Thursday, May 18, 2017

'हमारा होना शर्म की नहीं, गर्व की बात है'

जिन लोगों के जेंडर तथा यौनिक व्यवहारों को लेकर हमारे समाज में ढेर सारी गालियां बनी हो, वहाँ ऐसे लोगों पर उपहास करना, उनके साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार व उन्हें समाज में कलंकित मान लेना अभी भी आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन जब शोषित समूह के लोग स्वयं को छुपाने के बजाए समाज के सामने ढ़ोल की ताल पर थिरकते हुए, लाउडस्पीकर पर अपनी पहचान को समाज के सामने रखते हुए नारा लगाए कि 'हमारा होना शर्म की नहीं, गर्व की बात है।', 'हमें चाहिए आज़ादी -प्यार करने की आज़ादी, भेदभाव के बिना जीने की आज़ादी।'  तो लोगों को यह दृश्य आश्चर्यचकित कर रही थी। यह मौका था नागपुर में आयोजित दूसरे LGBTQ प्राइड मार्च का जिसमें समूह के लोग तथा देशभर से आए LGBTQ अधिकारों के समर्थक एकत्रित हुए थे। मार्च के द्वारा धारा 377 का विरोध करते हुए स्वीकार्यता, सम्मान, स्वतन्त्रता, शिक्षा, रोजगार, जैसे मानवीय अधिकारों की मांग भी की गई।
बैंगलोर से आए समीर कहते है - 'आज मैं विशेष तौर से इस मार्च में शामिल होने के लिए आया हूँ। मैं इस लड़ाई में अपने लोगों के साथ हूँ। आज इतने सारे लोगों को देखकर बहुत अच्छा लग रहा है। संविधान में हमें जो भी वैयक्तिक अधिकार मिले है वो हमें भी मिलना चाहिए। धारा 377 हटाई जाए और संवैधानिक अधिकार दी जाए, हमें भी जीने का अधिकार है।'
प्राइड मार्च समाज के लिए जरूरी क्यों है? पुछें जाने पर मुख्य अतिथि के रूप में गुजरात से आए मानवेंद्र गोहील ने कहा कि 'जरूरत इसलिए है कि हमें समाज को बताना है कि हमारी संख्या भले ही कम है, लेकिन हमारी उपस्थिती है और हमें गर्व है कि हम क्या है। प्रत्येक इंसान को आज़ादी से जीने का हक है तो हमें क्यों नहीं मिला है? जब भारतीय संविधान में सभी लोगों को समानता और सम्मान से जीने का हक है तो हमें क्यों नहीं? हमें हमारे तरीके से जीने दिया जाए, प्यार करने की आज़ादी हो। हम पैदाइशी ही ऐसे है, हमारा कोई दोष नहीं कि हम ऐसे है। ये हमारे लिए आज़ादी की लड़ाई है।'
आगे उन्होंने कहा कि 'हमें अब दूसरे लोगों का भी सहयोग मिल रहा है, कुछ माँ-बाप भी समझने लगे है कि बच्चों से ज़बरदस्ती नहीं की जा सकती, उन्हें अपने जीवन साथी चुनने का अधिकार देना होगा।' मीडिया किस तरह से उन्हें अब पेश कर रही है? पुछे जाने पर उन्होंने कहा कि 'LGBTQ समूह को लेकर मीडिया प्रेजेंटेशन में बहुत ज्यादा परिवर्तन आया है। मीडिया काफी सकारात्मक हुई है, अब हमारी समस्याओं के बारे में भी लिख रहे है। युवाओं में एक बड़ा परिवर्तन देखने को मिलता है, अब वे भी इन विविधताओं के बारे में जानना चाहते है।'

पिऊ जो नागपुर की ही है, वे कहती है 'आज पहली बार लड़कियों की तरह तैयार होकर इस मार्च में शामिल हो रही हूँ। थोड़ी सी डरी हुई हूँ कि कहीं घर वालों को पता न चल जाएँ, लेकिन मैं खुश हूँ कि जैसा मैं महसूस करती हूँ उसी रूप में समाज के सामने हूँ।'

सुप्रीम कोर्ट द्वारा 13 अप्रैल 2014 को ट्रान्सजेंडर को थर्ड जेंडर के रूप में मान्यता देने तथा उनके स्थिति में सुधार के लिए उचित कदम उठाने के दिशानिर्देश के बावजूद अभी भी सरकारी प्रयास न के बराबर ही है। यही कारण है की पिऊ तथा पिऊ के जैसे हजारों ट्रान्सजेंडर को अपनी पहचान छुपाकर जीवन व्यतित करने के लिए मजबूर हैं।

जब भी LGBTQ अधिकारों की बात की जाती है तो समलैंगिकता को लेकर प्राकृतिक-अप्राकृतिक, नैतिक-अनैतिक, वैध-अवैध कि बहसे तेज हो जाती है। धारा 377 को हटाने के लिए एक लंबी बहस समलैंगिकता के अपराधीकरण को मानव अधिकारों के हनन के रूप में हुई है। संवैधानिक बहसो में जिन अधिकारों को लेकर चर्चा हुई है उनमें समानता, सम्मान, गोपनियता तथा भेदभाव व स्वतन्त्रता शामिल है। इन तमाम बहसों के बाद भी भारतीय कानून समलैंगिकता को अपराध मानता है। भारतीय दंड संहिता, धारा 377 (अप्राकृतिक अपराध) इस प्रकार से है - “जो भी कोई स्वेच्छा से किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध कामुक संभोग करता है, उसे आजीवन कारावास या फिर 10 वर्षों तक बढ़ाई जा सकती है और जुर्माना भी हो सकता था।" धारा यह स्पष्ट नहीं करती कि 'अप्राकृतिक' यौन क्या-क्या है, इसके साथ ही लिंग प्रवेश यौनिक संभोग को स्थापित करने के लिए पर्याप्त है।' इस व्याख्या के कारण इसमें मुख व गुदा भी शामिल हो जाता है।  

यह कानून औपनिवेशिक काल में 'यौन आनंद' के निषेध के लिए बनाया गया था इस तरह ऐसे सभी यौनिक व्यवहारों को आपराधिक करार देने के लिए बनाया गया था जो प्रजनन प्रक्रिया से जुड़े नहीं है। यह कानून समलिंगी गतिविधियों के साथ विषमलैंगिक व्यवहार वाले जोड़े पर उस दशा में लागू होता है जब वह मुख मैथुन (oral sex), गुदा मैथुन (anal sex) या हस्तमैथुन करते हैं। फिर भी होमोफोबिया (समलैंगिकता के प्रति भय) के कारण हमेशा ही समलैंगिक गतिविधियों वाले लोगों को ही निशाना बनाया जाता रहा है। इसलिए धारा 377 का विरोध सभी नागरिकों को करना चाहिए, इसे सिर्फ समलैंगिक सम्बन्धों से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। भारत में समलैंगिकता को लेकर राजनैतिक मांग के रूप में धारा 377 के खिलाफ संघर्ष की शुरुवात वैश्विक परिदृश्य की तुलना में बहुत बाद में 1990 से मान सकते हैं जब पहचान आधारित आंदोलनों के उभार ने हाशिए के समाजों को अपने अधिकारों के लिए संगठित किया।   

डिसेन्ट कुमार साहू
शोधार्थी - समाजकार्य विभाग
म. गां. अं. हि. वि. वि. वर्धा 

मनुष्यता से जुड़ा हुआ है पर्यावरण का मुद्दा: प्रो. मनोज कुमार


तथाकथित विकास से उत्पन्न समस्याओं ने आज पूरे विश्व को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि विकास की इस राह पर ज्यादा दिनों तक चला नहीं जा सकता है। वैसे तो यह सोचते-सोचते 50 वर्ष से भी अधिक का समय गुजर चुका है क्योंकि इसकी शुरुवात 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ के स्टाकहोम सम्मेलन से होती है, जहां विकास से उपजे पर्यावरणीय प्रदूषण और संसाधनों के खत्म होने की चिंता को लेकर सौ से अधिक देशइकट्ठा हुए। विकास की इन समस्याओं को देखते हुए 'बुंटलैंड आयोग' ने 'स्थायी विकास' का नारा दिया। तब से लेकर अब तक विभिन्न मंचों से सतत या स्थायी विकास का नारा बुलंद किया जाता रहा है। इस वर्ष के विश्व समाज कार्य दिवस का उद्देश्य भी पर्यावरण और इंसानी अस्तित्व की निरंतरता (Sustainability) को बढ़ावा देना रहा। इसी क्रम में 21 मार्च को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी समाज कार्य अध्ययन केंद्र के द्वारा विश्व समाजकार्य दिवस, 2017 पर एक परिचर्चा कार्यक्रम का आयोजन किया गया। परिचर्चा इस वर्ष का विषय ग्लोबल एजेंडे का तीसरा स्तम्भ 'सामुदायिक और पर्यावरणीय स्थिरता को बढ़ावा देना' रहा।
केन्द्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि पर्यावरणीय मुद्दे पर दुनिया की तमाम सरकारें एक तरह से सोच रही हैं और जनता दूसरे तरीके से सोच रही है। जब तक हम अपनी आवश्यकताओं को सीमित नहीं करेंगे तब तक पर्यावरण की सुरक्षा नहीं होगी। आगे उन्होने कहा कि पर्यावरण का मुद्दा मनुष्यता से जुड़ा हुआ है। इस परिचर्चा को आगे बढ़ते हुए सहायक प्रोफेसर श्री आमोद गुर्जर ने कहा कि सतत विकास की अवधारणा व्यक्ति केन्द्रित है जबकि इसे समग्र उपागम (holisticapproach) को अपनाना होगा। हमने मानव अस्तित्व पर संकट आने के बाद ही 'सतत विकास' की अवधारणा अपनाई।डॉ. शिव सिंह बघेल ने विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए यह कहा कि विद्यार्थियों को अपना लक्ष्य ऐसा बनाना चाहिए ताकि वे स्वयं को वैश्विक एजेंडे से जोड़ सके और ग्राम स्तर तक पहुंचाए।
डॉ. मिथिलेश ने कहा कि वैश्विक स्तर तथा भारत में भी संसाधनों के बड़े भाग पर चंद लोगों का आधिपत्य है जबकि एक बड़ा भाग अपना जीवन गरीबी और अभाव में व्यतीत कर रहा है इसलिए हमें संसाधनों के न्याय पूर्ण वितरण पर ध्यान देना होगा। परिचर्चा के दौरान उपस्थित सभी सहभागियों नेइस मुद्दे पर अपनी बात रखी। ज़्यादातर विद्यार्थियों ने अपने आस-पास विकास के नाम पर उत्पन्न हो रहे विसंगतियों को प्रमुखता के साथ रखा।
कार्यक्रम का संचालन नरेन्द्र कुमार दिवाकर ने किया। प्रास्ताविक डिसेन्ट कुमार साहू ने रखा और आभार गजानन निलामे ने किया। इस परिचर्चा में केंद्र के निदेशक प्रो.मनोज कुमार,डॉ. मिथिलेश कुमार, डॉ. शिव सिंह बघेल, सहायक प्रोफेसर श्री आमोद गुर्जर तथा केंद्र केनरेश गौतम, श्याम सिंह, आशुतोष, छविनाथ यादव,विलास चुनारकर, अनुराग पाण्डेय, शीना नेगी, सुधीर कुमार,अदिति, आनीता और शुभांगी सहित बड़ी संख्या में समाज कार्य के शोधार्थी/विद्यार्थी और एन जी ओ प्रबंधन के विद्यार्थी उपस्थित रहे।
नरेंद्र कुमार दिवाकर
शोधार्थी समाजकार्य

Tuesday, May 9, 2017

महिलाओं का कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न कानून के प्रावधान



-नरेंद्र कुमार दिवाकर
महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा तथा उत्पीड़न की घटनाएँ आज उभरकर सामने आ रही हैं इसका एक कारण शायद यह है कि जेण्डर के आधार पर समानता और न्याय को लेकर जागरूकता बढ़ी है। क्योंकि पहले जागरूकता के अभाव में इस तरह के मामले प्रायः उभर कर सामने नहीं आ पाते थे। इसके साथ ही साथ महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों की संख्या काफी तेजी से बढ़ी भी है। इसका बड़ा कारण पितृसत्तात्मक समाज का महिलाओं के प्रति नजरिया है। आज भी हमारे समाज में महिलाओं को एक व्यक्ति के रूप में स्वीकार्यता नहीं मिली है। सामंती मानसिकता के कारण स्त्री को सिर्फ एक यौन वस्तु के रूप में देखा जाता रहा है। यह स्थिति तब है जब महिलाओं को अपराधों के विरुद्ध कानूनी संरक्षण हासिल है।

जेण्डर के आधार पर समानता प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। इस अधिकार के अंतर्गत महिलाओं का किसी भी स्थान या कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न या ऐसे किसी भी प्रकार के शोषण से सुरक्षा का अधिकार भी शामिल है। इसी को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार यौन उत्पीड़न को विशाखा एवं अन्य बनाम राजस्थान सरकार एवं अन्य (1997) के मामले में परिभाषित करते हुए एक शिकायत समिति का गठन करने का दिशा-निर्देश दिया था। इसके बाद ही महिलाओं का कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध एवं प्रतितोष) अधिनियम, 2013 के रूप में 22 अप्रैल, 2013 को अस्तित्व में आया। इसे और अधिक व्यापक बनाने व इस कानून को और बेहतर तरीके से अमल में लाने के लिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने उसी वर्ष दिसंबर माह में “महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध एवं प्रतितोष) नियम, 2013” एक अधिसूचना जारी की।
 
किसी भी तरह का यौन व्यवहार (छेड़-छाड़ आदि) जो महिला की ‘इच्छा के खिलाफ’ उसके साथ हो, यौन उत्पीड़न है, भले ही वह दूसरों की नजर में मामूली हो या गंभीर। कार्यस्थल पर यदि इस तरह की घटना घटित होती है तो न केवल पीड़िता के मानवाधिकारों का हनन होता है बल्कि उसके श्रम का मोल भी घट जाता है। यौन उत्पीड़न अपने आप में हिंसा का ही एक रूप है। कोई भी यौन व्यवहार महिला के निजी जीवन, स्वास्थ्य और कार्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। कई बार उन्हें अवसरों को भी खोना पड़ता है। यौन उत्पीड़न से न केवल कार्यस्थल अपितु देश की अर्थव्यवस्था पर भी बुरा असर पड़ता है।
अधिनियम की धारा 2 (ढ) के अनुसार शरीर को छूना या छूने का प्रयास करना, यौन संबंध बनाने की माँग करना या प्रयास करना, यौनिक शब्दों वाली बातें या व्यवहार करना और अन्य कोई भी ऐसा शारीरिक, मौखिक, इशारा आदि ऐसा व्यवहार करना जो यौन स्वभाव का हो और अस्वीकार्य हो यौन व्यवहार के अंतर्गत आते हैं। सरल शब्दों में इसे इस तरह से समझा जा सकता है-अगर कोई व्यक्ति किसी महिला को जबरदस्ती गले लगाए, महिला के शरीर के बारे में दो अर्थों वाली बात करे, घूरे, गाली-गलौच करे, यौन स्वभाव के विडियो किसी महिला के सामने देखे या दिखाने का प्रयास करे, फोन आदि से यौन व्यवहार के संदेश भेजे, महिला से यौन संबंध बनाने हेतु दबाव डाले, अपने दफ्तर में यौन स्वभाव वाले चित्र लगाए, इशारे आदि करे तो यौन उत्पीड़न कहलाएगा।
उपरोक्त कोई भी व्यवहार तभी यौन उत्पीड़न कहलाएंगे जब वह महिला की ‘मर्जी के विरुद्ध’ या इच्छा के खिलाफ हो। अर्थात ऐसे कृत्य जिन्हें महिला नापसंद करे या जिस पर उसे ऐतराज हो। अगर यह कार्य महिला की ‘मर्जी’ से होता है तो यौन उत्पीड़न नहीं माना जाएगा।
 
अधिनियम की धारा 2 (ण) के अनुसार कार्यस्थल का तात्पर्य कोई विभाग, संस्था, कार्यालय, शाखा, अस्पताल व नर्सिंग होम, स्टेडियम, स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स, व्यक्तिगत या सार्वजनिक क्षेत्र में चल रहा संगठन जैसे व्यापारिक, व्यावसायिक, औद्योगिक, शैक्षणिक, मनोरंजनात्मक, स्वास्थ्य संबंधी गतिविधि चलाने वाली संस्था, असंगठित क्षेत्र आदि से है।
 
ऐसा कोई भी कागज या दस्तावेज, जिसमें महिला के काम को नुकसान पहुंचाने या धमकी देने की बात हो, महिला यौन उत्पीड़न के मामले की सुनवाई के दौरान देती है तो वह एक महत्वपूर्ण सबूत माना जाता है। मामले की सुनवाई के दौरान यदि महिला को तरक्की देने की बात वाला कोई भी दस्तावेज मिल जाता है तो वह यौन उत्पीड़न के मामले में सबूत के रूप में काम करेगा। आरोपी का ई-मेल, संदेश, पत्र आदि चीजों को संभालकर रखना चाहिए। किसी भी महिला को यह चाहिए कि यथासंभव यथाशीघ्र अपने साथ हुई घटनाओं के बारे में अपने किसी परिचित व्यक्ति को भी बताए, क्योंकि वह भी मामले की सुनवाई/न्याय की लड़ाई के दौरान काम आता है।

 
यौन उत्पीड़न के दौरान या बाद में पीड़िता को घबराहट, मानसिक कमजोरी या तनाव आदि हो सकता है, जिससे उसके स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है और इसके इलाज के लिए यदि उसे किसी डॉक्टर के पास जाना पड़े तो डॉक्टर के सलाह और दावा की पर्ची भी संभाल कर रखनी चाहिए क्योंकि इन्हें भी सबूत के तौर पर काम में लाया जा सकता है।
 
प्रायः यह कह कर कि महिला ने घटना की शिकायत देर से की, मामले को हलका करने/मानने की कोशिश की जाती है। लेकिन घटना में देरी से घटना की प्रकृति और पीड़िता के कार्यवाही के अधिकार में कोई फर्क नहीं पड़ता। धारा 9 (1) के अनुसार कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की शिकायत लिखित में घटना घटित होने के 3 माह के अंदर की जानी चाहिए। यदि घटनाएं लगातार हो रही हैं तो शिकायत अंतिम घटना घटित होने के तीन महीने के भीतर की जानी चाहिए। यदि ऐसा होता है कि पीड़िता लिखित शिकायत नहीं दे सकती है तो समिति के अधिकारी या सदस्य शिकायत लिखने में जरूरी मदद करेंगे। यदि समिति को यह समाधान हो जाता है कि घटना की शिकायत दर्ज कराने में हुई देरी के वाजिब कारण हैं तो समिति कारण बताते हुए अधिकतम 3 महीने तक का समय बढ़ा सकती है।
 
वैसे तो पीड़िता या महिला को शिकायत संबंधित दस्तावेज, गवाहों के नाम और पते, तथा सबूतों की छः कापियाँ शिकायत समिति को देनी होती है परंतु यदि वह ऐसा नहीं कर पाती तो उसकी शिकायत करने के बाद समिति स्वयं ऐसा कर लेती है और समिति को इसी में से एक कॉपी आरोपी/प्रतिवादी को देनी होगी।
धारा 9 (2) के अनुसार पीड़िता के शारीरिक या मानसिक रूप से अक्षम होने की स्थिति में उसके घर का कोई सदस्य, रिश्तेदार, मित्र, सहकर्मी, या कोई ऐसा व्यक्ति जिसे घटना के बारे में पता हो शिकायत दर्ज करा सकते हैं। इनके अतिरिक्त विशेष शिक्षक, मनोवैज्ञानिक, संरक्षक या देखभाल करने वाले व्यक्ति की सहायता से भी शिकायत दर्ज कराई जा सकती है।
यदि पीड़िता कि मृत्यु भी हो जाए तो वह व्यक्ति जिसे घटना के बारे में पता हो, पीड़िता के उत्तराधिकारी की लिखित सहमति से शिकायत दर्ज करा सकता है।
शिकायत की कापियाँ मिलने के 7 दिनों के भीतर ही समिति इसकी कॉपी सहायक दस्तावेज और गवाहों की सूची प्रतिवादी/आरोपी को भेजेगी। प्रतिवादी को यह सब दस्तावेज प्राप्त करने के 10 दिन के अंदर अपना जवाब दाखिल करना होगा। जिसकी एक कॉपी समिति पीड़िता या शिकायतकर्ता महिला को देगी। इसके बाद शिकायत समिति जांच प्रक्रिया प्रारंभ कर 90 दिन के अंदर ख़त्म कर देगी।
 
धारा 10 के अनुसार यदि पीड़िता शिकायत कर चुकी है और इसी दौरान मामले को बात-चीत से सुलझाना चाहती है तो जांच पड़ताल शुरू करने से पहले समिति द्वारा इस दिशा में कदम उठाए जा सकते हैं पर समझौते का आधार पैसे का लेन-देन कतई नहीं होगा। समझौते में सारी बातें साफ-साफ लिखी जाएंगी। समझौते की एक-एक प्रति पीड़िता और आरोपी दोनों को दी जाएगी तथा जांच कार्यवाही को स्थगित कर दिया जाएगा। समझौते के अनुपालन न करने की दशा में पीड़िता की शिकायत पर समिति उस मामले की जांच शुरू करेगी या उसे पुलिस में दर्ज कराएगी। समिति को किसी भी मामले से जुड़ी जांच 90 दिन के अंदर पूर्ण करना होगा।
समिति जांच प्रक्रिया ख़त्म होने के 10 दिन के भीतर अपनी रिपोर्ट अभियुक्त के खिलाफ उचित कार्यवाही करने की सलाह के साथ नियोक्ता (मालिक/संस्थान का मुखिया) या जिलाधिकारी के पास प्रस्तुत कर देगी। रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद नियोक्ता (मालिक/संस्थान का मुखिया) या जिलाधिकारी 60 दिन के अंदर इस रिपोर्ट पर कार्रवाई करेंगे। समिति की रिपोर्ट आने के 90 दिन के अंदर शिकायतकर्ता अपील दायर कर सकती है।
जांच के बाद यदि समिति इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि पीड़िता द्वारा लगाए गए आरोप सिद्ध नहीं हुए हैं तो वह यह लिखकर भेज सकती है कि इसमें कार्रवाई की कोई आवश्यकता नहीं है। समिति पर यह जिम्मेदारी है कि पीड़िता या शिकायतकर्ता का नाम गुप्त रखा जाय। अगर कोई भी सदस्य पीड़िता का नाम या पहचान जाहिर कर देता है तो नियोक्ता उसे पद से हटा सकता है और रू. 5000/- तक जुर्माना भी लगा सकता है।
संपूर्ण जांच प्रक्रिया के दौरान दोनों पक्षों को स्वयं अपनी बात (किसी भी पक्ष को वकील रखने का अधिकार नहीं) रखने का पूरा समय और पूरा अवसर दिया जाएगा। समिति को दोनों पक्षों की बातें निष्पक्ष रूप से सुननी चाहिए। यदि किसी व्यक्ति के खिलाफ कई शिकायतें हैं तो एक साथ मिलाकर सुनवाई की जानी चाहिए।
समिति को महिलाओं के बारे में फैले तमाम पूर्वाग्रहों, जाति, धर्म, यौनिकता, समलैंगिकता और वर्ण आदि से संबंधित पूर्वाग्रहों से परे होकर शिकायत सुननी चाहिए। समिति को पीड़िता की स्थिति को ध्यान में रखते हुए जांच की कारवाई करनी चाहिए। यदि पीड़िता चाहती है तो समिति उसकी बात को अकेले में भी सुन सकती है। पीड़ता या शिकायतकर्ता महिला के खिलाफ कोई विरोधी शिकायत यौन उत्पीड़न मामले की जांच पूरी होने तक नहीं दायर की जा सकती।
जांच के दौरान अध्यक्ष सहित कम से कम 3 सदस्य उपस्थित रहेंगे। जांच के बाद फैसला समिति के सदस्यों की सहमति या भागीदारी से होगा। सिर्फ अध्यक्ष अकेले फैसला नहीं ले सकती। अध्यक्ष महिला ही होगी और समिति में सदस्यों की कुल संख्या का 50 प्रतिशत सदस्य महिलाएं होंगी।
समिति को यदि शुरुआती जांच में यह लगता है कि जिन तथ्यों पर शिकायत आधारित है वह साफ नहीं हैं या यौन उत्पीड़न का मामला नहीं बनता तो शिकायत को ख़ारिज किया जा सकता है। यदि यौन उत्पीड़न का मामला बनता है और शिकायत स्पष्ट नहीं है तो शिकायतकर्ता महिला को मौका दिया जाएगा कि वह अपनी शिकायत स्पष्ट करे। अगर समिति को यह लगता है कि पीड़िता ने महत्वपूर्ण तथ्यों का समावेश नहीं किया गया है तो समिति उसे महत्वपूर्ण तथ्यों को समावेश करने का मौका दे सकती है।
 
जिन भी गवाहों की गवाही या सबूत लिए जाएँगे उन पर उन गवाहों के हस्ताक्षर अवश्य लेने चाहिए। अगर दोनों (पीड़िता और प्रतिवादी) में से कोई भी बिना किसी वाजिब कारण के लगातार 3 सुनवाइयों में अनुपस्थित रहता है तो 15 दिन का नोटिस दिया जाएगा। जवाब न मिलने पर समिति मामले में एकतरफा निर्णय ले सकती है।
यदि यह साबित होता है कि शिकायतकर्ता ने आरोप बदनीयती से लगाए हैं तो उसके खिलाफ भी कार्रवाई कि जा सकती है बशर्ते उसकी बदनीयती साबित हो जाय।
समिति को चाहिए कि पीड़िता/महिला से नरमी से पेश आए जिससे वह अपनी बात बिना डरे रख सके। समिति को इस बात से कोई मतलब नहीं होना चाहिए कि पीड़िता का प्रतिवादी के साथ कब और कैसे रिश्ते थे। उसका यौन इतिहास, समिति की जांच का हिस्सा या निष्कर्ष रिपोर्ट का आधार नहीं बन सकता। शिकायत करने वाली/पीड़िता/महिला के कार्य पर कोई असर नहीं पड़ना चाहिए, अगर कोई उसे डराता-धमकाता है या कोशिश करता है तो समिति द्वारा इसकी जांच की जानी चाहिए। अगर पीड़िता प्राथमिकी (एफ़आईआर) दर्ज करवाना चाहे तो इसमें समिति को उसकी मदद करनी चाहिए और प्राथमिकी की कॉपी उपलब्ध कराई जानी चाहिए।
समिति को यह अधिकार है कि वह पीड़िता को स्वयं या माँगने पर परिस्थिति अनुसार राहत प्रदान करे। शिकायत दायर होने के बाद या जांच प्रक्रिया के दौरान पीड़िता के अनुरोध पर समिति नियोक्ता (मालिक/संस्थान का मुखिया) या जिलाधिकारी से सिफारिश कर सकती है कि दोनों में से किसी का तबादला किसी और कार्यस्थल पर कर दिया जाय। इसी के तहत शिक्षण संस्थानों में जब ऐसे मामले होते हैं तब प्रतिवादी या आरोपी को परिसर में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया जाता है जिससे वह पीड़िता को डरा धमका कर प्रभावित न कर सके। पीड़िता को 3 माह की छुट्टी दी जा सकती है जो कि उसके कर्मचारी के रूप में दी जाने वाली छुट्टी से अलग होगी।

प्रतिवादी को कोई ऐसा कार्य नहीं दिया जाएगा जिससे वह वादी या पीड़िता को नुकसान पहुँचा सके। प्रतिवादी या आरोपी के दोषी पाए जाने पर ‘जितना दोष, उतना दंड’ के आधार पर कारवाई की जानी चाहिए। महिला को पहुँचे मानसिक आघात, दर्द, व्यथा और भावनात्मक पीड़ा, यौन उत्पीड़न के कारण जीवन वृत्त के अवसर में हुए नुकसान, शारीरिक या मानसिक चिकित्सा के लिए पीड़िता द्वारा खर्च की गई राशि और प्रतिवादी/आरोपी की वित्तीय स्थिति के अनुसार पीड़िता को मुआवजा भी मिल सकता है। समिति को दोषी के खिलाफ ‘कार्रवाई का अनुपात’ भी अपनी निष्कर्ष रिपोर्ट में रखना चाहिए। दंड का निर्धारण दोष की गंभीरता को देखते हुए किया जाना चाहिए। जैसे कि अगर सिर्फ घूरने तक का मामला है तो लिखित में माफी, चेतावनी दी जा सकती है। अगर यौन उत्पीड़न का स्वरूप इससे बड़ा है जैसे छूना, यौन संबंध की माँग करना या इसके लिए धमकाना तो नौकरी से या परिसर से निलंबित किया जाना चाहिए।
 
एक बात यह दीगर है कि यौन उत्पीड़न और हिंसा, भारतीय दंड संहिता (आई पी सी) के अंतर्गत भी अपराध की श्रेणी में आते हैं और इसके अंतर्गत सजा और जुर्माने की भी व्यवस्था है। इसलिए पीड़िता चाहे तो भारतीय दंड संहिता के तहत भी शिकायत कर सकती है या दोनों प्रक्रियाओं (आंतरिक प्रशासनिक या महिला समिति और भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत भी) को एक साथ चला सकती है, क्योंकि दोनों प्रक्रियाएँ एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं या किसी एक प्रक्रिया के तहत ही अपनी शिकायत दर्ज करवाए। फर्क बस इतना है कि समिति की जाँच में दोषी पाए जाने पर आरोपी को दोषी मानकर प्रशासनिक कार्रवाई ही की जा सकती है परंतु भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत चलाए गए मामले में अपराध साबित होने पर जुर्माना या जेल जाने की सजा (या दोनों) भी हो सकती है।

-नरेंद्र कुमार दिवाकर.
पी.एच.डी.(शोध छात्र) – समाज कार्य, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय

Friday, March 31, 2017

बेड़िया समुदाय: जाति, यौनिकता और राष्ट्र–राज्य के पीड़ित

photo google
बेड़िया समुदाय जो कि कभी एक घुमंतू और आपराधिक प्रवृत्ति वाला समुदाय माना जाता रहा है लेकिन राज्य ने उसे अनुसूचित जाति की श्रेणी में श्रेणीबद्ध किया है और उनके विकास लिए तमाम तरह की योजनाएं भी चला रहा है ताकि उनका उत्थान हो सके लेकिन जैसा कि हमेशा होता है वैसा ही इन योजनाओं के साथ भी हुआ है। यह भी मात्र कागजों पर ही सीमित रह गयी हैं।
मध्य प्रदेश के जिला सागर और अशोकनगर, बीना के आस पास बहुत से गाँव है, जहाँ बेड़िया समुदाय के लोग निवास करते हैं। सिर्फ एक ही गाँव जिसका नाम पथरिया है वहाँ परिवर्तन देखने को मिलता है। उसके भी कारण हैं क्योंकि वहाँ 1984 से सत्य शोधन आश्रम की शुरुआत चम्पा बेन के द्वारा की गयी जिसका मुख्य उद्देश्य बेड़िया समुदाय का उत्थान करना था।
चम्पा बेन के द्वारा सबसे पहला कार्य बेड़िया समुदाय की बालिकाओं को शिक्षा देना था और वहाँ देह व्यापार में लगी महिलाओं को जागरूक करना था ताकि वह देह व्यापार जैसे कार्य से बाहर निकल सकें। साथ ही बेड़िया समुदाय में इससे पहले शादी जैसे संस्कारों का भी कोई मूल्य नहीं था, इसके लिए भी लोगों को जागरूक करने का काम किया गया। बाकी गाँव जहाँ बेड़िया समुदाय के लोग निवास करते हैं, वहाँ की स्थितियाँ बहुत ही खराब हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन राज्य की नीतियाँ भी इसके लिए बहुत हद तक जिम्मेदार हैं।

बेड़िया समुदाय पहले से ही शोषित रहा है क्योंकि उनके संपर्क हमेशा राजे-रजवाड़े, जमींदारों, मालगुजारों जैसे सामन्ती लोगों के साथ रहे हैं, जहाँ लगातार उनका शोषण किया गया। जिस तरह से सामन्ती लोगों ने इनका शोषण किया उसी तरह से आज भी हो रहा है।
 सरकार ने भूमिहीनों के लिए कृषि हेतु जो भूमि आवंटित की है, वह  इन्हें भी आवंटित की गयी, लेकिन यह उनके निवास स्थान से 20 या 35 किलोमीटर की दूरी पर है। इनमें से बहुत सारे लोगों को आज भी उस भूमि पर कब्जे नहीं मिले हैं। बहुत सारे ऐसे भी लोग हैं जिन्हें आज तक यह भी नहीं पता है कि उनकी भूमि आखिर आवंटित कहाँ है? जब भी बेड़िया समुदाय के लोगों ने अपने आप को परम्परागत पेशे से बाहर निकालना चाहा है तो उनके सामने कई तरह के सवाल खड़े हो जाते हैं। सबसे पहला सवाल उनकी पहचान का बनता है। जैसे ही लोगों को पता चलता है कि वे बेड़िया समुदाय से हैं तो लोग सहज उपलब्धता के कारण उनसे यौन संबंधो की अपील करते हैं या उन्हें उसी नजरिये से देखते हैं। इस तरह के सामाजिक दबाव को झेलना पड़ता है। यह समुदाय हमेशा किसी न किसी पर आश्रित होकर अपना जीवन निर्वाह करता रहा है। दूसरा यह समुदाय कभी कृषि कार्य से भी नहीं जुड़ा रहा। अब जिन परिवारों में दलित चेतना का विकास हुआ है और जिन्होंने अपने आप को अनुसूचित जाति की श्रेणी में भी गिनना शुरू कर दिया है, और अपने आप को इस कलंक से बाहर भी निकालना चाहते हैं, न तो उन्हें समाज इस कार्य से बाहर निकलने दे रहा है और न सरकार उनके लिए कोई ठोस कदम उठा रही है।

पूरा समुदाय हमेशा से ही उपेक्षा की नजर से देखा जाता है। यदि आप उस गाँव का नाम तक लेते हैं तो आप को लोग ओछी नजर से देखते हैं। लोगों की मानसिकता जाकर वहीं रुकती है कि आप उनके साथ अपने यौन संबंध बनाने जा रहे हैं। बुंदेलखंड में बसे ये लोग अपने लिए ही जीवन और नयी संभावनाएँ तलाश करने में जुटे तो हैं लेकिन यह सभ्य समाज ही उन्हें इस दलदल से बाहर नहीं निकलने दे रहा है। दूसरा कारण यह भी है कि राज्य सरकार इनको अनुसूचित जाति की श्रेणी में श्रेणीगत करती है, लेकिन इस समुदाय में आज भी वह चेतना नहीं जागी है। यहाँ तक कि बहुत से बेड़िया आज भी अपने को उच्च श्रेणी में ही गिनते हैं। ये उन लाभों को भी नहीं ले पाते हैं, जो सरकार अनुसूचित जाति के लिए देती है। पूरे समुदाय में शिक्षा की कमी भी इनके विकास में सबसे बड़ी अवरोधक है, जो इन्हें इस काम से बाहर नहीं निकलने दे रही है।

यदि पूरे बुंदेलखंड और उसकी परिस्थितियों को देखेँ तो ये भी कृषि के लिए अनुकूल नहीं है। जब इनके इतिहास पर नजर डालते हैं तो यह समुदाय कभी भी कृषि कार्य या अन्य व्यवसाय से जुड़ा दिखायी नहीं देता है। अतः इनके लिए कृषि कार्य से जुड़ना अपने आप में एक मुश्किल कार्य है। जिस तरह से इस समुदाय कि निर्मिति के साक्ष्य मिलते हैं उससे तो यही लगता है कि इस समुदाय के उत्थान के लिए सरकार या अन्य संस्थायें इनको इस देह व्यापार के व्यवसाय से बाहर निकालना नहीं चाहती हैं, अन्यथा इनके लिए किसी उचित व्ययसाय की व्यवस्था की जानी चाहिए थी।

ग्राम परसरी की बेला कहती हैं कि- “मुझे यह काम छोड़े काफी साल हो गए हैं। अभी तक मेरा पूरा परिवार इस काम से बाहर आ गया है लेकिन जब से हमने देह व्यापार और राई को छोड़ा है, तब से हम लोग अपने लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ भी ठीक से नहीं कर पाते हैं। हमारे ही गाँव के लोग आज हमसे बहुत धनी हैं और उनके पास आधुनिक सुख सुविधा के साधन हैं, रहने के लिए अच्छे घर हैं। हम तो रोटी के लिए भी मोहताज हैं, बीड़ी बनाने और मजदूरी से घर का खर्च तो किसी तरह चल जाता है लेकिन किसी और काम के लिए पैसे नहीं बचते हैं। कई बार तो यही लगता है कि हमने राई को छोड़ कर बहुत गलत किया। कई बार वापस जाने का मन भी करता है लेकिन फिर सोच कर रह जाती हूँ ”।

यह कहानी किसी एक महिला की नहीं है। बेड़िया समुदाय में इस तरह के बहुत से परिवार मिल जाएंगे। करीला की एक महिला बताती हैं कि सामाजिक दबाव के चलते मैंने राई तो छोड़ दी, लेकिन कोई और काम भी नहीं था। घर के मर्द कुछ भी नहीं करते और पूरे दिन दारू के नशे में घूमते हैं। दारू के लिए भी पैसे मुझसे ही माँगते हैं, इसलिए वापस यहाँ करीला मंदिर पर ‘बधाई’ करती हूँ। शाम तक 2-3 सौ रुपए मिल जाते हैं पर कभी-कभी कुछ भी नहीं मिलता, लेकिन अपने साथ साज वाले को रोज पैसे देने पड़ते हैं।  यह किस्सा किसी एक महिला का नहीं है ऐसे किस्सों से बेड़िया समुदाय भरा पड़ा है।

बेड़िया समुदाय की पहचान एक यौन कर्म करने वाले समुदाय के रूप में सभ्य समाज करता है, लेकिन किसी भी समुदाय और उसके व्यवसाय को समझने के लिए, उस समुदाय की निर्मिति एवं इतिहास को देखना आवश्यक है, क्योंकि बिना किसी की निर्मिति के बारे में जाने उसके बारे में ठीक-ठीक कुछ कहना मुश्किल हो जाता है या कई बार हम उनके लिए गलत निर्णय भी ले लेते हैं। बेड़िया समुदाय को राज्य एक वेश्यावृत्ति करने वाला समुदाय मानता है। क्योंकि यह समुदाय अपने सेक्सुअल रिलेशन कई पुरुषों और सभ्य समाज के संबंधों से इतर बनाता है और उन संबंधो में काफी खुलापन भी होता है। यह समुदाय इस तरह के संबंध बनाने को बुरा नहीं मानता। लेकिन राज्य की विधि और सभ्य बनाने की जो राज्यजनित अवधारणा है, यह समुदाय एक ख़तरे के रूप में उसके सामने खड़ा है। जब इस समुदाय में कभी भी यौन कर्म को बुरा नहीं माना गया और समुदाय यौन कर्म को मान्यता भी देता है, तो उस समुदाय को यह सभ्य समाज या राज्य बुरा कर्म करने वालों की नजर से क्यों देखता है? जब कि इनकी संस्कृति का यह एक अहम हिस्सा भी है। यदि इनके पूरे इतिहास को देखा जाए तो यह एक घुमंतू समुदाय रहा है और कभी भी शादी-ब्याह जैसे संस्कारों को मान्यता न देते हुये अपना विकास करता रहा है। इस समुदाय के लिए यह एक सहज प्रक्रिया है लेकिन राज्य और समाज की नजर में तो नहीं।

राज्य इस तरह के समुदाय को मुख्य धारा में लाने के प्रयास में लगा है, क्योंकि यह समुदाय मुख्य धारा के विपरीत अपने संबंध मुख्य धारा के लोगों के साथ ही स्थापित करता है। लेकिन वही समाज जो इन्हें अपनी रखैल या जो भी नाम दिया जाए के रूप में इस्तेमाल करता है तब ये बेड़िया उनके लिए असभ्य क्यों नहीं होते? यही वो सभ्य समाज है जो इन्हें वेश्यावृत्ति करने वाला भी कहता है और इन्हीं के साथ अपने अनैतिक संबंध भी स्थापित करता है।  
    
समुदाय की निर्मिति में सामन्ती लोगों की भूमिका अधिक दिखायी देती है क्योंकि ऐतिहासिक तथ्यों को देखें तो बेड़िया समुदाय की महिलाएँ राजे-रजवाडों और सामन्ती लोगों से ही अपने संबंध बनाती दिखती हैं। इसका यह कारण भी था कि बेड़िया समुदाय की महिलाएँ अन्य समुदायों की अपेक्षा अधिक सुंदर होती थीं तो इन्हें अन्य समुदायों की अपेक्षा ख़तरे भी अधिक थे। अपने संरक्षण और आर्थिक जरूरतों को पूर्ण करना भी इसमें शामिल था। यहाँ तक इनके सामने कोई समस्या नहीं थी। ब्रिटिश काल में इन्हें पहचान कर, श्रेणी बद्ध किया गया और अपराधी प्रवृत्ति की  संज्ञा दी गयी। लेकिन आजादी के बाद से इनके लिए संकट बढ़ गए। उसके कारण यह थे कि भारत के लगभग सभी ऐसे समुदायों को मुख्य धारा में लाने के लिए जनजाति से जाति व्यवस्था में लाना था क्योंकि राज्य की सत्ता जाति व्यवस्था पर चलती है। इसमें शामिल होने के लिए आप को जाति व्यवस्था में आना पड़ेगा। इनके साथ भी वही किया गया। इन्हें अब जनजाति से बदल कर अनुसूचित जाति में परिवर्तित कर दिया गया। अब जब यह जाति व्यवस्था में आ चुके थे, तो राज्य की विधि के अनुसार ही इन्हें भी चलना था।

हालांकि समुदाय में खुले तौर पर संबंध बनाने की छूट थी। इसी आधार को देखते हुये राज्य ने इन्हें वेश्यावृत्ति करने वाले समुदाय के रूप में पहचान दी। औपनिवेशिक मानसिकता के साथ इन्हें शिक्षित करने की प्रक्रिया और उनकी संस्कृति को समाप्त करने के प्रयास शुरू किए गए। अब इनके सामाजिक मूल्यों, इनकी संस्कृति सभी पर हमला होना तय था। अब इन्हें ‘Open Relation रखने वाले समुदाय या व्यक्ति कभी सभ्य नहीं हो सकते’ इस मानसिकता के साथ सभ्य बनाने के लिए शिक्षित करना था। लेकिन यहाँ एक बात सबसे जरूरी हो जाती है कि इस राष्ट्र-राज्य की अवधारणा में जहाँ इस तरह के समुदाय (बेड़िया समुदाय) जो शादी ब्याह जैसे संस्कारों और सभ्य समाज के बनाए मूल्यों से अलग थे, जो किसी भी पुरुष से अपने स्वच्छंद संबंध बना सकता था, जब राज्य उसे वेश्या का संबोधन दे रहा है तब उसने कभी इस बात पर गौर नहीं किया कि इनके लिए आखिर ग्राहक कहाँ से आ रहें हैं? जो राज्य इन्हें वेश्या का संबोधन दे रहा है दरअसल वही राज्य ही इन्हें ग्राहक भी उपलब्ध कराने का कार्य करता है। अभी तक जिन भी संस्थाओं ने इनके लिए काम करने शुरू किए, वे सभी इन्हें सभ्य समाज की धारा में लाना चाहते हैं। आखिर एक ऐसा समुदाय जो अपने आप को अलग रखकर स्वच्छंद रहता है, किसी से भी अपने संबंध स्थापित करता है और अपने किसी भी निजी मामले में बंधन नहीं रखता, तो उन्हें बदलने की आवश्यकता क्यों पड़ी? लेकिन जिन भी संस्थाओं ने इनके उत्थान के लिए काम शुरू किये, वे भी इन्हें राज्य की नजर से ही देखते रहे।

जब हम इन्हें सभ्य बनाने की बात करते हैं तो हम उन्हें खुद संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में ला रहे हैं। लेकिन कार्य के आधार से समुदाय की पहचान को देखें तो राज्य उन्हें निम्न श्रेणी में ही श्रेणीबद्ध करता है। तो जाहिर सी बात है एक जाति से उठकर यदि वह दूसरी नीची जाति में प्रवेश करते है तो इनके लिए संकट और बढ़ जाते हैं।
राज्य की भूमिका पर गौर किया जाए तो राज्य जहाँ एक तरफ वेश्यावृत्ति को खत्म करना चाहता है, वहीं दूसरी तरफ उन्हीं जगहों को पहचान कर जहाँ वेश्यावृत्ति होती है, वहाँ एड्स जैसे प्रोग्राम चला कर, घर-घर में condom बाँट रहा है, यानि राज्य उन्हें संरक्षण देता हुआ प्रतीत होता है। दूसरी तरफ समुदाय के साथ व्यवहार का रवैया मुख्य धारा की मूल्य व्यवस्था (value system) से मिलता हुआ दिखयी देता है। The Hindu[1] में छपी एक रिपोर्ट को यदि देखा जाए तो राम सनेही जो एक समाज कार्यकर्ता हैं, वह इसे अनैतिक बताते हैं और बेड़िया समुदाय की परंपराओं को खत्म करने के लिए सरकार पर दबाव बना रहे हैं। जब कि सरकार की तमाम एजेंसियां इन्हें संरक्षण दे रही हैं। मुख्य धारा की मूल्य व्यवस्था के आग्रह वाले राम सनेही अकेले नहीं हैं, बल्कि अन्य कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थायें भी इसमें संलग्न हैं। कुल मिला कर बेड़िया समुदाय की यौनिकता समाज और राष्ट्र-राज्य के विरोधाभासी दबाव का शिकार बनती है। जहाँ एक तरफ राष्ट्र-राज्य समुदाय की यौनिकता को अपनी यौनिक अर्थव्यवस्था के तहत बचाए भी रखना चाहता है, वहीं दूसरी तरफ मुख्य धारा के समाज के नैतिक और सांस्कृतिक आग्रहों को ख़ारिज भी नहीं करना चाहता। ये संस्थायें अपने सामुदायिक कार्यों में बेड़िया समुदाय के साथ सांस्कृतिक राजनीति की एजेंट दिखाई देती हैं।

समुदाय यौनिकता के संस्कृतिकरण की प्रक्रिया खास संदर्भों में घटित होती है, जहाँ सामुदायिक/संस्कृति विशेष ज्ञान को अपनी व्यवस्था में शामिल करने से पहले उसका रूपांतरण व प्रसंस्करण होना अनिवार्य हो जाता है। बेड़िया समुदाय के चलायमान होने की जीवनशैली से उपजी संस्कृति उनकी सांस्कृतिक विशेषताओं में परिलक्षित होगी। इस आधार पर सेक्सुअलिटी व उनके स्त्री-पुरुष संबंधों, उनके औपचारिक-अनौपचारिक व्यवहारों, यहां तक कि जीवन और नृत्य-गीतों की अल्हड़ता का अध्ययन और व्याख्या अपनी सम्पूर्णता में गैर विषयीकृत (Non Subjectifed) होकर ही संभव है।
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नरेश गौतम
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
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