूमिका हो सकती है।
            मध्यप्रदेश के धार जिले के मनावर ब्लाक के सिंघाना ग्राम पंचायत की केस स्टडी के आधार पर डॉ. अजित कुमार ने कहा कि यह मध्यप्रदेश के पिछड़े जिले में आता है। यहाँ ज्यादातर भीलों की आबादी है। 2005 के पूर्व इस ग्राम पंचायत के लोगों के पास पेय जल की व्यवस्था नहीं थी। लोगों का पानी की तलाश में ही ज़्यादातर वक्त खर्च हो जाता था। सड़क भी नहीं थी, दूसरे गाँव के लोग इस गाँव में अपनी लड़की की शादी करने तक को तैयार नहीं होते थे। इस ग्राम पंचायत में आए बदलाव का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि आज गाँव की सड़क बन गई है, 60 फीसदी घरों में शौचालय है। पुल-पुलिया बन गए हैं। सामुदायिक भवन हैं। घर-घर नल का पानी पहुँच गया है। मनरेगा के तहत इस गाँव में जबरदस्त काम हुआ। ग्राम पंचायत अपनी सारी गतिविधियों का सुव्यवस्थित ढंग से दस्तावेजीकरण कर रहा है।
            उक्त गाँव में कृषि के उत्पादन में भी वृद्धि हुई है। सिंचाई के लिए कुएं खोदे गए हैं। सुव्यवस्थित ग्राम पंचायत भवन सुचारु ढंग से चल रहा है। यह सारा परिवर्तन 2005 से 2015 के बीच हुआ है। इसमें मनरेगा योजना की अहम भूमिका रही। मनरेगा से इस गाँव का विकास हुआ। संदीप अग्रवाल नामक एक स्थानीय व्यक्ति के कुशल नेतृत्व की इसमें अहम भूमिका रही। आज यह धार जिले का चमकता हुआ तारा बन चुका है। उन्होंने कहा कि मनरेगा योजना के ठप्प हो जाने से सिंघाना के लोग एक बार फिर पलायन करने को विवश हो गए हैं। यहाँ से छोटी उम्र के बच्चे को गुजरात के सूरत आदि जघों पर कपास बिनने के लिए ले जाया जाता है।  
            डॉ. अजीत कुमार ने महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के पटोदा ग्राम पंचायत की केस स्टडी के आधार पर बताया कि इस गाँव की आबादी 3350 है। यह मराठा बाहुल्य गाँव है। 2005 में जहां इस ग्राम पंचायत को 2,14,000 रुपए मात्र का अनुदान प्राप्त हुआ था वहीं 2012-13 में 28,30,627 रुपए का अनुदान प्राप्त हुआ। पूर्व में गाँव में चार आटा चक्की था, जिसकी जगह पर ग्रामसभा ने चारों को बंद कर आपसी सहयोग से एक बड़ी आटा चक्की स्थापित की। इस गाँव में हुए अभिनव प्रयोग की उन्होंने विस्तृत चर्चा की। अंत में प्रतिभागियों के प्रश्नों का भी उन्होंने उत्तर दिया। इस सत्र का संचालन एवं आभार ज्ञापन डॉ. आमोद गुर्जर ने किया।   

तीसरे चर्चा सत्र का संयोजन एनसीआरआई के डीएन दास ने किया। सत्र में सभी सहभागियों ने सिलसिलेवार ढंग से अपने-अपने सबन्धित विषय पर प्रस्तुति दी। प्रथम सहभागी के रूप मे डॉ आमोद गुर्जर ने अपने शोध के अंतर्गत आनेवाली विभिन्न प्रक्रियाओं तथा टूल्स- टेकनिक्स की बात की। प्रस्तुति के दरम्यान उन्होंने ग्रामीण क्षेत्र में प्रयुक्त विभिन्न पद्धतियां जैस-पीआरए, आरआरए पर चर्चा की। इसके साथ ही उन्होंने पीएलए को केंद्र मे रखते हुए ग्रामीण क्षेत्र की सहभागिता पर अपनी बात रखी। प्रस्तुति के बाद प्रश्नोत्तरी में Practice Based Research Methodology पर बात हुई। दूसरे प्रतिभागी के रूप में डॉ. शिवसिंह बघेल ने शोध-प्रविधि के अंतर्गत आनेवाली पीआरए, आरआरए तथा एलएफए की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए अपनी प्रस्तुति की। पीआरए पर विशेष रूप से बात करते हुए उन्होंने सोशल मैपिंग, चपाती डायग्राम तथा अन्य मैट्रिक्स पर विस्तृत चर्चा की। उन्होंने आगे बताया कि ग्रामीण सहभागिता के लिए गावों में प्रवेश करते ही पहले 'ट्रांज़िट वाक' करना पड़ता है। जिसमें गाँव के प्रति ज़्यादातर जानकारी शोधकर्ता को प्राप्त किया जा सकता है। सामाजिक मानचित्रण पर बात करते हुए उन्होंने गाँववालों को इस प्रक्रिया में सहभागिता की तकनीकों के बारे में बताया।
रिसोर्स मैपिक पर बात करते हुए ग्रामीणों की सहभागिता से ग्रामीण संसाधन की पहचान करने की तकनीक पर भी बात की। इसके बाद चपाती डायग्राम तथा Service Mapping के उपयोग की भी उन्होंने चर्चा की। डॉ. बघेल ने पीआरए के साथ-साथ एलएफए की प्रविधि की भी संक्षिप्त चर्चा की। इसके साथ ही केंद्र के विद्यार्थियों के द्वारा सेवाग्राम गाँव में प्रयुक्त पीआरए प्रविधि के अंतर्गत किए गए कार्य को भी उन्होंने प्रस्तुत किया।
            सत्र को आगे बढ़ाते हुए केंद्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने ग्रामीण क्षेत्र में क्षेत्र सबंधी परियोजना पर शिक्षकों के सामने विभिन्न क्षेत्र तथा सुझाव प्रस्तुत किया। उन्होंने शिक्षकों का इस ओर ध्यान केन्द्रित किया कि हमें आदर्शवादी तरीके के बजाय इसे गाँव के लोगों की स्वीकार्यता से जोड़ना होगा। हम क्या चाहते हैं, इससे ज्यादा जरूरी है कि गाँव के लोग क्या चाहते हैं। इसी को मद्देनजर रखते हुए शोधकर्ता को गैप ढूँढने की कोशिश करनी होगी। अपने अनुभव बताते हुए उन्होंने बिहार के ग्रामीण क्षेत्र में प्रयुक्त पीएसपी की उपयोगिता को भी इसके साथ जोड़कर देखने की बात की। गांवों में कार्य करते समय एक दिन में समझकर उनकी समस्याओं का समाधान नहीं ढूंढा जा सकता, उसके लिए छोटे-छोटे मुद्दों को लेकर गहन कार्य करने की आवश्यकता है।
            अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने सभी शिक्षकों से यह निवेदन किया कि दो दिन के क्षेत्र-कार्य में आपके द्वारा किए जाने वाले कार्य का कच्चा ड्राफ्ट तैयार करने की अपेक्षा जाहिर की। साथ ही उन्होंने शिक्षकों से यह अपेक्षा जाहिर की कि हम लोगों को ग्रामीण भारत के लोगों की प्राथमिकता तय करने में उनकी मदद करनी होगी अन्यथा उनका भटकाव देश के विकास को अवरुद्ध करेगा। गांधी, कुमारप्पा एवं शुमाखर की बात उद्घृत करते हुए उन्होंने इसके भटकाव को रोकने की प्रविधि को अपनाने पर ज़ोर दिया।
            सत्र में आगे नागपुर से आयी प्रतिभागी डॉ. समृद्धि डाबरे ने ग्रामीण महिलाओं से संबन्धित मुद्दों पर कार्य करने की जिज्ञासा व्यक्त की। डॉ. पल्लवी शुक्ला ने अपने विषय - पर्यावरण पर बात करते हुए सामाजिक पर्यावरण के अध्ययन में अपनी रुचि जाहिर की। अगले प्रतिभागी अभिषेक त्रिपाठी ने गांवों को समझने में नैतिकता की ओर ध्यान केन्द्रित किया। पार्थसारथी मणिकाम ने शोध एवं पाठ्यक्रम को एक-दूसरे के साथ जोड़ने की बात करते हुए कहा कि व्यावसायिक जीवन से बाहर निकलकर स्वतः प्रयत्न से आगे निकलना होगा। उन्होंने आगे थ्योरी एवं प्रैक्टिकल को जोड़ने की संभावना पर अपनी बात रखी। इसके लिए कम से कम 15 दिन से लेकर 1 माह तक क्षेत्र में रहकर समुदाय के जीवन को समझने की आवश्यकता जताई। साथ ही सहभागिता को महत्वपूर्ण टूल्स बताया। सुझाव देते हुए उन्होंने पिछले तीन दिनों के अनुभवों को शेयर करते हुए इस बात की ओर ध्यान आकर्षित किया कि सेसन लेक्चर मोड से ज्यादा समस्या ओरिएंटेड तथा प्रश्नोत्तरी आधारित होना चाहिए। श्री वाघमारे तथा डॉ. भरत खंडागले ने यह सुझाव दिया कि लेक्चर मेथड के साथ विडियो विजुअल का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करने की बात की तथा प्रतिभागियों से फीडबैक लेने की महत्ता को रेखांकित की।

चतुर्थ सत्र में समूह '' ने Socio-Economic and Educational Problem पर अपनी बात रखी। इसमें डॉ. सोनवाने, डॉ. सतपुते तथा अन्य ने अपनी प्रस्तुति दी। ग्रामीण विकास के समाधान प्रस्तुत करते हुए उन्होंने विभिन्न स्टेक होल्डरों को साथ लेते हुए ग्रामीणों से जुड़ी विभिन्न समस्याओं पर अपनी बात रखी। इस कार्य में विभिन्न राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय तथा स्थानीय संगठनों की भूमिका का महत्व रेखांकित किया। पर्यावरणीय मुद्दों का घटना अध्ययन करते हुए उन्होंने अपनी बात रखी। समाज कार्य प्रविधियों में से एक सामाजिक वैयक्तिक सेवा कार्य की 'सहायक प्रक्रिया' पर बात रखी। जिसमें उन्होंने 'एडिक्सन' की समस्या पर विस्तृत चर्चा की। इसके अंतर्गत एडिक्सन के विभिन्न प्रकारों व उसकी विशेषताएँ तथा उसके शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक आदि प्रक्रियाओं पर पड़ता है। उन्होंने कहा कि इसको समझने के लिए उसके विभिन्न कारणों की चर्चा की। इसी कड़ी में आगे डॉ. अशोक सातपूते ने भारत में जनसंख्या वृद्धि की समस्या पर अपनी बात रखी। इसमें उन्होंने जनसंख्या वृद्धि के कारणों तथा प्रभावों को बताते हुए उन्होंने उसके समाधान की बात की। इन समाधानों में समाज के विभिन्न संस्थाओं एवं संगठनों की भूमिका की चर्चा की। प्रस्तुति के अंत में 'भूमिका निर्वहन' में एडिक्सन समस्या में सामाजिक वैयक्तिक सेवा कार्य की उपयोगिता को प्रस्तुत किया।
            सत्र के अंत में डॉ. मुकेश कुमार ने महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के मेंढ़ा-लेखा मॉडल विलेज की संक्षिप्त चर्चा की। तदुपरान्त एनसीआरआई के डीएन दास ने धन्यवाद ज्ञापन किया।


रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, नरेश गौतम, गजानन एस. निलामे, डिसेन्ट कुमार साहू, सुधीर कुमार, माधुरी श्रीवास्तव, खुशबू साहू एवं सोनम बौद्ध.