Sunday, March 8, 2015

महिला सशक्तिकरण और गांधीजी

भारत में भी महिला सशक्तिकरण के लिए विशेष प्रयास किए जा रहे है। लेकिन इस सब के बावजूद महिलाएँ सबसे अधिक उपेक्षा की शिकार हैं और भय के साये में है। दक्षिण अफ्रीका में अपने आंदोलन से ही बापू ने महिला सशक्तिकरण पर जोर दिया था लेकिन लड़के और लड़कियों में आज भी फर्क किया जा रहा है। गांधीजी के अनुसार “हमारे समाज में कोई सबसे अधिक हताश हुआ है तो वे स्त्री ही हैं और इस वजह से हमारा अध: पतन भी हुआ है। स्त्री-पुरुष के बीच जो फर्क प्रकृति के पहले है और जिसे खुली आँखों से देखा जा सकता है, उसके आलावा मै किसी किस्म के फर्क को नहीं मानता।”[1] गांधी जी ने स्त्रियों को देश की लड़ाई के साथ जोड़कर साथ ही आश्रम में उनको समान हक व स्वतंत्रता प्रदान कर समाज में स्त्रियों का दर्जा कैसा होना चाहिए, इसकी अच्छी मिसाल हमें उनके जीवन से मिलती है। दरअसल हमें समाज में ऐसा वातावरण निर्माण करना चाहिए कि जिस प्रकार स्त्री घर के कामकाज को पूर्ण आत्म-विश्वास तथा उत्साहपूर्वक करती है उसी तरह समाज के कामकाज में भी साझेदारी करने लगे और स्त्री-पुरुष दोनों स्वाभाविक सह-जीवन का आनंद उठा सकें। मनुष्य के रूप में यदि स्त्री का मूल्य प्रतिष्ठित नहीं होता तो स्त्री की प्रकृति संभव नहीं होती। स्त्री के मूल्य को लेकर समाज बहुत ही अज्ञानी है यह केवल पुरुष वर्ग में ही नहीं स्त्रियों में भी पाया जाता है। स्त्रियों के क्या-क्या कर्त्तव्य हैं, उनका क्या योगदान है ? समानताएं और विभिन्नताएँ क्या हैं इन सबका हिसाब लगाया जाना चाहिए ? देश में भिन्न-भिन्न जातियाँ वर्ग और धर्म हैं। उनके विभिन्न रीति-रिवाज हैं परंतु किसी भी समाज में स्त्री का जीवन कष्टदायक एवं दबा हुआ ही दिखाई देती है।
महिला सशक्तिकरण का प्रश्न विश्व के बुद्धिजीवियों, समाज सुधारकों एवं नेताओं के लिए चिंता का विषय रहा है लेकिन सशक्तिकरण का क्या अर्थ है? और किस प्रकार विकास के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है? यह शब्दावली विवादित है फिर भी इसे (सशक्तिकरण) आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की सहभागिता के रूप में नहीं लेना चाहिए क्योंकि आर्थिक गतिविधियाँ हमेशा महिलाओं की स्थिति सुधारने वाली नहीं होती और प्राय: महिलाओं पर अधिक कार्य अथवा भार लाद देती हैं। सशक्तिकरण शब्द में ही अति विवादित शक्ति का सिद्धांत अंतर्निहित है जिसका अलग-अलग होना अलग-अलग अर्थ लेता हैं। ‘सशक्तिकरण क्या है’ विषय पर जो रालैंड ने अपने एक लेख में ‘के ऊपर शक्ति’ तथा ‘को शक्ति’ के बीच अंतर स्पष्ट किया है जिसके अनुसार पहले (के ऊपर शक्ति) का अभिप्राय है कि कुछ लोगों के पास दूसरों को नियंत्रित करने की शक्ति का होना अर्थात् प्रभुत्व का एक साधन और दुसरे (को शक्ति) का अभिप्राय है शक्ति का उपार्जन, विचार करने की शक्ति, हितों में संघर्ष के बिना नेतृत्व करने की शक्ति, ऐसी शक्ति जो ‘के ऊपर शक्ति’ वालों की दमनकारी लक्ष्यों और इच्छाओं को चुनौती दे सके तथा विरोध भी कर सके। सामान्यतः महिला सशक्तिकरण को निर्णय लेने की प्रक्रिया से बाहर महिलाओं को इस प्रक्रिया में शामिल करने के रूप में परिभाषित किया जाता है और महिलाओं को निर्णय लेने की प्रक्रिया में इस प्रकार शामिल करना कि उनकी राजनितिक ढाँचों तथा निर्णय लेने की प्रक्रिया, बाजार, आय और अधिक सामान्य ढंग से कहें तो राज्य तक पहुँच हो जहाँ वे परिवार, समुदाय अथवा राज्य के बंधनों के बिना अपने लिए अवसरों को अधिकतम बढ़ा सकें।
महिला सशक्तिकरण के संबंध में महिलावादियों की परिभाषा विस्तृत है क्योंकि ये सशक्तिकरण से अभिप्राय लेते हैं कि व्यक्ति अपने हितों के प्रति जागरूक हो तथा वे किस प्रकार अपने हितों को दूसरों के हितों के साथ जोड़ते हैं ताकि निर्णय लेने की प्रक्रिया अपने तथा दूसरों के ज्ञान पर आधारित हो तथा इसका अभिप्राय प्रभाव डालने की क्षमता का आंकलन भी है। महिलावादी विचार के अनुसार सशक्तिकरण का अर्थ है ‘के ऊपर शक्ति’ तथा ‘को शक्ति’ जिसके आधार पर विरोध, वार्ता अथवा सौदेबाजी तथा परिवर्तन किये जा सकें। सक्रिय होने तथा प्रभाव डालने की योग्यता के लिए सशक्तिकरण की आवश्यकता है जिससे दमन और दमनकारी नीतियों के संचालन को इस ढंग से समझा जा सके कि शक्ति न तो दी और न ही ली जाती है अपितु यह तो भीतर से ही पैदा होती है। इस प्रकार सशक्तिकरण एक प्रक्रिया है और इसे विकास का पर्याय नहीं समझना चाहिए। विकास लिंग-निरपेक्ष नहीं है। जब विकास की प्रक्रिया में समानता तथा सभी मानवों की, स्त्री और पुरुष की सहभागिता के बारे में बहस की जाती है, तो यह और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि हम जीव विज्ञान के सामाजिक आश्यों के प्रति उदासीन न हो जाएँ और न ही इसके द्वारा महिलाओं के प्रति। महिला विकास का एक महत्वपूर्ण घटक है। किसी भी देश के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक एवं नैतिक विकास में महिलाओं की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। गाँधी जी इस सत्य से पूरी तरह अवगत थे और इसीलिए गांधी जी का मानना था कि विकास की धारा से यदि स्त्रियों को जोड़ा नही गया तो विकास की परिकल्पना कभी साकार नहीं ही सकेगी। यंग इडिया में स्त्रियों के अधिकारों पर बल देते हुए लिखा था कि “स्त्रियों के अधिकारों पर के सवाल पर मैं किसी तरह का समझौता नहीं कर सकता। मेरी राय में उन पर ऐसा कोई क़ानूनी प्रतिबन्ध नहीं लगाना चाहिए जो पुरुषों पर न लगाया गया हो। पुत्रों और कन्याओं में किसी तरह का भेद नहीं होना चाहिए। उनके साथ पूरी समानता होनी चाहिए।”[2] इस विचारों को गांधी जी ने सैद्धांतिक रूप में रखा नहीं बल्कि अपने व्यवहार में भी इस का कार्यान्वयन किया है इसके उदाहरण अभी भी आश्रम के रूप में जीवित हैं।
गांधाजी १९१८ में भंगनी महिला समाज को शक्ति के साथ पुरुष की सही अर्थो में सहयोगी कहा है। मनुष्य के किसी भी कार्यक्षेत्र में भाग लेने का वह अधिकार रखती है। इसीलिए उसे आजादी के अधिकार समान रूप से मिलने चाहिए। राष्ट्रिय एवं अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में बहुत कम महिलाएँ राजनीति में अपनी पहचान बना पायी हैं, गांधी के कथनानुसार, “स्त्रियों को मताधिकार तो होना ही चाहिए। उन्हें कानून के तहत समान दर्जा भी मिलना चाहिए।” संविधान की कलम १५ के तहत “स्त्री-पुरुष के बीच किसी भी मामले में भेदभाव नहीं बरता जा सकेगा। जो कुछ राजनीतिक क्षेत्र में उपलब्धि हो पायी है उसका अधिक श्रेय गांधी जी को जाता है।  गांधी जी के मानस-पटल में यह बात स्पष्ट थी कि “महिला सशक्तिकरण केवल नैतिक अनिवार्यता नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक परम्पराओं को सुदृढ़ करने तथा अन्याय व उत्पीडन के खिलाफ संघर्ष करने की पूर्व शर्त भी है। गांधीजी ने जिस बात का स्वप्न देखा था, वह अधिकारों, समान अवसर और समान भागीदारी वाली अधिक न्यायोचित और मानवीय दुनिया की दिशा में की जा रही है यात्रा का एक कदम भर है।”[3] क्योंकि जब किसी महिला का विकास होता है तो उसके परिवार-समाज का भी विकास होता है क्योंकि परिवार-समाज के विकास की दिशा पर ही प्रदेश, देश एवं विदेशों को लाभ मिलना संभव है। इसीलिए जब तक महिलाएँ एकजुट नहीं होंगी तब तक मानवता के इस बड़े हिस्से के पक्ष में महात्मा गाँधी के संघर्ष को अंजाम तक नहीं पहुँचाया जा सकता है। शिक्षा एक ऐसा क्षेत्र है जिसके लिए पूरी दुनिया में जोरदार अभियान चलाने की जरूरत है क्योंकि विश्व का एक बड़ा हिस्सा आज भी शिक्षा के अधिकार से वंचित है। शिक्षा के विषय पर गांधी के विचार पूर्णतः स्पष्ट थे। गांधी कहते हैं कि “स्त्रियों की विशेष शिक्षा का रूप क्या हो और वह कब से आरम्भ होनी चाहिए, इस विषय में यद्यपि मैंने सोचा और लिखा है, पर अपने विचारों को निश्चयात्मक नहीं बना सका। इतनी तो पक्की राय है कि जितनी सुविधा पुरुष को है, उतनी ही स्त्री को भी मिलनी चाहिए और जहाँ विशेष सुविधा की आवश्यकता हो, वहाँ सुविधा मिलनी चाहिए।”[4]
सत्य एवं अहिंसा की नींव पर निर्मित नवीन विश्व-व्यवस्था की योजना में जितना और जैसा अधिकार पुरुष को अपने भविष्य की रचना का है। उतना और वैसा ही अधिकार स्त्री को भी अपना भविष्य तय करने का है।”[5] गांधी का मानना था कि अहिंसक समाज स्त्री एवं पुरुष दोनों के कर्तव्यों का ही शुभ परिमाण है। अर्थात् गांधी के अनुसार आदर्श विश्व-व्यवस्था में सामाजिक आचार- व्यवहार के नियम स्त्री और पुरुष दोनों आपस में मिलकर और राजी- ख़ुशी से तय करेंगे। अहिंसक समाज ऐसी मान्यता पर आधारित होगा कि “स्त्री पुरुष की साथिन है जिसकी बौद्धिक क्षमताएं परूषों के जैसी ही क्षमताओं से किसी तरह कम नहीं है। पुरुष की प्रवृत्तियों, उन प्रवृत्तियों के प्रत्येक अंग और उपांग में भाग लेने का उसे अधिकार है और आजादी तथा स्वाधीनता का उसे उतना ही अधिकार है, जितना एक पुरुष को। जिस तरह पुरुष अपनी प्रवृत्ति के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान का अधिकारी माना गया है, उसी तरह स्त्री भी अपनी प्रवृति के क्षेत्र में मानी जानी चाहिए।”[6]



[1] गांधी,हरिजन सेवक, २१.१.१९४७.
[2] यंग इंडिया, १७.१०.१९२९.
[3] सिंह, सविता (२००२) गांधी और महिला सशक्तिकरण, अंक २७,२८ सितम्बर रोजगार समाचार, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली.
[4] किशोरी लाल मशरूवाला, गांधी दोहन, पृ.१६९.
[5] रचनात्मक कार्यक्रम, नवजीवन प्रकाशन. पृ. ३२-३४.
[6] सच्ची शिक्षा, नवजीवन प्रकाशन,१९५९ पृ.१५-६१.

संदर्भ ग्रंथ-सूची
गांधीजी, (१९६०) मेरे सपनों का भारत, नवजीवन मुद्रणालय, अहमदाबाद। 
शर्मा,रमा.एवं मिश्रा, एम.के. (२०१०) महिला विकास, अर्जुन पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली।
पाण्डेय, उपासना. (२००७) उत्तर-आधुनिकतावाद और गांधी, राउत पब्लिकेशन, जयपुर।
मोदी, नृपेन्द्र पी. (२००७)  गांधी-दृष्टि, मानक पब्लिकेशन्स, दिल्ली।
सिंह, सविता. (२००२) गांधी और महिला सशक्तिकरण, अंक २७,२८ सितम्बर रोजगार समाचार, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली.
जोगदंड शिवाजी रघुनाथराव
पी.एच-डी.अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग

म. गां. अं. हिं. विश्वविद्यालय वर्धा (महा.)
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