Tuesday, March 20, 2018

संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के दूसरे दिन ग्रामीण समुदाय की समस्याओं पर हुई गहन चर्चा


वर्धा, 20 मार्च 2018. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी सामाजिक कार्य अध्ययन केंद्र एवं राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थान परिषद, हैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में सात दिवसीय ग्रामीण सहभागिता में संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के दूसरे दिन चर्चा सत्र के पूर्व पाँच राज्यों के विभिन्न विश्वविद्यालय से आए प्रतिभागियों ने अपने अनुभव साझा किए।

दूसरे दिन के प्रथम चर्चा सत्र में मातृ सेवा संघ इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल वर्क, नागपुर के एसोसिएट प्रोफेसर केशव वाल्के ने 'ग्रामीण समुदाय की समस्याएं' विषय पर अपनी बात रखते हुए कहा कि भारत की लगभग 70 फीसदी आबादी गाँवों में रहती है। आज विकास के नाम पर गाँव की भूमि का अधिग्रहण किया जा रहा है। इससे विस्थापन की समस्या पैदा हो रही है। महाराष्ट्र सरकार की इस वर्ष 13 करोड़ वृक्ष लगाने की योजना है तब सवाल यह उठता है कि क्या इतनी जमीन उपलब्ध है। वहीं दूसरी तरफ अंबानी व रामदेव जैसे व्यापारियों को राज्य की सैकड़ों एकड़ वनभूमि दी गई है। अंतर्विरोधी बात तो यह भी है कि पूंजीपतियों को कृषि भूमि वनभूमि तो दी जा रही है किन्तु भूमिहीनों को जमीन नहीं दी जा रही है। भूमि अधिग्रहण के बदले किसानों को मुआवजे के बतौर पैसे दिये जा रहे हैं। इस पैसे का सदुपयोग होने के बजाय विलासिता की वस्तुओं को खरीदने में खर्च हो रहा है। आज विस्थापित परिवारों की स्थिति बेहद दयनीय होती जा रही है। विस्थापितों के मुकम्मल पुनर्वास की सरकार के पास कोई ठोस योजना नहीं है। रोजगार नहीं होने की वजह से अपराधीकरण बढ़ रहा है। गाँव में रहने वाले ज़्यादातर लोग कृषि पर निर्भर हैं। मिट्टी और कृषि की समुचित जानकारी के अभाव में बहुफ़सली कृषि नहीं हो पा रही है। सरकार ने योजना में सभी के लिए ऑन लाइन आवेदन करने का प्रावधान किया है। किन्तु गाँव के लोगों को इसकी समुचित जानकारी ही नहीं है। कर्जमाफ़ी वगैरह को भी सही ढंग से जमीन तक पहुंचाया जा सका है। किसानों को सही वक्त पर बैंक से लोन नहीं मिल पाता है। इसके विपरीत समर्थ लोगों को सैकड़ों करोड़ रूपये का लोन आसानी से मिल जाता है और वे पैसा हजम कर जा रहे हैं।
            उन्होंने महाराष्ट्र में वन अधिकार प्राप्त करने वाले आत्मनिर्भर गाँवों की भी विस्तृत चर्चा की। उन्होंने बताया कि गाँव की सबसे बड़ी समस्या रही है कि यहाँ भूमि का वितरण अत्यंत ही असमान है। गाँव की जमीन आज शहर के धनी लोग खरीद ले रहे हैं। टाइगर रिजर्व आदि के नाम पर किसानों की जमीन तो ले ली जा रही है किन्तु वही जमीन बड़े-बड़े रेस्टोरेन्ट और होटल खोलने के लिए पूंजीपतियों को मुहैया कराई जा रही है। गाँव वालों की जमीन अधिग्रहण कर जो जल परियोजनाएं बन रही हैं, उसके लाभ से भी गाँव वंचित हो रहा है। गाँवों का पानी शहरों को आपूर्ति की जा रही है। ग्रामीण संसाधनों के लाभ से गाँव को वंचित करते हुए उसे शहर के हवाले किया जा रहा है। पूरे देश में बाघ अभयारण्य में से 6 अकेले विदर्भ में ही हैं। विदर्भ का पूरा जंगल अगर आरक्षित है तो गाँव के पशु कहाँ जाएंगे? आज यह सवाल उठ खड़ा हुआ है। मध्यप्रदेश के 90 गाँव बाघ परियोजना के दायरे में आ गए हैं। वहीं दूसरी तरफ जनपक्षधर क़ानूनों को राष्ट्रीय विकास का तर्क देते हुए बदला जा रहा है। ग्राम सभाओं के अधिकारों को अध्यादेश के जरिये छीना जा रहा है। परियोजनाओं के लिए भूमि दिये जाने का निर्णय लेने का अधिकार ग्राम सभा से अपहृत कर लिए गए हैं। जिनकी जमीनें अधिग्रहित की जाती हैं उन्हें प्रशिक्षण देकर उच्च पदों पर नौकरी देने के बजाए उन्हें चपरासी और गार्ड आदि की नौकरियों तक सीमित कर दिया जाता है। उन्होंने गाँव में व्याप्त अशिक्षा की समस्या की भी विस्तृत चर्चा की। उन्होंने कहा कि गाँव में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है। जहां गाँव के स्कूल खिचड़ी विद्यालयों में तब्दील हो चुके हैं। वहीं दूसरी तरफ शहरों-कस्बों में निजी स्कूल-अंग्रेजी स्कूल खुल गए हैं। गाँव के स्कूल भवन मात्र बनकर रह गए हैं। आज भी सरकारी स्कूलों में जातिगत भेदभाव जारी है। कमजोर तबकों के छात्रों के लिए चलाई जा रही योजनाएं भी प्रभावी ढंग से लागू नहीं हो पा रहा है। गाँव में स्वास्थ्य सुविधाओं का भी भारी अभाव बना हुआ है। आशा कार्यकर्ताओं और आंगनबाड़ी केन्द्रों पर गाँव की स्वास्थ्य व्यवस्था निर्भर है। बीमार पड़ने पर ग्रामवासियों को नजदीकी शहर जाना पड़ता है। गाँव से शहर तक पहुँचने हेतु समुचित यातायात सुविधाओं का आज भी भारी अभाव है। सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों में चिकित्सकों और स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी है। सरकारें पूँजीपतियों को तो कर्जमाफी दे रही है। किन्तु गरीबों- किसानों से ब्याज समेत पाई-पाई वसूल कर रही है आज लोग स्वकेन्द्रित स्वार्थी होते जा रहे हैं। लोगों की मानसिकता बदल गई है या यूं कहें कि बाजारवाद ने इसे बदल दिया है। गाँव में आज निवेश की मात्रा न्यून है। ज़्यादातर निवेश शहर केन्द्रित हो रहा है। सिंचाई की व्यवस्था भी संकटग्रस्त है। डैम बन गए हैं, लेकिन पानी निकासी के लिए कैनल नहीं बन पाये हैं।
            आगे उन्होंने कहा कि राजनीतिक दल और राजनेताओं की प्राथमिकता में भी गाँव की बदहाली दूर करना शामिल नहीं रह गया है। आज डिजिटल इंडिया की बात तो हो रही है पर देश की 30 फीसदी आबादी निरक्षर है। आधारभूत सुविधाओं की गारंटी के बगैर गाँव का विकास मुमकिन नहीं है। दूसरे देशों की परिस्थितियां भिन्न है, उसकी हु-ब-हु नकल भारत में नहीं की जा सकती है। भारत में आज भी अंधविश्वास बड़े पैमाने पर व्याप्त है, जो फिजूलखर्ची को बढ़ावा देता है। सामाजिक कुरीतियां भारतीय समाज के विकास में बहुत बड़ी बाधक हैं। भारत के गाँव के लोगों में सरकारी लोक कल्याणकारी योजनाओं और जनपक्षधर क़ानूनों की जानकारी का अभाव देखा जाता है। ग्राम पंचायत विकास कार्यक्रम भी सही ढंग से अमल में नहीं आ पाया है। सामाजिक न्याय विभाग की ढेर सारी योजनाओं से लाभुक वंचित रह जाते हैं। आज गाँव के लोगों को प्रशिक्षित करने वाले सहयोगियों का अभाव है। उपभोक्तावादी संस्कृति की चपेट में गाँव भी आ गए हैं। इस कारण कर्जखोरी की समस्या बढ़ रही है। नौकरशाही की भी गाँव की समस्या दूर करने में रुचि नहीं दिखाई पड़ती है।

दूसरे तकनीकी सत्र में 'भारत के ग्रामीण युवाओं की समस्या' विषय पर चर्चा करते हुए मातृ सेवा संघ इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल वर्क, नागपुर के एसोसिएट प्रोफेसर केशव वाल्के ने कहा कि आजकल भारत में 34.3 फीसदी युवा हैं। 13 से 35 वर्ष के लोगों को युवा कहा जाता है। युवाओं में लिंगानुपात तेजी से असंतुलित होता जा रहा है। महिलाओं की तादाद में भारी गिरावट आ रही है। बिहार, राजस्थान, चंडीगढ़, हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों में लिंगानुपात चिंताजनक गति से असंतुलित होते जा रहे हैं।
            ग्रामीण युवाओं को केंद्र में रखकर उनके मुद्दों को देखें तो युवाओं की शिक्षा व्यवस्था संकट में है। बेरोजगारी का सवाल भी भयावह होता जा रहा है। गाँव से युवाओं को शिक्षा, रोजगार आदि के लिए बड़े पैमाने पर पलायन करना पड़ता है। रोजगार के अभाव में युवा अपराध की तरफ जाने को विवश हैं। ग्रामीण युवाओं को राजनीतिक शक्तियों द्वारा अपने स्वार्थ के लिए गुमराह किया जा रहा है। राजनीतिक दलों के आईटी सेल युवाओं को टार्गेट कर अपने स्वार्थ में इस्तेमाल कर रहे हैं। ग्रामीण युवाओं को सूचनाओं की सही जानकारी नहीं मिल पा रही है। ग्रामीण युवाओं में बाजार के अनुरूप कौशल का अभाव है। इस कारण उन्हें बाजार में काम नहीं मिल पाता है। ग्रामीण युवा नशे की गिरफ्त में भी लगातार आता जा रहा है। युवाओं के विकास के लिए सरकार कई किस्म के कार्यक्रम चला रही है किन्तु उसका समुचित लाभ नहीं मिल पा रहा है।
            विषय विशेषज्ञ के सम्बोधन के उपरांत प्रतिभागियों ने बारी-बारी से अपनी राय रखी। सत्र का संचालन डॉ. आमोद गुर्जर ने किया।

भोजन अवकाश के बाद 'ग्रामीण युवा स्त्रियों की समस्या' विषयक तकनीकी सत्र को संबोधित करते हुए मातृसेवा संघ इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल वर्क, नागपुर की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. ज्योति निसवाड़े ने कहा कि युवाओं में लैंगिक स्तर पर भिन्नता मौजूद है। स्त्री और पुरुषों की समस्याओं में भिन्नता है। आज भारत को युवाओं का देश कहा जा रहा है। 2011 की जनगणना भी इसकी पुष्टि करता है। लेकिन इसका सबसे नकारात्मक पहलू यह भी है कि शिशु लिंगानुपात, युवा लिंगानुपात में काफी गिरावट दर्ज की जा रही है। लड़कियों के बाल विवाह में थोड़ी कमी आई दिखाई देती है। महिला साक्षरता दर में भी एक हद तक की वृद्धि हुई है। किन्तु पुरुष साक्षरता दर से यह आज भी कम है। रोजगार कि दृष्टि से महिलाओं का प्रतिशत पुरुषों से काफी कम है। देश में जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ शिक्षण के अवसर और सुविधाओं का विस्तार हुआ है किन्तु बेरोजगारी के सवाल का हल नहीं हो पा रहा है। एक सर्वे बताता है कि आज युवाओं की नजर में गरीबी और बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या है।

उन्होंने कहा कि दुनिया भर में युवाओं को शक्ति का प्रतीक माना जाता रहा है। लेकिन युवा आज शक्ति संरचना के केंद्र में नहीं है। युवा समाज व्यवस्था का महत्वपूर्ण घटक है। किन्तु समाज की संरचना युवाओं के कितने अनुरूप है, इसे गहराई में जाकर समझने की जरूरत है। युवाओं के समाजीकरण की प्रक्रिया पर ही युवाओं के व्यक्तित्व का विकास निर्भर करता है। युवाओं में भावुकता और आक्रामकता की भावना उनके तार्किक होने के मार्ग में बाधक होती है। युवा महिलाओं के आर्थिक, सामाजिक व मानसिक समस्याएं होती है। रोजगार की असुरक्षा, आर्थिक असुरक्षा व सामाजिक असुरक्षा युवा महिलाओं की प्रमुख समस्याएँ हैं।
            आगे उन्होंने कहा कि ग्रामीण युवाओं का अपने सवालों को लेकर देश के ग्रामीण हिस्सों में कोई प्रतिरोध दिखाई नहीं पड़ता। इसकी वजहें सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक संरचना और अशिक्षा में निहित है। युवा महिलाओं को समुचित सामाजिक दर्जा प्राप्त नहीं रहता है। युवा होते ही उनके परिजन उनके विवाह की चिंता करने लगते हैं। इस किस्म की सामाजिक परंपरा भी युवा महिलाओं के विकास में बाधक बनते हैं। युवा महिलाओं को अवसर की समानता नहीं मिलती है, महिलाओं को तरह-तरह का शोषण भी झेलना पड़ता है। ये सभी युवा महिलाओं के सशक्तिकरण में बाधक हैं। स्कूल छोड़ने वाले बच्चों में सबसे ज्यादा लड़कियां ही होती हैं। इस कारण वे शिक्षा से वंचित होकर रोजगार के अवसर से वंचित हो जाती है। ग्रामीण स्कूल में लड़कियों के अनुकूल व्यवस्था / संसाधन का घोर अभाव बना हुआ है। पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था में लिंग के आधार पर महिलाओं की भूमिका निर्धारण कर दी गई है। रूढ़िवादी परंपरा की बेड़ियां आज भी स्त्रियों के विकास में कदम-कदम पर बाधक बनी हुई है। ग्रामीण लड़कियों के लिए शिक्षा से ज्यादा प्राथमिकता घरेलू काम करने की ही होती है। इन कारणों से महिलाओं को आगे आने के लिए एक ही साथ कई मोर्चों पर संघर्ष करना पड़ता है। महिलाओं को घरेलू हिंसा का भी शिकार होना पड़ता है। उनकी आजादी को तरह-तरह से प्रतिबंधित किया जाता है। इस कारण भी महिलाओं के व्यक्तित्व के समुचित विकास में बाधाएँ आती हैं। परिवार की निर्णय प्रक्रिया में युवा महिलाओं की भूमिका नाममात्र की ही होती है। ज़्यादातर मौकों पर महिलाओं को निर्णय प्रक्रिया से अलग-थलग रखा जाता है।
            उन्होंने कहा कि ग्रामीण महिलाओं का एक स्वतंत्र संगठन का होना बहुत आवश्यक है तभी युवा महिलाओं का मुकम्मल सशक्तिकरण मुमकिन हो सकता है। आज ग्रामीण युवा महिलाओं को अपनी क्षमता और कौशल को दिखाने का कोई प्लेटफॉर्म मौजूद नहीं है।
            इस सत्र की चर्चा में प्रतिभागियों ने बालिकाओं की शिक्षा पर विशेष ज़ोर देते हुए कहा कि बालिकाओं को बेहतर शिक्षा के जरिये ही शोषण, विषमता आदि से मुक्ति मिल सकती है। 

कार्यशाला के दूसरे दिन के अंतिम चर्चा सत्र को संबोधित करते हुए डॉ. ज्योति निसवाड़े ने 'वृद्धि महिलाओं की समस्या' पर बोलते हुए कहा कि अलग-अलग समाज में वृद्धावास्था की अलग-अलग धारणाएँ हैं।  वृद्धावस्था एक यथार्थ और प्राकृतिक प्रक्रिया है। भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में हम देखते हैं कि वृद्धावस्था अत्यंत ही चुनौतीपूर्ण होती जा रही है। आज पारिवारिक और सामाजिक तौर पर कई किस्म की चुनौतियां पैदा हुई हैं। 19वीं सदी में उम्र के विभाजन को इतना महत्व नहीं दिया जाता था। वृद्धावस्था में आर्थिक तौर पर उत्पादन क्षमता में कमी आ जाती है। इसके साथ ही और कई बदलाव आते हैं। जीवन प्रत्याशा औसत में बढ़ोतरी हुई है। पूर्व में वृद्धों की निर्णय प्रक्रिया में जिस प्रकार की भूमिका होती थी उसमें आज काफी बदलाव आया है। बढ़ते शहरीकरण ने नाभिक परिवारों को बढ़ावा दिया है। संयुक्त परिवार लगभग खत्म होने के कगार पर हैं। इस वजह से भी वृद्धों की स्थिति में काफी परिवर्तन आया है। आज सामाजिक से ज्यादा आर्थिक तत्व परिवार पर ज्यादा असर डाल रहे हैं। इसने भी वृद्धों की स्थिति में बदलाव लाने में अहम भूमिका अदा की है। भारतीय समाज में इन सारे तत्वों का प्रभाव देखा जा सकता है। वृद्धों में भी महिलाओं की समस्याएँ अलग किस्म की हैं, उन्हें वृद्धावस्था में परिवार के बच्चों का लालन-पालन, घरेलू काम में तो योगदान करना पड़ता ही है साथ ही घर के बाहर के काम भी इन्हें करना पड़ता है।
            सत्र का संचालन डॉ आमोद गुर्जर ने किया धन्यवाद एनसीआरआई के डी.एन. दास ने किया।   

रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, नरेश गौतम, सुधीर कुमार, कुमारी आशु एवं सोनम बौद्ध.

                                                                                                                                                              


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