Saturday, January 31, 2015

हमारे गाँव में हम ही सरकार


                                                                 
           - नरेश गौतम  
यह नारा दिया है मेंढ़ा-लेखा गाँव के आदिवासियों ने। इतना ही नहीं उस नारे को उन्होंने फलीभूत भी कर दिखाया है। सारी योजनाएं ग्रामसभा में बनायी जाती हैं और सबंधित सरकारी एजेंसी से सहयोग के लिए संपर्क करते हैं। सहयोग मिला तो ठीक अन्यथा उनके द्वारा बनाये गये ग्राम-सभा कोष में जमा राशि का उपयोग ग्राम-सभा के जरिये ही किया जाता है।   
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले से लगभग 30 किलोमीटर दूर बसा है आदिवासियों का यह गाँव है। यह वन पर सामुदायिक अधिकार हासिल करने वाला देश का पहला गाँव है। आज 100 परिवार वाले इस गाँव की प्रति वर्ष आमदनी लगभग एक करोड़ रुपये है। यह आय सामुदायिक वन अधिकार कानून-2006 से प्राप्त लगभग 1900 हेक्टेयर वन से प्राप्त हो रही है। वर्ष 2013-14 में इन्होंने दस लाख रूपिये से ज्यादा आयकर का भुगतान किया है। पूर्व में इतनी राशि इस वन से काटे गये वनोत्पाद की पूरी बिक्री से भी प्राप्त नहीं होती थी। साधारण से दीखने वाले इस गाँव में वैसी ही बस्तियाँ और आमतौर पर दिखने वाले वैसे ही घर, घर के बाहर घूम रही मुर्गियाँ, चूजे, सुअर और उनके छोटे-छोटे बच्चे, गलियों में जगह-जगह फैला गोबर! दिन भर सूनी रहने वाली ये गलियाँ और शांत माहौल देखकर लगता ही नहीं कि यहाँ कुछ ऐसा है जो इसे विशिष्ट बनाता हो, सिवाय गाँव के बीचो-बीच बनी ग्रामसभा भवन पर लगे उस बड़े से बोर्ड के, जिसपर लिखा है, ‘दिल्ली, मुंबई में हमारी सरकार- हमारे गाँव में हम ही सरकार! तीन भाषाओं गोंडी, मराठी और हिन्दी में लिखा यह नारा ही वह प्रतीक है जिससे हम इस गाँव की उस ताकत से रूबरू होते हैं, जो इसे दूसरे गांवों से अलग पहचान देती है। इस बोर्ड के बगल में ही एक और बोर्ड लगा है जिस पर लिखा है–माहितीचा अधिकार अधिनियम 2005 और नीचे इस गाँव को इस मुकाम तक पहुंचाने वाले देवाजी तोफा का नाम दर्ज है। आज देश-विदेश में यह एक मॉडल गाँव के रूप में जाना जाता है. लेकिन आदर्श गाँव बनने की यह यात्रा कोई एक दिन की बात नहीं रही, इसके पीछे एक लंबे और अनथक संघर्ष की दास्तां है और खुद को साबित कर दिखाने का हुनर भी।
यूं तो जल, जंगल और जमीन पर अपने हक के लिए आदिवासियों की लड़ाई कोई नई बात नहीं है, यह तभी से जारी है जब वन अधिनियम (1864) के जरिए पहली बार अंग्रेजों ने जंगल पर उनके अधिकारों को चुनौती दी थी। वन अधिनियम 1878 के अंतर्गत वनों को आरक्षित वन और ग्राम के तौर पर वर्गीकृत कर दिया गया। कमोबेश स्थितियाँ यहाँ तक ठीक थीं लेकिन भारतीय वन अधिनियम 1927 के अंतर्गत आदिवासियों को उनके संपूर्ण अधिकारों से बेदखल कर दिया गया। इसके लागू होने के बाद आदिवासियों की समस्याएं बढ़ती ही चली गई। जिसके खिलाफ देश भर में अपने अधिकारों के लिए आदिवासियों के धारावाहिक संघर्ष प्रारंभ हुए जो कमोबेश आज भी जारी हैं। मेंढ़ा गाँव के आदिवासी भी इन्हीं में से एक हैं। देश की आज़ादी और नए संविधान तले नई शासन-व्यवस्था के बावजूद आदिवासियों के लिए बहुत कुछ नहीं बदला क्योंकि आदिवासी समाज के प्रति सत्ता के नजरिए और उनकी नीतियों में कोई फेरबदल नहीं आया था। आजादी के बाद एक और अधिनियम वन संरक्षण अधिनियम, 1980 आया जिसके तहत सभी वनों का नियंत्रण केंद्र सरकार और उसके साथ ही संबंधित राज्य सरकारों के हाथों में चला गया। इस अधिनियम को लागू करने का उद्देश्य जंगलों से होने वाली आय का पूरा अधिकार हासिल करना और आदिवसियों को जंगलों से बाहर निकालना था। तर्क दिया गया कि जंगलों में रहने वाले आदिवासी बेहद पिछड़े हुए हैं और उनका विकास सिर्फ तभी संभव है जब उन्हें जंगलों से बाहर निकाल कर शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अन्य आधुनिक सुख-सुविधाओं से जोड़ा जाए। यह तर्क एक तरफ तो मुख्यधारा की सत्ता-संरचना के श्रेष्ठता बोध से निकला था। लेकिन दूसरी तरफ इसके अपने निहितार्थ भी थे जो जंगलों पर कब्जा जमाते हुए उसका अंधाधुंध दोहन कर राजस्व के रूप में अधिकाधिक मुनाफा अर्जित करना था। सभ्यता-विमर्श की मशाल थामे विकास के नाम पर बनायी गई सड़कें इन निहितार्थों की असली वाहक थीं जो उदारीकरण की आहट के साथ अचानक ही बड़ी तेज़ी से इन इलाकों तक पहुँचने लगी। 1980 में बना वन संरक्षण अधिनियम भी इसी आहट की पदचाप थी जो मेंढ़ा गाँव की इस ऐतिहासिक यात्रा की शुरुआत की वजह बन गया।
सफ़र की शुरुआत :
1984 में चंद्रपुर-गढ़चिरौली में जंगल बचाव-मानव बचाव आंदोलन शुरू हुआ। उसका मुख्य कारण यह था कि आंध्रप्रदेश में गोदावरी नदी पर इंचमपल्ली में तथा पास के बस्तर जिले में इंद्रावती नदी पर भोपालपट्टनम् में बांध बनाने की योजना थी। इस क्षेत्र में वैनगंगा और इंद्रावती ये मुख्य नदियां हैं। इंद्रावती महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ के बीच की सीमारेखा है, तो वैनगंगा चंद्रपुर और गढ़चिरौली जिलों के बीच की सीमारेखा है। दोनों प्रकल्प महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश की सीमा पर थे; फिर भी गढ़चिरौली जिले का काफी जंगल और आदिवासी क्षेत्र इससे डूबने वाला था। आसपास के आदिवासी गांवों का इस संभावित खतरे को भांपते हुए आंदोलित होना स्वाभाविक था। इस आंदोलन का नेतृत्व लालश्यामशाह महाराज ने किया।
लालश्यामशाह महाराज एक अनोखे नेता थे। वे एक गोंड जमींदार थे और पुराने मध्यप्रांत में गोंड समुदाय की 84 जमींदारियां थीं। ब्रिटिश राज में भू-राजस्व की वसूली कर उसे सरकार को सौंपना इन जमींदारों की जिम्मेवारी थी। लालश्यामशाह महाराज की जमींदारी राजनांदगांव जिले के पानाबारस गांव में थी। जमींदार होने के बावजूद उनका रहन-सहन और बर्ताव आम किसान-जैसा ही था। वे समाजवादी विचारों के थे। 1972 में चंद्रपुर लोकसभा क्षेत्र से निर्दलीय सांसद के तौर पर वे निर्वाचित भी हुए लेकिन 1971 में बांग्लादेश युद्ध के बाद शरणार्थियों को सरकार द्वारा बस्तर में बसाए जाने के विरोध में संसद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद उनका सारा जीवन जन-जागरण के लिए समर्पित रहा। वे गांव-गांव घूमते। किसी के घर में नहीं, बल्कि पेड़ के नीचे ठहरते। उनका व्यक्तित्व अत्यंत ही प्रभावशाली था। आदिवासी-विकास के बारे में उनके अपने विचार थे। बांध-विरोधी आंदोलन व्यापक विकास का आंदोलन हो, यह उनका प्रयास रहा। इसीलिए आंदोलन को जंगल बचाव-मानव बचावनाम दिया गया। आंदोलन इतना जबर्दस्त था और लोगों का असंतोष इतना गहरा था कि सरकार को बाध्य होकर बांध का निर्माण रोकना पड़ा। साथ ही इस आंदोलन के प्रभाव से कारवाफा और तुलतुली जैसे दो बड़े प्रस्तावित बांध भी ठंढे बस्ते में चला गया। लेकिन आंदोलन की असली सफलता थी आदिवासियों में इस निमित्त पैदा हुई जागृति। इस जागृति से सामने आए लोगों में से ही एक थे -चंद्रपुर के युवा कार्यकर्ता मोहन हिराबाई हिरालाल। वे जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1974 आंदोलन में काम करने वाले विद्यार्थी तथा युवाओं के संगठन छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी में शामिल थे। संघर्ष वाहिनी का केंद्र उन्होंने चंद्रपुर में शुरू किया। 1978 से चंद्रपुर में काम कर रही महाराष्ट्र जबरान जोत आंदोलन कृषि समितिमें भी वे सक्रिय थे। 1979 से 1986 के बीच उन्होंने क्षेत्र में एक अनूठी प्रक्रिया चलाई, जिसका नाम था अपना रास्ता हम खुद ही खोजें। इस प्रक्रिया का आरंभ होता था आदमी खोजने और उनसे संवाद करने से। उन्होंने अपने मित्रों के साथ 1984 में वृक्षमित्रनामक संस्था की भी स्थापना की। जिसका उद्देश्य जंगल तथा मानव के बीच के संबंधों की खोज और उन संबंधों को मानव-विकास तथा पर्यावरण-संवर्द्धन के लिए पोषक बनाना था। इस उद्देश्य के तहत 1987-88 में गढ़चिरौली जिले की धानोरा तहसील के 22 गांवों में वन तथा लोगों की उपजीविकाविषय का अध्ययन किया गया। इस अध्ययन के दौरान ही ऐसे गाँवों को खोजने की कोशिश हुई जो सर्वसहमति से अपने निर्णय लेते हों। मेंढ़ा-लेखा ऐसा ही गाँव था। इस गाँव के देवाजी से जंगल बचाव-मानव बचावआंदोलन के दौरान एक पदयात्रा में हुई मुलाक़ात ने इस नए सफर की शुरुआत की।
गढ़चिरौली से राजनांदगांव (छत्तीसगढ़) की तरफ जो रास्ता जाता है उस पर गढ़चिरौली से तीस किलोमीटर दूर मेंढा गांव रास्ते से सटा हुआ है। इसी रास्ते पर आगे तीन किलोमीटर दूर तहसील धानोरा है। मेंढा के पड़ोस में लेखा गांव है। इस तहसील में मेंढा नाम के दो-चार गांव हैं; इसलिए इस मेंढा को लेखा-मेंढा, अर्थात लेखा के पास का मेंढा कहा जाता है। ग्रामपंचायत लेखा के नाम से जाना जाता है। उसमें लेखा, मेंढा और कन्हाल टोला- ये तीन गांव हैं।
मेंढा करीब सवा सौ-डेढ़ सौ सालों से आबाद होगा। यहां के लोग बताते हैं कि पूरब की ओर बस्तर तहसील का पुसागंडी उनका मूल गांव है। वहां से सात भाइयों का एक परिवार इस क्षेत्र में आया। सभी मेंढा में ही नहीं बसे, कुछ लोग इधर-उधर भी गए। मेंढा के पुलिस पटेल रहे बिरजू जोगी तोफा का परिवार सबसे पहले यहां बसा। बिरजू गांव के मुख्य पुजारी भी हैं। उम्र 70 से ज्यादा ही होगी। उनके चार पीढ़ी पूर्व के पूर्वज पहले पहल यहां आए थे। फिर दूसरे लोग आए। ये लोग माड़िया गोंड कहलाते हैं- यानि पहाड़ पर रहने वाले गोंड। गोंडी भाषा में माड़ यानी पहाड़। देवाजी बताते हैं कि उनके पुरखे अबूझमाड़ में रहते थे, जो महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की सीमा पर है। वहां से उठकर ये लोग पश्चिम की ओर आए। ये सब लोग पहले पहाड़ों पर रहते थे, लेकिन जैसे-जैसे बस्ती बढ़ी, घुमंतू खेती से गुजर-बसर करना कठिन हो गया। इसलिए वे नीचे मैदानी इलाके में नदी-नालों के किनारे खेती करने आए। हालांकि खेती की जमीन यहाँ नीचे भी ज्यादा नहीं है, फिर भी हर परिवार के पास अपनी जमीन है, कोई भूमिहीन नहीं। खेती की मुख्य उपज है धान। यहाँ मुख्यतः लुचाई किस्म बोई जाती है, यद्यपि लुचाई में भी कई किस्में हैं। इसमें लाल लुचाई और सफेद लुचाई (मजबी) मुख्य हैं। इसके अलावा भारी लुचाई, काकेरी, पिटे हिड्स्क, तोया, हलका सप्री, और पोहा बनाने के लिए उपयुक्त मानी जाने वाली भारी सप्री, जैसी किस्में भी बोई जाती हैं। इन दिनों ज्यादातर लोग 1010 या सोनम किस्में ही बो रहे हैं क्योंकि ये उपज ज्यादा देती हैं। औसत उपज प्रति एकड़ तीन से चार क्विंटल रहती है। धान के अलावा ये लोग तूर, मूंग, अरहर, खेसारी जैसी दालों का तथा अलसी जैसे तिलहन का उत्पादन भी कर लेते हैं। कुछ लोग सर्दी में चना भी उपजाते हैं। खेती की उपज मुख्यतः घर में खाने के लिए ही काम आती है।
      धान की खेती पूरी तरह बारिश पर निर्भर है। सिंचाई सुविधा न होने से फसल एक बार ही ली जाती है। लेकिन मेंढा गांव से सटकर बहने वाली कठाणी नदी के किनारे लोग सब्जियां पैदा करते हैं। इसे मरियाणकहते हैं। धान की खेती और मरियाण के साथ यहाँ के लोग मजदूरी भी करते हैं। मेंढा गांव की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है -1890 हेक्टेयर का बड़ा जंगल, जिसे उन्होंने बड़ी जतन से संभाल रखा है। इतने बड़े जंगल में स्वाभाविक रूप से ढेरों किस्म के पेड़-पौधे, लताएं और घास हैं जिनकी सूची यकीनन काफी लंबी होगी। मेंढा गांव ने जैव-विविधता कानून-2002 के तहत अपना जैव-विविधता रजिस्टरभी बनाया है, जिसमें इन सब को दर्ज किया गया है- बांस, सागौन, महुआ, तेंदू, आंवला, हरड़ा, बेहड़ा, अर्जुन, ऐन, धावडा, खैर, चिरौंजी, सीवन, मोवई, चिलाटी आदि।
      निश्चित तौर पर जंगल इनकी उपजीविका का एक प्रमुख साधन बन गया है। इससे एक तरफ जहां इन्हें वनोपज मिलती है, वहीं दूसरी तरफ जंगल में होने वाले कामों के जरिए मजदूरी भी मिलती है। वनोपज में सबसे प्रमुख बांस है। इसके बाद महुआ, तेंदू, चिरौंजी, गोंद, शहद, आंवला, हरड़ा, बेहड़ा, पापड़ी, करंज, मशरूम, इमली, लाख, बिवला आदि भी हैं। महुआ, तेंदू, पाहूर आदि ऐसे पेड़ हैं जिनके फल-फूल एवं पत्ते, सबका कुछ न कुछ उपयोग होता है। इनमें ज्यादातर वस्तुओं का व्यापारिक मूल्य भी है। यह बात सिर्फ मेंढा में ही नहीं लगभग सभी जंगलों में पाई जाती है।
    आदिवासी हमेशा से ही जंगलों से अपने जरूरतें पूरी करते रहे हैं। चूंकि यहाँ मुख्य वनोपज बांस है, इसलिए यहाँ के लोग भी अपनी ज़रूरत का बांस शुरू से ही यहाँ से लेते रहे हैं। सरकार के वन अधिनियमों ने जंगलों पर आदिवासियों के इस हक़ को कानूनी तौर पर खत्म कर दिया था लेकिन जब तक इन कानूनों को कड़ाई से लागू नहीं किया गया तब तक कोई बहुत दिक्कत नहीं आई। दिक्कत तब आई जब ये जंगल कभी खनन के लिए तो कभी किसी कारखाने के कच्चे माल के लिए निजी कंपनियों को दे दिये गए और इन तक आदिवासियों की पहुँच वर्जित हो गई। ऐसे ही बांस से भरा-पूरा मेंढा गाँव का जंगल भी एक निजी कंपनी बल्लारपुर पेपर मिल को दीर्घकाल के लिए लीज पर दे दिया गया था। न केवल मेंढा बल्कि चंद्रपुर और गढ़चिरौली जिले के जंगल का सारा बांस सरकार ने इसी बल्लारपुर पेपर मिल को बेच दिया था। यह मिल 1950 के दशक में चंद्रपुर में आस-पास बांस की भरपूर मात्रा में उपलब्धता को देखते हुए ही बनायी गई थी। जैसे ही बांस काटने लायक होता, मिल मालिक उसे कटवा लेते। वर्ष 1991 से 2001 के दरम्यान मिल को 400 रुपए प्रति टन की दर से पानी के भाव बांस बेचा गया। एक टन में करीब 2400 मीटर बांस आता है और अगर बांस की औसत लंबाई 7 मीटर मान लें, तो एक टन में करीब 350 बांस आते हैं। यानी एक बांस की कीमत हुई रुपए-सवा रुपए, जबकि बाजार में इस बांस की कीमत दस से बारह रुपए तक थी। इस पेपर मिल को दो लाख टन बांस का आवंटन किया गया था।
      नवंबर 1990 में मेंढा गाँव के लोगों ने अपनी ग्रामसभा में सामूहिक रूप से यह तय किया की इस साल पेपर मिल को बांस नहीं काटने देंगे। इस निर्णय के पीछे कई कारण थे- एक तो ग्रामसभा का प्रस्ताव था कि अपने जंगल की रक्षा करनी है और अपने क्षेत्र में किसी को बिना अनुमति के काम नहीं करने देना है। दूसरी बात यह थी कि गांव वालों की जरूरतों की उपेक्षा कर सरकार बांस मिल मालिकों को दे रही थी। तीसरी बात यह थी कि मिल अंधाधुंध तरीके से बाँसों की कटाई करवा रही थी। छोटे और कोमल, अपक्क बांस भी काटती थी। इस निर्मम कटाई के दौरान बांस के अंकुर भी नष्ट हो जाते थे जिससे जंगल में नए बांस पैदा की पैदावार बाधित हो जा रही थी।
      न केवल आदिवासी और किसान बल्कि सभी ग्रामीणों के जीवन में बांस बहुत महत्वपूर्ण है। इससे टोकरियां, अनाज रखने के लिए कोठार, सूप जैसी कई उपयोगी वस्तुएं तो बनती ही हैं; साथ ही मकान-निर्माण, बाड़ बनाने या विवाह मंडप बनाने में भी इसका उपयोग परंपरा से होता आ रहा है। इसीलिए इसे कल्पवृक्षकहा गया है, जबकि पेपर मिल इसकी सिर्फ लुगदी बनाती थी। इतना ही नहीं, अपने कच्चे माल की यथावत आपूर्ति जारी रखने पर अमादा थी। न केवल चंद्रपुर-गढ़चिरौली में, बल्कि जहां कहीं भी पेपर मिल है, हर जगह यही हो रहा है। पर्यावरण वैज्ञानिक माधव गाडगिल के अनुसार कर्नाटक की दांडेली पेपर मिल ने 1958 से 1973 के दौरान मात्र 15 वर्षों में बेतहाशा कटाई से कारवार जिले का पूरा बांस खत्म हो गया। वहां भी मिल के मजदूर बांस के तने के निचले हिस्से पर रहने वाला कंटीला आवरण जानबूझकर काट डालते थे जिससे बांस के अंकुर सूख जाते और चंद सालों में ही बांस खत्म हो जाते। जबकि ग्रामीण ऐसा नहीं करते, वे बांस के तने का ऊपरी हिस्सा ही काटते, जिससे बांस जिंदा रहता और नई संततियाँ आती रहती हैं।
यह सही है कि बांस से कागज बनता है और कागज हर एक की जरूरत है। लेकिन बेहतर भविष्य के मद्दे नजर प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किफ़ायती ढंग से ही होना चाहिए। इसीलिए मेंढा गाँव के लोगों का कहना था कि गांव वालों की जरूरतों की पूर्ति के बाद ही बांस मिल को दिये जाएं; जहां तक हो सके, बांस के सूखे टुकड़े दिए जाएं और उनकी उचित कीमत मिले। इनकी अंधाधुंध, अवैज्ञानिक कटाई से जंगलों के स्थायी नुकसान पर रोक लगाई जाए। उनकी इन दूरदर्शितापूर्ण वाजिब बात को जब अनसूना कर दिया जाता रहा तो आंदोलन के सिवा और कोई रास्ता न था। क्योंकि जनता के शासन की बात करने वाली तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था अंतिम तौर पर हित तो अमीरों का ही देखती है। मेंढा गांव के लोगों का आग्रह बस इतना था कि कंपनी मालिकों के बजाय लोगों के हितों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। सरकार की इन नीतियों के खिलाफ ही मेंढा गाँव ने हमारे गांव में हम ही सरकारकी प्रक्रिया शुरू की। यह एक राजनीतिक प्रक्रिया थी। यूं तो जलग्रहण क्षेत्र-विकास या जंगल-रक्षा के काम महाराष्ट्र में कम नहीं हुए हैं। ग्रामसफाई या तंटामुक्ति’ (झगड़ों से मुक्ति) अभियानों के जरिये आदर्शकहलाए गए गांव भी कई हैं। लेकिन बाकियों से अलग यह राजनीतिक प्रक्रिया ही मेंढा की विशेषता है। दूसरे शब्दों में कहें तो ग्राम-विकास की बात करते समय एक अलग तरह की राजनीति का मॉडल पेश करने के मेंढ़ा गाँव के इस राजनीतिक सूत्र को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
      किसी शासन-व्यवस्था जिसे हम सरकारभी कहते हैं, का स्वरूप मुख्यतः तीन कार्य-प्रक्रियाओं से निर्मित होता है। पहली निर्णय-प्रक्रिया, यानि सरकार अपने शासन के अंतर्गत विभिन्न विषयों पर निर्णय लेती है और उसके फैसले अंतिम व सर्वमान्य होते हैं। दूसरा नियम एवं कानूनों का निर्माण, जो किसी व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने का आधार है और तीसरा इन नियम-क़ानूनों के आईने में लिए गए फैसलों को अमल में लाने वाली विस्तृत व्यवस्था, जिसे हम नौकरशाही कहते हैं। सरकार के विभिन्न विभाग होते हैं, जिनके मार्फत नीतियां और कार्यक्रम अमल में लाए जाते हैं।
मेंढ़ा गाँव की विशेषताएँ :  
सशक्त ग्राम सभा :
      सरकार और व्यवस्था के इसी ढांचे को अपने छोटे रूप में मेंढ़ा लेखा की ग्राम सभा द्वारा अपनाया गया है लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि यहाँ फैसले लेने, नियम बनाने और उसके क्रियान्वयन की पूरी प्रक्रिया सामूहिक तौर पर पूरे गाँव द्वारा सम्पन्न की जाती है। यहाँ इलेक्शन नहीं सेलेक्शन किया जाता है, जिसमें महिलाओं और पुरुषों की समान भागीदारी होती है। किसी भी पुरुष या महिला का चुनाव तीन वर्षों के लिए किया जाता है जो कि गाँव वालों की सहमति से लिए गए फैसलों को क्रियान्वित करने का काम करता है। ग्रामसभा के पास ग्राम विकास से लेकर अन्य गाँव से संबंधी सभी दस्तावेजों एवं अन्य प्रारूपों का समुचित लेखा-जोखा रहता है। ग्रामसभा में किसी भी बात के निपटारे या निर्णय लेने में विपक्ष की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है।
सामुदायिक भूस्वामित्व/ ग्रामदान :
      पूरी ग्राम-सभा में किसी भी व्यक्ति के पास अपनी निजी जमीन नहीं है। दूरदर्शिता का परिचय देते हुए सभी ने अपनी जमीनें ग्रामसभा के नाम कर दी है। इसके पीछे इनका मूल उद्देश्य यह है कि पूरी ग्राम-सभा एक परिवार बन सके। ऐसा होने से अब जमीन की सिंचाई या इससे संबंधित किसी भी तरह के अन्य भुगतान संबंधी खर्च ग्राम सभा वहन करती है। साथ ही ग्राम-सभा के सामूहिक मालिकाने से अब कोई भी एक व्यक्ति किसी जमीन को बेच नहीं सकता। इस फैसले से भविष्य में कंपनियों के लिए वहाँ जमीन खरीदने की संभावनाओं के दरवाजे बंद कर दिये गए हैं। क्योंकि कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी अब मेंढ़ा के किसी एक को बहला-फुसला कर जमीन नहीं खरीद सकती। जमीन संबंधी सारे फैसले अब ग्राम सभा में सामूहिक चर्चा से तय किए जाते हैं। इसलिए ग्रामसभा की सहमति के बिना भविष्य में यहाँ कोई कारखाना भी नहीं खुल सकता। यह अपने आप में एक ऐतिहासिक फैसला है और अपने संसाधनों को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे लोगों के लिए एक मिसाल भी।
संपूर्ण सामुदायिक रोजगार :
      इस गाँव में सभी व्यक्तियों को साल भर सौ फीसदी रोजगार की पूरी व्यवस्था की है। स्त्री हो या पुरुष सभी को पूरे वर्ष काम उपलब्ध कराने का दायित्व ग्रामसभा पर है। जिस व्यक्ति को जो काम आता है, उसे वैसा ही काम दिया जाता है। बांस की कटाई में सभी गांव वालों का शामिल होना एक तरह से अनिवार्य है। एक बांस का मूल्य 20 रुपए तय किया गया है, जबकि इससे पहले सरकारी कटाई में एक बांस का मूल्य 2 से 5 रुपए था। ये खुद ही जंगल की निगरानी भी करते हैं। यह काम भी पूरे साल में बारी-बारी से कुछ दिनों के लिए सभी को करना पड़ता है और इसमें महिलाएं भी शामिल होती हैं। इसके लिए निश्चित मजदूरी दी जाती है। अपनी विशिष्टता के चलते पूरे देश में आकर्षण का केंद्र बने इस गाँव को देखने, इससे सीखने और निरीक्षण एवं अध्ययन के लिए बड़ी तादाद में आने आने वाले लोगों की देखरेख एवं गाँव से संबंधित जानकारी उपलब्ध कराने का काम भी ग्रामसभा द्वारा नियुक्त अलग-अलग लोग करते हैं, जो रोटेशन पर बदलते रहते हैं। इन सबको मजदूरी का भुगतान ग्रामसभा करती है। यहाँ तक कि बाहर से आए लोगों के खाने का इंतजाम करने वाले भी हर दिन बदल जाते हैं, ताकि सभी को काम मिल सके। यहाँ बांस से सामान बनाने वाली मशीनें भी लगाई गई हैं। जो लोग प्रशिक्षित हो चुके हैं, वे यहाँ काम करते हैं और दूसरे लोगों को प्रशिक्षित भी करते हैं। यहाँ शहद निकालने के लिए भी एक केंद्र बनाया गया है। गाँव के लोग जंगलों में जाकर शहद निकालने का काम करते हैं जिसके लिए उन्हें ग्राम-सभा द्वारा निर्धारित मूल्य मिलता है और इसकी बिक्री का काम ग्राम-सभा करती है।         
स्त्री पुरुष की समान भागीदारी :
      ग्राम-सभा में सक्रिय सहभागिता से लेकर सभी तरह के कामों में गाँव के स्त्री-पुरुषों की समान भागीदारी रहती है। बल्कि कई बार सार्वजनिक क्षेत्र के कामों में महिलाओं की भागीदारी ज्यादा दिखाई देती है। चाहे बांस की कटाई हो या ग्राम सभा में कोई योजना बनानी हो, जब तक महिलाओं की पूरी भागीदारी नहीं होती, कोई भी फैसला पूरा नहीं होता। कृषि से लेकर जंगल की सुरक्षा तक के सभी कामों में समान तरीके से सबको शामिल किया जाता है। किसी विषय पर उसके अच्छे-बुरे पक्षों को देखते-समझते हुए आम राय से ही किसी निर्णय पर पहुंचा जाता है। साथ ही यह कोशिश भी होती है कि सिर्फ बहुमत के आधार पर ही कोई फैसला न हो बल्कि सभी को किसी कॉमन बिंदु पर राजी कर सर्व सहमति से निर्णय लिए जाएँ।
शराब उत्पादन पर पूर्ण पाबंदी :
मेंढ़ा-लेखा में शराब उत्पादन पर पूर्ण रूप से रोक लगाई गई है। यहाँ कोई भी शराब नहीं बनाता चाहे वह व्यक्तिगत उपयोग के लिए हो या सामूहिक। शराबबंदी की यह व्यापक पहल तीन दशक पहले महिलाओं के द्वारा की गई है। 1984 में ही यहाँ शराबबंदी शुरू हो गई थी और तब से कोई भी व्यक्ति यहाँ शराब नहीं बनाता। खुलेआम शराब पीने पर भी यहाँ प्रतिबंध है, हालांकि यह अलग बात है कि कुछ लोग कभी-कभार चोरी-छिपे दूसरे गाँव से शराब पीकर आ जाते हैं। जिसे बुरा नहीं माना आता। लेकिन अगर कोई शराब पीकर झगड़ा करता है तो उसे सामूहिक तौर पर दंड दिया जाता है जिसके लिए आर्थिक और सामाजिक दंड के अलग-अलग नियम बनाये गए हैं।
शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास एवं परिवार नियोजन पर पूर्ण जागरूकता :
      मेंढ़ा-लेखा में नई पीढ़ी के सभी लोग शिक्षित और साक्षर हैं। सभी बच्चे स्कूल जाते हैं जो ग्राम-सभा भवन के पास ही स्थित है। वैसे देवाजी तोफा इस शिक्षा-प्रणाली से संतुष्ट नहीं हैं। उनका मानना है कि यह शिक्षा-व्यवस्था हमारे बच्चों को परिवारों से अलग करती है। भविष्य की उनकी योजनाओं में वैकल्पिक शिक्षा एक जरूरी विषय है जिसमें गांधी की नई तालीम को लेते हुए उसे नए संदर्भों में क्रियान्वित किए जाने का लक्ष्य है।
      स्वास्थ्य और आवास को लेकर भी उनके पास भविष्य की अनेक योजनाएं हैं। इस गाँव की एक खासियत यह भी है कि यहाँ सारे घर एक ही पैटर्न पर एक ही तरह से बने हैं जिसमें प्राकृतिक रूप से हवा के आने-जाने व रौशनी की पर्याप्त व्यवस्था है। इसके अलावा पूरा गाँव परिवार नियोजन को लेकर भी जागरूक है और नई पीढ़ी ने तो इसे पूरी तरह से अपनाया है। अन्य पारंपरिक गांवों के मुक़ाबले यहाँ किसी भी घर में दो-तीन से ज्यादा बच्चे नहीं हैं। 
आय-व्यय की पारदर्शी और टिकाऊ व्यवस्था
      पूरी ग्राम-पंचायत में आय-व्यय का भुगतान बैंक के माध्यम से ही किया जाता है। सभी व्यक्तियों के अपने निजी खाते हैं और किसी भी तरह का भुगतान इन खातों के जरिए ही होता है जिसका पूरा ब्यौरा ग्राम-पंचायत के दस्तावेजों में कभी भी देखा जा सकता है। भ्रष्टाचार की तमाम गुंजाइशों पर विराम लगाते हुए बिना बैंक खातों के किसी भी तरह के पैसे का लेन-देन नहीं किया जाता। यदि किसी योजना का भी पैसा आता है तो वह भी ग्राम-सभा के खाते में ही आता है और फिर उसका भुगतान किया जाता है। कौन सा पैसा किस मद में खर्च किया गया है, इसका पूरा ब्यौरा संपूर्ण पारदर्शिता के साथ ग्राम-सभा के पास देखा जा सकता है। आपदा या किसी अन्य तरह की जरूरत के लिए अलग से ग्राम सुरक्षा कोष बनाया गया है जहाँ सभी गाँव वालों को अपनी आय का 10 प्रतिशत सालाना जमा करना पड़ता है। इसी तरह का एक और कोष भी बनाया गया है, जहाँ साल भर के लिए सामूहिक अनाज जमा किया जाता है ताकि सूखा या इसी तरह की किसी अन्य आकस्मिक आपदा के वक्त इसका इस्तेमाल किया जा सके।
वन संरक्षण की वैज्ञानिक दृष्टि :
      ग्राम-सभा द्वारा वन संरक्षण के लिए भी नियमावली बनाई गई है। इसमें पेड़ों की गिनती, उनकी आयु, मोटाई एवं लंबाई के साथ ही उसकी उपयोगिता से संबंधित सारे ब्योरे सुरक्षित हैं। अगर कोई एक पेड़ काटा जाना है तो उसकी जगह पर दूसरा लगा दिया जाता है। जंगल में किस-किस तरह की घास पाई जाती है और कौन सी किस तरह के काम में आती है, इसका भी पूरा ब्यौरा रखा गया है। अमूमन किस पेड़ की आयु कितने वर्ष की होती है, यह भी उन्हें पता है और इसीलिए किसी पेड़ के सूखने के साथ ही उसकी जगह नया पेड़ लगा दिया जाता है। जंगल में पाये जाने वाले औषधीय पौधों के विस्तृत ब्योरे भी उनके पास हैं। गाँव में पशुओं के लिए अलग से चारागाह भी बनाया गया है।
परंपरा के प्रति तार्किक दृष्टिकोण
आधुनिकता के प्रति अपने सकरात्मक दृष्टिकोण के साथ ही अपनी परंपरा को लेकर भी यहाँ के लोग काफी सचेत हैं और इसे बचाने-संभालने की उनकी कोशिशे जारी हैं। यहाँ किसी पेड़ को काटने से पहले उसकी पूजा करने का नियम है। इसके पीछे उनके तर्क हैं कि चूंकि पेड़ ही हमारा जीवन है, इसलिए काटने के पहले उसकी पूजा करना उसकी महत्ता और जीवन के प्रति हमारे द्वारा सम्मान एवं आभार प्रदर्शन करने का ही एक तरीका है। इसके अतिरिक्त आदिवासी समाजों में मासिक धर्म के समय महिलाओं को उनके रोज़मर्रा के कामों से छुट्टी देते हुए अलग से उनके आराम की व्यवस्था का नियम था। मेंढ़ा गाँव में भी स्त्रियों के लिए मासिक धर्म के समय उनके आराम करने की उचित व्यवस्था के अंतर्गत हर चार से छः घरों के बीच स्त्रियों के लिए अलग से विश्राम घर जैसी व्यवस्था की गई है। इसके अलावा सामुदायिक शिक्षा एवं परंपरागत ज्ञान के पीढ़ीगत हस्तांतरण के लिए आदिवासी समाज में मौजूद रही पारंपरिक संस्था घोंटुल भी यहाँ है जिसके जरिए समुदाय का जो व्यक्ति जिस ज्ञान में पारंगत है, वह सामुदायिक रूप से नई पीढ़ी को यह ज्ञान हस्तांतरित करता है।
कैसे संभव हुआ यह सब :
       27 अप्रैल, 2011 का दिन न केवल मेंढ़ा लेखा गाँव के लिए बल्कि पूरे आदिवासी आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण दिन था जब गढ़चिरौली जिले की धनोरा तहसील के इस गाँव को 2006 के वन अधिकार अधिनियम के तहत सरकार द्वारा 1890 हेक्टेयर वन जमीन का सामुदायिक स्वामित्व प्रदान किया गया। यद्यपि यह अधिकार एक लंबे संघर्ष का परिणाम था लेकिन कागजों पर सीमित इन अधिकारों को वन विभाग के झमेलों से मुक्त कराने के लिए इन्हें काफी जद्दोजहद करनी पड़ी। अपने उपयोग के लिए तो ये बांस काट सकते थे लेकिन जंगल पर अपना अधिकार होने के बाद भी बांस की बिक्री पर मनाही थी। यहाँ तक की सरकारी अधिकारियों द्वारा यहाँ से बांस खरीदने वालों पर मुक़दमा करने की धमकी भी दी जाती थी। इसके खिलाफ वन विभाग और सरकार से दो साल लंबी लड़ाई लड़ने के बाद अंततः 2013 में इनकी बात मानी गई और जंगल के संसाधनों पर इन्हें इनका पूरा हक़ दिया गया। आज मेंढ़ा-लेखा सिर्फ कोई गाँव मात्र नहीं रह गया है, अपने लंबे संघर्ष और सामूहिक-सामुदायिक प्रयासों से आज यह जिस मुकाम तक पहुंचा है, वह न केवल जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ रहे तमाम आंदोलनों के लिए प्रेरणास्रोत है बल्कि इससे कहीं आगे विकल्पहीन होती जा रही दुनिया में विकल्प और उम्मीद की किरण बनकर सामने आया है।...

मेढ़ालेखा क्षेत्र भ्रमण के दौरान मेरे सहयोगी रहे- डॉ. शिव सिंह बघेल, डॉ. मुकेश कुमार, शोध छात्र डिसेन्ट कुमार साहू, नरेश गौतम    




(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के समाज-कार्य विभाग से पी-एच.डी. शोधरत हैं.)
nareshgautam0071@gmail.com

FIELD VISIT REPORT


Submitted by
NARENDRA KUMAR DIWAKAR

DR. ALKA
BALBIR SINGH
CHOZIN WANGMO
CHETAN J. PAWAR
PARTICIPANTS OF ICSSR WORKSHOP
MGAHV, WARDHA                                                                                                                Submitted to
CO-ORDINATOR
ICSSR WORKSHOP
MGAHV, WARDHA
BACKGROUND
Wardha gets its name from the Wardha River which flows at the North, West and South boundaries of district. Founded in 1866, the town is now an important centre for the cotton trade. It was an important part of Gandhian Era. Wardha was one of the pre-planned cities of British India. The town-planners were Sir Crowdock and Bachelor. Population of Wardha city constitutes Hindus, Muslims and Buddhists with little percentage of Christians, Jains and Sikhs. Main spoken languages are Marathi and Hindi. Other languages viz. Marwari, Gujarati, Sindhi and Punjabi are spoken by people of respective communities. There are many temples, mosques, viharas, gurudwaras, jain temples and churches of which Laxminarayan temple (Bachchhraj road), Lingi Mandir (Mahadeo Mandir)near Dr. Raosaheb Gade Bhavan, Vitthal mandir (hawaldwarpura), Ganesh Mandir (Main Road), Gajanan Maharaj Mandir, Sai mandir (M.G. Road), Digambar and Shwetambar Jain temples (mahadeopura),Jama Masjid (Itwara), Shanti Stupa (Gopuri), Gurudwara (Samtanagar) are important.
One of the jewels of Wardha is Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya which is World's only international Hindi University. Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya(Mahatma Gandhi International Hindi University) is established by the Parliament of India and run directly by the Government of India. 
A ten days “Workshop on Research Methodology Course in Social Sciences” for Ph.D. Scholars from 10th to 19th January, 2015 was planned by Mahatma Gandhi Fuji Guruji Centre for Peace Studies, Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha in collaboration with the Indian Council of Social Science Research, New Delhi workhop was designed to impart knowledge on Research Methodology in the context of qualitative and quantitative research along-with training in advanced Statistical packages across the various fields of Social Sciences.
During this workshop one day field visit had been planned on 13th January 2014, for the participants to visit to some historical places of wardha district. Visit was planned to learn the participants how to apply the research methodology techniques that they are learning in the workshop.

All the participants have been divided in to groups. Each group was having 5 members. Our group planned the visit with the following objective.

OBJECTIVE
          To know Gandhian ideology in Wardha district through various aspects.
METHODOLOGY
STUDY TYPE- Field survey
STUDY DESIGN- Cross sectional study
STUDY SITE- 5 historical places of district Wardha were visited named as Gitai temple,Shanti stoop, Pavnar Ashram, Sewagram and Magan Sanghralaya.
DATA COLLECTION-.Data has been collected by primary as well as secondary sources. In primary data collection we have used observation method as well as unstructured interview schedule and in secondary we have collected data by pamphlets provided, books purchased from there.
STUDY TOOL– observational and unstructured interview
DATA ANALYSIS- content analysis and narrative analysis
OBSERVATIONS
1. GITAI MANDIR (GITAI TEMPLE)
Gitai temple is situated in Gopuri .This temple has a unique feature that it has no deity and roof. It has just walls made of granite slabs on which 18 chapters of Gitai (Shrimad-bhagwad-gita in marathi) are written. Acharya Vinoba Bhave inaugurated this temple in 1980. Beside this there are two exhibitions about life of Acharya Vinoba Bhave and Jamnalal Bajaj.
The temple gives us the message of spirituality and karam .It is the message that has been highlighted in the Shrimad-bhagwad gita that we should always focus on our karam and not on the fruits we gain in future. Gandhi ji always used to guide everyone to be self-dependant and work for themselves and earn their own livelihood.
2. VISHWA SHANTI STUPA
Vishwa shanty stupa was a dream of Fujii guruji. It is situated beside Gitai Mandir. It is a large stupa of white color. Statues of Buddha are mounted on stupa in four directions. On the entrance we observed a small Japanese Buddhist temple with a large park. There is a temple near the stupa where prayers are done for universal peace. This stupa is also a symbol of nonviolence.
3. PARAMDHAM ASHRAM
As told by one of the member of the ashram, it was established by Acharya Vinoba Bhave in 1934 at Pawnar on bank of river Dham with spiritual purpose. He also established Brahma Vidya mandir in it. He started Bhoodan Movement from here. During Bhonsle reign Pawnar was vidarbha's most important military station. During excavation for construction of ashram, many sculptures and idols were found which are kept at ashram and open to visitors.
The ashram signifies itself as an example of social model. Ashram gave the message of being self-sufficient. We came to know that they work for themselves and don’t depend on others for their routine activities. We could observe the ashram from various perspectives like spirituality, economic sufficiency and agrarian culture. But one thing that needs to be projected for the future is utilization of this social model to be a role model for others to learn. This can be included in curriculum to develop good thinking about the social role in a community as well as being self-sufficient too. Persons living in the ashram follow need based theory and not greed based theory. They work as much is required for their needs that is to live healthy and not to collect utilities for saving, which signifies that they are more concentrated towards spirituality and not materialist world.
 4. SEVAGRAM ASHRAM  
As told by one of the member of the ashram, It was the residence of Mahatma Gandhi from 1936 to 1948. After his 1930 Dandi salt march, Gandhi decided not to return to his ashram at Sabarmati. After spending two years in jail, he travelled around India and, at the invitation of the Gandhian industrialist Jamnalal Bajaj., stayed for some time in Wardha City at Jamnalal's bungalow. In 1936, at the age of 67, Gandhiji moved to a village (which he subsequently called Sewagram - Hindi for village of service) at the outskirts of Wardha and started to live here in a group of huts with his wife Kasturba and other disciples. This slowly grew into an ashram, where Gandhi lived with his followers for the next twelve years, till his death. The premises are very calming. Many personal items used by Gandhi and his contemporaries are preserved here including his spectacles, telephone, notebook, tables, mats, etc.
This ashram lets us know the values of being practical. Students get to know things practically as we observed the bowl of grains lying there in a classroom to tell the nursery students for learning. The people living there are an example of simplicity. They work for their livelihood themselves and live a simple life. They have made traditionality along with incorporation of modern techniques as we observed various things present there e.g. they are doing agriculture with hands as well as tractors. Charkha has also been used advanced with increased speed and more productivity. But this advancement in the techniques has not replaced human hands. Both methods go along simultaneously. They work at their own level as small scale industry by utilizing the various things variable there for goods productions.
As told by one of the respondent in a interview they use cow dung, cow urine, cow milk, paper, bamboo and various other things for preparing goods. He said for them nothing is waste. It is the art and courage to deal with the things and get something p5roductive out of it that Gandhi ji used to tell.
5. MAGAN SANGRAHALAYA,

It is a museum showing collection of various rural innovations; technologies. It was inaugurated by Mahatma Gandhi in 1938. It is situated in Maganwadi near the village's Centre of Science. The purpose of construction of this museum is to spread awareness about research and development of rural industries, agriculture, dairy, various types of charkhas, khadi, hadicrafts by rural artisans, methods to promote Swadeshi movement, etc.
Museum has good collection of traditional things that were used earlier as well as their advanced models. We could observe new models of charkha, sanitation methods, use of electricity, agriculture techniques represented by the models placed in the sangrahalaya.  This indicated that Gandhi ji was not against modernization or the advanced techniques they just wanted to be self-dependent and work for you. Mechanization should not replace manpower.
In the lecture given by one of the staff member, it was told that techniques are not bad but it should be used in such a manner to not to harm others. She cited an example of honeybees and said that technique used to get honey from honey bee should be such so as not to harm them. (Smoke method) we could see the dress and other things used to get honey displayed there. Beside this we saw various beautiful materials prepared from jute and bamboo available there. We were fascinated by the various beautiful items prepared by jute, bamboo, silk, cotton etc.
CONCLUSION
We could justify our objective of visiting the selected places with a perspective to know Gandhiyan ideology through various perspectives e.g. economic, socio-demographic, cultural, as well being a good example of social model.
ACKNOWLEDGEMENT
We would like to thank Prof. Manoj Kumar (course director), Dr. Mithilesh Tiwari (course coordinator) for providing us the opportunity to attend the workshop. Attending the workshop and learning the various tools for research is really going to be helpful for all of us in future. we would also like to say a special thanks for the field visit that have been planned for us during this workshop that gave us the chance to see the beauty of Wardha, to know about the ideology of mahatma Gandhi in depth and along with this it let us to apply the tools which we learned in the workshop.


डिजाइन कार्यशाला का छायांकन

डिज़ाइन कार्यशाला का अवलोकन करते हुए कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र     

कार्यशाला के दौरान कुलपति प्रो.मिश्र को प्राब्लम चार्ट समझाते हुए मुरलीधर रेड्डी   
डिज़ाइन क्राफ्ट के बारे में जानकारी देते हुए मुरलीधर रेड्डी

कोलाज के बारे में समझते हुए कुलपति प्रो.मिश्र

प्रॉब्लम चार्ट एवं कोलाज का अवलोकन करते हुए कुलपति प्रो.मिश्र

डिज़ाइन कार्य़शाला का अवलोकन करते प्रो.मनोज कुमार 
डिजाइन कार्यशाला कोलाज 

शैक्षणिक भ्रमण के दौरान सामूहिक छायांकन






Friday, January 30, 2015

डिजाइन कार्यशाला



महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के फ्यूजी गुरुजी केंद्र के अंतर्गत समाजकार्य विभाग में पाँच दिवसीय डिजाइन कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस कार्यशाला में समाज कार्य तृतीय छमाही के छात्रों के साथ-साथ एम. फिल. के छात्रों ने हिस्सा लिया। जिनकी कुल संख्या 30 थी। कार्यशाला का मुख्य उद्देश्य उन सभी बनी अवधारणाओं को तोड़ना था। जिसे


हमने अपने मस्तिष्क में इतनी जटिलता के साथ बैठा लिया है कि उसके बाहर जाकर सोचना हमारे लिए मुश्किल है। हमें उन सभी बने हुये खाँचों से बाहर निकालने की एक कोशिश थी। पाँच दिवसीय कार्यशाला में Visual Thinking से बाहर निकल कर किसी भी ऑब्जेक्ट को Drawing के माध्यम से बताना था। जिसमें पहला चरण Visual Thinking का था। जिसके माध्यम से हमें किसी भी वस्तु या दृश्य का चित्रण करना था। जो हमारे आस पास स्थित हो। उसके बाद का दूसरा चरण था। Visual Thinking से बाहर निकलकर Physical उसे बनाना था। जिसमें Empathy Map का इस्तेमाल करते हुये। अपने सामने वाले की पसंद और न पसंद को जानकार उसके लिए कुछ न कुछ Design करना था।
अपने सामने वाले व्यक्ति की पसंद को जानने और उसे मूर्तरूप देने का कार्य थोड़ा कठिन जरूर था लेकिन सभी ने इसे पूरी मेहनत से पूर्ण करने की कोशिश की। इसके बाद का चरण ही मुख्य तौर पर कार्यशाला का सबसे आवश्यक चरण था। जिसमें अब सभी को एक साथ ग्रुप में कार्य करना था। सभी को पाँच ग्रुप में विभाजित किया गया। सब प्रतिभागियों को कुछ विषय दिये गए जिसमें हस्तकला, पानी, स्वास्थ्य और स्वच्छता को रखा गया। इन सभी विषयों में अब Empathy Mapping के माध्यम से समस्या को सामने लाना था। और उसी के अनुसार एक मॉडल को तैयार करना था। इस मैपिंग में सभी विषयों में उन भागीदारों (Stake holder) खोजना था जो समस्या पैदा करते हैं। व्यक्ति से लेकर सरकार, यातायात, मीडिया और वो सब कुछ जो उससे किसी भी तरह जुड़ता हो। यह काम पूरे ग्रुप को मिलकर करना था। सभी व्यक्तियों के विचार उसमें शामिल करने के साथ उस समस्या को मॉडल से दर्शाना था। उसके बाद के चरण में नए idea को बाहर लाना इस कार्यशाला का मुख्य उद्देश्य था।
प्रथम दिन की कार्यशाला- पहले दिन की कार्यशाला का पहला सत्र परिचय सत्र था। उसके सभी सहभागियों को उस जगह (वर्क स्टेशन) को डिजाइन (स्केच) करना था। जहाँ सहभागियों को अगले पाँच दिन बैठना और काम करना था। पहले दिन की कार्यशाला में समाज कार्य विभाग के अलावा मनोविज्ञान के एम. फिल. के छात्रों ने भी हिस्सा लिया। यह सत्र लगभग दो घंटे तक चलना था। लगभग सभी ने एक ही जगह को विभिन्न तरीके और अपने नज़रिये से पेपर पर उतरने की कोशिश की कोई उस जगह को लगभग पेपर पर उतार पाया और किसी ने सिर्फ कोशिश की। लेकिन सभी उसे पूरा करना चाह रहे थे। पर सभी छात्र चित्रकारी में अच्छे न होने या फिर बहुत दिनों बात पेंसिल को पकड़ने और चित्रकारी करने की वजह से थोड़ा सकुचा रहे थे। पहले सत्र का मकसद मात्र पेंसिल पकड़ना और स्केच करना था ताकि आप उस बने फ्रेम से बाहर आ सकें। सभी ने इसे बाखूबी निभाने की कोशिश भी की। इसे इन चित्रों के माध्यम से देखा जा सकता है।
Resource person of Design Workshop
Mr. Muralidhar Reddy 
designcircleindia@gmail.com

दूसरा चरण- दूसरे चरण में गोले के अंदर गोले जैसी आकृति बनानी थी या उन आकृतियों का चुनाव करना था जिसमें गोल की छवि बनती हो। लेकिन वह उन आकृतियों जैसी नहीं होनी चाहिए जो हम सभी लगातार देखते रहते हैं। जैसे सूरज, चंद्रमा, घड़ी या इस तरह की जो भी आकृतियाँ होती हैं। इन सभी आकृतियों से बाहर निकलकर सोचने की जरूरत थी। जब मानव मस्तिष्क ज्यादा परिपक्व हो जाता है। तो वह उन छोटी-छोटी चीजों के बारे में भूल जाता है। जो उसके आस-पास होती जरूर है लेकिन उन वस्तुओं तस्वीरों को वह देख कर भी अनदेखा कर देता है। इस चरण का मुख्य उद्देश्य यही था। हमें उस बंधे हुये फ्रेम से बाहर निकालना। इसे निम्न चित्रों के माध्यम से समझा जा सकता है।
चरण तृतीय- तीसरे चरण का मुख्य उद्देश्य अपनी सोचने की क्षमता को और आगे ले जाकर सोचना था। अब वही काम अर्ध गोलाकार के अंदर करना था। इसमें पेपर पर अर्धगोलाकार के अंदर छवियों को बनाना था। अर्धगोलाकार के साथ-साथ उन छवियों के बारे में भी सोचना और उन्हें चित्र के माध्यम से प्रस्तुत करना था जो गोल होते हुये भी किसी एक केंद्र से अर्धगोलाकार दिखाई देती हैं। उदाहरण के लिए तरबूज का कटा हुआ भाग या फिर संतरे का कटा हुआ भाग। इस तरह की बहुत वस्तुओं के बारे में या अर्धगोलाकार को मिलाकर कौन सी नई छवियों का चित्रण किया जा सकता था। जिसमें अपनी-अपनी क्षमता के साथ लोगों ने विभिन्न छवियों का चित्रण किया जिसे यहाँ देखा और समझा जा सकता है।
चौथा चरण- चौथे चरण में सभी को कुछ वस्तुओं को देख कर उसे चित्र के माध्यम से प्रस्तुत करना था। इस चरण में समूह के साथ काम करना था। इस चरण का उद्देश्य था किसी एक वस्तु के कितने दृष्टिकोण हो सकते हैं और व्यक्ति उसे किस-किस दृष्टिकोण से देखता है। सभी ने उन वस्तुओं को कई दृष्टिकोण से देखने और बनाने की कोशिश की। इसी चरण का एक हिस्सा जिसमें इन्हीं वस्तुओं को उनके निश्चित कार्य के अलावा किस तरह से अन्य कार्यों में प्रयोग किया जा सकता है। उसका भी चित्रण करना था। चित्रण के साथ ही नए विचारों को बताना भी था। यह कैसे अन्य कामों में इस्तेमाल किया जा सकता है। इसमें कई समूहों ने बहुत ही अच्छा प्रदर्शन किया और नए विचारों को भी बहुत ही अच्छे तरीके से पेपर पर उतरने की अच्छी कोशिश। जिसे इन चित्रों के माध्यम से आसानी से समझा जा सकताहै।


पाँचवाँ चरण- इस चरण में सभी सहभागियों को Empathy Map का प्रयोग करते हुए करते हुये। सामने वाले व्यक्ति की feeling को समझना और उसे Empathy Map के माध्यम से पेपर उतरना उसके बारे में अच्छा या बुरा ये सभी जानने कि कोशिश करना था। साथ ही साथ उसकी पसंद का कुछ भी जो उसे अच्छा लगता हो डिजाइन करना था। यह काम अब पेपर पर नहीं बल्कि अब से पेपर, लकड़ी और दफ्ती के माध्यम से मूर्त रूम में तैयार करना था। सभी को यह प्रक्रिया एक खेल की तरह लग रही थी जिसमें सीखने के साथ रोमांच भी था। लेकिन यह सभी को अलगे चरण के लिए तैयार करने की प्रक्रिया थी। इस चरण में सभी तो नहीं पर काफी लोगों ने अच्छा प्रदर्शन करने की कोशिश की। जिसे इन चित्रों के माध्यम से समझा जा सकता है।


छठा चरण- यह चरण पूरी कार्यशाला का आखिरी और मुख्य चरण था। इस चरण में Empathy Map का इस्तेमाल करते हुए किसी एक विषय को लेकर उसके बीच के भागीदार Stakeholder’s (Stakeholder theory  Freeman, 1983 ) की खोज करनी थी जो किसी भी तरह से उस विषय के लिए भागीदार होते हैं। जिसमें सभी सहभागियों को पाँच ग्रुप में विभाजित किया गया।

पहला ग्रुप
दूसरा ग्रुप
तीसरा ग्रुप
चौथा ग्रुप
पाँचवा ग्रुप
अभिषेक
भानु कुशवाहा
साजन
निरंजन
वरुण
पुष्पेन्द्र बंबोड़े
शैय्यद मंजुरअली
दीनानाथ
प्रसन्न
डिसेंट
महेश
विजय वाघमारे
मुकुन्द
नूरीश
किरण
नौशेर
मिथुन रोहित
राजेश
अनुराग
जगपाल
दुर्गा
यशपाल
दिलीप
विकास+उमाशंकर 
नेपाल+ राजेश
पहले और चौथे ग्रुप का विषय- Craft Skill Development
दूसरे और तीसरे ग्रुप का विषय- Water

चौथे औऱ पाँचवे ग्रुप का विषय- Health and Sanitation

इन सभी विषयों में इंपैथी मैप के माध्यम से Stakeholder’s की तलाश करनी थी जो इन विषयों के लिए किसी भी तरह से जिम्मेदार हैं। उदाहरण के लिए Craft Skill Development कैसे किया जा सकता है। उसके लिए जो Stakeholder’s होलडर्स होंगे। उनकी खोजा करना था। आज दुनियाँ में शिल्प कला का ज्ञान ख़त्म होता जा रहा है।जिसका मुख्य कारण है वो लोग जो इसके पीछे काम करते हैं। उन्हें स्किल्ड नहीं किया जा रहा है या उनके ज्ञान को ख़ारिज किया जा रहा है। लेकिन जब यही काम कोई बड़ी नामी कंपनी करती है तो उसे ब्रांड का नाम दिया जाता है। वही सामान जब कोई ग्रामीण व्यक्ति बनाता है तो उसका उसे मूल्य नहीं मिलता लेकिन जब यही काम किसी ब्रांड के नाम से बाजार में आता है तो उसे लोग स्टेट्स के नाम पर खरीद लेते हैं। उसका अधिक से अधिक लाभ उन सभी लोगों को जाता है जो इसकी ब्रांडिंग करते हैं। लेकिन उस बने हुये समान में किस-किस व्यक्ति श्रम का इस्तेमाल किया गया है। जिसमें किसी भी वस्तु के बनने की प्रक्रिया में जंगल से लाया गया रॉ-मटेरियल से लेकर उसे बाजार तक पहुँचने तक की प्रक्रिया शामिल है। इन्हीं लोगों की खोज करना था। जो कि इंपैथी मैप के माध्यम से संभव हो सकता था। इसके साथ ही यह देखने कि आवश्यकता थी कि इन व्यवसायों को किन लोगों से अधिक नुकसान हुआ है।
Stakeholder’s को खोजने के बाद के अभी टीमों को उससे संबंधित एक कोलाज को बनाना था। यह बहुत ही मनोरंजन भरा काम था। इसे बनाने के लिए पेपर कटिंग कर उसे अपने विषय के साथ जोड़ना था।इस डिजाइन कार्यशाला के माध्यम से प्रतिभागियों के अन्दर शैक्षणिक नवीनता और उससे सीखने का रोमांचित अनुभव प्राप्त हुआ ।

नरेश कुमार गौतम
समाज कार्य (पी-एच. डी. शोध छात्र)
महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालयवर्धा
nareshgautam0071@gmail.com