Thursday, May 12, 2016

अब की बार तीसरी फसल शहर में...


राजनैतिक मसीहा के निर्वाण के बाद कुछ पढ़े लिखे लोगों ने शहर में पाँव पसारने शुरू किए हैं. विभिन्न संगठन, मंडल, मित्र मंडल आदि का निर्माण, जमीन की खरीद-फरोक्त आदि काम ये लोग करने लगें हैं. शहर एजुकेशन हब हैं इसलिए यहाँ बहुत सारे शैक्षिक संस्थान है साथ ही प्रायवेट कोचिंग क्लासेस भी भरे पड़े हैं. व्यापारी सदा से यह चाहते हैं कि शान्ति बनी रहें ताकि ग्राहक माल खरीद सकें, इन सब को सेक्युरिटी के लिए इन संगठनों की आवश्यकता होती हैं. इस आवश्यकता की पूर्ती इन सफेदपोश लोगों द्वरा समय-समय पर होती रहती हैं. शहर का ज्यादातर हिस्सा बाहरी लोगों का होने के कारण स्थानीय लोगों की दबंगई जरुर दिखती है लेकिन वह भी शहर के शान्ति के नाम पर सहनीय है. शायद यही राज है शहर के शान्ति का? ऐसे शांतिप्रिय शहर में अचानक धारा 144 कैसे लागू हुयी. सवाल यह है कि क्या वाकई शहर पहले से शांत था? या ये व्यापारियों द्वारा तैयार शान्ति थी? ऐसा क्या हुआ है जो पानी को लेकर इस शहर में धारा 144 लगाईं गई? बहुत से लोगों के मन में यह सवाल हैं कि ऐसा क्यों?

लातूर शहर धनी व्यापारियों का शहर हैं जिसका भार यहाँ के प्रत्येक सामान्य व्यक्ति पर है. एक ओर से हैदराबाद की नजदीकी व्यापारियों को कम कींमत में माल उपलब्ध कराता है वहीँ दूसरी ओर उस माल के लिए यहाँ साक्षर और ग्रामीण ग्राहक तैयार है. शायद ही शहर का ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो मुंबई, पुणे में अपनी किस्मत आजमाने न गया हो. काम-काज ढूंढने न सही शिक्षा के लिए तो जरुर ही वे लोग इन बड़े शहरों में चले गए होंगे. लेकिन यह भी सही है कि अगल-बगल के परभणी, उस्मानाबाद, बीड के ग्रामीण लोग रोजगार के लिए पिछले सत्ता परिवर्तन के पहले तक आते रहें थे. लेकिन आज-कल उनका आना भी केवल ‘आना’ है. कई सारे मामले में लातूर इन बाकी तीन जिलों से बेहतर माना गया जिसमें शिक्षा अहम् थी, रोज बढ़ने वाला शहर मकान बनाने के लिए मजदूरों की मांग रखता था इसलिए मुंह मांगी मजदूरी मिल जाया करी थी इसलिए भी बाकी जिलों के लोगों को यह शहर आकर्षित करता रहा. व्यापारी घरानों की परंपरा ने यहाँ उद्योग के लिए नई आशा निर्माण कि जिसके चलते मजदूरों की मांग भी बढ़ गयी हालांकि यह उद्योग केवल रोजमर्रा के उपयोगी उत्पादन बनाने तक सिमित हैं.

शहर के रामभाऊ बताते हैं कि हम कभी किताबों में पढ़ा करते थे कि एशिया का सबसे बढ़ा शक्कर कारखाना लातूर में हैं तो हमारी छाती फुल जाती थी किन्तु बाद के सालों में पता चला कि उसको नीलाम किया जा रहा है. जब कोई मुझसे पूछता है कि आप के शहर में क्या है तो मैं कुछ नहीं बता सकता हालांकि यह सवाल इससे पहले कोई ज्यादातर नहीं पूछता था और अगर कोई पूछता तो जवाब में कोई न कोई कह देता कि विलासराव देशमुख का शहर, या किलारी भूकंप ये दो चीजे थी जो शहर को वैश्विकता के साथ जोड़ने में मदद करती थी. पहले वाले जवाब में सामने वाले के विचारों से जलन का आभास कर लिया जाता जिससे हम शहरवाले गर्व महसूस कर लेते और दुसरे से करुणा झलकती थी इसे भी हम हमारी प्रसिद्धि के साथ जोड़कर देखते न की कमजोरी. परंतु आज-कल पानी की कमी ने हमें हमारी औकात दिखाई. हमारा ‘लै भारी’ का भारीपन हमें बोझ लगने लगा है. इस सूखे ने हमें हमारी क्षमताओं को जानने का मौका दिया है. हालांकि शहर का बुद्धिजीवी वर्ग अब भी इस समस्या की और आकर्षित नहीं हो पाया है. इसका यह भी कारण है कि लातूर के साक्षर लोग तुरंत ही किसी समस्या को अपने उपर हावी नहीं हो देते. हमारा कोपिंग मेकनिज्म गजब का है. ये तो सरकारी महकमें की करतूत है कि उसने १४४ लगाकर हमारी खामियों को उजागर कर रखा है. वरना इससे पहले भी हमने बड़े-बड़े सुखों को मुहतोड़ जवाब दिया है.
पिछले साल पानी की कमी ने हमारे खेतों का बूरा हाल किया तब भी हम नहीं डरें, पिछले महीने एक्कड़ भर खेत से 8000 खर्च कर आधी बोरी सोयाबीन जो इस मौसम की पूरी फसल का हिस्सा था उसे घर ले जाते समय मैं ज़रा भी आशंकित नहीं था कि इतने पैसे के बदले केवल इतना धान. क्योंकि हम खेती तो केवल बचाने के लिए करते है ताकि हमें भी लगे की हम भी किसान है. लातूर शहर का किसान होने में भी अजीब सा गर्व महसूस होता है. करोड़ों की किंमत पर बेचीं जाने वाली जमीन में हम हजार-बारासों का उत्पादन लेकर हम केवल यह जताना चाहते हैं कि हमने अभी अपनी जमीन बेची नहीं हैं. ऐसे में पानी गिरने न गिरने से हमारा कुछ नहीं होने वाला. इससे ज्यादा फिक्र वाली बात यह है कि पडोसी की जमीन को मैं अपना कैसे बनाऊं. शहर के अगल बगल का शायद ही ऐसा कोई गाँव होगा जिसकी जान पहचान कोर्ट में न हो. इन लोगों ने वकीलों और न्यायधीशों के घर पैसे से भरे हैं. वो समय अब दूर नहीं जब यहाँ का कोई किसान नौसिखिए वकील को सलाह दे रहा होगा. मृदा परिक्षण जैसे आम काम यहाँ के किसान तब तक नहीं करवाते जब तक कि इसके लिए कोई फंड न मिले. हम केवल उस जमीन के मालिक होने का फर्ज अदा करते है साथ ही यह ध्यान रखते हैं कि कोई हमारे इस फर्ज के आड़े न आए. चार साल पहले की बात है शहर के नजदीक का एक गाँव शहर में समाविष्ट होने जा रहा था. पूरे गाँव में केवल इसी की चर्चा थी लोगों ने अपने पैसे खर्च कर मुंबई में जाकर मंत्रियों से बातचीत कर मसला हल करवाया तब जाकर वो जमीन बची है. लेकिन यह जमीन बचाने का असल कारण उस जमीन की कींमत ही थी. जो आसमान छु रही है. आज तक मुझे नहीं पता चला कि ख़बरों में वो बूढा किसान उभाड खाबड़ जमीन पर बैठ कर माथे से हाथ लगाकर आसमान की और देख रहा है वह कहाँ हैं. यहाँ का किसान तो रॉयल एनफील्ड पर घूम रहा है. विट बनाने का कारखाना लगा रहा है. एक नहीं दो बीवियां बना रहा है. वो दबंग हैं और चौक-चौराहे पर बैठकर निम्नवर्गियों का मज़ाक उड़ा रहा है. उसके बच्चे भी उसी के क़दमों पर चल रहे है. मध्यकाल के जमींदारों से कम प्रस्थिति इन दो-चार एक्कड़ वालों की नहीं हैं.


ऐसा ही एक उदाहरण है रशीद चाचा. रशीद चाचा की शहर से नजदीक ही खुली जमीन है. इस बार सूखे का प्रभाव बढ़ने वाला है इस बात की फ़िक्र यहाँ के व्यपारियों को ज्यादा थी इसलिए उन्होंने रशीद चाचा को पहले ही पैसे दे रखे हैं बोरिंग के लिए जिससे लगने वाला पानी वह उन्हें उसी दाम पर देगा जो पहले से तय होगा. ऐसे में उसने अपने खेत में तीन बोरिंग करवाई लगभग 700 फिट के आसपास चार इंच पानी लगा दो बोर को बाकी एक को एक इंच पानी लगा. अब तो उनकी निकल पड़ी आज-कल वो रोज पंद्रह-बीस हजार का पानी बेच रहें हैं. बताइये इतना पैसा कमाने के लिए एक किसान को कितने दिन लग जाएंगे. कौन करेगा किसानी अब रशीद चाचा तो चाहेंगे की हर साल ऐसा ही सुखा पड़े तब तो वह पैसा कमा पाएंगे. दो फसलों में तो उनको कुछ न मिला लेकिन इस सूखे में उनकी ‘तीसरी फसल’ कामयाब रहीं. 

यह केवल किसानों का ही नहीं शहर में जिस किसी के बोअर को पानी है वे लोग इस तीसरी फसल को ले रहें हैं. लागत बहुत कम है और मुनाफ़ा तगड़ा मिल रहा है. जैसे बोअर लगातार दो ड्रम पानी निकालता है तो ग्राहक के आने की राह देखने नहीं हैं. एक हजार लीटर का एक टैंक लगवाना है उसको एक प्लंबर से टोटी फिट कर दे बस. अब दिन भर दो-दो घंटे में बोर चलाकर पानी टंकी में ऐसे जमा करते है जैसे पैसे. माँ-बाप कही बाहर चले जाए तो बच्चों को बार-बार फोन करके याद दिलाते हैं कि दो घंटे हो गए है चालु करो. नौकरीपेशा आदमी भी इस उपरी कमाई के लिए घर में अपना योगदान छुट्टी लेकर दे रहा हैं. तो बच्चे अपनी कोचिंग को त्यागकर माता-पिता के सामने अपना गौरव प्राप्त करने में लगे हैं. अनपढ़ साँस की साक्षर बहुएं अपना इक्का जमाने में लगी हैं. पता चलता है इनके लिए भी सुखा किसी सुख से कम नहीं है
.
पिछले बार के इलेक्शन में हारे हुए प्रत्याशी बड़े जोरों से सत्ता आजमाइश में लगें हैं. वो इस मौके को गवाना नहीं चाहते है इसलिए किसी भी हालत में वह अपने प्रभाग में पानी पहुंचाकर ही दम लेंगे. इसके लिए कुछ बड़े आसामियों ने अपने निजी कुओं से पानी निकालकर प्रभागों में बांटने का काम शुरू किया है. जिसके पीछे यही लालसा है कि अगली बार लोग याद रखें? पानी लेने वाले लोग भी खूब आशीर्वाद दे-देकर पानी ले रहें हैं. फिर प्रत्याशी इस काम को समाचार पत्रों में भेजने के लिए तैयार हैं. 850 रूपए के टैंकर में 25-30 परिवार खुश इधर प्रत्याशी का सोशल नेटवर्किंग भी मजबूत. अब इन प्रत्याशियों की बात तो समझ में आती है किन्तु जो पहले से सत्ता में है वो भी पीछे नहीं हैं. महानगरनिगम ने प्रत्येक प्रभाग में एक टैंकर नियुक्त किया है जिसमें प्रत्येक घर में आठ दिन में एक पानी दिया जाना तय है. शुरुआत में इतनी भीड़ उमड़ने लगी जिसके चलते ज्यादातर पानी निचे बहने लगा. इस समस्या का समाधान पार्षदों ने अपने हिसाब से किया टैंकर घर-घर जाएगा और आधा ड्रम पानी देगा. पानी का बंटवारा खुद पार्षद करेगा. पार्षदों ने अपने हिसाब से पानी के बंटवारे के नियम बनाए है जिसमें यह है कि आपके पास आधार-कार्ड और वोटर आय डी होनी चाहिए. अर्थात आपके पास ऐसा कुछ होना चाहिए जिससे आपको इसी वार्ड का वोटर माना जाए. कुछ सनकी बुढो ने उनको इसी बिच याद भी दिलाया कि वोट माँगते समय ये ताम-झाम नहीं करते हो बस गिडगिडाते हो और अब हमें ही पुछ रहें हो कि पहचान दिखाओ. तब पार्षद का चेहरा देखने लायक हो जाता है. फिर भी वह सत्ता को फिर से पाने के चक्कर मे इस बार भी वोट की फसल काटना चाहता है इसलिए मनमानी कर कुछ अवैध लोगों को पानी दिलाता ही है. पानी वितरण का एक नियम यह भी है कि जिसके घर में किराएदार हैं वह अपने मालिक के हिस्से से पानी ले उनके लिए अलग से पानी नहीं देंगे. इस तरह कैचिं लगाकर वह भी पानी को बचाने की कोशिश कर रहा है. वाह रे पानी वितरण ये तो पीडीएस से आगे निकल गए. वहां तो केवल राशन कार्ड दिखाना पड़ता है यहाँ तो रोज नित-नए नियमों पर पानी मिल रहा है.


 तो यह हाल है लातूर के सूखे का लेकिन इस सूखे का असर लातूर के मध्यवर्ग पर नहीं दिखता. सब के पास खुद के बोअर हैं और जिनके बोअर बंद है वे अक्सर यह कहते हैं कि हम तो पिछले महीने से ही टैंकर से पानी मंगवा रहे हैं. यह कहते हुए उनके गर्व को महसूस किया जा सकता हैं. तो सवाल यह है कि यह सुखा किसके लिए है व्यापारियों के लिए, किसानों के लिए,मजदूरों के लिए नौकरीपेशा के लिए किसके लिए. इन सब वर्गों के बावजूद गरीब किसान, खेतिहर, मजदुर छोटे-मोटे व्यवसायी, ठेले वाले आदि इन पर इस सूखे का कम इस तीसरी फसल का असर जरुर दिख रहा है.
पानी न मिलने के कारण कुछ लोग जो बाहर से थे उन्होंने मकान खाली कर दिए. महनगरनिगम ने केवल 144 लगाकर लोगों को पानी के स्त्रोतों से दूर रखा है किन्तु उन स्त्रोतों में पानी ही नहीं हैं तो लोग वहां क्यों जाएंगे. बोअर-अधिग्रहण जैसा फैसला काफी पहले लेना चाहिए था जो अब तक नहीं लिया गया. उलट आरटीओ ऑफिस वाले निजी पानी-वाहक वाहनों को लायसंस बाँट रहे हैं. और पानी के निजी ठेकेदारों को यह हिदायत दे रहें हैं कि जिसके पास लायसंस हैं उन्ही को पानी देना. इस पुरे मामले में सरकार भी खूब मजा ले रही है. एक तरफ १४४ धारा लगने के बाद देश के सारे समाचार पत्रों में इस बात को प्रचारित किया गया कि लातूर सूखे की चपेट में हैं. दूसरी ओर उनके पास इस समस्या से निबटने के प्लान क्या है? यह सवाल जब उठाया गया तो जवाब- डेढ़ लाख लोग मायग्रेट हो जाएंगे. स्कूल और कोचिंग क्लासेस समय से पहले ही खत्म कर दिए जाएंगे. यह किसी शहर का प्लान कैसे हो सकता है जिसमें हो जाएंगे, कर दिए जाएंगे जैसे शब्द हो. यह तो भविष्यकालीन योजना है लेकिन असल में जो हो रहा है उस पर कारवाई के लिए इनके पास कोई प्लान नहीं है. जिस डेढ़ लाख लोगों की बात हो रही हैं वो तो बाहरी ही है वो तो मायग्रेट होंगे ही लेकिन जो स्थानीय आम जनता है जिनको रोज 2 रूपये प्रति घड़ा से पानी खरीदना पड रहा है उनके लिए इनके पास कोई प्लान नहीं हैं. कुछ ख़ास किस्म के व्यापारी-बुद्धिजीवीयों ने एलान किया कि शहर में १० रूपए में 20 लीटर शुद्ध पानी दिलाया जाएगा इसके लिए एटीएम नुमा मशीन लगवाई जाएगी जिसमें पैसे डालने के बाद पानी आएगा. ऐसे नवाचारों पर हँसे या रोये. पानी खरीद रहें हैं इसलिए रोये या पानी मिल रहा है इसपर हँसे. कुछ समझ नहीं पाएंगे. हालांकि यह भी तीसरी फसल निकालने का एक ख़ास तरिका है जो हर बार पूंजीपतियों द्वारा अख्तियार किया जाता है.



पिछले दो साल से लगातार शहर में मिनरल वाटर की कंपनियों की तादाद बढ़ी है. इस क्षेत्र की सबसे पुरानी कंपनी आज कल समाचारपत्रों में प्रचार कर रही है कि लातूर शहर के वासियों के लिए शुद्ध पानी केवल 40 रूपए में 20 लीटर, शुद्ध के साथ ठंडा चाहिए तो 60 रुपये में 20 लीटर. यह कींमत देश के किसी भी इलाके से ज्यादा ही होगी. शायद राजस्थान से भी. लेकिन शहर के लोग इसके आदि हो गए हैं यह बीस लीटर का जार पिछले साल ३० रुपये में था अब चालीस हो गया है. और शायद इसकी किंमत लगातार बढती ही जाएगी. जब पता है कि शहर सुखा ग्रस्त है, जिसे गैजेटियर में भी सुवर्णाक्षरों से लिखा गया हैं. तब भी सरकार पानी के बर्बादी का लायसंस कैसे बेच रही है. यह समझ से बाहर है.




शहर का प्राकृतिक रूप देखे तो भूगर्भशास्त्रियों का मानना है कि आज जो पानी शहर के लोग बोअर से निकाल रहे हैं वो पांच-दस हजार साल पहले का है. इसका मतलब है कि शहर में जल संरक्षण शुन्य के बराबर हैं. जंगल के नाम पर वैसे भी शहर का नाम दुनिया के किसी भी मरुस्थल के बराबर हो गया है. इस बार तो पानी मिलेगा 700-1000 फिट के निचे का किन्तु अगले साल कहाँ से मिलेगा पानी. इसके बारे में कोई सोचना नहीं चाहता है. बस मिल रहा है तब तक ठीक है. लेकिन इस बार सूखे ने सोचने का आखरी मौका दिया है, इस बार भी नहीं सोंचेगे तो ये मंजर मौत बनकर अगली बार दिखेगा जब कोई कानून भी इससे बचा नहीं पाएगा. जितने सुराख लातूर के जमीन पर बोअर के नाम पर पड़े है उनमें से कुछ में से पानी के अलावा कुछ और (पिछले महीने लोकमत में खबर थी कि एक बोअर से सोने जैसा पदार्थ निकल रहा है लेकिन वो सोना नहीं था अब तक पता नहीं चला है कि वह क्या हैं) ही निकल रहा है. तब भी लोगों की आँखे नहीं खुल रहीं है. 

सुनो शहरवालों अब वो दिन लद गए जब आपके पास एक मसीहा था, किसी दुसरे की बाँट जोहने से अच्छा होगा कि आप खुद ही इस काम में आगे आएं वरना वो दिन दूर नहीं जब आप आने वाली पीढ़ियों को एक मरुस्थल भेंट देंगे.
फोटो आभार: गूगल इमेज  



निलामे गजानन सूर्यकांत
निलामे गजानन सूर्यकांत 
पी-एच॰ डी॰ शोधार्थी
महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी शांति अध्ययन केंद्र,
म॰ गाँ॰ अं॰ हिं॰ विश्वविद्यालय, वर्धा।  
gajanannilame@gmail.com

Saturday, April 9, 2016

फोटो कोलाज उन मेहनत कश इंसानों का जो हमारे लिए आरामगाह बनाते हैं.

फोटो कोलाज उन मेहनत कश इंसानों का जो हमारे लिए आरामगाह बनाते हैं. और खुद टीन के डब्बों में रहते हैं. वर्धा में इस समय तामपान 50डिग्री से अधिक हो जाता है. जब लोग घरों से निकलने के बारे में भी नहीं सोचते, उस वक्त यह लोग हमारे लिए काम कर रहे होते हैं. और मजदूरी के नाम पर सिर्फ दो वक्त की रोटी ही मिलपाती है.    





















Photo:- नरेश गौतम
महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा 
nareshgautam0071@gmail.com 






















Thursday, March 24, 2016

इतिहास, राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता

प्रो. रोमिला थापर
[प्रो. रोमिला थापर द्वारा जेएनयू में 6 मार्च, 2016 को दिये गए व्याख्यान पर आधारित लेख]
प्रो. रोमिला थापर ने अपना व्याख्यान शुरू करते हुए मज़ाकिया अंदाज़ में कहा कि उन्हें लगता है कि वे और उनके कई अन्य वरिष्ठ सहकर्मी “जेएनयू के डायनासोर” हैं। गौरतलब है कि प्रो. रोमिला थापर उन लोगों में से हैं, जो जेएनयू के विकास की प्रक्रिया के न सिर्फ साक्षी रहे हैं, बल्कि जिन्होंने इस विवि के आरंभिक क्षणों से लेकर (प्रो. थापर नवंबर 1970 में जेएनयू से जुड़ीं), इसके विकसित होने की प्रक्रिया में अतुलनीय योगदान दिया है। उन्होंने बताया कि जेएनयू के आरंभिक दिनों में, उन लोगों का उद्देश्य जेएनयू को एक ऐसे विवि के रूप में परिणत करना था, जहां बेहतर अकादमिक गुणवत्ता के साथ-साथ खुली चर्चा और विमर्श का माहौल उपलब्ध हो।
विषय पर आते हुए प्रो. थापर ने कहा कि वे इतिहास और राष्ट्रवाद के संबंधों की चर्चा करेंगी और इसके जरिये वे उस प्रक्रिया की गहराई में भी जाएंगी, जिसके अंतर्गत हम अपने समाज को समझते हैं और उसमें अपनी अस्मिता को खोजते हैं। राष्ट्रवाद का इतिहास लिखने वाले इतिहासकार एरिक हाब्सबौम को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि “राष्ट्रवाद को इतिहास की तलब उतनी ही होती है, जितनी कि एक अफीमची को अफीम की” ("history is to nationalism what poppy is to an opium addict."). इस कथन की व्याख्या करते हुए प्रो. थापर ने कहा कि इतिहास राष्ट्रवाद के लिए न सिर्फ एक स्रोत होता है, बल्कि यह राष्ट्र की अस्मिता का भी निर्माण करता है।
रोमिला थापर ने कहा कि राष्ट्रवाद आधुनिक काल में ऐतिहासिक बदलावों के फलस्वरूप उपजा है, और यह आधुनिक काल से पूर्व मौजूद नहीं था। 17वीं सदी के यूरोप का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि यूरोपीय देशों में पूंजीवाद और उपनिवेशवाद के विस्तार, मध्यम वर्ग के उदय ने ‘राष्ट्रवाद’ की अवधारणा की उत्पत्ति में योगदान दिया। इसके अंतर्गत एक सेकुलर अस्मिता की भी बात की गई, जो समावेशी होने के साथ-साथ एकता को भी सुनिश्चित करती। यह समावेशी अस्मिता सामाजिक जागरूकता से उपजी थी। और इस पूरी प्रक्रिया में, “साझा इतिहास” का महत्त्व बढ़ गया क्योंकि यह लोगों को एक सूत्र में बांधता था। प्रो. थापर ने यह बात ज़ोर देकर कही कि राष्ट्र कभी एकल अस्मिता के बल पर नहीं खड़ा हो सकता, उसे समावेशी होना ही पड़ेगा।
राष्ट्रवाद की अवधारणा में आखिरकार अतीत के कुछ हिस्सों को “स्वर्ण काल” (गोल्डेन एज़) के रूप में देखने की घातक प्रवृत्ति शामिल हो गई। यह तथाकथित “स्वर्ण काल” अतीत के समाजों के भ्रामक इतिहास पर आधारित था, जबकि हम वर्तमान में जी रहे हैं। प्रो. थापर ने अपवर्जी राष्ट्रवाद (एक्सक्लूसिव नेशनलिज़्म) के रूप में, जर्मनी में 20वीं सदी के तीसरे दशक में उपजे ‘राष्ट्रवाद’ का उदाहरण दिया और समावेशी राष्ट्रवाद (इनक्लूसिव नेशनलिज़्म) के रूप में अफ़्रीकी राष्ट्रवाद का उदाहरण दिया। और यह जोड़ा कि दुनिया भर को अफ़्रीकी राष्ट्रवाद के समावेशी चरित्र को अपनाना चाहिए।
भारत में राष्ट्रवाद के उदय पर टिप्पणी करते हुए प्रो. रोमिला थापर ने कहा कि भारत में राष्ट्रवाद उपनिवेशवादविरोधी आंदोलन के दौरान पनपा। प्राक-औपनिवेशिक भारत में जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र की बहुतेरी अस्मिताएं एक-साथ अस्तित्व में थीं। धर्म के अंतर्गत भी कोई एकाश्मी (मोनोलीथिक) धर्म न होकर अनेक संप्रदाय अस्तित्व में थे। यह विविधता से भरा-पूरा समाज था, जहाँ भिन्न-भिन्न समूह अपने स्तर से संवाद कर रहे थे। पर ब्रिटिश शासन के दौरान जेम्स मिल सरीखे उपनिवेशवादी इतिहासकारों ने इस पूरी विविधता को धर्म तक सीमित कर दिया। जेम्स मिल ने 1818 में लिखी अपनी पुस्तक में काल-विभाजन के लिए शासक वंश के धर्म का इस्तेमाल किया और इस तरह पूरे भारतीय इतिहास को “हिन्दू काल”, “मुस्लिम काल” और “ब्रिटिश काल” में बाँट दिया।
काल-विभाजन की इस अवधारणा के पीछे द्विराष्ट्रवाद का वही सिद्धान्त काम कर रहा था, जिसके अंतर्गत यह माना जाता था कि ‘हिन्दू और मुस्लिम, स्थायी तौर पर एक-दूसरे के विरोधी और शत्रु हैं और उन्हें शांत रखने के लिए किसी बाह्य शक्ति जैसे ब्रिटिश साम्राज्य की जरूरत होगी’। द्विराष्ट्रवाद के इसी सिद्धान्त ने “अल्पसंख्यक” और “बहुसंख्यक” सरीखी श्रेणियाँ गढ़ दीं। इसने एकाश्मी धार्मिक अस्मिता को सुदृढ़ करने का (consolidated monolithic religious identity) काम किया। हेमचन्द्र रायचौधुरी, रमेश चंद्र मजूमदार और नीलकंठ शास्त्री सरीखे राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने एक ओर जहाँ प्राच्य निरंकुशता (Oriental Despotism) के सिद्धान्त को चुनौती दी, वहीं दूसरी ओर इन लोगों ने जेम्स मिल के काल-विभाजन को स्वीकार कर लिया। भले ही अब “हिन्दू”, “मुस्लिम” और “ब्रिटिश” काल की जगह प्राचीन, मध्यकाल और आधुनिक काल ने ले ली थी, पर इतिहास को धर्म के चश्मे से देखने की मूल अवधारणा में कोई बदलाव नहीं आया।
उपनिवेशवादी इतिहासलेखन ने भारतीय इतिहास में “आर्य नस्ल का सिद्धान्त” भी आरोपित कर दिया। प्राचीन भारत पर काम करने वाले विद्वानों का मानना है कि ‘आर्य भाषा’ मध्य एशिया से ईरान होते हुए भारत पहुँची’। पर अब भारत में कुछ लोगों द्वारा इस दृष्टिकोण का प्रचार किया जा रहा है कि आर्यभाषा भाषी भारत ही के स्थानीय निवासी थे। कुछ तो हड़प्पा सभ्यता के निवासियों को भी आर्य साबित करते हुए यह सुझाना चाहते हैं कि भारतीय सभ्यता की उत्पत्ति में कोई गैर-आर्य तत्त्व था ही नहीं! बावजूद इसके कि हड़प्पा सभ्यता की भाषा अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है और न ही हड़प्पा सभ्यता की उत्पत्ति के स्रोत ज्ञात हो सके हैं।
एक तर्क यह भी है कि आर्य मूल रूप से भारत के ही निवासी थे और भारत से ही वे दुनिया के अन्य हिस्सों में गए। इस सिद्धांत की खोज की गयी 19वीं सदी में, जब अमेरिका के थिओसोफिस्ट, कर्नल हेनरी एस ओलकाट ने इसे प्रतिपादित किया और यह सिद्धांत थियोसोफिस्टों ने अपना लिया। यद्यपि थियोसोफिस्ट कुछ समय के लिए आर्य समाज के निकट थे, पर स्वयं आर्य समाज के संस्थापक दयानन्द सरस्वती का मानना था कि आर्य तिब्बत से आए थे। लोकमान्य तिलक का कहना था कि आर्य आर्कटिक प्रदेश से आए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में आर्यों से जुड़े मुद्दे का इतना अधिक राजनीतिकरण हो चुका है कि जो विद्वान ‘आर्यों के भारत में ही उत्पन्न होने’ की अवधारणा पर सवाल उठाते हैं, उन्हें सोशल मीडिया और इंटरनेट का गुस्सा और अपमान झेलना पड़ता है। ऐसी स्थिति ऐतिहासिक विषयों से जुड़ी परिचर्चा और वाद-विवाद-संवाद की संभावना को घटा देती है।
जहां एक ओर उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रवाद सेकुलर, लोकतान्त्रिक और बराबरी के सिद्धान्त पर आधारित समाज और मुख्य अस्मिता के रूप में “भारतीयता” की वकालत करता था। वहीं दूसरी ओर, धार्मिक राष्ट्रवाद एक धर्म, संस्कृति, भाषा आदि के सबसे अलग होने को रेखांकित करता है। यह अक्सर, राजनीतिक समर्थन हासिल करने के लिए जान-बूझकर गढ़ा जाता है, जैसा हिंदुत्व के उदाहरण में हमें स्पष्ट दिखता है। ‘हिंदुइज़्म’ और हिंदुत्व दोनों एक ही चीज नहीं हैं। ‘हिंदुइज़्म’ एक धर्म है, जबकि हिंदुत्व एक आधुनिक राजनीतिक विचारधारा। हिंदुत्व एक विचारधारा है जो कुछ बातें तो ज़रूर ‘हिंदुइज़्म’ से लेती है, पर यह ‘हिंदुइज़्म’ से बहुत अलग है।
इतालवी फासीवाद से प्रेरणा प्राप्त करने वाली हिंदुत्व की अवधारणा 20वीं सदी में अस्तित्त्व में आई, और इसका उद्देश्य था - हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लिए हिंदुओं को राजनीतिक रूप से संगठित करना। धर्म पर आधारित विचारधारा के निर्माण में ज़रूरत पड़ने पर धर्म की आधारभूत बातों को भी फिर से रचा जा सकता है। यह पुनर्रचना अक्सर धर्म के अभिजात्य और पुरातनपंथी अनुयायियों को ध्यान में रखकर की जाती है। जब हम ‘हिन्दू’ होने को परिभाषित करते हैं तो सामान्यतया ऐसा उच्च जाति के लोगों के संदर्भ में ही किया जाता है। क्योंकि इस परिभाषा का आधार वे टेक्स्ट होते हैं, जो इन्हीं जाति-समूहों के हैं। हिंदुत्व एक निश्चित भू-भाग, एकल संस्कृति और नृजातीय उत्पत्ति, एक भाषा और एक धर्म की बात करता है। यह हिंदुओं की साझी ‘पुण्यभूमि, पितृभूमि’ की भी बात करता है और अन्य सभी धर्मावलंबियों को विदेशी बतलाता है। हिंदुत्व अपने धार्मिक पक्ष में, सामी (सेमिटिक) धर्मों की रूपरेखा का ही अनुसरण करता है, मसलन, ‘ऐतिहासिकता’ पर ज़ोर और एकाश्मी (मोनोलिथिक) धर्म, एक पवित्र ग्रंथ, चर्च जैसे धार्मिक संगठन।
चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, ईसाई या सिख, इस तथ्य की तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता कि बहुतेरे धर्मावलंबी ऐसे होते हैं जो अपने धार्मिक ग्रंथों से थोड़ा ही परिचय रखते हैं। उनके लिए धर्म एक अलग ही मसला होता है। असल व्यवहार में, ये लोग अपना खुद का धर्म/पंथ निर्मित कर लेते हैं, अपने चुने हुए तरीके से अपने देवताओं, गुरुओं, पीरों या बाबाओं की पूजा करते हैं, प्रो. रोमिला थापर ने इन धर्मों को मुख्य धर्म से अलग करते हुए इन्हें “गुरू-पीर धर्म” की संज्ञा दी। धर्म के इतिहासकारों को इसका मूल्यांकन करना चाहिए कि आखिर लोगों के धर्म और उनके विश्वास किस हद तक धार्मिक टेक्स्ट पर या व्यवहारों पर निर्भर या उनतक सीमित होते हैं।
भारतीय इतिहास में धर्म की अवधारणा को पारिभाषित करने वाली दो प्रमुख धाराएँ थीं: ब्राह्मणवादी और श्रमण परंपरा। यह द्वैधता ईसा की पहली सहस्राब्दी में भी कायम रही। वैयाकरण पातंजलि ने इनके बीच के संबंधों की तुलना साँप और नेवले से की थी, यानि इन दोनों के संबंध संघर्षमय थे। हम भारत में धर्मों के इतिहास के बारे में समझने की कोशिश करें और जानना चाहें कि कैसे धर्मों ने समाजों को प्रभावित किया तो हमें उन पंथों के बारे में जानना होगा, जो इन धर्मों से उत्पन्न हुए, और साथ ही, इन पंथों के परस्पर जटिल संबंधों का अध्ययन करना होगा, जिसमें अक्सर इन पंथों के विश्वासों और व्यवहार की पूरी फेहरिस्त शामिल होगी। धर्मों और उनसे निकले पंथों/संप्रदायों का अध्ययन करते हुए हमें उनके बीच होने वाली प्रतिस्पर्धा और आदान-प्रदान को भी समझना होगा। ये पंथ अक्सर किसी-न-किसी जाति से जुड़े होते थे, अतः इस संबंध का भी अध्ययन करना होगा।
अंत में, प्रो रोमिला थापर ने ज़ोर देते हुए कहा कि राष्ट्रवाद को विश्वसनीय इतिहास पर निर्भर होना होगा न कि किसी व्यक्ति या खास विचारधारा के लोगों की अतीत से जुड़ी फंतासियों पर। ज्ञान का विस्तार हो इसके लिए यह जरूरी है कि आलोचनात्मक सवाल उठाए जाएँ, इसलिए विवि परिसर स्वस्थ बहस और वाद-विवाद-संवाद का केंद्र होना चाहिए। राष्ट्र को सभी नागरिकों के समान अधिकारों और उनके बीच बराबरी को सुनिश्चित करना होगा, तभी हम सच्चे अर्थों में अपने देश को सेकुलर लोकतन्त्र बना सकेंगे।

(प्रस्तुति एवं अनुवाद- शुभनीत कौशिक)

मैं हिजड़ा... मैं लक्ष्मी


डिसेंट कुमार साहू
उत्पीड़ित समूहों द्वारा लिखी जाने वाली आत्मकथाओं ने हाल के समय में ब्राम्हणवादी-पितृसत्तात्मक समाज के वर्चस्वकारी मूल्यों को उद्घाटित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इन आत्मकथाओं ने दमन, शोषण तथा वर्चस्व के अमानवीय पहलुओं को सामने रखा। आत्मकथा लेखक के जीवनानुभव होते हैं. जिसके माध्यम से वह अपनी जीवन, सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य तथा महत्वपूर्ण घटनाओं को रेखांकित करते हैं। इसी क्रम में यह आत्मकथा पितृसत्तात्मक दमन का शिकार हिजड़ा समूह के लक्ष्मी का है। जिस समूह को स्वयं के 'मैं' के पहचान में वर्षों लग जातेहैं, इस 'मैं' के प्रकट होने पर समाज बदले में सिर्फ अपमान, घृणा, तिरस्कार तथा कलंकित जीवन प्रदान करता है। उस 'मैं' का प्रकटीकरण हमारे सामने आत्मकथा के रूप में है। इस आत्मकथा के माध्यम से लक्ष्मी, हिजड़ा पहचान के साथ ही एक मानव होने तथा मानवीय क्षमताओं को बिना किसी भेद-भाव के स्वीकार करने का आग्रह करती है। हमारे समाज व्यवस्था में मुख्य रूप से द्विलिंगीय समाज है। जहां सिर्फ स्त्री-पुरुष को ही मान्यता प्राप्त है तथा इनके बीच होने वाले उत्पादक यौन संबंध ही कानूनी रूप से वैध हैं। नारीवादी विमर्श से पहले तक 'शिश्न' आधारित पहचान की बात की जाती थी अर्थात, 'मैं' का केंद्र 'शिश्न' रहा। इसलिए माना जाता रहा हैं कि बालिका 'शिश्न अभाव' के कारण अपने को बालकों की तुलना में हिन मानती है, इस तरह वह पुरुष सत्ता को स्वीकार कर लेती है। हालांकि फ्रायड के इन विचारों का व्यापक रूप से विरोध हुआ।

नवफ्रायडवादियों में कैरेन हर्नी फ्रायड के विचारों की आलोचना करती हैं। उनका कहना है कि प्रत्येक लिंग(सेक्स) के व्यक्ति समान होते हैं, जरूरत उन्हें प्रोत्साहित करने की होती है। स्त्री-पुरुष के अलावा हमारे समाज में तीसरे लिंग के लोगों का भी अस्तित्व है.जिन्हें हिजड़ा, किन्नर तथा स्थानीय भाषाओं में विभिन्न नामों से जाना जाता है। थर्ड जेंडर लोगों का उल्लेख पौराणिक मिथकीय ग्रन्थों से लेकर कामसूत्र तथा बौद्ध साहित्य में भी मिलता है। इसके बाद भी यह समूह समाज से बहिष्कृत होकर अमानवीय परिस्थितियों में जीवन गुजारने के लिए अभिशप्त है। लक्ष्मी की आत्मकथा इस देश में रहने वाले लाखों थर्ड जेंडर की दिन-प्रतिदिन के अनुभवों का प्रतिनिधित्व करती है। अपनी आत्मकथा के माध्यम से थर्ड जेंडर समूह के व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक तथा संस्थानिक जीवनानुभव को साझा करने का प्रयास किया है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी एक समूह ऐसा है जो अपने इंसानी पहचान तथा मूलभूत मानवाधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है। अप्रैल 2014 में थर्ड जेंडर के रूप में कानूनी मान्यता मिलने के बाद भी आज तक अधिकतर सरकारी तथा गैर-सरकारी आवेदन पत्रों में दो ही जेंडर का उल्लेख मिलता है। क्या इस व्यवस्था में आज भी इस तरह की भिन्नता रखने वाले लोगों के लिए कोई जगह नहीं है?

हमारे समाज में हिजड़ा समूह को लेकर सच्चाई कम और भ्रांतियाँ ज्यादा फैलाई गई हैं। शारीरिक-मानसिक संरचना से लेकर उनके सामाजिक संरचना के बारे में बहुत ही कम लोगों को पता है। यह पुस्तक लगभग उन सभी प्रश्नों का उत्तर देते हुए थर्ड जेंडर के लिए इस समाज में मानवीय गरिमा की मांग करता है। नारीवादी विमर्श ने पितृसत्ता का आधार स्त्री की प्रजनन क्षमता पर नियंत्रण को माना। यही कारण है कि समाज में विवाहित स्त्री-पुरुष (स्वजाति, स्वधर्म में) जो प्रजनन कर सकें, ऐसे जोड़े पितृसत्तात्मक व्यवस्था के केंद्र में होते हैं। जबकि इस व्यवस्था को चुनौती देने वाले लोगों को हाशिये पर ढाकेल दिया जाता है। इस दृष्टिकोण से विचार करें तो तीसरे लिंग के व्यक्ति, जेंडर आइडेंटिटी तथा सेक्सुयलिटी दोनों ही स्तर पर पितृसत्ता के सामने चुनौती पेश करती हैं। यह पुस्तक एक खास तरह के नजरिए के साथ पढ़े जाने की मांग करती है. कि अगर थर्ड जेंडर के लोगों को पारिवारिक तथा सामाजिक सहयोग प्राप्त हो तो वे लोग भी स्त्री-पुरुष के साथ कंधा मिलाकर चल सकते हैं।

इस पुस्तक को पढ़ते हुए जेंडर तथा सेक्स का विभेद भी स्पष्ट होता है। जन्म के बाद जैविक सेक्स के साथ जेंडर भी निर्धारित कर दिया जाता है. लेकिन थर्ड जेंडर बच्चे समाज द्वारा निर्धारित जेंडर को स्वीकार्य नहीं करते हैं। 'उचित व्यवहार' के साँचे में ढालने के लिए समाज में गाली समझे जाने वाले शब्दों (हिजड़ा, छक्का, मामू, गांडु, नामर्द, मऊगा आदि) से चिढ़ाया जाता है, कई बार परिवार के लोगों द्वारा हिंसात्मक व्यवहार भी किया जाता है। थर्ड जेंडर होने वाले बच्चे को अधिकांशतः 13-14वर्ष की उम्र में अपने अलग होने का एहसास हो जाता है। लेकिन उनके लिए यह एक असमंजस की स्थिति होती है। "मैं अन्य लड़के/लड़कियों से अलग हूँ, इसका एहसास होने पर मन में बेचैनी होने लगती है.वह चिंतित होने लगते हैं,उन्हें खुद पर गुस्सा आने लगता है। वह लड़का इस एहसास को दबाकर पुरुषों जैसा बर्ताव करने की कोशिश करता है। लेकिन किशोरावस्था में अपने इस अंतर का एहसास उसे प्रखरता से होता है। उसे लड़कियों-जैसा जीने में खुशी मिलती है और लड़कों-जैसा व्यवहार करने में मुश्किल लगने लगता है।" इसी तरह का अनुभव कोलकाता की थर्ड जेंडर सामाजिक कार्यकर्ता राजर्षि चक्रवर्ती भी लिखती हैं- "चौदह साल की उम्र में मैं हस्तमैथुन करने लगा। मुझे लगा कि कोई बीमारी हो गई है। उसे बंद करने के ख्याल दिमाग में कौंधने लगे। मैं लिंग के ऊपर के बालों को साफ किया करता था। मैं पवित्र बनना चाहता था।" वास्तव में थर्ड जेंडरव्यक्ति बहुसंख्यक समाज (स्त्री-पुरुष की द्विलिंगी समाज) में अपने व्यवहार को घृणित तथा असामान्य मानने लगते हैं तथा इसे समाज में प्रचलित मानकों के अनुरूप ढालने का प्रयत्न भी करते हैं।

लक्ष्मी थर्ड जेंडर होने के साथ एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं. उन्होंने जीवन के वे तमाम पहलूओं कोइस पुस्तक के माध्यम से सामने रखने की कोशिश की है, जो सभ्य कहें जाने वाले समाज में सामाजिक बदनामी के डर से छिपा दिऐजाते हैं । उनकी कोशिश है कि समाज थर्ड जेंडर लोगों को जाने, उनसे बात करें, उनके साथ किसी परग्रही (एलियन) की तरह व्यवहार न किया जाए, इस तरह वह पब्लिक स्पेस में थर्ड जेंडर लोगों की उपस्थिती चाहती हैं। एक थर्ड जेंडर के सामने अपनी पहचान स्थापित करने से पहले खुद भी उस पहचान को स्वीकार करने की चुनौती होती है। इस तरह पहचान का संघर्ष पहले व्यक्तिगत फिर पारिवारिक और बाद में सामाजिक होता है। किसी भी थर्ड जेंडर के लिए अपने जेंडर की पहचान (आइडेंटिटी) निर्धारित करना सबसे बड़ी चुनौती होती है। क्योंकि आस-पास स्वयं (थर्ड जेंडर) जो महसूस कर रहा है. ऐसे लोग दिखायी नहीं देते. ऐसे में खुद को कई बार असामान्य भी मान लिया जाता है। यही कारण है कि जब लक्ष्मी अपने जैसे अन्य लोगों से मिलती है तो उसे बहुत अच्छा लगता है। लक्ष्मी के परिवार वालों ने थोड़ी-बहुत समस्याओं के बाद उसकी पहचान को स्वीकार कर लिया। लक्ष्मी के पापा कहते हैं- "अपने ही बेटे को मैं घर से बाहर क्यों निकालु? मैं बाप हूँ उसका, मुझ पर ज़िम्मेदारी है उसकी। और ऐसा किसी के भी घर में हो सकता है। ऐसे लड़कों को घर से बाहर निकालकर क्या मिलेगा? उनके सामने हम भीख मांगने के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं छोड़ते हैं।" अधिकांश थर्ड जेंडर बच्चों के सामने आजीविका का ही प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण होता है। परिवार तथा समाज में किए जा रहे भेदभावपूर्ण व्यवहार के कारण ऐसे बच्चे अपने पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते। लक्ष्मी इसे थर्ड जेंडर समूह के पिछड़ेपन का मुख्य कारण मानती हैं। वह कहती हैं कि "मुझे प्रोग्रेसिव हिजड़ा होना है...और सिर्फ मैं ही नहीं अपनी पूरी कम्यूनिटी को मुझे प्रोग्रेसिव बनाना है..."

लक्ष्मी, हिजड़ा पहचान स्वीकार करते हुए, गुरु-चेला परंपरा में रहते के बाद भी उन नियमों तो चुनौती देती है जो उसके सम्पूर्ण विकास में बाधा के रूप में सामने आती हैं। ऐसे कई वाकये हैं जब लक्ष्मी अपने समुदाय के हितों के लिए कदम उठाती है। ऐसी ही एक घटना है जब एचआईवी एड्स की स्थिति को लेकर मीटिंग में शामिल होने के लिए लक्ष्मी को बुलाया जाता है तो उनकी गुरु कहती है-"क्यों जाना चाहिए वहाँ...क्या जरूरत है इतना सामने आने की? हम भले, हमारा समाज भला और अपना काम भला। लेकिन मुझे (लक्ष्मी) ऐसा नहीं लगता था। बाकी समाज में हम जितना घुल-मिल जाएंगे, समाज हमें और भी उतना जानने लगेगा, ऐसा मुझे लगता था।" इस पुस्तक में गुरु-चेला परंपरा का विस्तृत वर्णन पढ़ने को मिलता है। वास्तव में परिवार से निकाले गए थर्ड जेंडर बालक के लिए गुरु-चेला संबंधों का जाल सुरक्षा, अपनेपन तथा आजीविका के दृष्टि से एकमात्र स्थान होता है। हिजड़ा समूह स्वीकार कर लेने के बाद परिवार वालों तथा पिछली ज़िंदगी से संबंध समाप्त करताहै। समूह के नियमानुसार बधाई मांगना या नाचना ही उनकी जीविका का साधन होता है, लेकिन लक्ष्मी अपने परिवार वालो के साथ संबंध रखते हुए सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम करती है। इस तरह उसकी लड़ाई समाज तथा अपने ही समूह के नियमों के विरुद्ध दोनों ही स्तर पर जारी रहती है। थर्ड जेंडर सामाजिक कार्यकर्ता होने के कारण लक्ष्मी की आत्मकथा से तत्कालीन हिजड़ा समाज की स्थिति, उनके प्रति तथाकथित मुख्यधारा के समाज का नजरिया तथा हिजड़ा समुदाय की स्थिति में परिवर्तन के लिए किए जा रहे कार्यों का पता चलता है। ये कार्य व्यक्तिगत तथा पारिवारिक स्तर पर काउन्सलिन्ग, संस्थानिक स्तर पर स्वास्थ्य, शिक्षा, पुलिस प्रशासन के लोगों के साथ बातचीत आदि शामिल है। नीति निर्माण के लिए भी संवैधानिक स्तर पर हस्तक्षेप किया जाना भी आवश्यक है।

बहुत सारे पहलू ऐसे होते हैं जिनसे प्रत्येक थर्ड जेंडर को गुजरना पड़ता है, लक्ष्मी उन पहलुओं को पाठक के सामने रखती है। "पहले पुरुषों के शरीर के अंदर की औरत के मन का दम घुटना... बाद में हिजड़ा होने पर परिवार का सहारा छुटना... करीबी कोई नहीं था... समाज द्वारा किया हुआ क्रूर व्यवहार, उसकी वजह से होने वाली तकलीफ... उत्पादन का साधन नहीं... कोई नौकरी नहीं देता था... पर जीने के लिए पैसा तो चाहिए था... फिर उसके लिए किया गया सेक्स वर्क... मन में हमेशा डर... तनाव... हमेशा उपस्थित होने वाला सवाल... 'मैं कौन हूँ?'... उसके जवाब तो मिलते ही नहीं थे, उल्टा आनेवाले नाना तरह के अनुभवों से मन की उलझनें बढ़ती जाती थी। उससे आने वाला नैराश्य, संभ्रम... ज़िंदगी की कोई कीमत ही नहीं... ना परिवार में, ना समाज में... और फिर खुद की ही नजरों से खुद गिर जाना... साला क्या लाइफ है?" वास्तव में ये विवरण प्रत्येक थर्ड जेंडर व्यक्ति के जीवन की कहानी है, शायद ही कोई ऐसाथर्ड जेंडर हो जो इस तरह के अनुभव से न गुजरा हो।
हिजड़ा समूह तथा उनके जीवन संघर्षों के बारे में बहुत शुरुआती लेखन होने के बाद भी लगभग सभी पक्षों को इसमें शामिल करने की कोशिश की गई है। बिना किसी औपचारिक अध्यायीकरण के यह आत्मकथा पाठकों के सामने 176 पृष्ठों में है। यह आत्मकथा मराठी में लिखी गई आत्मकथा का हिन्दी अनुवाद है इसलिए वाक्य संरचना के स्तर पर मराठी वाक्य संरचना का प्रभाव दिखायी देता है। आत्मकथा की शुरुआत लक्ष्मी के बचपन से होती है और उम्र के अलग-अलग पड़ाओं को रेखांकित करते हुए आगे बढ़ती है। इसके बावजूद घटनाओं में क्रमबद्धता नहीं है, घटनाओं को सुविधानुसार लिया गया है। इससे पहले भी हिन्दी में कुछ उपन्यास हिजड़ा समुदाय तथा उनकी ज़िंदगी के बारे में लिखेगएहैं लेकिन यह आत्मकथा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि स्वयं उस समूह के व्यक्ति के द्वारा लिखा गया है। जो इस दंभ को झेल रहा है. हिन्दी के पाठकों के लिए बहुत सारी ऐसी बातें हैं जो नयी होंगी, लेकिन वह इस बात को समझने की कोशिश करेंगे कि हिजड़ा व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक संरचना किस तरह की होती है।

लक्ष्मीनारायण  त्रिपाठी की आत्मकथा हिन्दी में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है .

लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के समाजकार्य विभाग में शोधार्थी हैं . संपर्क : dksahu171@gmail.com