Monday, March 19, 2018

ग्रामीण सहभागिता में संकाय संवर्द्धन


वर्धा, 19 मार्च, 2018  महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी सामाजिक कार्य अध्ययन केंद्र और राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थान परिषद, हैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में सात दिवसीय ग्रामीण सहभागिता में संकाय संवर्द्धन कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। जिसमें महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, हरियाणा, बिहार, तमिलनाडू, नागपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर विश्वविद्यालय,  कोयंबटूर विश्वविद्यालय एवं हरियाणा के प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया। उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता महात्मा गांधी हिन्दी विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति प्रो. आनंद वर्धन शर्मा ने की और संचालन डॉ. मिथिलेश कुमार ने किया। कार्यक्रम का प्रारंभ दीप प्रज्ज्वलन के साथ हुआ। स्वागत वक्तव्य देते हुए केंद्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने कहा कि अपेक्षा है कि इन सात दिनों में हम संकाय संवर्द्धन कार्यक्रम सफलतापूर्वक पूरा करेंगे। पाठ्यक्रम का सामाजिक सरोकार स्पष्ट होना चाहिए। आज पाठ्यक्रम और समाज एक-दूसरे से जुड़ नहीं पा रहा है। पाठ्यक्रम को समाज की जरूरतों के अनुकूल और समाज को बेहतर दिशा में ले जाने वाला होना चाहिए। 

एनसीआरआई- नेशनल काउंसिल ऑफ रुरल इंस्टीट्यूट के डी.एन. दास ने उक्त अवसर पर कहा कि 1995 से एनसीआरआई कार्यरत है। इसका उद्देश्य ग्रामीण भारत के विश्वविद्यालयों को ग्रामीण जरूरतों से जोड़ना है। इसके अनुरूप पाठ्यक्रम को विकसित करने और ग्रामीण समुदाय के साथ तादात्म्य स्थापित करना ही इसका उद्देश्य है।

 अपने अध्यक्षीय वक्तब्य में प्रतिकुलपति प्रो. आनंदवर्द्धन शर्मा ने कहा कि बड़ी उत्सुकता की बात है कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय और एनसीआरआई मिलकर सात दिवसीय कार्यक्रम का आयोजन कर रही है। आपको बताना चाहूँगा कि यह कार्य बहुत बड़ा है। विश्वविद्यालया में वर्ष भर में बहुत से कार्यक्रम होते हैं जो कि बड़ी छाप छोड़ते हैं। उन्होंने उक्त मौके पर कहा कि महात्मा गांधी और विनोबा की कर्मभूमि पर आयोजित हो रही इस कार्यशाला से ग्रामीण क्षेत्र और ग्रामीण विकास से संबन्धित पाठ्यक्रम विकसित करने में मदद मिलेगी। उन्होंने इस कार्यशाला की सफलता के लिए शुभकामना व्यक्त की। उदघाटन सत्र के अंत में आभार प्रकट करते हुए विश्वविद्यालय के कुलसचिव कादर नवाज खान ने कहा कि उम्मीद है कि देश के विभिन्न हिस्सों से आए समाज कार्य के प्राध्यापक इस कार्यशाला से नए अनुभव लेकर जाएंगे।

'ग्रामीण समुदाय का परिचय और संवेदनशीलता' विषयक प्रथम चर्चा सत्र को संबोधित करते हुए स्नातकोत्तर समाजशास्त्र विभाग, संत तुकड़ोजी महाराज विश्वविद्यालय, नागपुर के प्रो. अशोक बोरकर ने पुरातात्विक सर्वेक्षणों के हवाले से प्राचीनकालीन सामाजिक संरचना के बारे में विस्तारपूर्वक बताया। पुरातात्विक अवशेषों से हमें उत्पादक जातियों के अवशेष मिलते हैं। मातृदेवी, यक्ष-यक्षणी के भी अवशेष मिलते हैं, इसके बाद वैदिक साहित्य से भी हमें पुराने समाज की जानकारी प्राप्त होती है। वैश्यों-क्षत्रियों के गाँव की भी हमें जानकारी मिलती है। हमें आदिवासी गांवों के बारे में भी अहम जानकारियाँ प्राप्त होती है। उन्होंने कहा कि गोंडों का सामुदायिक बोध और पंचायत व्यवस्था अत्यंत ही सुदृढ़-विकसित व्यवस्था आज भी कायम है। उन्होंने कहा कि गाँव एक समुदाय है, उसमें सामुदायिक भावना है। गाँव के लोग सामान्य जीवन जीते हैं। कृषि उनका प्रमुख व्यवसाय है। ग्रामीण समुदाय में एक्य भाव होता है। भारत में हर दौर में सामाजिक व्यवस्था पर सबसे ज्यादा ज़ोर दिया जाता रहा है। कृषि समस्या पर फोकस नहीं किया जाता रहा है। 18वीं सदी में महात्मा फुले ने ही इस पर मजबूती से अपनी बात रखी है। अंग्रेजों के भारत आने के पूर्व भारत के गाँव को स्वयंपूर्ण इकाई मानते थे। प्रसिद्ध समाजशास्त्री श्यामाचरण दुबे की मान्यता थी कि भारत के गाँव स्वयंपूर्ण नहीं थे। कई मामलों में ये गाँव एक-दूसरे पर निर्भर थे। दुबे ने ग्रामीण व्यवस्था के अपने महत्वपूर्ण अध्ययन के निष्कर्ष के आधार पर उक्त बातें कही थी। पश्चिमी समाजशास्त्री राबर्ट रेडफ़ील्ड के विचारों से एस.सी. दुबे के विचार मेल खाते हैं।

आगे उन्होंने कहा कि परिवार भारतीय गाँव की सबसे महत्वपूर्ण इकाई है। उसके बाद दूसरी सबसे महत्वपूर्ण इकाई जाति व्यवस्था है। गाँव में वर्चस्वशाली परिवार गाँव के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व धार्मिक मसलों को नियंत्रित करता है। इन्के परिवार के रिश्तेदार भी इसमें अहम भूमिका अदा करते हैं। उसी प्रकार जाति संरचना भी कार्य करती है। इसका स्थान परिवार से भी ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। इस प्रकार वर्चस्वशाली जातियों का ग्रामीण समाज पर पूरी तरह से नियंत्रण रहा है। जाति व्यवस्था की संरचना सीढ़ीनुमा है। जाति-वर्ग की संरचना में ब्राम्हण और अस्पृश्य का स्थान नियत होता है, बाकि जाति-वर्ण का स्थान बदलता रहता आया है। उन्होंने कहा कि सरकार की बहुत सारी योजनाएँ अपने निर्धारित लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाती हैं, इसकी जड़ें भी जाति वयवस्था में निहित हैं। गांवों में आज भी अंधविश्वास, जातीय हिंसा और जजमानी व्यवस्था कायम है। इसी के चलते पहले भी गांवों में श्रमिकों का शोषण किया जाता था। अंग्रेजों के भारत आगमन के पूर्व भारत में कृषि के साथ-साथ वस्त्र उद्योग और चर्म उद्योग का जाल बिछा हुआ था। यही कारण है कि हर कोई किसी न किसी प्रकार से जीवित रह लेता था। भारत में संयुक्त परिवार कृषि व्यवस्था के अनुकूल थे। देश के वर्तमान कृषि संकट को इसके आईने में समझने की जरूरत है।
            उन्होंने कहा कि गांधी के आगमन के पूर्व भारत का स्वतंत्रता आंदोलन शहर केन्द्रित था। गांधी ने इस केंद्र को बदलकर गाँव केन्द्रित किया था। गांधी की मान्यता थी कि अंग्रेजों के आगमन के पूर्व भारत के गाँव समृद्ध व साधन संपन्न थे। गांधी के लिए भारत की स्वतंत्रता का अर्थ गांवों की स्वायत्ता थी। वहीं डॉ. अंबेडकर और नेहरू की गांवों के संबंध में दृष्टि भिन्न थी। इनके अनुसार गांवों में लोगों के कर्त्तब्य तो परिभाषित थे, किन्तु ज़्यादातर लोगों के कोई अधिकार नहीं थे। गाँव गणतन्त्र नहीं था, क्योंकि गाँव पर वर्चस्वशाली जातियों का ही आधिपत्य कायम था। वर्चस्वशाली जातियों का आर्थिक संसाधनों व राजनीतिक व्यवस्था आदि पर वर्चस्व रहा है। नेहरू जाति आधारित श्रेणीक्रम को आधुनिक समाज के लिए अनुपयोगी मानते थे। जाति-व्यवस्था मानवाधिकारों के हनन करने के साथ-साथ अवसरों की असमानता के लिए जिम्मेदार रही है। जबकि डॉ. अंबेडकर राजनीतिक लोकतन्त्र के साथ-साथ सामाजिक लोकतन्त्र की बात करते हैं। डॉ. अंबेडकर ने भारतीय सभ्यता को हिन्दू सभ्यता करार देते हुए कहा कि इसमें अस्पृश्यों के लिए कोई स्थान नहीं था। संविधान सभा का बहुमत चाहता था कि गाँव स्वतंत्र भारत की इकाई बने, अंबेडकर इसके खिलाफ थे।

भोजनावकाश के उपरांत 'ग्रामीण समाज की आर्थिक और राजनीतिक संरचना' विषय पर केन्द्रित चर्चा सत्र प्रारम्भ हुआ। विषय विशेषज्ञ नागपुर विश्वविद्यालय के सेवानिवृत प्रो. श्रीनिवास खानदेवाला ने कुछ सवालों के जरिये अपनी बात शुरू करते हुए कहा कि क्या भारतीय समाज का राजनैतिक ढांचा पर्याप्त है? उसी प्रकार क्या भारतीय समाज का आर्थिक ढांचा संतोषजनक है? इस पर गंभीर चर्चा की आवश्यकता है। राजनैतिक पहलू का निर्माण समाज के नियंत्रण कायम किए जाने की जरूरतों के फलस्वरूप होता है। अनियंत्रित समाज का वांछित विकास नहीं हो पाता है, इसमें बिखराव, दिशाहीनता की संभावना बनी रहती है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए राजतंत्र का निर्माण हुआ था। स्वतंत्रता के बाद भारत ने जनतंत्र स्वीकार किया। इससे पूर्व पुराने जमाने में आम लोग राजतंत्र में इतना यकीन रखते थे कि राजा की मृत्योपरांत राजा के छोटे से छोटे बच्चे को राजा के बतौर स्वीकार कर लेते थे। फिर राजा को शिक्षित-प्रशिक्षित करने की व्यवस्था थी। उन्होंने कहा कि भारतीय समाज अभी पूरी तरह से लोकतान्त्रिक नहीं हुआ है। अमेरिका आदि देशों में राष्ट्रपति को सुझाव देने हेतु अलग-अलग विभागों की अलग-अलग सलाहकार समिति बनी हुई है जिसके सुझावों पर राष्ट्रपति अमल करते हैं।
            भारत में आज भी निर्णय प्रक्रिया में इस किस्म की परिपक्वता का अभाव देखा जा सकता है। इसका परिणाम आम जनता को भुगतना पड़ता है। इसलिए लोककल्याण और सरकार के नीति निर्धारण में कमी रह जाती है। इसके बीच तालमेल की पूरी व्यवस्था होनी चाहिए। जनतंत्र में निर्णय प्रक्रिया में विभिन्न समूहों से आए लोग शामिल होते हैं। लोगों की आकांक्षाएँ और सरकार की ज़िम्मेदारी के बीच भी सुस्पष्ट संबंध है। इन चीजों को संविधान निर्धारित करता है। संविधान देश के भविष्य की दिशा भी निर्धारित करता है। भारतीय संविधान के संदर्भ में देखें तो सांस्कृतिक, धार्मिक, जातीय, प्रजातीय बहुलता वाले देश में यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि सबका कल्याण संविधान में सुनिश्चित किया जा सके। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने भारत यात्रा के दौरान यह व्यक्त किया था कि कैसे अपनी विभिन्नताओं को अपने संविधान में समायोजित किए हुए है। जबकि विश्व के अन्य देशों में ऐसी समस्या नहीं है क्योंकि वहाँ की जनसंख्या कम है। भारतीय राजनेताओं को भी भारतीय संस्कृति, धर्म एवं इतिहास का ज्ञान होना चाहिए तभी वो भारतीय विविधताओं का संयोजन कर सकेंगे।

आगे उन्होंने कहा कि राजनैतिक संरचना कौन बनाता है? इसपर किसका प्रभाव है, क्या सभी इससे संतुष्ट हैं? इसपर भी चर्चा आवश्यक है। क्या सभी संविधान से संतुष्ट हैं इसपर भी चर्चा आवश्यक है। क्योंकि समाज इस पर दबाव डालता है। वर्तमान में राजनीतिक शक्ति का हस्तांतरण बाजार के हवाले होता जा रहा है। आर्थिक उदारीकरण के दौर में शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी अहम चीजों की कीमत बाजार तय कर रहा है। लोक कल्याण के कार्य आज बाजार की भेंट चढ़ रहे हैं। देश में ऐसे आर्थिक निर्णय लिए जा रहे हैं, जिसे किसी भी मायने में जनतान्त्रिक नहीं कहा जा सकता है। नोटबंदी के जितने फायदे गिनाए गए थे, उस मोर्चे पर विफलता हाथ लगी है। वहीं जीएसटी का मौजूदा स्वरूप आम लोगों के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है और यह भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहा है। आज तमाम महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थाएं असहाय प्रतीत हो रही हैं, यह लोकतन्त्र के लिए और जनहित की दृष्टि से अत्यंत ही खतरनाक स्थिति है। 


रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, नरेश गौतम, डिसेन्ट साहू, सुधीर कुमार, आशु बौद्ध एवं सोनम बौद्ध.



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