Saturday, March 24, 2018

वर्धा : संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के चौथे दिन ग्रामीण स्वास्थ्य व अन्य मुद्दों पर हुई गहन चर्चा



वर्धा, 22 मार्च 2018. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी सामाजिक कार्य अध्ययन केंद्र एवं राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थान परिषदहैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में सात दिवसीय ग्रामीण सहभागिता में संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के चौथे दिन दत्ता मेघे इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंस के संकायाध्यक्ष डॉ. अभय मूढ़े ने 'सामुदायिक स्वास्थ्य एवं स्वच्छता' विषय पर केन्द्रित सत्र को संबोधित किया। ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति शहरों से अलग है। गांवों की स्थिति आज पहले से काफी बदल गई है। गांवों का कई मामलों में विकास हुआ है। गांवों में बिजली, इंटरनेट की सुविधाएं पहुंची है, गांवों में शौचालय बने हैं। बावजूद इसके आज भी ढेर सारे गांवों में जागरूकता का अभाव है। गाँव में शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति आज भी बहुत बेहतर नहीं है। गाँव में आंगनबाड़ी केंद्र बने हैं। गांवों में स्कूल हैं, पर वहाँ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है। ग्रामीण क्षेत्र में बच्चों के बीच में ही स्कूल छोड़ने की तादाद सबसे ज्यादा है। स्वच्छता की भारी कमी है। नालियाँ खुली पड़ी हुई हैं, उसके साफ-सफाई की नियमित व्यवस्था नहीं है।

उन्होंने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों के लिए स्वास्थ्य केंद्र और स्वास्थ्य उपकेंद्र तो बने हुए हैं, किन्तु वहाँ चिकित्सकों का अभाव है। तीन हजार से ज्यादा आबादी वाले गाँव में छोटा स्वास्थ्य केंद्र का प्रावधान है, किन्तु ज़्यादातर गांवों में आज भी इसकी गारंटी नहीं हो पाई है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में एक पुरुष व महिला डाक्टर होना चाहिए। किन्तु ढेर सारे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ऐसे हैं जहां डाक्टर तो हैं, किन्तु जरूरी दवाओं की भारी कमी है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी आधा से अधिक गाँव में खुले में शौच जाना जारी है। इसका स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है। इससे खाद्यान्न, शाक-सब्जी के संक्रमित होने का खतरा बढ़ जाता है। गाँव में शरीर और हाथों की साफ-सफाई को लेकर भी समुचित जागरूकता का अभाव है। भारत सरकार ने 1998 से सभी शहर और गाँव को स्वच्छ व निरोगी बनाने का संकल्प लिया है। सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान भी चलाया जा रहा है। इन सबके बीच ग्रामीण क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल का अभाव बना हुआ है।
            आगे उन्होंने बताया कि निर्मल भारत अभियान के तहत ग्रामीण स्कूलों के बच्चों को स्वच्छता के प्रति जागरूक किया जाता है। निर्मल ग्राम पुरस्कार भी दिए जाते हैं। स्वच्छता रथ के जरिए भी जागरूकता लाने की कोशिश की जा रही है। 9 से 15 अगस्त तक स्वच्छता सप्ताह के रूप में मनाया जाता है। जनजागरूकता लाने में मीडिया की भी अहम भूमिका होती है।
            सत्र का संचालन डॉ. मिथिलेश कुमार ने और धन्यवाद डॉ. मुकेश कुमार ने किया।

चौथे दिन के दूसरे चर्चा सत्र में नेशनल इस्टिट्यूट आफ रुरल डेवलपमेंट एंड पंचायती राज, भारत सरकार, हैदराबाद के पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर एवं मातृसेवा संघ इंटीट्यूट आफ सोशल वर्क, नागपुर में एसोसिएट प्रोफेसर रहे इंडियन जर्नल आफ सोशल वर्क एंड सोशल साइंसेज के इश्यू एडिटर रह चुके डॉ. अजित कुमार ने '14 वें वित्त आयोग: ग्राम पंचायत डेवलपमेंट प्लान' को दो केस स्टडी- सिंघाना ग्राम पंचायत (मध्यप्रदेश) एवं पटोदा (महाराष्ट्र) के संदर्भ में इसकी विस्तृत चर्चा की। महाराष्ट्र के प्रत्येक ग्राम पंचायत को औसतन 48 लाख रुपए का अनुदान प्राप्त हुआ है। एंड, फंक्शन और फंक्शनरी के बीच बेहतर तालमेल के बगैर ग्राम पंचायतों का विकास मुश्किल है। कई राज्यों में ग्राम पंचायतों को शक्तियाँ तो दी गई हैं, किन्तु वहाँ स्टाफ वगैरह की व्यवस्था समुचित तौर पर नहीं किया गया है। केंद्र सरकार द्वारा ग्राम पंचायत को 29 तरह के अधिकार दिए हैं किन्तु ज़्यादातर राज्य सरकारों ने ग्राम पंचायतों को अब तक ये सारे अधिकार नहीं दिए हैं।
            उन्होंने कहा कि वित्त आयोग ही विभिन्न योजनाओं पर खर्च किए जाने वाली राशि का बंटवारा करता है। आज तक ग्राम पंचायतों को समुचित राशि उपलब्ध नहीं कराई जा सकी है। ग्राम पंचायतों के पास आज न तो सत्ता है और न ही समुचित संसाधन है। भारत के कुछ राज्यों में ग्राम पंचायतों को एक हद तक शक्ति का हस्तांतरण किया गया है किन्तु ज़्यादातर राज्यों में ऐसा नहीं हो पाया है। हर ग्राम पंचायतों को अपनी परिस्थिति के विश्लेषण का भी वैधानिक प्रावधान है। ग्राम पंचायतों के पास जितने स्थानीय संसाधन हैं, उसका भी सम्पूर्ण ब्योरा ग्राम पंचायतों के पास होना चाहिए। देश में यथार्थपरक अध्ययन के तथ्य और आंकड़ों की भारी कमी है। इसमें सामाजिक कार्यकर्ताओं की अहम भूमिका हो सकती है।
            मध्यप्रदेश के धार जिले के मनावर ब्लाक के सिंघाना ग्राम पंचायत की केस स्टडी के आधार पर डॉ. अजित कुमार ने कहा कि यह मध्यप्रदेश के पिछड़े जिले में आता है। यहाँ ज्यादातर भीलों की आबादी है। 2005 के पूर्व इस ग्राम पंचायत के लोगों के पास पेय जल की व्यवस्था नहीं थी। लोगों का पानी की तलाश में ही ज़्यादातर वक्त खर्च हो जाता था। सड़क भी नहीं थी, दूसरे गाँव के लोग इस गाँव में अपनी लड़की की शादी करने तक को तैयार नहीं होते थे। इस ग्राम पंचायत में आए बदलाव का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि आज गाँव की सड़क बन गई है, 60 फीसदी घरों में शौचालय है। पुल-पुलिया बन गए हैं। सामुदायिक भवन हैं। घर-घर नल का पानी पहुँच गया है। मनरेगा के तहत इस गाँव में जबरदस्त काम हुआ। ग्राम पंचायत अपनी सारी गतिविधियों का सुव्यवस्थित ढंग से दस्तावेजीकरण कर रहा है।
            उक्त गाँव में कृषि के उत्पादन में भी वृद्धि हुई है। सिंचाई के लिए कुएं खोदे गए हैं। सुव्यवस्थित ग्राम पंचायत भवन सुचारु ढंग से चल रहा है। यह सारा परिवर्तन 2005 से 2015 के बीच हुआ है। इसमें मनरेगा योजना की अहम भूमिका रही। मनरेगा से इस गाँव का विकास हुआ। संदीप अग्रवाल नामक एक स्थानीय व्यक्ति के कुशल नेतृत्व की इसमें अहम भूमिका रही। आज यह धार जिले का चमकता हुआ तारा बन चुका है। उन्होंने कहा कि मनरेगा योजना के ठप्प हो जाने से सिंघाना के लोग एक बार फिर पलायन करने को विवश हो गए हैं। यहाँ से छोटी उम्र के बच्चे को गुजरात के सूरत आदि जघों पर कपास बिनने के लिए ले जाया जाता है।  
            डॉ. अजीत कुमार ने महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के पटोदा ग्राम पंचायत की केस स्टडी के आधार पर बताया कि इस गाँव की आबादी 3350 है। यह मराठा बाहुल्य गाँव है। 2005 में जहां इस ग्राम पंचायत को 2,14,000 रुपए मात्र का अनुदान प्राप्त हुआ था वहीं 2012-13 में 28,30,627 रुपए का अनुदान प्राप्त हुआ। पूर्व में गाँव में चार आटा चक्की था, जिसकी जगह पर ग्रामसभा ने चारों को बंद कर आपसी सहयोग से एक बड़ी आटा चक्की स्थापित की। इस गाँव में हुए अभिनव प्रयोग की उन्होंने विस्तृत चर्चा की। अंत में प्रतिभागियों के प्रश्नों का भी उन्होंने उत्तर दिया। इस सत्र का संचालन एवं आभार ज्ञापन डॉ. आमोद गुर्जर ने किया।   

तीसरे चर्चा सत्र का संयोजन एनसीआरआई के डीएन दास ने किया। सत्र में सभी सहभागियों ने सिलसिलेवार ढंग से अपने-अपने सबन्धित विषय पर प्रस्तुति दी। प्रथम सहभागी के रूप मे डॉ आमोद गुर्जर ने अपने शोध के अंतर्गत आनेवाली विभिन्न प्रक्रियाओं तथा टूल्स- टेकनिक्स की बात की। प्रस्तुति के दरम्यान उन्होंने ग्रामीण क्षेत्र में प्रयुक्त विभिन्न पद्धतियां जैस-पीआरए, आरआरए पर चर्चा की। इसके साथ ही उन्होंने पीएलए को केंद्र मे रखते हुए ग्रामीण क्षेत्र की सहभागिता पर अपनी बात रखी। प्रस्तुति के बाद प्रश्नोत्तरी में Practice Based Research Methodology पर बात हुई। दूसरे प्रतिभागी के रूप में डॉ. शिवसिंह बघेल ने शोध-प्रविधि के अंतर्गत आनेवाली पीआरए, आरआरए तथा एलएफए की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए अपनी प्रस्तुति की। पीआरए पर विशेष रूप से बात करते हुए उन्होंने सोशल मैपिंग, चपाती डायग्राम तथा अन्य मैट्रिक्स पर विस्तृत चर्चा की। उन्होंने आगे बताया कि ग्रामीण सहभागिता के लिए गावों में प्रवेश करते ही पहले 'ट्रांज़िट वाक' करना पड़ता है। जिसमें गाँव के प्रति ज़्यादातर जानकारी शोधकर्ता को प्राप्त किया जा सकता है। सामाजिक मानचित्रण पर बात करते हुए उन्होंने गाँववालों को इस प्रक्रिया में सहभागिता की तकनीकों के बारे में बताया।
रिसोर्स मैपिक पर बात करते हुए ग्रामीणों की सहभागिता से ग्रामीण संसाधन की पहचान करने की तकनीक पर भी बात की। इसके बाद चपाती डायग्राम तथा Service Mapping के उपयोग की भी उन्होंने चर्चा की। डॉ. बघेल ने पीआरए के साथ-साथ एलएफए की प्रविधि की भी संक्षिप्त चर्चा की। इसके साथ ही केंद्र के विद्यार्थियों के द्वारा सेवाग्राम गाँव में प्रयुक्त पीआरए प्रविधि के अंतर्गत किए गए कार्य को भी उन्होंने प्रस्तुत किया।
            सत्र को आगे बढ़ाते हुए केंद्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने ग्रामीण क्षेत्र में क्षेत्र सबंधी परियोजना पर शिक्षकों के सामने विभिन्न क्षेत्र तथा सुझाव प्रस्तुत किया। उन्होंने शिक्षकों का इस ओर ध्यान केन्द्रित किया कि हमें आदर्शवादी तरीके के बजाय इसे गाँव के लोगों की स्वीकार्यता से जोड़ना होगा। हम क्या चाहते हैं, इससे ज्यादा जरूरी है कि गाँव के लोग क्या चाहते हैं। इसी को मद्देनजर रखते हुए शोधकर्ता को गैप ढूँढने की कोशिश करनी होगी। अपने अनुभव बताते हुए उन्होंने बिहार के ग्रामीण क्षेत्र में प्रयुक्त पीएसपी की उपयोगिता को भी इसके साथ जोड़कर देखने की बात की। गांवों में कार्य करते समय एक दिन में समझकर उनकी समस्याओं का समाधान नहीं ढूंढा जा सकता, उसके लिए छोटे-छोटे मुद्दों को लेकर गहन कार्य करने की आवश्यकता है।
            अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने सभी शिक्षकों से यह निवेदन किया कि दो दिन के क्षेत्र-कार्य में आपके द्वारा किए जाने वाले कार्य का कच्चा ड्राफ्ट तैयार करने की अपेक्षा जाहिर की। साथ ही उन्होंने शिक्षकों से यह अपेक्षा जाहिर की कि हम लोगों को ग्रामीण भारत के लोगों की प्राथमिकता तय करने में उनकी मदद करनी होगी अन्यथा उनका भटकाव देश के विकास को अवरुद्ध करेगा। गांधी, कुमारप्पा एवं शुमाखर की बात उद्घृत करते हुए उन्होंने इसके भटकाव को रोकने की प्रविधि को अपनाने पर ज़ोर दिया।
            सत्र में आगे नागपुर से आयी प्रतिभागी डॉ. समृद्धि डाबरे ने ग्रामीण महिलाओं से संबन्धित मुद्दों पर कार्य करने की जिज्ञासा व्यक्त की। डॉ. पल्लवी शुक्ला ने अपने विषय - पर्यावरण पर बात करते हुए सामाजिक पर्यावरण के अध्ययन में अपनी रुचि जाहिर की। अगले प्रतिभागी अभिषेक त्रिपाठी ने गांवों को समझने में नैतिकता की ओर ध्यान केन्द्रित किया। पार्थसारथी मणिकाम ने शोध एवं पाठ्यक्रम को एक-दूसरे के साथ जोड़ने की बात करते हुए कहा कि व्यावसायिक जीवन से बाहर निकलकर स्वतः प्रयत्न से आगे निकलना होगा। उन्होंने आगे थ्योरी एवं प्रैक्टिकल को जोड़ने की संभावना पर अपनी बात रखी। इसके लिए कम से कम 15 दिन से लेकर 1 माह तक क्षेत्र में रहकर समुदाय के जीवन को समझने की आवश्यकता जताई। साथ ही सहभागिता को महत्वपूर्ण टूल्स बताया। सुझाव देते हुए उन्होंने पिछले तीन दिनों के अनुभवों को शेयर करते हुए इस बात की ओर ध्यान आकर्षित किया कि सेसन लेक्चर मोड से ज्यादा समस्या ओरिएंटेड तथा प्रश्नोत्तरी आधारित होना चाहिए। श्री वाघमारे तथा डॉ. भरत खंडागले ने यह सुझाव दिया कि लेक्चर मेथड के साथ विडियो विजुअल का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करने की बात की तथा प्रतिभागियों से फीडबैक लेने की महत्ता को रेखांकित की।

चतुर्थ सत्र में समूह '' ने Socio-Economic and Educational Problem पर अपनी बात रखी। इसमें डॉ. सोनवाने, डॉ. सतपुते तथा अन्य ने अपनी प्रस्तुति दी। ग्रामीण विकास के समाधान प्रस्तुत करते हुए उन्होंने विभिन्न स्टेक होल्डरों को साथ लेते हुए ग्रामीणों से जुड़ी विभिन्न समस्याओं पर अपनी बात रखी। इस कार्य में विभिन्न राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय तथा स्थानीय संगठनों की भूमिका का महत्व रेखांकित किया। पर्यावरणीय मुद्दों का घटना अध्ययन करते हुए उन्होंने अपनी बात रखी। समाज कार्य प्रविधियों में से एक सामाजिक वैयक्तिक सेवा कार्य की 'सहायक प्रक्रिया' पर बात रखी। जिसमें उन्होंने 'एडिक्सन' की समस्या पर विस्तृत चर्चा की। इसके अंतर्गत एडिक्सन के विभिन्न प्रकारों व उसकी विशेषताएँ तथा उसके शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक आदि प्रक्रियाओं पर पड़ता है। उन्होंने कहा कि इसको समझने के लिए उसके विभिन्न कारणों की चर्चा की। इसी कड़ी में आगे डॉ. अशोक सातपूते ने भारत में जनसंख्या वृद्धि की समस्या पर अपनी बात रखी। इसमें उन्होंने जनसंख्या वृद्धि के कारणों तथा प्रभावों को बताते हुए उन्होंने उसके समाधान की बात की। इन समाधानों में समाज के विभिन्न संस्थाओं एवं संगठनों की भूमिका की चर्चा की। प्रस्तुति के अंत में 'भूमिका निर्वहन' में एडिक्सन समस्या में सामाजिक वैयक्तिक सेवा कार्य की उपयोगिता को प्रस्तुत किया।
            सत्र के अंत में डॉ. मुकेश कुमार ने महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के मेंढ़ा-लेखा मॉडल विलेज की संक्षिप्त चर्चा की। तदुपरान्त एनसीआरआई के डीएन दास ने धन्यवाद ज्ञापन किया।


रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, नरेश गौतम, गजानन एस. निलामे, डिसेन्ट कुमार साहू, सुधीर कुमार, माधुरी श्रीवास्तव, खुशबू साहू एवं सोनम बौद्ध.

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