प्रस्तुत
पुस्तक ब्रिगिट्टे सेबास्तिया के संपादन में और ऑक्सफोर्ड यूनी. प्रेस द्वारा
प्रकाशित है। शीर्षक से ही पता चल जाता है कि इसमें भारत के विभिन्न राज्यों में
भिन्न रूपों में मानसिक स्वास्थ्य पर उपचार कर लाभ पहुंचानेवाली थेरेपिज का
विश्लेषण है, विभीन्न लेखकों द्वारा किए गए शोध अध्ययनों के
अंतर्गत पाए गए विश्लेषण को इस किताब में लेखिका ने संपादित किया है. तीन भागों में
वर्गीकृत इस किताब के पहला भाग रिस्टोरिंग मेंटल हेल्थ विथ कोडिफाइड इन्डियन मेडिसिन्स इस उपशीर्षक के अंतर्गत
है। द्वितीय
भाग में
सांस्कृतिक आधार बताते हुए लोकाचार में निहित थेरेपिज का विश्लेषण दिया है, जिसका उपशीर्षक रेस्टोरिंग मेंटल
हैल्थ विथ फ़ोक थेरेपी है। तीसरे भाग में रेस्टोरिंग मेंटल हेल्थ विथ स्यायकियाट्रि पर चर्चा की है.
प्रथम
भाग में ओ.
शामसुंदरम द्वारा
तमिलनाडु में मनोविकार से संबंधित सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं
चिकित्सात्मक दृष्टिकोण का विश्लेषण किया गया है. तमिलनाडु में द्रविडीयन संस्कृति
के अनुसार मनोविकार पर ‘सिद्धा’ (तमिल
में सिट्टा (Citta)) चिकित्सा व्यवस्था प्राचीन काल से चलती
आ रही है उसी व्यवस्था का आज के समय में उपयोग की ओर लेखक ने ध्यान खिंचना चाहा
है. लेखक का मानना है कि यह व्यवस्था पश्चिमी अवधारणा के अनुसार देखे तो कायिक (Somatotype)
जैसा लगती है. सिद्धा व्यवस्था के अनुसार मानवी शरीर को तीन वर्गों
में वर्गीकृत किया जाता रहा है. इस वर्गीकरण के अनुसार व्यक्तित्व- एक सामान्य
व्यक्तित्व होता है, दुसरा, Alal Utal (सामान्य से थोड़े होशियार और प्रभावकारी व्यक्तित्व), तीसरे में, Iya Utal (इस वर्ग में आनेवाले लोग
खुशनुमा व्यक्तित्व के होते है और शारीरिक रूप से भी बड़े स्वस्थ होते हैं) आते
हैं. इन तीनों के साथ ही इन्हें मिलाकर और छ: उपप्रकारों में बांटकर व्यक्तित्व का
विश्लेषण किया गया है. लेखक ने इस आलेख में तमिलनाडु के आत्महत्याओं के कारणों की भी खोज करने की
कोशिश की हैं. जिसमें वह इतिहास में उसके साक्ष्यों को खोजते हुए राजा चेरा (King
Chera) तक पहुँच जाते है. वहां के मंदिरों में भी मनोचिकित्सा जैसी
व्यवस्था पायी गयी है, इस ओर ध्यान खींचते है, लेखक ने गुनासिलम (Gunasilam), तिरुविदाईमारुतुर (Tiruvidaimaruthur)
एवं शोलिंगुर (Sholingur) के मंदिरों की
मनोचिकित्सा व्यवस्था का विश्लेषण किया है. निष्कर्ष के रूप में लेखक का कहना है
कि पश्चिमी मनोचिकित्सा के शब्दावली से साम्य रखनेवाले सभी साक्ष्य तमिल साहित्य
और संस्कृति में मिलते हैं, मनोचिकित्सा के लिए उपयोगी
थेरेपिज भी आज के पश्चिमी मनोचिकित्सा में पाए जाने वाले कायिक दृष्टिकोण (Somatotype)
की तरह ही दीखाई देती हैं.
प्रथम
भाग के द्वितीय आलेख नादिया गिग्युरे (Nadiya Giguere) द्वारा केरल के गवर्मेंट आयुर्वेदिक मेंटल हॉस्पिटल में किया गया
एथनोग्राफिक अध्ययन है. लेखिका ने कुछ ख़ास शब्दों पर जोर देते हुए वहां की
व्यवस्था और उस व्यवस्था में उपचार प्राप्त करने वाले रोगी दोनों का व्यक्तिक
अध्ययन किया है. लेखिका ने डोसा (Dosa), सत्वबलम् (Satvabalam),
जेनेस (Genes) और पूजा जैसे शब्दों का नृवंशीय
वर्णन किया है. लेख का नाम Dosa,
Satvabalam, Genes and Poojaa: A God for Everything; An Ethnographic Study Of
Government Ayurvedic mental Hospital है. लेखिका का कहना है कि सरकारी आयुर्वेदिक मेंटल हॉस्पिटल मुलत: चरक
संहिता, सुश्रुत संहिता एवं अष्टांगह्रदय जैसे आयुर्वेदिक
ग्रंथों पर आधारित उपचार पर मान्यता रखता है, अत: मानसिक रोगियों पर वह
इसीका उपयोग करते हैं. यहाँ पर मनोरोग को छ: उन्मादों के रूप में देखा जाता है और
उसी के आधार पर उन्माद संबंधी विकारों का वर्गीकरण किया जाता है. जैसे-
पित्तउन्माद (पित्त से), कफोन्माद (कफ से), वातोन्माद (वायु से), सन्निकोन्माद (उक्त तीनों के
मिश्रण से), अधिजोन्माद (मानसिक धक्का या सदमा) और अंत में विषजोन्माद
(जहर या उससे संबंधित चीजों के बनने से)। साथ ही शरीर को देखने का दृष्टिकोण बताते
हुए लेखिका हॉस्पिटल में अभ्यासकों (Practissioner) द्वारा
उपयोग में लाए जानेवाले शब्द जैसे- डोसा शब्द का उपयोग करती हैं। डोसा से तात्पर्य
यहाँ अलग है, यह शरीर को समझने के लिए किया गया है. उनका
मानना है कि इसी आधार पर वह शरीर के स्वस्थता की जांच
करते हैं. इसे आयुर्वेदिक हॉस्पिटल में ‘थ्री डोसा व्यवस्था’
के नाम से भी जाना जाता है. लेखिका ने इस व्यवस्था को जानने की
कोशिश की है साथ ही काउन्सलिंग जैसी पश्चिमी अवधारणा की जगह लेता हुआ सत्वबलम
(शक्ति को बढ़ाना), को भी व्याख्यायित किया है. लेखिका के
अनुसार आयुर्वेदिक मनोचिकित्सा में उपयोग किए जाने वाले सभी उपकरण खुले और लचीले
होने के कारण वहां के समाज-सांस्कृतिक परिदृश्य में उसका उचित प्रभाव मनोरोगियों
पर पड़ता नजर आता है.
सी.
कुमार बाबू ने The Relevance of Yoga and Mediatation in the
Management of Common Mental Disorder में यह दर्शाने की कोशिश की है कि
योग किस तरह सामान्य मानसिक विकारों के उपचार में सहायक बन रहा है, साथ ही आज के समय में योग थेरेपी पर पश्चिमी मनोचिकित्सा जगत में किस तरह
की चर्चा हो रही है, इस ओर भी ध्यान खींचना चाहा है. इसके
लिए उन्होंने मनोचिकित्सा के जर्नलों में छपे आलेखों का आधार लिया है. महत्वपूर्ण
बात यह है कि योगा को एक थेरेपी के रूप में प्रयोग करने वाले किस तरह उसे
मनोचिकित्सा का एक बेहतर उपकरण बता रहे हैं इस ओर लेखक ने ध्यान खींचना चाहा
है. लिखते हैं...
“2004 में एस. बी. एस. खालसा ने संदर्भ जालीय
विश्लेषण (Bibiometric Analysis) का आधार लिया जिसमें Indian
Journal of Physiology एवं Pharmacology महत्वपूर्ण
थे. 2004 तक १८१ प्रकाशित जर्नलों में से ८१ जर्नल लगभग 50 अलग-अलग
राष्ट्रों से प्रकाशित हो चुके थे; भारतीय जर्नलों में 96
में से 27, U.S. जर्नल में ४३ में से 24, ब्रिटिश जर्नल में २१ में से ११ और अन्य 12 राष्ट्रों से छपने वाले २१ में
से १९ जर्नल योगा पर आधारित थे, साथ ही ३४ प्रकाशन ऐसे थे जो
केवल योगा विशेषज्ञता वाले जर्नल को प्रकाशित करते थे. यह सब दबावजन्य रोग एवं
चिंता से संबंधित बीमारियों पर किए जाने वाले उपचार के आधार पर दिया गया है.”
ग्रोवर
(१९९४;१५५) द्वारा किए गए अध्ययन का हवाला देते हुए लेखक
लिखते है कि ‘कॉम्प्रेहेंसिव योगा थेरेपी’ का समान्य मानसिक रोगों पर किए गए उपचारों के परिणाम काफी महत्त्वपूर्ण है,
लगभग 50 प्रतिशत या उससे अधिक मात्रा में इस थेरेपी ने ऐसे रोगों के
लक्षणों को नष्ट कर दिया है. ७३.९ प्रतिशत रोगियों की प्रतिक्रयाएं अच्छी रही अन्य
थेरेपिज को ४२.५ प्रतिशत प्रतिक्रयाएं मिली. यह अध्ययन १९८२ में बी.बी. सेठी
द्वारा किया गया था.
१९७९ में बालकृष्णा ने अध्ययन किया जिसका हवाला ग्रोवर देते है.
योगा थेरेपी एवं ड्रग थेरेपी का तुलनात्मक अध्ययन था,
इसमें 75 न्युरोटीक रोगियों को शामिल किया गया था. योगा थेरेपी इन
मरीजों को दो महीने तक सप्ताह में छः बार दी गयी जिसका प्रत्येक सेशन 45-60 मिनट
का होता था. चिकित्सकों द्वारा जांचने के बाद पता चला कि ड्रग थेरेपी योगा थेरेपी
से ज्यादा प्रभावशाली रही परन्तु मनोवैज्ञानिक परीक्षणों ने यह दिखाया कि चिंता व
सामाजिक समायोजन में ड्रग थेरेपी से ज्यादा अच्छी योगा थेरेपी रही. मनोवैज्ञानिक
परीक्षणों के अनुसार ड्रग थेरेपी के कारण केवल दबाव में महत्त्वपूर्ण कमी आयी
लेकिन चिंता और सामाजिक समायोजन में परिणाम न के बराबर रहा. इस अंतर्विरोध में
योगा थेरेपी का के कारण चिंता, दबाव स्तर एवं सामाजिक
समायोजन में महत्त्वपूर्ण सुधारात्मक परिणाम देखा गया.
इसी को मद्देनजर रखते हुए WHO मानसिक
स्वास्थ्य के घटकों को एक समेकित स्वरूप देकर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा के रूप में
इससे संबंधित कार्यकर्ताओं की मांग से संबंधित तकनीक की सूचनाएं प्रदान कर रही है.
साथ ही जिला स्तर के प्रत्येक मानसिक स्वास्थ्य अस्पतालों में इसे चलाने की कोशिश
में हैं इसके लिए रोटरी एवं लायन्स क्लबों से बातचीत जारी है. (Sebastia, 2009, पृ. 91)
द्वितीय भाग में Restoring
mental Health with Folk Therapy पहला आलेख पिलार गलियाना अबाल (Pilar Galiana
Abal) द्वारा When God Heals... Can Darsan be a Therapy? द्वारा लिखा गया है, इस आलेख में लेखक द्वारा
पिछले तीन वर्षों से मुंबई के बाबुलनाथ मंदिर में किए गए क्षेत्र अध्ययन के दौरान
पाए गए तथ्यों का विश्लेषण है. मंदिर में विभिन्न जाति-धर्मों के आने वाले
दर्शनार्थियों के साक्षात्कार एवं अवलोकन के आधार पर हिन्दू धर्म में प्राचीन से
चली आ रही ‘दर्शन’ परम्परा को एक
थेरेपी के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की है और इसके लिए पुरानों के तथ्य देने
की कोशिश की गयी है.
लेखक
ने कैथरीन बेल (Cathrine Bell) (१९९७) की Rituals Perspectives
and Dimentions का हवाला देते हुए लिखा है “दर्शन
को आने वाले सभी पुरुष प्रतिभागियों की दर्शन परंपरा को को एक गिफ्ट एक्सचेंज
धर्मकृत्य (Rite of Gift Exchange) के रूप में देखा जा सकता
है, उनके लिए यह कोई मनस्ताप पूर्ण धार्मिक कृत्य नहीं हैं
क्योंकि यह प्राथमिक रूप से प्रतिभागी द्वारा किया गया ‘मानवी
भक्ति का लेनदेन’ (Human Divine Transanctions) है जिसमें
सीधे गुणगान, प्रार्थना, याचना के
सामर्थ्य से एक मांग रखी जाति है साथ ही भक्त अपने भलाई (Well-Being) के लिए अपनी इस भक्तिमय भागीदारी को वापस लेने का सामर्थ्य भी शामिल होता
है.” (Sebastia, 2009, पृ. 97)
अर्थात ‘दर्शन’ के पीछे
मुख्य उद्देश्य यह होता है कि भक्त उस भगवान् के प्रति प्रेम और भक्ति दिखाएं
जिसके बदले दर्शनार्थी यह मानकर चलता है कि भगवान् भी उसे प्रेम सुरक्षा प्रदान
करेगा.
लेखक
के अनुसार दर्शनार्थियों में कुछ को बीमारियों के विभीन्न दशाओं के अनुभव के साथ
पाया गया, जैसे- निद्रारोग, चिंता,
दबाव और व्योमोहाभ लक्षण (Paranoid
Syndrome). कुल ३५ दर्शनार्थियों में से ज्यादातर लोगों के साथ
साक्षात्कार किया गया जिसमें प्रतिभागियों ने यह दावा किया कि वे दर्शन से मानसिक
सहायता प्राप्ति की कोशिश कर रहे थे, जिसके बाद उनके मानसिक
एवं शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार भी आया है.
आलेख
के पहले हिस्से में लेखक ने दर्शन के धार्मिक कृत्य को ‘Seeing
And Touching’के परम्परा के साथ जोड़कर देखा है. साथ ही भारतीय
धर्मग्रंथों का आधार लेते हुए इस ‘दर्शन’ का विश्लेषण किया है. द्वीतीय भाग में लेखक द्वारा बबुलनाथ मंदिर में
आनेवाले दर्शनार्थियों के पूरे दर्शन पद्धति का ब्योरा दिया है जिसमें उनके द्वारा
किए जाने वाले प्रत्येक कृत्य का मनोविश्लेषनात्मक पद्धति से विवेचन किया है,
जैसे- प्रतिभागियों का मंदिर में प्रवेश, शिवलिंग
पर चढ़ावे के लिए फूल-पत्ते ले जाना उसे शिवलिंग पर चढ़ाना, शिवलिंग
को चूमना, स्पर्श करना, यहाँ तक कि भीड़
के कारण पुरोहित द्वारा दबाव में ‘जल्दी करो’ कहना उसके बाद भी किसी भक्त का मंदिर में किसी कोने में जाकर वहीँ से
शिवलिग के प्रति समर्पित भाव से देखना, इन सभी छोटी-छोटी
चीजों का मनोवैज्ञानिक अर्थ निकालकर लेखक ने इसे Ethno-Psychoanalytical
Approach से विश्लेषित किया है. राजू की
केस स्टडी से उन्होंने इस बात को स्थापित करने की कोशिश की है कि दर्शन एक थेरेपी
के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है.
तीसरे
भाग में Restoring
Mental Health With Psychiatry प्रतिमा मूर्ति एवं संजीव जैन द्वारा
बैंगलोर में पागलखानों में दिए जाने वाले उपचार के दृष्टिकोणों का अध्ययन किया है
जिसमें एतिहासिक दस्तावेजों का हवाला देकर ब्रिटिश पूर्व भारत, ब्रिटिशकालीन भारत एवं समकालीन समय में इसकी स्थितियों का विवरण अपने आलेख Dignosis and Treatment Approches
at the Asylum in Bangalore में किया है.
स्वास्थ्य
संबंधी आधुनिक प्रशानिक उपकरणों, हॉस्पिटल का उदय मध्य पूर्व
में दिखाई देता है. भारतीय परिदृश्य में देखें तो दक्षिण एशियाई प्रदेशों में
हॉस्पिटल्स जैसे प्रबंध दिखाई देते हैं. (वर्मा,१९५३, ‘History of Psychiatry
in India and Pakistan,’ Indian
Journal of Neurology and Psychiatry, Vol-4. P.P.-138-64)
लेखक
ने भारतीय द्वीप में शुरुआती समय में प्रचलित व्ययक्तिक रूप से चिकित्सा सेवा में
लगे वैद्य एवं हाकिम दोनों का 14 वी सदी तक के साक्ष्य दिए हैं. मोहम्मद तुग़लक एवं
उसके बाद फिरुज तुगलक को रेखांकित करते हुए इस बात को बाल दिलाते है कि उस समय में
हॉस्पिटल जैसी अवधारणा थी किन्तु वह मुख्यत: सैनिकों, खानाबदोश-घुमक्कड़ एवं परदेशियों के लिए थी. ( Sebastia, 2009, पृ.
213)
लेखक
के अनुसार १५००-१७५० यह वह समय था जब भारत में यूरोपीय प्रभाव बढता गया इसका सीधा
प्रभाव दक्षिण एशिया पर हुआ, जिससे वहां के लोगों में ‘यूरोपियन मेडिसिन’ के प्रति जागरूकता बढ़ने लगी.
युद्धों की श्रुंखला के बाद 18 वी शताब्दी के आते तक पश्चिमी एवं भारतीय चिकित्सा
एकत्रित रूप से कार्यरत होने लगी. १९ वी सदी के मध्य तक इन दोनों चिकित्सा
प्रणालियों में उपयुक्त शरीरविज्ञान आधारित ज्ञान ही बुनियाद बन गया.
ह्यूमोरल(शरीर द्रवीय) कंसेप्ट टू जस्टिफाई द कॉउजेशन ऑफ़ डिजीज जो पश्चिम से बनी
है और भारतीय अवधारणा के अनुसार थ्योरी ऑफ़ एलिमेंट इन दोनों में कोई समानता नहीं
दीखाई देती थी फिर भी आयुर्वेदिक एवं यूनानी चिकित्सा पद्धतियों में समानता पर
आधारित चर्चा एवं लेन-देन शुरू हुआ था. ( Sebastia, 2009, पृ.
214)
तीसरा
भाग इसी तरह के अन्य आलेखों से भरा है. मनोचिकित्सा प्राणाली से मानसिक स्वास्थ्य को किस तरह से पुनः
प्रस्थापित किया जा सकता है, इस बात पर जोर दिया गया है.
समकालीन
समय में यह किताब इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें भारतीय चिकित्सा पद्धतियों का
ऐतिहासिक एवं समकालीन विश्लेषण प्राथमिक तथ्यों पर आधारित है. मनोवैज्ञानिक एवं
मनोचिकित्सा के अध्ययन कर्ताओं के लिए यह किताब महत्त्वपूर्ण है. किन्तु लेखिका ने
समकालीन सामाजिक विमर्श या नव सामाजिक विज्ञान को दरकिनार किया है. इस किताब में
भारतीय चिकित्सा विद्याओं को देशज ज्ञान के रूप में प्रस्तुत करने की बजाय
मुख्यधारा के चिकित्सा प्रणाली के साथ साम्य जुटाने पर ज्यादा बल दिया है. तीन
हिस्सों में से किसी भी आलेख में कारपोरेट अर्थव्यवस्था के दबाव के कारण भारतीय
चिकित्सा पद्धतियों को मिलने वाला स्थान, इस पर बात नहीं
की गई. किताब पूरी तरह से निष्क्रिय अकादमिक संश्लेषण का नतीजा लगती है. हालांकि
इस तरह के तथ्य जुटाने में ज्यादा समय खर्च होता है और ऐसे में इन तथ्यों को केवल
एकांगी रूप से देखने का नजरिया मानसिक स्वास्थ्य से ज्यादा शरीरक्रिया चिकित्सा
प्रणाली का रूप धारण करता है. किताब इतनी सरल लिखी गई है कि सामान्य से सामान्य
समझ वाला भी इसे समझ सकता है. मानसिक स्वास्थ्य के शोधार्थियों के लिए ऐतिहासिक
तथ्य एवं समकालीन थेरेपिज का स्वरूप देखने के लिए इसे एक बार जरूर पढनी चाहिए.
-Brigitte
Sebastia (edi.), 2009
निलामे गजानन सूर्यकांत
पी-एच॰ डी॰ शोधार्थी
महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी शांति अध्ययन केंद्र,
म॰ गाँ॰ अं॰ हिं॰ विश्वविद्यालय, वर्धा।
gajanannilame@gmail.com
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