Thursday, May 18, 2017

'हमारा होना शर्म की नहीं, गर्व की बात है'

जिन लोगों के जेंडर तथा यौनिक व्यवहारों को लेकर हमारे समाज में ढेर सारी गालियां बनी हो, वहाँ ऐसे लोगों पर उपहास करना, उनके साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार व उन्हें समाज में कलंकित मान लेना अभी भी आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन जब शोषित समूह के लोग स्वयं को छुपाने के बजाए समाज के सामने ढ़ोल की ताल पर थिरकते हुए, लाउडस्पीकर पर अपनी पहचान को समाज के सामने रखते हुए नारा लगाए कि 'हमारा होना शर्म की नहीं, गर्व की बात है।', 'हमें चाहिए आज़ादी -प्यार करने की आज़ादी, भेदभाव के बिना जीने की आज़ादी।'  तो लोगों को यह दृश्य आश्चर्यचकित कर रही थी। यह मौका था नागपुर में आयोजित दूसरे LGBTQ प्राइड मार्च का जिसमें समूह के लोग तथा देशभर से आए LGBTQ अधिकारों के समर्थक एकत्रित हुए थे। मार्च के द्वारा धारा 377 का विरोध करते हुए स्वीकार्यता, सम्मान, स्वतन्त्रता, शिक्षा, रोजगार, जैसे मानवीय अधिकारों की मांग भी की गई।
बैंगलोर से आए समीर कहते है - 'आज मैं विशेष तौर से इस मार्च में शामिल होने के लिए आया हूँ। मैं इस लड़ाई में अपने लोगों के साथ हूँ। आज इतने सारे लोगों को देखकर बहुत अच्छा लग रहा है। संविधान में हमें जो भी वैयक्तिक अधिकार मिले है वो हमें भी मिलना चाहिए। धारा 377 हटाई जाए और संवैधानिक अधिकार दी जाए, हमें भी जीने का अधिकार है।'
प्राइड मार्च समाज के लिए जरूरी क्यों है? पुछें जाने पर मुख्य अतिथि के रूप में गुजरात से आए मानवेंद्र गोहील ने कहा कि 'जरूरत इसलिए है कि हमें समाज को बताना है कि हमारी संख्या भले ही कम है, लेकिन हमारी उपस्थिती है और हमें गर्व है कि हम क्या है। प्रत्येक इंसान को आज़ादी से जीने का हक है तो हमें क्यों नहीं मिला है? जब भारतीय संविधान में सभी लोगों को समानता और सम्मान से जीने का हक है तो हमें क्यों नहीं? हमें हमारे तरीके से जीने दिया जाए, प्यार करने की आज़ादी हो। हम पैदाइशी ही ऐसे है, हमारा कोई दोष नहीं कि हम ऐसे है। ये हमारे लिए आज़ादी की लड़ाई है।'
आगे उन्होंने कहा कि 'हमें अब दूसरे लोगों का भी सहयोग मिल रहा है, कुछ माँ-बाप भी समझने लगे है कि बच्चों से ज़बरदस्ती नहीं की जा सकती, उन्हें अपने जीवन साथी चुनने का अधिकार देना होगा।' मीडिया किस तरह से उन्हें अब पेश कर रही है? पुछे जाने पर उन्होंने कहा कि 'LGBTQ समूह को लेकर मीडिया प्रेजेंटेशन में बहुत ज्यादा परिवर्तन आया है। मीडिया काफी सकारात्मक हुई है, अब हमारी समस्याओं के बारे में भी लिख रहे है। युवाओं में एक बड़ा परिवर्तन देखने को मिलता है, अब वे भी इन विविधताओं के बारे में जानना चाहते है।'

पिऊ जो नागपुर की ही है, वे कहती है 'आज पहली बार लड़कियों की तरह तैयार होकर इस मार्च में शामिल हो रही हूँ। थोड़ी सी डरी हुई हूँ कि कहीं घर वालों को पता न चल जाएँ, लेकिन मैं खुश हूँ कि जैसा मैं महसूस करती हूँ उसी रूप में समाज के सामने हूँ।'

सुप्रीम कोर्ट द्वारा 13 अप्रैल 2014 को ट्रान्सजेंडर को थर्ड जेंडर के रूप में मान्यता देने तथा उनके स्थिति में सुधार के लिए उचित कदम उठाने के दिशानिर्देश के बावजूद अभी भी सरकारी प्रयास न के बराबर ही है। यही कारण है की पिऊ तथा पिऊ के जैसे हजारों ट्रान्सजेंडर को अपनी पहचान छुपाकर जीवन व्यतित करने के लिए मजबूर हैं।

जब भी LGBTQ अधिकारों की बात की जाती है तो समलैंगिकता को लेकर प्राकृतिक-अप्राकृतिक, नैतिक-अनैतिक, वैध-अवैध कि बहसे तेज हो जाती है। धारा 377 को हटाने के लिए एक लंबी बहस समलैंगिकता के अपराधीकरण को मानव अधिकारों के हनन के रूप में हुई है। संवैधानिक बहसो में जिन अधिकारों को लेकर चर्चा हुई है उनमें समानता, सम्मान, गोपनियता तथा भेदभाव व स्वतन्त्रता शामिल है। इन तमाम बहसों के बाद भी भारतीय कानून समलैंगिकता को अपराध मानता है। भारतीय दंड संहिता, धारा 377 (अप्राकृतिक अपराध) इस प्रकार से है - “जो भी कोई स्वेच्छा से किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध कामुक संभोग करता है, उसे आजीवन कारावास या फिर 10 वर्षों तक बढ़ाई जा सकती है और जुर्माना भी हो सकता था।" धारा यह स्पष्ट नहीं करती कि 'अप्राकृतिक' यौन क्या-क्या है, इसके साथ ही लिंग प्रवेश यौनिक संभोग को स्थापित करने के लिए पर्याप्त है।' इस व्याख्या के कारण इसमें मुख व गुदा भी शामिल हो जाता है।  

यह कानून औपनिवेशिक काल में 'यौन आनंद' के निषेध के लिए बनाया गया था इस तरह ऐसे सभी यौनिक व्यवहारों को आपराधिक करार देने के लिए बनाया गया था जो प्रजनन प्रक्रिया से जुड़े नहीं है। यह कानून समलिंगी गतिविधियों के साथ विषमलैंगिक व्यवहार वाले जोड़े पर उस दशा में लागू होता है जब वह मुख मैथुन (oral sex), गुदा मैथुन (anal sex) या हस्तमैथुन करते हैं। फिर भी होमोफोबिया (समलैंगिकता के प्रति भय) के कारण हमेशा ही समलैंगिक गतिविधियों वाले लोगों को ही निशाना बनाया जाता रहा है। इसलिए धारा 377 का विरोध सभी नागरिकों को करना चाहिए, इसे सिर्फ समलैंगिक सम्बन्धों से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। भारत में समलैंगिकता को लेकर राजनैतिक मांग के रूप में धारा 377 के खिलाफ संघर्ष की शुरुवात वैश्विक परिदृश्य की तुलना में बहुत बाद में 1990 से मान सकते हैं जब पहचान आधारित आंदोलनों के उभार ने हाशिए के समाजों को अपने अधिकारों के लिए संगठित किया।   

डिसेन्ट कुमार साहू
शोधार्थी - समाजकार्य विभाग
म. गां. अं. हि. वि. वि. वर्धा 

3 comments:

  1. Sir, i am from Balharshah Chandrapur district not Bengaluru (Bangalore)
    Anyways.... Many thanks for adding my views in this article

    Regards,, SAMEER DESHPANDE

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    1. दोस्त मैंने गलती से बैंगलोर नहीं लिखा था, पहचान छुपाने के लिए ही जगह का नाम परिवर्तित कर दिया था ताकि तुम्हारी पहचान खुलकर ना हो, क्योंकि ज्यादातर लोग आज भी अपनी पहचान छुपाने को मजबूर है।

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  2. Well done Mr. Sahi. What a brave article. Proud of u.

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