Showing posts with label health. Show all posts
Showing posts with label health. Show all posts

Friday, October 5, 2018

सोशल वर्क के छात्र-छात्राओं ने गांधी को याद करते हुये किया वृक्षारोपण

महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती के मौके पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी समाज कार्य अध्ययन केन्द्र के छात्र- छात्रओं ने 150 पौधे लगाकर उन्हें याद किया।
पौधा रोपण की शुरुआत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने पौधा लगाकर किया। उसके उपरांत विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो. के. के. सिंह एवं केंद्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने पौधा रोपण किया। उसके पश्चात केंद्र के सहायक प्रोफेसर क्रमशः डॉ. शिवसिंह बघेल, डॉ. मुकेश कुमार, डॉ. पल्लवी शुक्ला, गजानन एस.निलामे एवं केंद्र के बीएसडब्ल्यू, एमएसडब्ल्यू एवं एमफिल, पी-एच.डी. के विभिन्न सेमेस्टर के छात्र-छात्राओं ने कुल मिलाकर 150 पौधे लगाए।
उक्त अवसर पर विभाग के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने कहा कि महात्मा गांधी को रचनात्मक तरीके से ही सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है। हमने गांधी जी को रस्म अदायगी के तौर पर याद करने के बजाय पर्यावरण को समृद्ध करने के लिए 150 पौधे लागए हैं। इसमें आम, अमरूद, सीताफल, चीकू आदि फलदार पौधों के साथ- साथ पॉम, मेहंदी, मोरपंखी आदि के भी पौधे शामिल हैं। हमारे बच्चों ने मौजूदा पर्यावरणीय संकट के दौर में यह सराहनीय कार्य कर एक संदेश देने का प्रयास किया है। उन्होंने बताया कि केंद्र के छात्र- छात्रओं ने स्वतः ही एक- एक पौधे को लगाने से लेकर उसके पालन- पोषण की जिम्मेदारी ली है। गांधी जी को याद करते हुए हमें वर्तमान चुनौतियों के बरक्स रचनात्मक कार्य की दिशा में कदम उठाने की जरूरत है। इसी रास्ते गांधी को सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है।

















Sunday, September 30, 2018

एलजीबीटीक्यू+ समुदाय एवं उनके मानवाधिकार


महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में सामाजिक कार्य अध्ययन केंद्र के अंतर्गत 16 सितंबर को 'एलजीबीटीक्यू+ समुदाय एवं उनके मानवाधिकार' विषय पर परिचर्चा का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के रूप में छत्तीसगढ़ वेलफ़ेयर बोर्ड की सदस्य रवीना बरिहा, सारथी ट्रस्ट नागपुर के सदस्य आनंद चंद्राणी व छत्तीसगढ़ से ही ट्रान्सजेंडर सामाजिक कार्यकर्ता शंकर यादव ने अपनी बात रखी। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता केंद्र निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने की। सर्वप्रथम आनंद चंद्राणी ने अपनी बात रखते हुए धारा 377 के बारे में बताया व कैसे इस कानून से एलजीबीटीक्यू+ समुदाय प्रभावित होते रहे हैं। आगे उन्होंने बताया कि इस कानून के कारण लोग अपनी यौन रुझान को लेकर शर्म, झिझक व अपराधबोध की स्थिति में रहते हैं। इसका असर यह होता है कि व्यक्ति में एक असमंजस की स्थिति पैदा हो जाती है कि उसका यौन रुझान सही है या नहीं या उसकी तरह वह अकेला ही है या और भी लोग हैं। लोगों द्वारा भी उन्हें कलंकित होना पड़ता है ऐसे स्थिति में वह कई बार आत्महत्या तक भी कर लेते हैं। 12 साल के अनुभवों को साझा करते हुए उन्होंने कहा कि ज़्यादातर लोग समलैंगिकता को प्राकृतिक-अप्राकृतिक या संक्रामक बीमारी के रूप में देखते हैं। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि यह कोई बीमारी नहीं हैं और इससे मानव समाज को कोई खतरा भी नहीं है।

अगले वक्ता के रूप में रवीना बरिहा ने अपनी बात की शुरुआत अपनी स्वरचित कविता से करते हुए ट्रान्सजेंडर समुदाय के दर्द को श्रोताओं के सामने रखा व इस पितृसत्तात्मक समाज को कठघरे में खड़ा किया। इसके बाद उन्होंने कहा कि हम उतना ही जानते-समझते हैं जो हमारे सामने मौजूद है और हम उन सभी चीजों को नकार देते हैं जिनके बारे में हम नहीं जानते। उन्होंने कहा कि यह दुनिया बहुत बड़ी है और इसमें उतनी ही विविधता है। हमारी ज्ञान के सीमित दायरे के कारण ही ट्रान्सजेंडर समुदाय पीड़ित है। जेंडर भूमिका समाजीकरण का हिस्सा है और इसकी शुरुआत बच्चे के जन्म के साथ ही हो जाती है। हम बच्चे को स्त्री-पुरुष व्यवहार के एक खास ढांचे में प्रशिक्षित करते हैं और जो इस ढांचे को स्वीकार नहीं करता उसे हम समाज से बहिष्कृत कर देते हैं। आगे उन्होंने कहा कि ट्रान्सजेंडर व्यक्ति ही वे लोग हैं जो इस खांचे को तोड़ते हैं। उन्होंने समाज में ट्रान्सजेंडर को लेकर भ्रांतियों के बारे में भी बात की। किस तरह लोग ट्रान्सजेंडर का मतलब सोचते हैं कि वह बच्चा को अंतरलिंगी (intersex) हो। जबकि ऐसे बच्चों का जेंडर निर्धारण उनके बड़े होने के बाद वे खुद करते हैं। उन्होंने नालसा जजमेंट का हवाला देते हुए बताया कि ट्रांसजेंडर वे व्यक्ति है जो जन्म से मिले जैविक लिंग के विपरीत व्यवहार करते हैं। हम स्त्रैण व्यवहार के आधार पर किसी को भी ट्रान्सजेंडर नहीं कह सकते। जब तक कि वह व्यक्ति खुद के पहचान को निर्धारित नहीं करता है। उन्होंने ट्रान्सजेंडर समुदाय के उल्लेख को मिथकीय ग्रन्थों से लेकर आधुनिक साहित्य तक बताया।

आगे उन्होंने धारा 377 को स्पष्ट करते हुए कहा कि यह कानून जितना प्रभावित एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को करता है उतना ही प्रभावित यह विषमलैंगिक समुदाय को करता है। यह समाज का समलैंगिकता से डर ही है जिसके कारण इसे खास समुदायों से जोड़कर प्रचारित-प्रसारित किया जाता रहा है। इसके साथ ही उन्होंने ट्रान्सजेंडर समुदाय के साथ होने वाले दुर्व्यवहार व मानवाधिकार हनन के मुद्दों को विस्तार से श्रोताओं के सामने रखा। अंत में अपनी बातों को रखते हुए रवीना ने असमानता, असंवेदनशीलता व अपरिपक्वता को सामाजिक विघटन का प्रमुख कारण बताते हुये अपनी बात को ख़त्म किया।

अगले वक्ता के रूप में शंकर ने अपने बचपन से लेकर अब तक के अनुभवों को साझा किया। उन्होंने श्रोताओं के सामने अपनी पहचान रखते हुए कहा कि वो ट्रान्सजेंडर हैं और परिवार में सिर्फ इसीलिए स्वीकार है चूंकि अभी भी वो पेंट-शर्ट में रहते हैं। इस तरह से उसे दोहरी ज़िंदगी व्यतित करनी पड़ रही है। उन्होंने आगे कहा कि उसके स्त्रैण व्यवहार के कारण उसे स्कूल में हमेशा चिढ़ाया गया व उसका यौन शोषण भी किया गया। इसके बाद विजय जी ने अपनी बाद रखी जो वर्धा में संचालित संस्था के सदस्य है।

अध्यक्षीय वक्तव्य रखते हुए प्रो. मनोज कुमार (निदेशक, महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी सामाजिक अध्ययन केंद) ने कहा कि समाज को अपना नजरिया बदलना पड़ेगा खास कर समाज कार्य के विद्यार्थियों और शोधार्थियों को, समाज की हर तरह की विभिन्नताओं के बीच काम करने के लिए अपने आप को तैयार करना होगा। तथा सामाजिक क्रिया को बढावा देना होगा जिससे लोग परिवर्तनों को स्वीकार कर सकें।

इस कार्यक्रम का मंच का संचालन डिसेन्ट कुमार साहू ने किया एवं आभार ज्ञापन नरेश कुमार गौतम ने किया। उक्त कार्यक्रम में विश्वविद्यालय के प्राध्यापकगण, शोधार्थी एवं छात्र-छात्राएं भारी संख्या में मौजूद थे।










खुशबू साहू और शिवानी अग्रवाल
शोधार्थी समाज कार्य 

Saturday, March 24, 2018

वर्धा : संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के चौथे दिन ग्रामीण स्वास्थ्य व अन्य मुद्दों पर हुई गहन चर्चा



वर्धा, 22 मार्च 2018. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी सामाजिक कार्य अध्ययन केंद्र एवं राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थान परिषदहैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में सात दिवसीय ग्रामीण सहभागिता में संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के चौथे दिन दत्ता मेघे इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंस के संकायाध्यक्ष डॉ. अभय मूढ़े ने 'सामुदायिक स्वास्थ्य एवं स्वच्छता' विषय पर केन्द्रित सत्र को संबोधित किया। ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति शहरों से अलग है। गांवों की स्थिति आज पहले से काफी बदल गई है। गांवों का कई मामलों में विकास हुआ है। गांवों में बिजली, इंटरनेट की सुविधाएं पहुंची है, गांवों में शौचालय बने हैं। बावजूद इसके आज भी ढेर सारे गांवों में जागरूकता का अभाव है। गाँव में शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति आज भी बहुत बेहतर नहीं है। गाँव में आंगनबाड़ी केंद्र बने हैं। गांवों में स्कूल हैं, पर वहाँ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है। ग्रामीण क्षेत्र में बच्चों के बीच में ही स्कूल छोड़ने की तादाद सबसे ज्यादा है। स्वच्छता की भारी कमी है। नालियाँ खुली पड़ी हुई हैं, उसके साफ-सफाई की नियमित व्यवस्था नहीं है।

उन्होंने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों के लिए स्वास्थ्य केंद्र और स्वास्थ्य उपकेंद्र तो बने हुए हैं, किन्तु वहाँ चिकित्सकों का अभाव है। तीन हजार से ज्यादा आबादी वाले गाँव में छोटा स्वास्थ्य केंद्र का प्रावधान है, किन्तु ज़्यादातर गांवों में आज भी इसकी गारंटी नहीं हो पाई है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में एक पुरुष व महिला डाक्टर होना चाहिए। किन्तु ढेर सारे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ऐसे हैं जहां डाक्टर तो हैं, किन्तु जरूरी दवाओं की भारी कमी है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी आधा से अधिक गाँव में खुले में शौच जाना जारी है। इसका स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है। इससे खाद्यान्न, शाक-सब्जी के संक्रमित होने का खतरा बढ़ जाता है। गाँव में शरीर और हाथों की साफ-सफाई को लेकर भी समुचित जागरूकता का अभाव है। भारत सरकार ने 1998 से सभी शहर और गाँव को स्वच्छ व निरोगी बनाने का संकल्प लिया है। सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान भी चलाया जा रहा है। इन सबके बीच ग्रामीण क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल का अभाव बना हुआ है।
            आगे उन्होंने बताया कि निर्मल भारत अभियान के तहत ग्रामीण स्कूलों के बच्चों को स्वच्छता के प्रति जागरूक किया जाता है। निर्मल ग्राम पुरस्कार भी दिए जाते हैं। स्वच्छता रथ के जरिए भी जागरूकता लाने की कोशिश की जा रही है। 9 से 15 अगस्त तक स्वच्छता सप्ताह के रूप में मनाया जाता है। जनजागरूकता लाने में मीडिया की भी अहम भूमिका होती है।
            सत्र का संचालन डॉ. मिथिलेश कुमार ने और धन्यवाद डॉ. मुकेश कुमार ने किया।

चौथे दिन के दूसरे चर्चा सत्र में नेशनल इस्टिट्यूट आफ रुरल डेवलपमेंट एंड पंचायती राज, भारत सरकार, हैदराबाद के पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर एवं मातृसेवा संघ इंटीट्यूट आफ सोशल वर्क, नागपुर में एसोसिएट प्रोफेसर रहे इंडियन जर्नल आफ सोशल वर्क एंड सोशल साइंसेज के इश्यू एडिटर रह चुके डॉ. अजित कुमार ने '14 वें वित्त आयोग: ग्राम पंचायत डेवलपमेंट प्लान' को दो केस स्टडी- सिंघाना ग्राम पंचायत (मध्यप्रदेश) एवं पटोदा (महाराष्ट्र) के संदर्भ में इसकी विस्तृत चर्चा की। महाराष्ट्र के प्रत्येक ग्राम पंचायत को औसतन 48 लाख रुपए का अनुदान प्राप्त हुआ है। एंड, फंक्शन और फंक्शनरी के बीच बेहतर तालमेल के बगैर ग्राम पंचायतों का विकास मुश्किल है। कई राज्यों में ग्राम पंचायतों को शक्तियाँ तो दी गई हैं, किन्तु वहाँ स्टाफ वगैरह की व्यवस्था समुचित तौर पर नहीं किया गया है। केंद्र सरकार द्वारा ग्राम पंचायत को 29 तरह के अधिकार दिए हैं किन्तु ज़्यादातर राज्य सरकारों ने ग्राम पंचायतों को अब तक ये सारे अधिकार नहीं दिए हैं।
            उन्होंने कहा कि वित्त आयोग ही विभिन्न योजनाओं पर खर्च किए जाने वाली राशि का बंटवारा करता है। आज तक ग्राम पंचायतों को समुचित राशि उपलब्ध नहीं कराई जा सकी है। ग्राम पंचायतों के पास आज न तो सत्ता है और न ही समुचित संसाधन है। भारत के कुछ राज्यों में ग्राम पंचायतों को एक हद तक शक्ति का हस्तांतरण किया गया है किन्तु ज़्यादातर राज्यों में ऐसा नहीं हो पाया है। हर ग्राम पंचायतों को अपनी परिस्थिति के विश्लेषण का भी वैधानिक प्रावधान है। ग्राम पंचायतों के पास जितने स्थानीय संसाधन हैं, उसका भी सम्पूर्ण ब्योरा ग्राम पंचायतों के पास होना चाहिए। देश में यथार्थपरक अध्ययन के तथ्य और आंकड़ों की भारी कमी है। इसमें सामाजिक कार्यकर्ताओं की अहम भूमिका हो सकती है।
            मध्यप्रदेश के धार जिले के मनावर ब्लाक के सिंघाना ग्राम पंचायत की केस स्टडी के आधार पर डॉ. अजित कुमार ने कहा कि यह मध्यप्रदेश के पिछड़े जिले में आता है। यहाँ ज्यादातर भीलों की आबादी है। 2005 के पूर्व इस ग्राम पंचायत के लोगों के पास पेय जल की व्यवस्था नहीं थी। लोगों का पानी की तलाश में ही ज़्यादातर वक्त खर्च हो जाता था। सड़क भी नहीं थी, दूसरे गाँव के लोग इस गाँव में अपनी लड़की की शादी करने तक को तैयार नहीं होते थे। इस ग्राम पंचायत में आए बदलाव का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि आज गाँव की सड़क बन गई है, 60 फीसदी घरों में शौचालय है। पुल-पुलिया बन गए हैं। सामुदायिक भवन हैं। घर-घर नल का पानी पहुँच गया है। मनरेगा के तहत इस गाँव में जबरदस्त काम हुआ। ग्राम पंचायत अपनी सारी गतिविधियों का सुव्यवस्थित ढंग से दस्तावेजीकरण कर रहा है।
            उक्त गाँव में कृषि के उत्पादन में भी वृद्धि हुई है। सिंचाई के लिए कुएं खोदे गए हैं। सुव्यवस्थित ग्राम पंचायत भवन सुचारु ढंग से चल रहा है। यह सारा परिवर्तन 2005 से 2015 के बीच हुआ है। इसमें मनरेगा योजना की अहम भूमिका रही। मनरेगा से इस गाँव का विकास हुआ। संदीप अग्रवाल नामक एक स्थानीय व्यक्ति के कुशल नेतृत्व की इसमें अहम भूमिका रही। आज यह धार जिले का चमकता हुआ तारा बन चुका है। उन्होंने कहा कि मनरेगा योजना के ठप्प हो जाने से सिंघाना के लोग एक बार फिर पलायन करने को विवश हो गए हैं। यहाँ से छोटी उम्र के बच्चे को गुजरात के सूरत आदि जघों पर कपास बिनने के लिए ले जाया जाता है।  
            डॉ. अजीत कुमार ने महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के पटोदा ग्राम पंचायत की केस स्टडी के आधार पर बताया कि इस गाँव की आबादी 3350 है। यह मराठा बाहुल्य गाँव है। 2005 में जहां इस ग्राम पंचायत को 2,14,000 रुपए मात्र का अनुदान प्राप्त हुआ था वहीं 2012-13 में 28,30,627 रुपए का अनुदान प्राप्त हुआ। पूर्व में गाँव में चार आटा चक्की था, जिसकी जगह पर ग्रामसभा ने चारों को बंद कर आपसी सहयोग से एक बड़ी आटा चक्की स्थापित की। इस गाँव में हुए अभिनव प्रयोग की उन्होंने विस्तृत चर्चा की। अंत में प्रतिभागियों के प्रश्नों का भी उन्होंने उत्तर दिया। इस सत्र का संचालन एवं आभार ज्ञापन डॉ. आमोद गुर्जर ने किया।   

तीसरे चर्चा सत्र का संयोजन एनसीआरआई के डीएन दास ने किया। सत्र में सभी सहभागियों ने सिलसिलेवार ढंग से अपने-अपने सबन्धित विषय पर प्रस्तुति दी। प्रथम सहभागी के रूप मे डॉ आमोद गुर्जर ने अपने शोध के अंतर्गत आनेवाली विभिन्न प्रक्रियाओं तथा टूल्स- टेकनिक्स की बात की। प्रस्तुति के दरम्यान उन्होंने ग्रामीण क्षेत्र में प्रयुक्त विभिन्न पद्धतियां जैस-पीआरए, आरआरए पर चर्चा की। इसके साथ ही उन्होंने पीएलए को केंद्र मे रखते हुए ग्रामीण क्षेत्र की सहभागिता पर अपनी बात रखी। प्रस्तुति के बाद प्रश्नोत्तरी में Practice Based Research Methodology पर बात हुई। दूसरे प्रतिभागी के रूप में डॉ. शिवसिंह बघेल ने शोध-प्रविधि के अंतर्गत आनेवाली पीआरए, आरआरए तथा एलएफए की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए अपनी प्रस्तुति की। पीआरए पर विशेष रूप से बात करते हुए उन्होंने सोशल मैपिंग, चपाती डायग्राम तथा अन्य मैट्रिक्स पर विस्तृत चर्चा की। उन्होंने आगे बताया कि ग्रामीण सहभागिता के लिए गावों में प्रवेश करते ही पहले 'ट्रांज़िट वाक' करना पड़ता है। जिसमें गाँव के प्रति ज़्यादातर जानकारी शोधकर्ता को प्राप्त किया जा सकता है। सामाजिक मानचित्रण पर बात करते हुए उन्होंने गाँववालों को इस प्रक्रिया में सहभागिता की तकनीकों के बारे में बताया।
रिसोर्स मैपिक पर बात करते हुए ग्रामीणों की सहभागिता से ग्रामीण संसाधन की पहचान करने की तकनीक पर भी बात की। इसके बाद चपाती डायग्राम तथा Service Mapping के उपयोग की भी उन्होंने चर्चा की। डॉ. बघेल ने पीआरए के साथ-साथ एलएफए की प्रविधि की भी संक्षिप्त चर्चा की। इसके साथ ही केंद्र के विद्यार्थियों के द्वारा सेवाग्राम गाँव में प्रयुक्त पीआरए प्रविधि के अंतर्गत किए गए कार्य को भी उन्होंने प्रस्तुत किया।
            सत्र को आगे बढ़ाते हुए केंद्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने ग्रामीण क्षेत्र में क्षेत्र सबंधी परियोजना पर शिक्षकों के सामने विभिन्न क्षेत्र तथा सुझाव प्रस्तुत किया। उन्होंने शिक्षकों का इस ओर ध्यान केन्द्रित किया कि हमें आदर्शवादी तरीके के बजाय इसे गाँव के लोगों की स्वीकार्यता से जोड़ना होगा। हम क्या चाहते हैं, इससे ज्यादा जरूरी है कि गाँव के लोग क्या चाहते हैं। इसी को मद्देनजर रखते हुए शोधकर्ता को गैप ढूँढने की कोशिश करनी होगी। अपने अनुभव बताते हुए उन्होंने बिहार के ग्रामीण क्षेत्र में प्रयुक्त पीएसपी की उपयोगिता को भी इसके साथ जोड़कर देखने की बात की। गांवों में कार्य करते समय एक दिन में समझकर उनकी समस्याओं का समाधान नहीं ढूंढा जा सकता, उसके लिए छोटे-छोटे मुद्दों को लेकर गहन कार्य करने की आवश्यकता है।
            अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने सभी शिक्षकों से यह निवेदन किया कि दो दिन के क्षेत्र-कार्य में आपके द्वारा किए जाने वाले कार्य का कच्चा ड्राफ्ट तैयार करने की अपेक्षा जाहिर की। साथ ही उन्होंने शिक्षकों से यह अपेक्षा जाहिर की कि हम लोगों को ग्रामीण भारत के लोगों की प्राथमिकता तय करने में उनकी मदद करनी होगी अन्यथा उनका भटकाव देश के विकास को अवरुद्ध करेगा। गांधी, कुमारप्पा एवं शुमाखर की बात उद्घृत करते हुए उन्होंने इसके भटकाव को रोकने की प्रविधि को अपनाने पर ज़ोर दिया।
            सत्र में आगे नागपुर से आयी प्रतिभागी डॉ. समृद्धि डाबरे ने ग्रामीण महिलाओं से संबन्धित मुद्दों पर कार्य करने की जिज्ञासा व्यक्त की। डॉ. पल्लवी शुक्ला ने अपने विषय - पर्यावरण पर बात करते हुए सामाजिक पर्यावरण के अध्ययन में अपनी रुचि जाहिर की। अगले प्रतिभागी अभिषेक त्रिपाठी ने गांवों को समझने में नैतिकता की ओर ध्यान केन्द्रित किया। पार्थसारथी मणिकाम ने शोध एवं पाठ्यक्रम को एक-दूसरे के साथ जोड़ने की बात करते हुए कहा कि व्यावसायिक जीवन से बाहर निकलकर स्वतः प्रयत्न से आगे निकलना होगा। उन्होंने आगे थ्योरी एवं प्रैक्टिकल को जोड़ने की संभावना पर अपनी बात रखी। इसके लिए कम से कम 15 दिन से लेकर 1 माह तक क्षेत्र में रहकर समुदाय के जीवन को समझने की आवश्यकता जताई। साथ ही सहभागिता को महत्वपूर्ण टूल्स बताया। सुझाव देते हुए उन्होंने पिछले तीन दिनों के अनुभवों को शेयर करते हुए इस बात की ओर ध्यान आकर्षित किया कि सेसन लेक्चर मोड से ज्यादा समस्या ओरिएंटेड तथा प्रश्नोत्तरी आधारित होना चाहिए। श्री वाघमारे तथा डॉ. भरत खंडागले ने यह सुझाव दिया कि लेक्चर मेथड के साथ विडियो विजुअल का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करने की बात की तथा प्रतिभागियों से फीडबैक लेने की महत्ता को रेखांकित की।

चतुर्थ सत्र में समूह '' ने Socio-Economic and Educational Problem पर अपनी बात रखी। इसमें डॉ. सोनवाने, डॉ. सतपुते तथा अन्य ने अपनी प्रस्तुति दी। ग्रामीण विकास के समाधान प्रस्तुत करते हुए उन्होंने विभिन्न स्टेक होल्डरों को साथ लेते हुए ग्रामीणों से जुड़ी विभिन्न समस्याओं पर अपनी बात रखी। इस कार्य में विभिन्न राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय तथा स्थानीय संगठनों की भूमिका का महत्व रेखांकित किया। पर्यावरणीय मुद्दों का घटना अध्ययन करते हुए उन्होंने अपनी बात रखी। समाज कार्य प्रविधियों में से एक सामाजिक वैयक्तिक सेवा कार्य की 'सहायक प्रक्रिया' पर बात रखी। जिसमें उन्होंने 'एडिक्सन' की समस्या पर विस्तृत चर्चा की। इसके अंतर्गत एडिक्सन के विभिन्न प्रकारों व उसकी विशेषताएँ तथा उसके शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक आदि प्रक्रियाओं पर पड़ता है। उन्होंने कहा कि इसको समझने के लिए उसके विभिन्न कारणों की चर्चा की। इसी कड़ी में आगे डॉ. अशोक सातपूते ने भारत में जनसंख्या वृद्धि की समस्या पर अपनी बात रखी। इसमें उन्होंने जनसंख्या वृद्धि के कारणों तथा प्रभावों को बताते हुए उन्होंने उसके समाधान की बात की। इन समाधानों में समाज के विभिन्न संस्थाओं एवं संगठनों की भूमिका की चर्चा की। प्रस्तुति के अंत में 'भूमिका निर्वहन' में एडिक्सन समस्या में सामाजिक वैयक्तिक सेवा कार्य की उपयोगिता को प्रस्तुत किया।
            सत्र के अंत में डॉ. मुकेश कुमार ने महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के मेंढ़ा-लेखा मॉडल विलेज की संक्षिप्त चर्चा की। तदुपरान्त एनसीआरआई के डीएन दास ने धन्यवाद ज्ञापन किया।


रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, नरेश गौतम, गजानन एस. निलामे, डिसेन्ट कुमार साहू, सुधीर कुमार, माधुरी श्रीवास्तव, खुशबू साहू एवं सोनम बौद्ध.

Thursday, May 18, 2017

मनुष्यता से जुड़ा हुआ है पर्यावरण का मुद्दा: प्रो. मनोज कुमार


तथाकथित विकास से उत्पन्न समस्याओं ने आज पूरे विश्व को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि विकास की इस राह पर ज्यादा दिनों तक चला नहीं जा सकता है। वैसे तो यह सोचते-सोचते 50 वर्ष से भी अधिक का समय गुजर चुका है क्योंकि इसकी शुरुवात 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ के स्टाकहोम सम्मेलन से होती है, जहां विकास से उपजे पर्यावरणीय प्रदूषण और संसाधनों के खत्म होने की चिंता को लेकर सौ से अधिक देशइकट्ठा हुए। विकास की इन समस्याओं को देखते हुए 'बुंटलैंड आयोग' ने 'स्थायी विकास' का नारा दिया। तब से लेकर अब तक विभिन्न मंचों से सतत या स्थायी विकास का नारा बुलंद किया जाता रहा है। इस वर्ष के विश्व समाज कार्य दिवस का उद्देश्य भी पर्यावरण और इंसानी अस्तित्व की निरंतरता (Sustainability) को बढ़ावा देना रहा। इसी क्रम में 21 मार्च को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी समाज कार्य अध्ययन केंद्र के द्वारा विश्व समाजकार्य दिवस, 2017 पर एक परिचर्चा कार्यक्रम का आयोजन किया गया। परिचर्चा इस वर्ष का विषय ग्लोबल एजेंडे का तीसरा स्तम्भ 'सामुदायिक और पर्यावरणीय स्थिरता को बढ़ावा देना' रहा।
केन्द्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि पर्यावरणीय मुद्दे पर दुनिया की तमाम सरकारें एक तरह से सोच रही हैं और जनता दूसरे तरीके से सोच रही है। जब तक हम अपनी आवश्यकताओं को सीमित नहीं करेंगे तब तक पर्यावरण की सुरक्षा नहीं होगी। आगे उन्होने कहा कि पर्यावरण का मुद्दा मनुष्यता से जुड़ा हुआ है। इस परिचर्चा को आगे बढ़ते हुए सहायक प्रोफेसर श्री आमोद गुर्जर ने कहा कि सतत विकास की अवधारणा व्यक्ति केन्द्रित है जबकि इसे समग्र उपागम (holisticapproach) को अपनाना होगा। हमने मानव अस्तित्व पर संकट आने के बाद ही 'सतत विकास' की अवधारणा अपनाई।डॉ. शिव सिंह बघेल ने विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए यह कहा कि विद्यार्थियों को अपना लक्ष्य ऐसा बनाना चाहिए ताकि वे स्वयं को वैश्विक एजेंडे से जोड़ सके और ग्राम स्तर तक पहुंचाए।
डॉ. मिथिलेश ने कहा कि वैश्विक स्तर तथा भारत में भी संसाधनों के बड़े भाग पर चंद लोगों का आधिपत्य है जबकि एक बड़ा भाग अपना जीवन गरीबी और अभाव में व्यतीत कर रहा है इसलिए हमें संसाधनों के न्याय पूर्ण वितरण पर ध्यान देना होगा। परिचर्चा के दौरान उपस्थित सभी सहभागियों नेइस मुद्दे पर अपनी बात रखी। ज़्यादातर विद्यार्थियों ने अपने आस-पास विकास के नाम पर उत्पन्न हो रहे विसंगतियों को प्रमुखता के साथ रखा।
कार्यक्रम का संचालन नरेन्द्र कुमार दिवाकर ने किया। प्रास्ताविक डिसेन्ट कुमार साहू ने रखा और आभार गजानन निलामे ने किया। इस परिचर्चा में केंद्र के निदेशक प्रो.मनोज कुमार,डॉ. मिथिलेश कुमार, डॉ. शिव सिंह बघेल, सहायक प्रोफेसर श्री आमोद गुर्जर तथा केंद्र केनरेश गौतम, श्याम सिंह, आशुतोष, छविनाथ यादव,विलास चुनारकर, अनुराग पाण्डेय, शीना नेगी, सुधीर कुमार,अदिति, आनीता और शुभांगी सहित बड़ी संख्या में समाज कार्य के शोधार्थी/विद्यार्थी और एन जी ओ प्रबंधन के विद्यार्थी उपस्थित रहे।
नरेंद्र कुमार दिवाकर
शोधार्थी समाजकार्य

Friday, March 31, 2017

बेड़िया समुदाय: जाति, यौनिकता और राष्ट्र–राज्य के पीड़ित

photo google
बेड़िया समुदाय जो कि कभी एक घुमंतू और आपराधिक प्रवृत्ति वाला समुदाय माना जाता रहा है लेकिन राज्य ने उसे अनुसूचित जाति की श्रेणी में श्रेणीबद्ध किया है और उनके विकास लिए तमाम तरह की योजनाएं भी चला रहा है ताकि उनका उत्थान हो सके लेकिन जैसा कि हमेशा होता है वैसा ही इन योजनाओं के साथ भी हुआ है। यह भी मात्र कागजों पर ही सीमित रह गयी हैं।
मध्य प्रदेश के जिला सागर और अशोकनगर, बीना के आस पास बहुत से गाँव है, जहाँ बेड़िया समुदाय के लोग निवास करते हैं। सिर्फ एक ही गाँव जिसका नाम पथरिया है वहाँ परिवर्तन देखने को मिलता है। उसके भी कारण हैं क्योंकि वहाँ 1984 से सत्य शोधन आश्रम की शुरुआत चम्पा बेन के द्वारा की गयी जिसका मुख्य उद्देश्य बेड़िया समुदाय का उत्थान करना था।
चम्पा बेन के द्वारा सबसे पहला कार्य बेड़िया समुदाय की बालिकाओं को शिक्षा देना था और वहाँ देह व्यापार में लगी महिलाओं को जागरूक करना था ताकि वह देह व्यापार जैसे कार्य से बाहर निकल सकें। साथ ही बेड़िया समुदाय में इससे पहले शादी जैसे संस्कारों का भी कोई मूल्य नहीं था, इसके लिए भी लोगों को जागरूक करने का काम किया गया। बाकी गाँव जहाँ बेड़िया समुदाय के लोग निवास करते हैं, वहाँ की स्थितियाँ बहुत ही खराब हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन राज्य की नीतियाँ भी इसके लिए बहुत हद तक जिम्मेदार हैं।

बेड़िया समुदाय पहले से ही शोषित रहा है क्योंकि उनके संपर्क हमेशा राजे-रजवाड़े, जमींदारों, मालगुजारों जैसे सामन्ती लोगों के साथ रहे हैं, जहाँ लगातार उनका शोषण किया गया। जिस तरह से सामन्ती लोगों ने इनका शोषण किया उसी तरह से आज भी हो रहा है।
 सरकार ने भूमिहीनों के लिए कृषि हेतु जो भूमि आवंटित की है, वह  इन्हें भी आवंटित की गयी, लेकिन यह उनके निवास स्थान से 20 या 35 किलोमीटर की दूरी पर है। इनमें से बहुत सारे लोगों को आज भी उस भूमि पर कब्जे नहीं मिले हैं। बहुत सारे ऐसे भी लोग हैं जिन्हें आज तक यह भी नहीं पता है कि उनकी भूमि आखिर आवंटित कहाँ है? जब भी बेड़िया समुदाय के लोगों ने अपने आप को परम्परागत पेशे से बाहर निकालना चाहा है तो उनके सामने कई तरह के सवाल खड़े हो जाते हैं। सबसे पहला सवाल उनकी पहचान का बनता है। जैसे ही लोगों को पता चलता है कि वे बेड़िया समुदाय से हैं तो लोग सहज उपलब्धता के कारण उनसे यौन संबंधो की अपील करते हैं या उन्हें उसी नजरिये से देखते हैं। इस तरह के सामाजिक दबाव को झेलना पड़ता है। यह समुदाय हमेशा किसी न किसी पर आश्रित होकर अपना जीवन निर्वाह करता रहा है। दूसरा यह समुदाय कभी कृषि कार्य से भी नहीं जुड़ा रहा। अब जिन परिवारों में दलित चेतना का विकास हुआ है और जिन्होंने अपने आप को अनुसूचित जाति की श्रेणी में भी गिनना शुरू कर दिया है, और अपने आप को इस कलंक से बाहर भी निकालना चाहते हैं, न तो उन्हें समाज इस कार्य से बाहर निकलने दे रहा है और न सरकार उनके लिए कोई ठोस कदम उठा रही है।

पूरा समुदाय हमेशा से ही उपेक्षा की नजर से देखा जाता है। यदि आप उस गाँव का नाम तक लेते हैं तो आप को लोग ओछी नजर से देखते हैं। लोगों की मानसिकता जाकर वहीं रुकती है कि आप उनके साथ अपने यौन संबंध बनाने जा रहे हैं। बुंदेलखंड में बसे ये लोग अपने लिए ही जीवन और नयी संभावनाएँ तलाश करने में जुटे तो हैं लेकिन यह सभ्य समाज ही उन्हें इस दलदल से बाहर नहीं निकलने दे रहा है। दूसरा कारण यह भी है कि राज्य सरकार इनको अनुसूचित जाति की श्रेणी में श्रेणीगत करती है, लेकिन इस समुदाय में आज भी वह चेतना नहीं जागी है। यहाँ तक कि बहुत से बेड़िया आज भी अपने को उच्च श्रेणी में ही गिनते हैं। ये उन लाभों को भी नहीं ले पाते हैं, जो सरकार अनुसूचित जाति के लिए देती है। पूरे समुदाय में शिक्षा की कमी भी इनके विकास में सबसे बड़ी अवरोधक है, जो इन्हें इस काम से बाहर नहीं निकलने दे रही है।

यदि पूरे बुंदेलखंड और उसकी परिस्थितियों को देखेँ तो ये भी कृषि के लिए अनुकूल नहीं है। जब इनके इतिहास पर नजर डालते हैं तो यह समुदाय कभी भी कृषि कार्य या अन्य व्यवसाय से जुड़ा दिखायी नहीं देता है। अतः इनके लिए कृषि कार्य से जुड़ना अपने आप में एक मुश्किल कार्य है। जिस तरह से इस समुदाय कि निर्मिति के साक्ष्य मिलते हैं उससे तो यही लगता है कि इस समुदाय के उत्थान के लिए सरकार या अन्य संस्थायें इनको इस देह व्यापार के व्यवसाय से बाहर निकालना नहीं चाहती हैं, अन्यथा इनके लिए किसी उचित व्ययसाय की व्यवस्था की जानी चाहिए थी।

ग्राम परसरी की बेला कहती हैं कि- “मुझे यह काम छोड़े काफी साल हो गए हैं। अभी तक मेरा पूरा परिवार इस काम से बाहर आ गया है लेकिन जब से हमने देह व्यापार और राई को छोड़ा है, तब से हम लोग अपने लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ भी ठीक से नहीं कर पाते हैं। हमारे ही गाँव के लोग आज हमसे बहुत धनी हैं और उनके पास आधुनिक सुख सुविधा के साधन हैं, रहने के लिए अच्छे घर हैं। हम तो रोटी के लिए भी मोहताज हैं, बीड़ी बनाने और मजदूरी से घर का खर्च तो किसी तरह चल जाता है लेकिन किसी और काम के लिए पैसे नहीं बचते हैं। कई बार तो यही लगता है कि हमने राई को छोड़ कर बहुत गलत किया। कई बार वापस जाने का मन भी करता है लेकिन फिर सोच कर रह जाती हूँ ”।

यह कहानी किसी एक महिला की नहीं है। बेड़िया समुदाय में इस तरह के बहुत से परिवार मिल जाएंगे। करीला की एक महिला बताती हैं कि सामाजिक दबाव के चलते मैंने राई तो छोड़ दी, लेकिन कोई और काम भी नहीं था। घर के मर्द कुछ भी नहीं करते और पूरे दिन दारू के नशे में घूमते हैं। दारू के लिए भी पैसे मुझसे ही माँगते हैं, इसलिए वापस यहाँ करीला मंदिर पर ‘बधाई’ करती हूँ। शाम तक 2-3 सौ रुपए मिल जाते हैं पर कभी-कभी कुछ भी नहीं मिलता, लेकिन अपने साथ साज वाले को रोज पैसे देने पड़ते हैं।  यह किस्सा किसी एक महिला का नहीं है ऐसे किस्सों से बेड़िया समुदाय भरा पड़ा है।

बेड़िया समुदाय की पहचान एक यौन कर्म करने वाले समुदाय के रूप में सभ्य समाज करता है, लेकिन किसी भी समुदाय और उसके व्यवसाय को समझने के लिए, उस समुदाय की निर्मिति एवं इतिहास को देखना आवश्यक है, क्योंकि बिना किसी की निर्मिति के बारे में जाने उसके बारे में ठीक-ठीक कुछ कहना मुश्किल हो जाता है या कई बार हम उनके लिए गलत निर्णय भी ले लेते हैं। बेड़िया समुदाय को राज्य एक वेश्यावृत्ति करने वाला समुदाय मानता है। क्योंकि यह समुदाय अपने सेक्सुअल रिलेशन कई पुरुषों और सभ्य समाज के संबंधों से इतर बनाता है और उन संबंधो में काफी खुलापन भी होता है। यह समुदाय इस तरह के संबंध बनाने को बुरा नहीं मानता। लेकिन राज्य की विधि और सभ्य बनाने की जो राज्यजनित अवधारणा है, यह समुदाय एक ख़तरे के रूप में उसके सामने खड़ा है। जब इस समुदाय में कभी भी यौन कर्म को बुरा नहीं माना गया और समुदाय यौन कर्म को मान्यता भी देता है, तो उस समुदाय को यह सभ्य समाज या राज्य बुरा कर्म करने वालों की नजर से क्यों देखता है? जब कि इनकी संस्कृति का यह एक अहम हिस्सा भी है। यदि इनके पूरे इतिहास को देखा जाए तो यह एक घुमंतू समुदाय रहा है और कभी भी शादी-ब्याह जैसे संस्कारों को मान्यता न देते हुये अपना विकास करता रहा है। इस समुदाय के लिए यह एक सहज प्रक्रिया है लेकिन राज्य और समाज की नजर में तो नहीं।

राज्य इस तरह के समुदाय को मुख्य धारा में लाने के प्रयास में लगा है, क्योंकि यह समुदाय मुख्य धारा के विपरीत अपने संबंध मुख्य धारा के लोगों के साथ ही स्थापित करता है। लेकिन वही समाज जो इन्हें अपनी रखैल या जो भी नाम दिया जाए के रूप में इस्तेमाल करता है तब ये बेड़िया उनके लिए असभ्य क्यों नहीं होते? यही वो सभ्य समाज है जो इन्हें वेश्यावृत्ति करने वाला भी कहता है और इन्हीं के साथ अपने अनैतिक संबंध भी स्थापित करता है।  
    
समुदाय की निर्मिति में सामन्ती लोगों की भूमिका अधिक दिखायी देती है क्योंकि ऐतिहासिक तथ्यों को देखें तो बेड़िया समुदाय की महिलाएँ राजे-रजवाडों और सामन्ती लोगों से ही अपने संबंध बनाती दिखती हैं। इसका यह कारण भी था कि बेड़िया समुदाय की महिलाएँ अन्य समुदायों की अपेक्षा अधिक सुंदर होती थीं तो इन्हें अन्य समुदायों की अपेक्षा ख़तरे भी अधिक थे। अपने संरक्षण और आर्थिक जरूरतों को पूर्ण करना भी इसमें शामिल था। यहाँ तक इनके सामने कोई समस्या नहीं थी। ब्रिटिश काल में इन्हें पहचान कर, श्रेणी बद्ध किया गया और अपराधी प्रवृत्ति की  संज्ञा दी गयी। लेकिन आजादी के बाद से इनके लिए संकट बढ़ गए। उसके कारण यह थे कि भारत के लगभग सभी ऐसे समुदायों को मुख्य धारा में लाने के लिए जनजाति से जाति व्यवस्था में लाना था क्योंकि राज्य की सत्ता जाति व्यवस्था पर चलती है। इसमें शामिल होने के लिए आप को जाति व्यवस्था में आना पड़ेगा। इनके साथ भी वही किया गया। इन्हें अब जनजाति से बदल कर अनुसूचित जाति में परिवर्तित कर दिया गया। अब जब यह जाति व्यवस्था में आ चुके थे, तो राज्य की विधि के अनुसार ही इन्हें भी चलना था।

हालांकि समुदाय में खुले तौर पर संबंध बनाने की छूट थी। इसी आधार को देखते हुये राज्य ने इन्हें वेश्यावृत्ति करने वाले समुदाय के रूप में पहचान दी। औपनिवेशिक मानसिकता के साथ इन्हें शिक्षित करने की प्रक्रिया और उनकी संस्कृति को समाप्त करने के प्रयास शुरू किए गए। अब इनके सामाजिक मूल्यों, इनकी संस्कृति सभी पर हमला होना तय था। अब इन्हें ‘Open Relation रखने वाले समुदाय या व्यक्ति कभी सभ्य नहीं हो सकते’ इस मानसिकता के साथ सभ्य बनाने के लिए शिक्षित करना था। लेकिन यहाँ एक बात सबसे जरूरी हो जाती है कि इस राष्ट्र-राज्य की अवधारणा में जहाँ इस तरह के समुदाय (बेड़िया समुदाय) जो शादी ब्याह जैसे संस्कारों और सभ्य समाज के बनाए मूल्यों से अलग थे, जो किसी भी पुरुष से अपने स्वच्छंद संबंध बना सकता था, जब राज्य उसे वेश्या का संबोधन दे रहा है तब उसने कभी इस बात पर गौर नहीं किया कि इनके लिए आखिर ग्राहक कहाँ से आ रहें हैं? जो राज्य इन्हें वेश्या का संबोधन दे रहा है दरअसल वही राज्य ही इन्हें ग्राहक भी उपलब्ध कराने का कार्य करता है। अभी तक जिन भी संस्थाओं ने इनके लिए काम करने शुरू किए, वे सभी इन्हें सभ्य समाज की धारा में लाना चाहते हैं। आखिर एक ऐसा समुदाय जो अपने आप को अलग रखकर स्वच्छंद रहता है, किसी से भी अपने संबंध स्थापित करता है और अपने किसी भी निजी मामले में बंधन नहीं रखता, तो उन्हें बदलने की आवश्यकता क्यों पड़ी? लेकिन जिन भी संस्थाओं ने इनके उत्थान के लिए काम शुरू किये, वे भी इन्हें राज्य की नजर से ही देखते रहे।

जब हम इन्हें सभ्य बनाने की बात करते हैं तो हम उन्हें खुद संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में ला रहे हैं। लेकिन कार्य के आधार से समुदाय की पहचान को देखें तो राज्य उन्हें निम्न श्रेणी में ही श्रेणीबद्ध करता है। तो जाहिर सी बात है एक जाति से उठकर यदि वह दूसरी नीची जाति में प्रवेश करते है तो इनके लिए संकट और बढ़ जाते हैं।
राज्य की भूमिका पर गौर किया जाए तो राज्य जहाँ एक तरफ वेश्यावृत्ति को खत्म करना चाहता है, वहीं दूसरी तरफ उन्हीं जगहों को पहचान कर जहाँ वेश्यावृत्ति होती है, वहाँ एड्स जैसे प्रोग्राम चला कर, घर-घर में condom बाँट रहा है, यानि राज्य उन्हें संरक्षण देता हुआ प्रतीत होता है। दूसरी तरफ समुदाय के साथ व्यवहार का रवैया मुख्य धारा की मूल्य व्यवस्था (value system) से मिलता हुआ दिखयी देता है। The Hindu[1] में छपी एक रिपोर्ट को यदि देखा जाए तो राम सनेही जो एक समाज कार्यकर्ता हैं, वह इसे अनैतिक बताते हैं और बेड़िया समुदाय की परंपराओं को खत्म करने के लिए सरकार पर दबाव बना रहे हैं। जब कि सरकार की तमाम एजेंसियां इन्हें संरक्षण दे रही हैं। मुख्य धारा की मूल्य व्यवस्था के आग्रह वाले राम सनेही अकेले नहीं हैं, बल्कि अन्य कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थायें भी इसमें संलग्न हैं। कुल मिला कर बेड़िया समुदाय की यौनिकता समाज और राष्ट्र-राज्य के विरोधाभासी दबाव का शिकार बनती है। जहाँ एक तरफ राष्ट्र-राज्य समुदाय की यौनिकता को अपनी यौनिक अर्थव्यवस्था के तहत बचाए भी रखना चाहता है, वहीं दूसरी तरफ मुख्य धारा के समाज के नैतिक और सांस्कृतिक आग्रहों को ख़ारिज भी नहीं करना चाहता। ये संस्थायें अपने सामुदायिक कार्यों में बेड़िया समुदाय के साथ सांस्कृतिक राजनीति की एजेंट दिखाई देती हैं।

समुदाय यौनिकता के संस्कृतिकरण की प्रक्रिया खास संदर्भों में घटित होती है, जहाँ सामुदायिक/संस्कृति विशेष ज्ञान को अपनी व्यवस्था में शामिल करने से पहले उसका रूपांतरण व प्रसंस्करण होना अनिवार्य हो जाता है। बेड़िया समुदाय के चलायमान होने की जीवनशैली से उपजी संस्कृति उनकी सांस्कृतिक विशेषताओं में परिलक्षित होगी। इस आधार पर सेक्सुअलिटी व उनके स्त्री-पुरुष संबंधों, उनके औपचारिक-अनौपचारिक व्यवहारों, यहां तक कि जीवन और नृत्य-गीतों की अल्हड़ता का अध्ययन और व्याख्या अपनी सम्पूर्णता में गैर विषयीकृत (Non Subjectifed) होकर ही संभव है।
----------------


नरेश गौतम
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
nareshgautam0071@gmail.com
8007840158


Saturday, April 9, 2016

फोटो कोलाज उन मेहनत कश इंसानों का जो हमारे लिए आरामगाह बनाते हैं.

फोटो कोलाज उन मेहनत कश इंसानों का जो हमारे लिए आरामगाह बनाते हैं. और खुद टीन के डब्बों में रहते हैं. वर्धा में इस समय तामपान 50डिग्री से अधिक हो जाता है. जब लोग घरों से निकलने के बारे में भी नहीं सोचते, उस वक्त यह लोग हमारे लिए काम कर रहे होते हैं. और मजदूरी के नाम पर सिर्फ दो वक्त की रोटी ही मिलपाती है.    





















Photo:- नरेश गौतम
महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा 
nareshgautam0071@gmail.com