Sunday, March 25, 2018

वर्धा : सात दिवसीय संकाय संवर्द्धन कार्यशाला का प्रतिकुलपति ने किया समापन



वर्धा, 25 मार्च 2018. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी सामाजिक कार्य अध्ययन केंद्र एवं राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थान परिषदहैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित सात दिवसीय ग्रामीण सहभागिता में संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के अंतिम दिन प्रथम सत्र में महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस के मेडिसिन विभाग के निदेशक प्रो. उल्हास जाजू ने पिछले चार दशकों के अपने अनुभव के आधार पर सामुदायिक स्वास्थ्य को लेकर किए गए प्रयोग पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि हमारे काम की शुरुआत 40 साल पहले इस संदर्भ में शुरू किया था ताकि स्वास्थ्य सुविधाएं ग्रामीण लोगों तक पहुँच सके और इसी कड़ी में ग्रामीण स्वच्छता का मुद्दा हमारे सामने आया। इस कार्य को पूर्ण करने के लिए हमने गांधी, विनोबा तथा सुशीला नायर आदि के विचारों को अपनाया। जिससे हमने ग्रामीण भारत के साथ जुडने की कला सीखी। इसी कड़ी में हमने जयप्रकाश नारायण के विचारों को भी अपनाया।

उन्होंने आगे कहा कि समता, स्वतंत्रता तथा मैत्री के आधार पर ही अपने ध्येय को प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए सत्ता का विकेन्द्रीकरण आवश्यक शर्त बन जाती है। गांधी के अनुसार ग्रामीणों में सत्ता का विकेन्द्रीकरण ही सच्चा 'हिन्द स्वराज' लाएगा। इसी कड़ी में हमने गांधी-जीवन के आदर्शों को अपनाते हुए श्रम आधारित समाज रचना की स्वीकार्यता को अपनाया। प्रो. जाजू ने आगे कहा कि गांधी ने ग्राम स्वराज का सपना देखा जिसे विनोबा जी ने भूदान-ग्रामदान के जरिये आगे बढ़ाने की कोशिश की थी। विदर्भ के गढ़चिरौली जिले में मेंढ़ा-लेखा इसी तरह का प्रयोग है जो आज भी हमें देखने को मिलता है।
            उन्होंने कहा कि गांधी अंत्योदय से सर्वोदय अर्थात समन्वय की बात करते थे। हमने लाओत्से का निम्न मंत्र अपनाया-
            लोगों की ओर जाओ
            उनके साथ काम करो
            उन्हें समझो
            उनसे सीखें
            उन्हें प्रेम करें
            उनके साथ नियोजन करें
            उनके साथ कार्य करें!
उन्होंने कहा कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करते हुए हमने यह ध्यान रखा कि यह 'for the people' अर्थात जनता के लिए हो। हमें कुछ समस्याओं के साथ भी जूझना पड़ा। यहाँ के लोगों के लिए आज सबसे महंगा स्वास्थ्य खर्च माना जाता है। गांवों की संस्कृति, उनका जीवन अनुभव आदि को समझे बगैर तथाकथित पढ़े-लिखे लोग केवल विकास के नाम पर आउटसाइडर के रूप में काम करने की सोचते हैं। जिसमें उन्हें भीख से ज्यादा नहीं देते, ऐसे में हम इसे समुदाय सहभागिता कैसे कहें! यह एक गंभीर प्रश्न है। अक्सर हम गाँव वालों पर थोंपने की ही कोशिश करते हैं। आज एक ओर विज्ञान नये-नये लक्ष्यों की प्राप्ति की है लेकिन कहीं भी इसको अच्छे उपयोग के लिए नहीं अपनाया गया। इसे ज़्यादातर दुरुपयोग के लिए ही उपयोग में लाया जाता है। विनोबा को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि विज्ञान रथ के घोड़े की तरह है जिसकी लगाम अपने अच्छे लोगों के हाथ में होने की आवश्यकता है।
            उन्होंने कहा कि गांवों में हम ऐसा क्यों समझते हैं कि ग्रामीणों को हम अक्ल सिखाने जा रहे हैं? गांवों के लोगों के विज़डम को भी हमें समझना होगा। एक घटना का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि गाँव में वट वृक्ष की पूजा करने वाली महिलाओं से यह पूछा गया कि आपने किसकी पूजा की तो उनका उत्तर था पति अर्थात शिव की। मेरे प्रश्न के जवाबी उत्तर में कि क्या किसी देवी की पूजा होती है तो उनका जवाब था 'साहब उनकी पूजा तो रोज ही होती है।' अर्थात 85% महिलाओं को आज भी पति के द्वारा पीटा जाता है, जिसे वे महिलाएं व्यंग्यपूर्वक पूजा कह रही थी।
            उन्होंने आगे कहा कि आम लोगों तक वास्तविक लाभ पहुँचाने के लिए हमें समाज की संरचना को बदलना होगा जिसके लिए राजनैतिक मंशा की आवश्यकता ज्यादा है। अपने प्रयोग पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि हमने गांवों में फ्री में कोई भी सेवा नहीं दी और वहाँ के लोगों की सहभागिता के आधार पर ज्वार, धान आदि को इकट्ठा कर उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं दी गई। इस गतिविधि के माध्यम से ग्रामीणों में 'राइट टू डिमांड' के प्रति जागरूकता को बढ़ाने की कोशिश की। उन्होंने ट्रस्टीशिप की भावना के विकास पर भी ज़ोर दिया। उन्होंने कहा कि भारत में आज भी स्वास्थ्य पर कुल GDP का मात्र 1.4 फीसदी ही खर्च किया जाता है। जबकि यूएनडीपी के मुताबिक यह 5 से लेकर 10 फीसदी तक होना चाहिए। उन्होंने कहा कि प्रति व्यक्ति के आधार पर ग्राम सभा के जरिये संसाधनों का बंटवारा हो और ग्रामीण लोगों के हाथों में निर्णय प्रक्रिया हो तभी गांवों का समुचित विकास मुमकिन हो सकता है। साथ ही उन्होंने समुदाय सहभागिता के मूलतत्व बताएं जिसमें से कुछ इस प्रकार है-
            -समुदाय द्वारा स्वीकृति
            -समुदाय द्वारा सहयोग
            -समुदाय द्वारा पार्टनरशिप
            -समुदाय द्वारा सहभागिता
            उन्होंने इसका उदाहरण बताते हुए बताया कि क्रांति सातत्यपूर्ण होती है, नित-नवीनतम होती है। मेंढ़ा-लेखा जैसे गाँव में ग्राम सभा को भूस्वामित्व ग्रामसभा को सौंपने में 35 साल लगे। ऐसे गाँव में सही मायने में ग्रामीण सहभागिता के उक्त सभी मूल तत्वों को देखा जा सकता है। आगे उन्होंने कहा कि हमने गांवों में स्वच्छता के प्रति लोगों को जागरूक करने हेतु जिस तरीके को अपनाया वह यह थी- शुरुआत में हमने घर-घर जाकर ग्राम वासियों को स्वच्छता के बारे में बताना शुरू किया। इस कार्य में ग्रामीणों की सहभागिता के साथ-साथ कुछ संस्थाओं से मदद ली गई। खुले में शौच जाने को खत्म करने हेतु अलग-अलग मोहल्ले में एक-एक टाइलेट बनाया गया लेकिन इसका उपयोग देखा कि लोग लकड़ी, बकरी आदि को रखने के लिए किया जाने लगा। जब हमने वहाँ की वृद्ध महिलाओं से बातचीत की कि ऐसा क्यों हुआ! तब उन्होंने बताया कि 'हर परिवार की महिलाओं को ही दूर-दूर के कुएं से पानी ढोकर लाना होता है। घर के सात लोगों के लिए नहाने, कपड़े धोने से लेकर पीने व रसोई के लिए पानी लेकर वे ही आती हैं। उसमें भी अब आपकी टाइलेट के लिए अलग से पानी लाकर मेरी बहू को मारना है क्या? तब जवाब में मैंने खिसियाहट के साथ कहा कि फिर सुबह-सुबह सलामी देने का शौक क्यों है? वृद्धा ने जवाब दिया कि गीली जमीन, बिजली की कमी तथा बिच्छू, साँप के डर से महिला-पुरुष रास्ते के दोनों अलग-अलग किनारे पर टायलेट के लिए जाते हैं। इस तरह हमने उनसे वहाँ से अक्ल प्राप्त की और विज्ञान का आधार लेते हुए उनकी आवश्यकताओं के अनुसार कम पानी खर्च होने वाला शौचालय बनाया गया। इसे बनाने एवं उपयोग में लाने में पाँच साल लगे। आगे इस परियोजना को गांवों में क्रियान्वित करने के लिए ग्रामीणों के द्वारा ही किये जाने की प्रविधि को अपनाया गया जिसका अंतिम उद्देश्य 'ग्राम स्वराज' था। उन्होंने कहा कि बिना लोकशक्ति के गाँव में कोई भी परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है। शक्ति के आधार पर, नैतिकता के आधार पर हमने वहाँ कार्य किया, जाति-धर्म से अलग आर्थिक क्षमताओं के आधार पर सामाजिक संरचना का निर्माण करना। व्यक्ति तथा सामाजिक योगदान को बढ़ावा दिया। श्रमदान, समर्थ की पहचान की गयी इसी से सहभागितापूर्ण नेतृत्व का निर्माण हुआ।
            उन्होंने आगे कहा कि हमने अपने प्रयोगों में से जो पाया वह यह था कि ग्रामीण लोगों के अनुभवों के आधार पर ही उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप कार्य होना चाहिए। दान का स्वरूप भीख न हो बल्कि लोकशक्ति के रूप में उसका उभार होना चाहिए। दानकर्ता को ट्रस्टी के रूप में होना चाहिए न कि दाता के रूप में। संसाधन ग्राम सभाओं के हाथ में होने चाहिए। इस पूरे कार्य को करने के लिए तंत्र-मंत्र के साथ-साथ व्रत लेना जरूरी है। हम सब जब व्रती के रूप में सामाजिक जीवन का निर्वहन करेंगे तभी अच्छे समाज का निर्माण होगा। मेंढ़ा-लेखा इस मामले में काफी आगे निकाल चुका है। हम भी समाज का मंगल चाहते हैं तो इस तरह के प्रयोगों को आगे बढ़ाना होगा।

द्वितीय सत्र में ग्रुप प्रस्तुति हुई। अशोक सातपूते, राहुल निकम, गजानन नीलामे, डिसेन्ट कुमार द्वारा लेखा-मेंढ़ा के सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षिक स्थिति के अध्ययन के आधार पर अपना रिपोर्ट प्रस्तुत किया। रिपोर्ट में उन्होंने कहा कि वहाँ की शैक्षिक स्थिति बहुत ही निम्नतर है तथा गाँव में इसको लेकर एक प्राथमिक स्कूल के अलावा दूसरा कुछ संसाधन भी नहीं दिखाई दिया। निकम ने अपने अनुभव बताते हुए कहा कि उस गाँव में दोपहर के अनुचित समय में जाने के कारण ज्यादा जानकारी नहीं प्राप्त हो सकी, किन्तु ग्रामीणों की सहभागिता काबिल-ए-तारीफ़ है। गांवों में कई सारे गलत चीजों पर प्रतिबंध लगाया गया है। वहीं अशोक सातपूते ने मेंढ़ा लेखा के विवाह संस्था का विस्तृत विश्लेषण सबके सामने रखा। अंत में सभी ने सेवाग्राम गाँव की संरचना पर अपनी बात रखी। 
            समृद्धि डाबरे ने अपने ग्रुप का प्रतिनिधित्व करते हुए महिलाओं से संबन्धित समस्याओं पर बात रखी। डॉ. शिव सिंह बघेल ने मेंढ़ा लेखा पर विस्तृत प्रस्तुति दी। साथ ही सेवाग्राम गाँव की महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर बात की। अंत में दोनों की तुलना के आधार पर गांवों के बेहतरी के लिए विकल्प प्रस्तुत किए।
            खेती-किसानी और शिक्षा के मसले पर गठित समूह ने मेंढ़ा-लेखा और सेगांव के शैक्षिक भ्रमण के हवाले से अपने अनुभव साझा किए। इस समूह में डॉ. मुकेश कुमार, डॉ. देवशीष मित्रा एवं डॉ. पार्थसारथी मालिक, नरेश गौतम शामिल थे। इस समूह की तरफ से डॉ. पार्थसारथी ने अपने अनुभव रखते हुए कहा कि पढ़े-लिखे लोग सैद्धान्तिक चर्चा मात्र करते हैं किन्तु गाँव के लोग उसको व्यवहार में उपयोग में लाते हैं। श्याम शर्मा ने भी मेंढ़ा लेखा के अपने अनुभव शेयर किए। उन्होंने गाँव के सांस्कृतिक पहलू को रेखांकित किया। टी. राजु ने भी अपने अनुभव बताए। मेंढ़ा लेखा गाँव में की जा रही बांस की खेती के बारे में भी उन्होंने चर्चा की।
            चर्चा के अंत में प्रो. उल्हास जाजू ने मेंढ़ा-लेखा गाँव के बनने की पूरी प्रक्रिया की संक्षिप्त चर्चा की। उन्होंने बताया कि वनों पर सामुदायिक अधिकार कानून बनाने के साथ-साथ इस गाँव ने सबसे पहले उसे हासिल भी किया। तत्कालीन केंद्रीय वन-पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने उस गाँव में आकार वनों पर सामुदायिक अधिकार की घोषणा की थी। उन्होंने बताया कि तीन वर्ष पूर्व इस गाँव ने अपनी भूमि ग्राम सभा को दान कर दिया है। अब वहाँ भूमि की मिल्कियत पर व्यक्तिगत मालिकी नहीं है। ग्राम सभा ने हर किसी को उस भूमि पर कृषि करने हेतु दे रखी है। श्रमजीवी समाज के लिए इस गाँव ने एक नया आदर्श खड़ा किया।

इस सात दिवसीय कार्यशाला के समापन-सत्र की अध्यक्षता महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति प्रो. आनंद वर्धन शर्मा ने की। संचालन डॉ. मिथिलेश कुमार ने किया। उक्त मौके पर प्रो. उल्हास जाजू, विश्वविद्यालय के कुलसचिव कादर नवाज खान, डॉ शंभू जोशी एवं एनसीआरआई के डॉ. डी. एन. दास मौजूद थे। एनसीआरआई के डॉ. डी. एन. दास को प्रतिकुलपति ने अंगवस्त्र, सूत की माला व चरखा भेंट कर सम्मानित किया। समापन सत्र में पूरे कार्यक्रम की संक्षिप्त रिपोर्ट डॉ. मुकेश कुमार ने प्रस्तुत किया। समापन सत्र में दो प्रतिभागियों टी. राजू एवं डॉ. राहुल निकम ने बारी-बारी से अपने अनुभव शेयर करते हुए बताया कि इस कार्यशाला से उन्हें काफी फायदा मिला और ग्रामीण समुदाय को सूक्ष्मता से जानने-समझने का मौका मिला। दोनों ने कहा कि इस किस्म का फ़ैकल्टी डेवलपमेंट प्रोग्राम एक सप्ताह मात्र न होकर पंद्रह दिनों का होना चाहिए। उक्त मौके पर एनसीआरआई के डॉ. डी. एन. दास ने अपना मत प्रकट करते हुए कहा कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय ने यह आयोजन कर महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने प्रतिकुलपति और कुलसचिव से ग्रामीण समुदाय से लगाव बढ़ाने हेतु इसे पाठ्यक्रम का अंग बनाने में सहयोग का अनुरोध किया। समापन सत्र में ही प्रतिकुलपति एवं कुलसचिव के हाथों सभी प्रतिभागियों के बीच प्रमाण-पत्र वितरित किया गया।

समापन सत्र में अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति प्रो. आनंद वर्धन शर्मा ने कहा कि ग्रामीण समुदाय पर केन्द्रित महत्वपूर्ण कार्यशाला सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए आप सभी बधाई के पात्र हैं। उन्होंने कहा कि भारत के गाँव तमाम अभावों के बावजूद विशिष्टता लिए हुए हैं। गाँव में आतिथ्य भाव आज भी कायम है। गाँव से आज भी बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। गांव में आज सुविधाओं का अभाव है, लोग बड़े पैमाने पर गाँव से विस्थापित हो रहे हैं। उन्होंने महाराष्ट्र के चर्चित मॉडल गाँव हिबरे बाजार के प्रयोग की भी चर्चा की। प्रतिकुलपति ने एनसीआरआई से महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में एक स्थायी केंद्र बनाने का भी निवेदन किया, जहां वर्ष भर इस प्रकार के ग्राम केन्द्रित कार्यक्रम संचालित किए जा सकें। समापन सत्र में सभी प्रतिभागियों को कुलसचिव कादर नवाज खान ने धन्यवाद ज्ञापित किया।

रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, नरेश गौतम, गजानन एस. निलामे एवं डिसेन्ट कुमार साहू.


वर्धा : संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के छठे दिन प्रतिभागियों के अलग-अलग समूहों के बीच हुई चर्चा


वर्धा, 24 मार्च 2018. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी सामाजिक कार्यअध्ययन केंद्र एवं राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थान परिषद, हैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में सात दिवसीय ग्रामीण सहभागिता में संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के छठे दिन सेवाग्राम स्थित गांधी आश्रम का अवलोकन करते हुए सेगांव ग्राम का शैक्षणिक भ्रमण किया गया।
शनिवार को भोजनोपरांत सत्र का प्रारंभ हुआ। सत्र के प्रारंभ में डॉ. मिथिलेश कुमार ने शेष कार्यक्रम की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की। उसके उपरांत एनसीआरआई के डी. एन. दास ने चर्चा के लिए बाकी बचे दो समूहों को आमंत्रित किया। समूह चर्चा टीम ने खेती, किसानी और शिक्षा पर चर्चा की। चर्चा की शुरुआत डॉ. मुकेश कुमार ने की। चर्चा में डॉ. देवाशीष मित्रा ने ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था के इतिहास की संक्षिप्त चर्चा की। उन्होंने कहा कि भारत में कृषि अत्यंत ही विविधतापूर्ण इसलिए भारत में कृषि का कोई एकसमान पाठ्यक्रम नहीं बन सकता है। सभी राज्यों की भौगोलिक स्थिति में भी काफी भिन्नता है।

वहीं इस समूह के सदस्य डॉ. पार्थसारथी मल्लिक ने समूह चर्चा में कहा कि ग्रामीण समुदाय की बहुसंख्या कृषि पर निर्भर है। ग्रामीण क्षेत्र में कृषि की स्थिति बदहाल बनी हुई है। आज की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित नहीं रह गई है। लोग गाँव से पलायन कर रहे हैं। गाँव के लोगों को आज बिजली चाहिए, शिक्षा चाहिए, स्वास्थ्य चाहिए। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के चर्चित मेंढ़ा लेखा मॉडेल विलेज की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि सबकुछ के बावजूद उस गाँव में शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी और वहाँ शिक्षा को लेकर जागरूकता का अभाव था। सरकारी शिक्षा व्यवस्था अत्यंत ही बदहाल है। निजी शिक्षा संस्थानों में अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए संसाधन नहीं है। हर गाँव में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। गाँव केन्द्रित पाठ्यक्रम विकसित करने की जरूरत है।

डॉ. देवाशीष मित्रा ने चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि शिक्षा की आदर्शवादी परिकल्पना को सरजमीं पर उतार पाना काफी मुश्किल है। डॉ. पार्थसारथी मल्लिक ने गांधी के बुनियादी तालीम की भी चर्चा की। डॉ. मुकेश कुमार ने गांधी के बुनियादी तालीम के हृदय, हाथ और मस्तिस्क के संतुलित विकास के सिद्धान्त और व्यवहार पर प्रकाश डाला। शोधार्थी नरेश गौतम ने कहा कि आज 'वन इंडिया वन प्लान' की कोशिश की जा रही है। जबकि भारत के अलग-अलग राज्यों में भूमि का वितरण अत्यंत ही असमान है, मुट्ठीभर हाथों में आज भी भूमि का ज़्यादातर हिस्सा है जबकि ज़्यादातर लोग खेत-मज़दूर हैं।
समूह ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि कृषि केन्द्रित पाठ्यक्रम बनना चाहिए। समूह ने यह बात स्पष्टता के साथ कहा कि पूरे भारत के लिए कृषि पर केन्द्रित कोई एक पाठ्यक्रम नहीं हो सकता, कृषि की विभिन्नता, भौगोलिक भिन्नता आदि का ख्याल रखते हुए ही कृषि का कोई पाठ्यक्रम विकसित व निर्धारित किया जाना चाहिए। समूह चर्चा टीम की प्रस्तुति के उपरांत उपस्थित प्रतिभागियों ने अपने-अपने सुझाव दिए। चर्चा के अंत में एनसीआरआई के डी.एन. दास ने भी अपनी बातें रखी।


महाराष्ट्र के वर्धा जिले के देवली ब्लाक के लोनी गाँव में किए जा रहे प्रयोग को सीएम फ़ेलो अतुल ए. राऊत ने प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि ग्राम परिवर्तन अभियान के तहत महाराष्ट्र सरकार राज्य के एक हजार गांवों की शिनाख्त कर उसे विकसित करने का कार्यक्रम चला रही है। फिलहाल 450 गाँव में काम करने हेतु 350 सीएम फ़ेलो बहाल किए गए हैं। 9 बड़े कॉरपोरेट घरानों के कॉरपोरेट सोशल रेस्पोन्सिबिलिटी के तहत इस कार्य को आर्थिक सहयोग कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि राज्य सरकार ने हमें योजना बनाने और उसे लागू करने की एक साथ ज़िम्मेदारी दी है। गाँव के सामुदायिक स्वास्थ्य को लेकर चलाई जा रही योजना की उन्होंने विस्तृत चर्चा की। गाँव में आसपास के सहयोग से पुस्तकालय की व्यवस्था करने, कृषि के विकास आदि क्षेत्रों में किए जा रहे कार्यों पर भी उन्होंने विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला।
एनसीआरआई के डी.एन. दास ने ग्रामीण समुदाय के साथ सहभागिता बढ़ाने हेतु पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने हेतु महत्वपूर्ण सुझाव पेश किए। उन्होंने विश्वविद्यालय के छात्रों-शिक्षकों को गाँव से जुडने, उनके बीच कार्य करने हेतु कदम बढ़ाने पर ज़ोर दिया। गाँव के लोगों से जुड़ते हुए सरकार द्वारा चलाई जा रही विकास योजनाओं को बेहतर ढंग से लागू करने में शिक्षकों-विद्यार्थियों की भूमिका भी उन्होंने रेखांकित किया।

सत्र का अंत सामाजिक कार्यकर्ताओं की भूमिका के लिए गठित समूह ने नाट्य प्रस्तुति के जरिये सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवियों व छात्र-छात्राओं की भूमिका कॉ बेहतरीन ढंग से रेखांकित किया। इस समूह ने एक निरक्षर व्यक्ति को रोज़मर्रा की जिंदगी में आने वाली कठिनाइयों का चित्रण करते हुए शिक्षा की महत्ता को संवेदनशील ढंग से सामने लाने का प्रयास किया। शिक्षा के प्रति जागरूकता लाने में सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों व छात्र-छात्राओं की भूमिका को भी भली भांति चित्रित किया। समूह ने शिक्षा के सशक्त माध्यम के बतौर नाट्य प्रस्तुति की महत्ता पर भी प्रकाश डाला। इस समूह में टी. राजू, डॉ. विजय कुमार वाघमारे, डॉ. भरत खंडागढ़े एवं श्याम शर्मा शामिल थे। अंत में एनसीआरआई के डी.एन. दास ने इसपर अपने विचार व्यक्त किए। गजानन एस. निलामे द्वारा धन्यवाद ज्ञापन के साथ सत्र की समाप्ति हुई। 
 
रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, नरेश गौतम, गजानन एस. निलामे, डिसेन्ट कुमार साहू

Saturday, March 24, 2018

वर्धा : संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के चौथे दिन ग्रामीण स्वास्थ्य व अन्य मुद्दों पर हुई गहन चर्चा



वर्धा, 22 मार्च 2018. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी सामाजिक कार्य अध्ययन केंद्र एवं राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थान परिषदहैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में सात दिवसीय ग्रामीण सहभागिता में संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के चौथे दिन दत्ता मेघे इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंस के संकायाध्यक्ष डॉ. अभय मूढ़े ने 'सामुदायिक स्वास्थ्य एवं स्वच्छता' विषय पर केन्द्रित सत्र को संबोधित किया। ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति शहरों से अलग है। गांवों की स्थिति आज पहले से काफी बदल गई है। गांवों का कई मामलों में विकास हुआ है। गांवों में बिजली, इंटरनेट की सुविधाएं पहुंची है, गांवों में शौचालय बने हैं। बावजूद इसके आज भी ढेर सारे गांवों में जागरूकता का अभाव है। गाँव में शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति आज भी बहुत बेहतर नहीं है। गाँव में आंगनबाड़ी केंद्र बने हैं। गांवों में स्कूल हैं, पर वहाँ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है। ग्रामीण क्षेत्र में बच्चों के बीच में ही स्कूल छोड़ने की तादाद सबसे ज्यादा है। स्वच्छता की भारी कमी है। नालियाँ खुली पड़ी हुई हैं, उसके साफ-सफाई की नियमित व्यवस्था नहीं है।

उन्होंने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों के लिए स्वास्थ्य केंद्र और स्वास्थ्य उपकेंद्र तो बने हुए हैं, किन्तु वहाँ चिकित्सकों का अभाव है। तीन हजार से ज्यादा आबादी वाले गाँव में छोटा स्वास्थ्य केंद्र का प्रावधान है, किन्तु ज़्यादातर गांवों में आज भी इसकी गारंटी नहीं हो पाई है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में एक पुरुष व महिला डाक्टर होना चाहिए। किन्तु ढेर सारे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ऐसे हैं जहां डाक्टर तो हैं, किन्तु जरूरी दवाओं की भारी कमी है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी आधा से अधिक गाँव में खुले में शौच जाना जारी है। इसका स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है। इससे खाद्यान्न, शाक-सब्जी के संक्रमित होने का खतरा बढ़ जाता है। गाँव में शरीर और हाथों की साफ-सफाई को लेकर भी समुचित जागरूकता का अभाव है। भारत सरकार ने 1998 से सभी शहर और गाँव को स्वच्छ व निरोगी बनाने का संकल्प लिया है। सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान भी चलाया जा रहा है। इन सबके बीच ग्रामीण क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल का अभाव बना हुआ है।
            आगे उन्होंने बताया कि निर्मल भारत अभियान के तहत ग्रामीण स्कूलों के बच्चों को स्वच्छता के प्रति जागरूक किया जाता है। निर्मल ग्राम पुरस्कार भी दिए जाते हैं। स्वच्छता रथ के जरिए भी जागरूकता लाने की कोशिश की जा रही है। 9 से 15 अगस्त तक स्वच्छता सप्ताह के रूप में मनाया जाता है। जनजागरूकता लाने में मीडिया की भी अहम भूमिका होती है।
            सत्र का संचालन डॉ. मिथिलेश कुमार ने और धन्यवाद डॉ. मुकेश कुमार ने किया।

चौथे दिन के दूसरे चर्चा सत्र में नेशनल इस्टिट्यूट आफ रुरल डेवलपमेंट एंड पंचायती राज, भारत सरकार, हैदराबाद के पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर एवं मातृसेवा संघ इंटीट्यूट आफ सोशल वर्क, नागपुर में एसोसिएट प्रोफेसर रहे इंडियन जर्नल आफ सोशल वर्क एंड सोशल साइंसेज के इश्यू एडिटर रह चुके डॉ. अजित कुमार ने '14 वें वित्त आयोग: ग्राम पंचायत डेवलपमेंट प्लान' को दो केस स्टडी- सिंघाना ग्राम पंचायत (मध्यप्रदेश) एवं पटोदा (महाराष्ट्र) के संदर्भ में इसकी विस्तृत चर्चा की। महाराष्ट्र के प्रत्येक ग्राम पंचायत को औसतन 48 लाख रुपए का अनुदान प्राप्त हुआ है। एंड, फंक्शन और फंक्शनरी के बीच बेहतर तालमेल के बगैर ग्राम पंचायतों का विकास मुश्किल है। कई राज्यों में ग्राम पंचायतों को शक्तियाँ तो दी गई हैं, किन्तु वहाँ स्टाफ वगैरह की व्यवस्था समुचित तौर पर नहीं किया गया है। केंद्र सरकार द्वारा ग्राम पंचायत को 29 तरह के अधिकार दिए हैं किन्तु ज़्यादातर राज्य सरकारों ने ग्राम पंचायतों को अब तक ये सारे अधिकार नहीं दिए हैं।
            उन्होंने कहा कि वित्त आयोग ही विभिन्न योजनाओं पर खर्च किए जाने वाली राशि का बंटवारा करता है। आज तक ग्राम पंचायतों को समुचित राशि उपलब्ध नहीं कराई जा सकी है। ग्राम पंचायतों के पास आज न तो सत्ता है और न ही समुचित संसाधन है। भारत के कुछ राज्यों में ग्राम पंचायतों को एक हद तक शक्ति का हस्तांतरण किया गया है किन्तु ज़्यादातर राज्यों में ऐसा नहीं हो पाया है। हर ग्राम पंचायतों को अपनी परिस्थिति के विश्लेषण का भी वैधानिक प्रावधान है। ग्राम पंचायतों के पास जितने स्थानीय संसाधन हैं, उसका भी सम्पूर्ण ब्योरा ग्राम पंचायतों के पास होना चाहिए। देश में यथार्थपरक अध्ययन के तथ्य और आंकड़ों की भारी कमी है। इसमें सामाजिक कार्यकर्ताओं की अहम भूमिका हो सकती है।
            मध्यप्रदेश के धार जिले के मनावर ब्लाक के सिंघाना ग्राम पंचायत की केस स्टडी के आधार पर डॉ. अजित कुमार ने कहा कि यह मध्यप्रदेश के पिछड़े जिले में आता है। यहाँ ज्यादातर भीलों की आबादी है। 2005 के पूर्व इस ग्राम पंचायत के लोगों के पास पेय जल की व्यवस्था नहीं थी। लोगों का पानी की तलाश में ही ज़्यादातर वक्त खर्च हो जाता था। सड़क भी नहीं थी, दूसरे गाँव के लोग इस गाँव में अपनी लड़की की शादी करने तक को तैयार नहीं होते थे। इस ग्राम पंचायत में आए बदलाव का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि आज गाँव की सड़क बन गई है, 60 फीसदी घरों में शौचालय है। पुल-पुलिया बन गए हैं। सामुदायिक भवन हैं। घर-घर नल का पानी पहुँच गया है। मनरेगा के तहत इस गाँव में जबरदस्त काम हुआ। ग्राम पंचायत अपनी सारी गतिविधियों का सुव्यवस्थित ढंग से दस्तावेजीकरण कर रहा है।
            उक्त गाँव में कृषि के उत्पादन में भी वृद्धि हुई है। सिंचाई के लिए कुएं खोदे गए हैं। सुव्यवस्थित ग्राम पंचायत भवन सुचारु ढंग से चल रहा है। यह सारा परिवर्तन 2005 से 2015 के बीच हुआ है। इसमें मनरेगा योजना की अहम भूमिका रही। मनरेगा से इस गाँव का विकास हुआ। संदीप अग्रवाल नामक एक स्थानीय व्यक्ति के कुशल नेतृत्व की इसमें अहम भूमिका रही। आज यह धार जिले का चमकता हुआ तारा बन चुका है। उन्होंने कहा कि मनरेगा योजना के ठप्प हो जाने से सिंघाना के लोग एक बार फिर पलायन करने को विवश हो गए हैं। यहाँ से छोटी उम्र के बच्चे को गुजरात के सूरत आदि जघों पर कपास बिनने के लिए ले जाया जाता है।  
            डॉ. अजीत कुमार ने महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के पटोदा ग्राम पंचायत की केस स्टडी के आधार पर बताया कि इस गाँव की आबादी 3350 है। यह मराठा बाहुल्य गाँव है। 2005 में जहां इस ग्राम पंचायत को 2,14,000 रुपए मात्र का अनुदान प्राप्त हुआ था वहीं 2012-13 में 28,30,627 रुपए का अनुदान प्राप्त हुआ। पूर्व में गाँव में चार आटा चक्की था, जिसकी जगह पर ग्रामसभा ने चारों को बंद कर आपसी सहयोग से एक बड़ी आटा चक्की स्थापित की। इस गाँव में हुए अभिनव प्रयोग की उन्होंने विस्तृत चर्चा की। अंत में प्रतिभागियों के प्रश्नों का भी उन्होंने उत्तर दिया। इस सत्र का संचालन एवं आभार ज्ञापन डॉ. आमोद गुर्जर ने किया।   

तीसरे चर्चा सत्र का संयोजन एनसीआरआई के डीएन दास ने किया। सत्र में सभी सहभागियों ने सिलसिलेवार ढंग से अपने-अपने सबन्धित विषय पर प्रस्तुति दी। प्रथम सहभागी के रूप मे डॉ आमोद गुर्जर ने अपने शोध के अंतर्गत आनेवाली विभिन्न प्रक्रियाओं तथा टूल्स- टेकनिक्स की बात की। प्रस्तुति के दरम्यान उन्होंने ग्रामीण क्षेत्र में प्रयुक्त विभिन्न पद्धतियां जैस-पीआरए, आरआरए पर चर्चा की। इसके साथ ही उन्होंने पीएलए को केंद्र मे रखते हुए ग्रामीण क्षेत्र की सहभागिता पर अपनी बात रखी। प्रस्तुति के बाद प्रश्नोत्तरी में Practice Based Research Methodology पर बात हुई। दूसरे प्रतिभागी के रूप में डॉ. शिवसिंह बघेल ने शोध-प्रविधि के अंतर्गत आनेवाली पीआरए, आरआरए तथा एलएफए की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए अपनी प्रस्तुति की। पीआरए पर विशेष रूप से बात करते हुए उन्होंने सोशल मैपिंग, चपाती डायग्राम तथा अन्य मैट्रिक्स पर विस्तृत चर्चा की। उन्होंने आगे बताया कि ग्रामीण सहभागिता के लिए गावों में प्रवेश करते ही पहले 'ट्रांज़िट वाक' करना पड़ता है। जिसमें गाँव के प्रति ज़्यादातर जानकारी शोधकर्ता को प्राप्त किया जा सकता है। सामाजिक मानचित्रण पर बात करते हुए उन्होंने गाँववालों को इस प्रक्रिया में सहभागिता की तकनीकों के बारे में बताया।
रिसोर्स मैपिक पर बात करते हुए ग्रामीणों की सहभागिता से ग्रामीण संसाधन की पहचान करने की तकनीक पर भी बात की। इसके बाद चपाती डायग्राम तथा Service Mapping के उपयोग की भी उन्होंने चर्चा की। डॉ. बघेल ने पीआरए के साथ-साथ एलएफए की प्रविधि की भी संक्षिप्त चर्चा की। इसके साथ ही केंद्र के विद्यार्थियों के द्वारा सेवाग्राम गाँव में प्रयुक्त पीआरए प्रविधि के अंतर्गत किए गए कार्य को भी उन्होंने प्रस्तुत किया।
            सत्र को आगे बढ़ाते हुए केंद्र के निदेशक प्रो. मनोज कुमार ने ग्रामीण क्षेत्र में क्षेत्र सबंधी परियोजना पर शिक्षकों के सामने विभिन्न क्षेत्र तथा सुझाव प्रस्तुत किया। उन्होंने शिक्षकों का इस ओर ध्यान केन्द्रित किया कि हमें आदर्शवादी तरीके के बजाय इसे गाँव के लोगों की स्वीकार्यता से जोड़ना होगा। हम क्या चाहते हैं, इससे ज्यादा जरूरी है कि गाँव के लोग क्या चाहते हैं। इसी को मद्देनजर रखते हुए शोधकर्ता को गैप ढूँढने की कोशिश करनी होगी। अपने अनुभव बताते हुए उन्होंने बिहार के ग्रामीण क्षेत्र में प्रयुक्त पीएसपी की उपयोगिता को भी इसके साथ जोड़कर देखने की बात की। गांवों में कार्य करते समय एक दिन में समझकर उनकी समस्याओं का समाधान नहीं ढूंढा जा सकता, उसके लिए छोटे-छोटे मुद्दों को लेकर गहन कार्य करने की आवश्यकता है।
            अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने सभी शिक्षकों से यह निवेदन किया कि दो दिन के क्षेत्र-कार्य में आपके द्वारा किए जाने वाले कार्य का कच्चा ड्राफ्ट तैयार करने की अपेक्षा जाहिर की। साथ ही उन्होंने शिक्षकों से यह अपेक्षा जाहिर की कि हम लोगों को ग्रामीण भारत के लोगों की प्राथमिकता तय करने में उनकी मदद करनी होगी अन्यथा उनका भटकाव देश के विकास को अवरुद्ध करेगा। गांधी, कुमारप्पा एवं शुमाखर की बात उद्घृत करते हुए उन्होंने इसके भटकाव को रोकने की प्रविधि को अपनाने पर ज़ोर दिया।
            सत्र में आगे नागपुर से आयी प्रतिभागी डॉ. समृद्धि डाबरे ने ग्रामीण महिलाओं से संबन्धित मुद्दों पर कार्य करने की जिज्ञासा व्यक्त की। डॉ. पल्लवी शुक्ला ने अपने विषय - पर्यावरण पर बात करते हुए सामाजिक पर्यावरण के अध्ययन में अपनी रुचि जाहिर की। अगले प्रतिभागी अभिषेक त्रिपाठी ने गांवों को समझने में नैतिकता की ओर ध्यान केन्द्रित किया। पार्थसारथी मणिकाम ने शोध एवं पाठ्यक्रम को एक-दूसरे के साथ जोड़ने की बात करते हुए कहा कि व्यावसायिक जीवन से बाहर निकलकर स्वतः प्रयत्न से आगे निकलना होगा। उन्होंने आगे थ्योरी एवं प्रैक्टिकल को जोड़ने की संभावना पर अपनी बात रखी। इसके लिए कम से कम 15 दिन से लेकर 1 माह तक क्षेत्र में रहकर समुदाय के जीवन को समझने की आवश्यकता जताई। साथ ही सहभागिता को महत्वपूर्ण टूल्स बताया। सुझाव देते हुए उन्होंने पिछले तीन दिनों के अनुभवों को शेयर करते हुए इस बात की ओर ध्यान आकर्षित किया कि सेसन लेक्चर मोड से ज्यादा समस्या ओरिएंटेड तथा प्रश्नोत्तरी आधारित होना चाहिए। श्री वाघमारे तथा डॉ. भरत खंडागले ने यह सुझाव दिया कि लेक्चर मेथड के साथ विडियो विजुअल का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करने की बात की तथा प्रतिभागियों से फीडबैक लेने की महत्ता को रेखांकित की।

चतुर्थ सत्र में समूह '' ने Socio-Economic and Educational Problem पर अपनी बात रखी। इसमें डॉ. सोनवाने, डॉ. सतपुते तथा अन्य ने अपनी प्रस्तुति दी। ग्रामीण विकास के समाधान प्रस्तुत करते हुए उन्होंने विभिन्न स्टेक होल्डरों को साथ लेते हुए ग्रामीणों से जुड़ी विभिन्न समस्याओं पर अपनी बात रखी। इस कार्य में विभिन्न राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय तथा स्थानीय संगठनों की भूमिका का महत्व रेखांकित किया। पर्यावरणीय मुद्दों का घटना अध्ययन करते हुए उन्होंने अपनी बात रखी। समाज कार्य प्रविधियों में से एक सामाजिक वैयक्तिक सेवा कार्य की 'सहायक प्रक्रिया' पर बात रखी। जिसमें उन्होंने 'एडिक्सन' की समस्या पर विस्तृत चर्चा की। इसके अंतर्गत एडिक्सन के विभिन्न प्रकारों व उसकी विशेषताएँ तथा उसके शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक आदि प्रक्रियाओं पर पड़ता है। उन्होंने कहा कि इसको समझने के लिए उसके विभिन्न कारणों की चर्चा की। इसी कड़ी में आगे डॉ. अशोक सातपूते ने भारत में जनसंख्या वृद्धि की समस्या पर अपनी बात रखी। इसमें उन्होंने जनसंख्या वृद्धि के कारणों तथा प्रभावों को बताते हुए उन्होंने उसके समाधान की बात की। इन समाधानों में समाज के विभिन्न संस्थाओं एवं संगठनों की भूमिका की चर्चा की। प्रस्तुति के अंत में 'भूमिका निर्वहन' में एडिक्सन समस्या में सामाजिक वैयक्तिक सेवा कार्य की उपयोगिता को प्रस्तुत किया।
            सत्र के अंत में डॉ. मुकेश कुमार ने महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के मेंढ़ा-लेखा मॉडल विलेज की संक्षिप्त चर्चा की। तदुपरान्त एनसीआरआई के डीएन दास ने धन्यवाद ज्ञापन किया।


रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, नरेश गौतम, गजानन एस. निलामे, डिसेन्ट कुमार साहू, सुधीर कुमार, माधुरी श्रीवास्तव, खुशबू साहू एवं सोनम बौद्ध.

Wednesday, March 21, 2018

वर्धा : संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के तीसरे दिन ग्रामीण स्वास्थ्य और कृषि समस्या पर हुई चर्चा



वर्धा, 21 मार्च 2018. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी सामाजिक कार्य अध्ययन केंद्र एवं राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थान परिषद, हैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में सात दिवसीय ग्रामीण सहभागिता में संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के तीसरे दिन के प्रथम चर्चा सत्र 'विश्वविद्यालयों का समाज से जुड़ाव की आवश्यकता' विषय पर गांधी ग्राम रुरल इंस्टीट्यूट तमिलनाडु एवं उत्तरप्रदेश के चित्रकूट विश्वविद्यालय के कुलपति रहे एग्रोइंडस, वर्धा के निदेशक प्रो. टी. करुणाकरण ने संबोधित करते हुए कहा कि शिक्षा और समाज के बीच गहरा अंतरसंबंध होता है। वर्तमान शिक्षा पद्धति किताबी हो गई है। भारत में शिक्षा व्यवस्था अत्यंत ही समृद्ध रही है। हमारे यहाँ प्राचीन भारत में नालंदा विश्वविद्यालय जैसा शिक्षा का विश्व प्रसिद्ध हुआ करता था। पुराने समय की गुरुकुल पद्धति में स्वावलंबी जीवन दर्शन की शिक्षा गुरु के सान्निध्य में दी जाती थी। नालंदा विश्वविद्यालय का समाज से गंभीर जुड़ाव था और विश्वविद्यालय समाज पर निर्भर था।
स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान रवीन्द्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन विश्वविद्यालय बनाया था। वहाँ श्रीनिकेतन था, जो ग्रामीण समुदाय से जुड़ा हुआ था। जिसे उनके शिष्य जी. रामचंद्रन ने 'गांधीग्राम रुरल विश्वविद्यालय' के रूप में आगे विकसित किया था। उन्होंने कहा कि देश के मौजूदा विश्वविद्यालय अत्यंत ही बदहाली के दौर से गुजर रहे हैं। विश्वविद्यालय ज्ञान का केंद्र है। इस ज्ञान का समाज के बदलाव-विकास में भूमिका होनी चाहिए। टैगोर और गांधी ने शिक्षा और समाज के बीच तालमेल स्थापित करने का प्रयास किया था। गांधी की बुनियादी शिक्षा पद्धति शिक्षा का बेहतरीन मॉडल है। शिक्षा को व्यवहारिक और प्रायोगिक दोनों होना चाहिए। सिद्धान्त और व्यवहार के बीच समुचित तालमेल आवश्यक है।
 उन्होंने टैगोर, गांधी के साथ-साथ उत्तरप्रदेश के चित्रकूट विश्वविद्यालय के शिक्षा मॉडल की चर्चा की। आदर्शवाद और व्यवहारिकता के बीच तालमेल की जरूरत को भी उन्होंने रेखांकित किया। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि वर्तमान हालात को बदलने में शिक्षण शालाओं की भूमिका होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि भारत में लाखों ग्राम पंचायत हैं। किन्तु ग्राम पंचायतों के अधिकार और कर्त्तव्य की लोगों को कोई समुचित जानकारी तक नहीं है। पंचायत प्रतिनिधियों को प्रशिक्षित किए जाने की भी कोई व्यवस्था नहीं है। विश्वविद्यालयों की इस कार्य में भूमिका हो सकती है। विश्वविद्यालयों का समाज को अपराधीकरण से मुक्त करने में तथा सामाजिक चुनौतियों के सार्थक समाधान में अहम योगदान हो सकता है। उन्होंने कहा कि शिक्षकों को सृजनात्मक कार्य की तरफ बढ़ना होगा।
सत्र के अंत में प्रतिभागियों ने भी अपनी जिज्ञासा रखी जिसका समाधान विषय विशेषज्ञ ने किया। सत्र का संचालन डॉ. मिथिलेश कुमार ने किया और धन्यवाद एनसीआरआई के डी. एन. दास ने किया।

महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस के डिपार्टमेन्ट ऑफ मेडिसिन के प्रो. प्रदीप देशमुख ने 'सामुदायिक सशक्तिकरण : पद्धति और तकनीक' विषयक चर्चा सत्र को संबोधित करते हुए कहा कि सामुदायिक सशक्तिकरण अत्यंत ही प्रचलित शब्द है। समुदाय के साथ अंतरसंबंध स्थापित करते हुए ही सामुदायिक सशक्तिकरण किया जा सकता है। समुदाय की जरूरतों की शिनाख़्त करते हुए उसे प्राथमिकता के आधार पर हल किया जाना आवश्यक है। समुदाय के साथ अर्थपूर्ण ढंग से जुड़ाव के जरिए सामुदायिक सशक्तिकरण के लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है। सामुदायिक सशक्तिकरण की प्रक्रिया में यह ध्यान रखा जाना आवश्यक है कि सभी किस्म की शक्तियाँ समुदाय को अनिवार्य तौर पर हस्तांतरित हों। पीआरए प्रक्रिया की भी उन्होंने विस्तृत चर्चा की। सत्र का संचालन डॉ. मिथिलेश कुमार ने किया।

तीसरे दिन भोजनावकाश के उपरांत चर्चा सत्र में राष्ट्रीय संत तुकड़ोजी महाराज विश्वविद्यालय, नागपुर के राजनीति विज्ञान विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. विकास जांभुलकर ने 'पॉलिसी प्लानिंग इन इंडिया' विषय पर अपनी बात रखते हुए कहा कि भारत में शहरी और ग्रामीण प्लानिंग अलग-अलग है। इसी कारण 'इंडिया' और 'भारत' की भी संकल्पनाएँ चर्चा में आती रहती हैं। प्लानिंग की पूरी प्रक्रिया में नौकरशाही की प्रधान भूमिका होती है और नौकरशाही के सोचने का अपना अलग ढर्रा होता है। प्लानिंग में विश्वविद्यालय महज बाजार की जरूरतों के अनुरूप वर्कर तैयार करने का केंद्र मात्र बनकर रह गया है।
उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री आवास योजना 2016 से चल रही है। इससे पूर्व इंदिरा आवास योजना चलाई जा रही थी। अभी ग्रामीण क्षेत्र के लिए 1, 20,000 रुपए की राशि आवास के लिए दी जा रही है। दुर्गम क्षेत्र के लिए एक लाख तीस हजार रुपए दिए जाते हैं। इस योजना में 20 हजार घर बनाने वाले कारीगरों को वर्ष 2022 तक ट्रेनिंग दिए जाने की भी योजना है। उसी प्रकार मनरेगा योजना में वर्ष 2017-18 के लिए 48 हजार करोड़ का प्रावधान किया गया है। इस योजना के तहत कंक्रीट की सड़कें बनी है, गाँव को नजदीकी मुख्य सड़क से जोड़ा गया है। सरकार ने 'मेरी सड़क' नाम से एप भी शुरू किया है, जिसपर शिकायत दर्ज किया जा सकता है। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर चलाई जाने वाली कई महत्वपूर्ण योजना, उसके निर्धारित लक्ष्य, योजना हेतु आवंटित की जाने वाली राशि आदि की विस्तृत चर्चा की। उन्होंने बताया कि दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल विकास योजना के 2 लाख लक्ष्य के विरुद्ध अब तक मात्र 83 हजार लोग ही प्रशक्षित किए जा सके हैं। और इसमें से मात्र 40 हजार लोगों को ही जॉब दिया जा सका है। उन्होंने योजनाओं के निर्माण के पीछे की राजनीति की भी चर्चा करते हुए कहा कि योजनाओं के निर्माण में लक्षित समूह का प्रतिनिधत्व ही नहीं होता, यह भारी कमी है।

तीसरे दिन के अंतिम चर्चा सत्र में विदर्भ के किसान आंदोलन एवं सर्व सेवा संघ से जुड़े चर्चित किसान नेता अविनाश काकड़े द्वारा भारत में कृषि परिवर्तन पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि कृषि परिवर्तन को उच्च स्तर पर जाकर देखना होगा। समाज द्वारा कृषि को देखने के नजरिए को हमें समझना होगा। भारतीय कृषि पर यहाँ की जाति, वर्ग से लेकर आज के ग्लोबलाइजेशन आदि प्रक्रियाओं का असर पड़ा है। भारतीय कृषि व्यवस्था की समस्याओं को सरकार के सामने लाने का कार्य पहली बार ज्योतिबा फुले द्वारा 18वीं सदी में हुआ। उन्होंने 'किसान का कोड़ा' नामक अपनी पुस्तिका में जो समस्याएं बतायी थी वह आज भी अनुत्तरित है।
1930 के बाद की कृषि में कुछ खास परिवर्तन नहीं हुआ है। उस समय कृषि उत्पादन का मूल्यांकन उसी वर्ष के आधार पर होता था, जिस वर्ष फसल अच्छी होती थी। आंदोलनों से कृषि मुद्दे जुड़े थे, जैसे कि नील खेती का आंदोलन। ऐसे कई सारे मुद्दों की ख़ासी भूमिका आज़ादी आंदोलन में रही है। उन्होंने आगे कहा कि अंग्रेजों के समय में अंग्रेजों ने अपनी व्यवस्था के लिए यहाँ पाटिल, कुलकर्णी तथा देशपांडे जैसे वर्ग का निर्माण किया था किन्तु आज़ादी के बाद 'लगान' पद्धति को बंद कराया गया था, जिसके चलते कृषकों को 50% तक हिस्सा सरकार को देना पड़ता था।
उन्होंने आगे कहा कि सौ में से 99 फीसदी कृषकों में अपने व्यवसाय के प्रति अज्ञानता है। इसके कारण उनका बड़े पैमाने पर शोषण हुआ है। आज़ादी के बाद की सरकारों ने कृषि सुधार हेतु निम्न कार्य किए- जमींदारी उन्मूलन कानून, सीलिंग कानून, देश में कृषि उत्पादन की बढ़ोत्तरी हेतु प्रयास करना आदि कई महत्वपूर्ण कार्य किए गए थे। इन सभी मामलों को लेकर केंद्र व राज्य की सरकारों ने कई कार्य किया किन्तु जनसंख्या नियंत्रण जैसे चीज छुट गई। आज हम जितना उत्पादन कर रहे हैं उतने में ही काफी हो जाता, अगर हमने शिक्षा जैसी बुनियादी चीजों पर ध्यान दिया होता। नतीजतन इतनी बड़ी जनसंख्या का भार कृषि पर पड़ने लगा और जमीन का छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटवारा होने लगा। 80 फीसदी कृषक अन्य भू-धारक के रूप में तब्दील हो गए। 2011 का एक सर्वे बताता है कि गांवों के 39 फीसदी लोगों के पास अब जमीन ही नहीं बची है। स्वतन्त्रता के बाद 4 फीसदी एरिगेशन को हम 40 फीसदी पर ले गए। 8 करोड़ हेक्टेयर एरिगेशन तथा बड़े बांधों से तथा 12 करोड़ हेक्टेयर जमीन पर खेती की जा सकती है। लेकिन सुरक्षित खेती के लिए कम से कम 50 से 60 फीसदी एरिगेशन होना चाहिए। ऐसे में हमारा यह लक्ष्य एरिगेशन क्षेत्र का विस्तार करना होना चाहिए। केंद्र सरकार द्वारा 75 लाख हेक्टेयर जमीन के एरिगेशन का लक्ष्य रखा गया और 10-12 लाख हेक्टेयर ही अब तक पहुँच पाया है।

अंत में उन्होंने यह कहा कि जब हम सोचते हैं कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है तब हमें अपनी ओर देखना होगा। बिना शिक्षा के किसानों की समझ में नहीं आएगा कि हमें करना क्या है। हमारे साथ क्या हो रहा है? उचित शिक्षा से ही उनका विवेक जागृत हो सकता है। इसके बाद ही वे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो सकेंगे। उन्होंने कहा कि भारत का विकास खेती के विकास के बगैर मुमकिन नहीं है। भारत की शुरुआती दो पंचवर्षीय योजनाएँ कृषि से संबन्धित रही है। 80 के दशक के पूर्व लोग नौकरी से ज्यादा खेती को प्राथमिकता देते थे। किन्तु आज स्थिति ऐसी होती जा रही है कि लोग खेत बेचकर चपरासी की भी नौकरी करने के लिए तैयार हैं। उन्होंने आज़ादी के पूर्व भारत में हुए किसानों के आंदोलन का जिक्र किया। उन्होंने महात्मा फुले, महात्मा गांधी से लेकर अन्य नेताओं के योगदानों की चर्चा की। उन्होंने आज़ादी के बाद किसानों के हित में उठाए गए कदमों की भी विस्तृत चर्चा की। आज़ादी के बाद किसानों का लगान माफ कर दिया गया। पूर्व में अंग्रेज़ बड़े पैमाने पर किसानों से लगान वसूलते थे। उन्होंने कहा कि कृषक आज भी अपने व्यवसाय को लेकर, बाजार को लेकर अशिक्षित हैं। किसान आज कर्ज में डूबते जा रहे हैं। पूर्व में भी अंग्रेजी राज में किसान महाजनों के कर्ज में डूबकर अपनी जमीन गंवा बैठते थे। आज वे आत्महत्या करने पर विवश हैं।  
उन्होंने कहा कि भूमि उसी की होनी चाहिए जो कृषि का कार्य करें। विनोबा जी को 42 लाख एकड़ जमीन दान में मिली थी, किन्तु उसमें से आधी से ज्यादा खेती योग्य नहीं थी। केवल 12 लाख एकड़ जमीन ही वितरित हो पायी है। सरकार ने सीलिंग एक्ट बनाया, सीलिंग से फाजिल भूमि एक हद तक ही किसानों के बीच वितरित की जा सकी। भारत में कृषि के लिए आवश्यक सिंचाई व्यवस्था का अभाव आज भी बना हुआ है। यहाँ की ज्यादातर खेती मानसून पर निर्भर है। 1200 लाख हेक्टेयर भूमि असिंचित है जबकि सरकार का लक्ष्य मात्र 75 लाख हेक्टेयर सिंचित करने का ही है, जो 10 फीसदी से भी कम है। इस सत्र का संचालन डॉ. मुकेश कुमार ने किया और आभार ज्ञापन डॉ. मिथिलेश कुमार ने किया।

रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, गजानन निलामे, नरेश गौतमडिसेन्ट कुमार साहू, सुधीर कुमारकुमारी आशु, माधुरी श्रीवास्तव, खुशबू साहू एवं सोनम बौद्ध.


Tuesday, March 20, 2018

संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के दूसरे दिन ग्रामीण समुदाय की समस्याओं पर हुई गहन चर्चा


वर्धा, 20 मार्च 2018. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी सामाजिक कार्य अध्ययन केंद्र एवं राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थान परिषद, हैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में सात दिवसीय ग्रामीण सहभागिता में संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के दूसरे दिन चर्चा सत्र के पूर्व पाँच राज्यों के विभिन्न विश्वविद्यालय से आए प्रतिभागियों ने अपने अनुभव साझा किए।

दूसरे दिन के प्रथम चर्चा सत्र में मातृ सेवा संघ इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल वर्क, नागपुर के एसोसिएट प्रोफेसर केशव वाल्के ने 'ग्रामीण समुदाय की समस्याएं' विषय पर अपनी बात रखते हुए कहा कि भारत की लगभग 70 फीसदी आबादी गाँवों में रहती है। आज विकास के नाम पर गाँव की भूमि का अधिग्रहण किया जा रहा है। इससे विस्थापन की समस्या पैदा हो रही है। महाराष्ट्र सरकार की इस वर्ष 13 करोड़ वृक्ष लगाने की योजना है तब सवाल यह उठता है कि क्या इतनी जमीन उपलब्ध है। वहीं दूसरी तरफ अंबानी व रामदेव जैसे व्यापारियों को राज्य की सैकड़ों एकड़ वनभूमि दी गई है। अंतर्विरोधी बात तो यह भी है कि पूंजीपतियों को कृषि भूमि वनभूमि तो दी जा रही है किन्तु भूमिहीनों को जमीन नहीं दी जा रही है। भूमि अधिग्रहण के बदले किसानों को मुआवजे के बतौर पैसे दिये जा रहे हैं। इस पैसे का सदुपयोग होने के बजाय विलासिता की वस्तुओं को खरीदने में खर्च हो रहा है। आज विस्थापित परिवारों की स्थिति बेहद दयनीय होती जा रही है। विस्थापितों के मुकम्मल पुनर्वास की सरकार के पास कोई ठोस योजना नहीं है। रोजगार नहीं होने की वजह से अपराधीकरण बढ़ रहा है। गाँव में रहने वाले ज़्यादातर लोग कृषि पर निर्भर हैं। मिट्टी और कृषि की समुचित जानकारी के अभाव में बहुफ़सली कृषि नहीं हो पा रही है। सरकार ने योजना में सभी के लिए ऑन लाइन आवेदन करने का प्रावधान किया है। किन्तु गाँव के लोगों को इसकी समुचित जानकारी ही नहीं है। कर्जमाफ़ी वगैरह को भी सही ढंग से जमीन तक पहुंचाया जा सका है। किसानों को सही वक्त पर बैंक से लोन नहीं मिल पाता है। इसके विपरीत समर्थ लोगों को सैकड़ों करोड़ रूपये का लोन आसानी से मिल जाता है और वे पैसा हजम कर जा रहे हैं।
            उन्होंने महाराष्ट्र में वन अधिकार प्राप्त करने वाले आत्मनिर्भर गाँवों की भी विस्तृत चर्चा की। उन्होंने बताया कि गाँव की सबसे बड़ी समस्या रही है कि यहाँ भूमि का वितरण अत्यंत ही असमान है। गाँव की जमीन आज शहर के धनी लोग खरीद ले रहे हैं। टाइगर रिजर्व आदि के नाम पर किसानों की जमीन तो ले ली जा रही है किन्तु वही जमीन बड़े-बड़े रेस्टोरेन्ट और होटल खोलने के लिए पूंजीपतियों को मुहैया कराई जा रही है। गाँव वालों की जमीन अधिग्रहण कर जो जल परियोजनाएं बन रही हैं, उसके लाभ से भी गाँव वंचित हो रहा है। गाँवों का पानी शहरों को आपूर्ति की जा रही है। ग्रामीण संसाधनों के लाभ से गाँव को वंचित करते हुए उसे शहर के हवाले किया जा रहा है। पूरे देश में बाघ अभयारण्य में से 6 अकेले विदर्भ में ही हैं। विदर्भ का पूरा जंगल अगर आरक्षित है तो गाँव के पशु कहाँ जाएंगे? आज यह सवाल उठ खड़ा हुआ है। मध्यप्रदेश के 90 गाँव बाघ परियोजना के दायरे में आ गए हैं। वहीं दूसरी तरफ जनपक्षधर क़ानूनों को राष्ट्रीय विकास का तर्क देते हुए बदला जा रहा है। ग्राम सभाओं के अधिकारों को अध्यादेश के जरिये छीना जा रहा है। परियोजनाओं के लिए भूमि दिये जाने का निर्णय लेने का अधिकार ग्राम सभा से अपहृत कर लिए गए हैं। जिनकी जमीनें अधिग्रहित की जाती हैं उन्हें प्रशिक्षण देकर उच्च पदों पर नौकरी देने के बजाए उन्हें चपरासी और गार्ड आदि की नौकरियों तक सीमित कर दिया जाता है। उन्होंने गाँव में व्याप्त अशिक्षा की समस्या की भी विस्तृत चर्चा की। उन्होंने कहा कि गाँव में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है। जहां गाँव के स्कूल खिचड़ी विद्यालयों में तब्दील हो चुके हैं। वहीं दूसरी तरफ शहरों-कस्बों में निजी स्कूल-अंग्रेजी स्कूल खुल गए हैं। गाँव के स्कूल भवन मात्र बनकर रह गए हैं। आज भी सरकारी स्कूलों में जातिगत भेदभाव जारी है। कमजोर तबकों के छात्रों के लिए चलाई जा रही योजनाएं भी प्रभावी ढंग से लागू नहीं हो पा रहा है। गाँव में स्वास्थ्य सुविधाओं का भी भारी अभाव बना हुआ है। आशा कार्यकर्ताओं और आंगनबाड़ी केन्द्रों पर गाँव की स्वास्थ्य व्यवस्था निर्भर है। बीमार पड़ने पर ग्रामवासियों को नजदीकी शहर जाना पड़ता है। गाँव से शहर तक पहुँचने हेतु समुचित यातायात सुविधाओं का आज भी भारी अभाव है। सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों में चिकित्सकों और स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी है। सरकारें पूँजीपतियों को तो कर्जमाफी दे रही है। किन्तु गरीबों- किसानों से ब्याज समेत पाई-पाई वसूल कर रही है आज लोग स्वकेन्द्रित स्वार्थी होते जा रहे हैं। लोगों की मानसिकता बदल गई है या यूं कहें कि बाजारवाद ने इसे बदल दिया है। गाँव में आज निवेश की मात्रा न्यून है। ज़्यादातर निवेश शहर केन्द्रित हो रहा है। सिंचाई की व्यवस्था भी संकटग्रस्त है। डैम बन गए हैं, लेकिन पानी निकासी के लिए कैनल नहीं बन पाये हैं।
            आगे उन्होंने कहा कि राजनीतिक दल और राजनेताओं की प्राथमिकता में भी गाँव की बदहाली दूर करना शामिल नहीं रह गया है। आज डिजिटल इंडिया की बात तो हो रही है पर देश की 30 फीसदी आबादी निरक्षर है। आधारभूत सुविधाओं की गारंटी के बगैर गाँव का विकास मुमकिन नहीं है। दूसरे देशों की परिस्थितियां भिन्न है, उसकी हु-ब-हु नकल भारत में नहीं की जा सकती है। भारत में आज भी अंधविश्वास बड़े पैमाने पर व्याप्त है, जो फिजूलखर्ची को बढ़ावा देता है। सामाजिक कुरीतियां भारतीय समाज के विकास में बहुत बड़ी बाधक हैं। भारत के गाँव के लोगों में सरकारी लोक कल्याणकारी योजनाओं और जनपक्षधर क़ानूनों की जानकारी का अभाव देखा जाता है। ग्राम पंचायत विकास कार्यक्रम भी सही ढंग से अमल में नहीं आ पाया है। सामाजिक न्याय विभाग की ढेर सारी योजनाओं से लाभुक वंचित रह जाते हैं। आज गाँव के लोगों को प्रशिक्षित करने वाले सहयोगियों का अभाव है। उपभोक्तावादी संस्कृति की चपेट में गाँव भी आ गए हैं। इस कारण कर्जखोरी की समस्या बढ़ रही है। नौकरशाही की भी गाँव की समस्या दूर करने में रुचि नहीं दिखाई पड़ती है।

दूसरे तकनीकी सत्र में 'भारत के ग्रामीण युवाओं की समस्या' विषय पर चर्चा करते हुए मातृ सेवा संघ इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल वर्क, नागपुर के एसोसिएट प्रोफेसर केशव वाल्के ने कहा कि आजकल भारत में 34.3 फीसदी युवा हैं। 13 से 35 वर्ष के लोगों को युवा कहा जाता है। युवाओं में लिंगानुपात तेजी से असंतुलित होता जा रहा है। महिलाओं की तादाद में भारी गिरावट आ रही है। बिहार, राजस्थान, चंडीगढ़, हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों में लिंगानुपात चिंताजनक गति से असंतुलित होते जा रहे हैं।
            ग्रामीण युवाओं को केंद्र में रखकर उनके मुद्दों को देखें तो युवाओं की शिक्षा व्यवस्था संकट में है। बेरोजगारी का सवाल भी भयावह होता जा रहा है। गाँव से युवाओं को शिक्षा, रोजगार आदि के लिए बड़े पैमाने पर पलायन करना पड़ता है। रोजगार के अभाव में युवा अपराध की तरफ जाने को विवश हैं। ग्रामीण युवाओं को राजनीतिक शक्तियों द्वारा अपने स्वार्थ के लिए गुमराह किया जा रहा है। राजनीतिक दलों के आईटी सेल युवाओं को टार्गेट कर अपने स्वार्थ में इस्तेमाल कर रहे हैं। ग्रामीण युवाओं को सूचनाओं की सही जानकारी नहीं मिल पा रही है। ग्रामीण युवाओं में बाजार के अनुरूप कौशल का अभाव है। इस कारण उन्हें बाजार में काम नहीं मिल पाता है। ग्रामीण युवा नशे की गिरफ्त में भी लगातार आता जा रहा है। युवाओं के विकास के लिए सरकार कई किस्म के कार्यक्रम चला रही है किन्तु उसका समुचित लाभ नहीं मिल पा रहा है।
            विषय विशेषज्ञ के सम्बोधन के उपरांत प्रतिभागियों ने बारी-बारी से अपनी राय रखी। सत्र का संचालन डॉ. आमोद गुर्जर ने किया।

भोजन अवकाश के बाद 'ग्रामीण युवा स्त्रियों की समस्या' विषयक तकनीकी सत्र को संबोधित करते हुए मातृसेवा संघ इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल वर्क, नागपुर की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. ज्योति निसवाड़े ने कहा कि युवाओं में लैंगिक स्तर पर भिन्नता मौजूद है। स्त्री और पुरुषों की समस्याओं में भिन्नता है। आज भारत को युवाओं का देश कहा जा रहा है। 2011 की जनगणना भी इसकी पुष्टि करता है। लेकिन इसका सबसे नकारात्मक पहलू यह भी है कि शिशु लिंगानुपात, युवा लिंगानुपात में काफी गिरावट दर्ज की जा रही है। लड़कियों के बाल विवाह में थोड़ी कमी आई दिखाई देती है। महिला साक्षरता दर में भी एक हद तक की वृद्धि हुई है। किन्तु पुरुष साक्षरता दर से यह आज भी कम है। रोजगार कि दृष्टि से महिलाओं का प्रतिशत पुरुषों से काफी कम है। देश में जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ शिक्षण के अवसर और सुविधाओं का विस्तार हुआ है किन्तु बेरोजगारी के सवाल का हल नहीं हो पा रहा है। एक सर्वे बताता है कि आज युवाओं की नजर में गरीबी और बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या है।

उन्होंने कहा कि दुनिया भर में युवाओं को शक्ति का प्रतीक माना जाता रहा है। लेकिन युवा आज शक्ति संरचना के केंद्र में नहीं है। युवा समाज व्यवस्था का महत्वपूर्ण घटक है। किन्तु समाज की संरचना युवाओं के कितने अनुरूप है, इसे गहराई में जाकर समझने की जरूरत है। युवाओं के समाजीकरण की प्रक्रिया पर ही युवाओं के व्यक्तित्व का विकास निर्भर करता है। युवाओं में भावुकता और आक्रामकता की भावना उनके तार्किक होने के मार्ग में बाधक होती है। युवा महिलाओं के आर्थिक, सामाजिक व मानसिक समस्याएं होती है। रोजगार की असुरक्षा, आर्थिक असुरक्षा व सामाजिक असुरक्षा युवा महिलाओं की प्रमुख समस्याएँ हैं।
            आगे उन्होंने कहा कि ग्रामीण युवाओं का अपने सवालों को लेकर देश के ग्रामीण हिस्सों में कोई प्रतिरोध दिखाई नहीं पड़ता। इसकी वजहें सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक संरचना और अशिक्षा में निहित है। युवा महिलाओं को समुचित सामाजिक दर्जा प्राप्त नहीं रहता है। युवा होते ही उनके परिजन उनके विवाह की चिंता करने लगते हैं। इस किस्म की सामाजिक परंपरा भी युवा महिलाओं के विकास में बाधक बनते हैं। युवा महिलाओं को अवसर की समानता नहीं मिलती है, महिलाओं को तरह-तरह का शोषण भी झेलना पड़ता है। ये सभी युवा महिलाओं के सशक्तिकरण में बाधक हैं। स्कूल छोड़ने वाले बच्चों में सबसे ज्यादा लड़कियां ही होती हैं। इस कारण वे शिक्षा से वंचित होकर रोजगार के अवसर से वंचित हो जाती है। ग्रामीण स्कूल में लड़कियों के अनुकूल व्यवस्था / संसाधन का घोर अभाव बना हुआ है। पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था में लिंग के आधार पर महिलाओं की भूमिका निर्धारण कर दी गई है। रूढ़िवादी परंपरा की बेड़ियां आज भी स्त्रियों के विकास में कदम-कदम पर बाधक बनी हुई है। ग्रामीण लड़कियों के लिए शिक्षा से ज्यादा प्राथमिकता घरेलू काम करने की ही होती है। इन कारणों से महिलाओं को आगे आने के लिए एक ही साथ कई मोर्चों पर संघर्ष करना पड़ता है। महिलाओं को घरेलू हिंसा का भी शिकार होना पड़ता है। उनकी आजादी को तरह-तरह से प्रतिबंधित किया जाता है। इस कारण भी महिलाओं के व्यक्तित्व के समुचित विकास में बाधाएँ आती हैं। परिवार की निर्णय प्रक्रिया में युवा महिलाओं की भूमिका नाममात्र की ही होती है। ज़्यादातर मौकों पर महिलाओं को निर्णय प्रक्रिया से अलग-थलग रखा जाता है।
            उन्होंने कहा कि ग्रामीण महिलाओं का एक स्वतंत्र संगठन का होना बहुत आवश्यक है तभी युवा महिलाओं का मुकम्मल सशक्तिकरण मुमकिन हो सकता है। आज ग्रामीण युवा महिलाओं को अपनी क्षमता और कौशल को दिखाने का कोई प्लेटफॉर्म मौजूद नहीं है।
            इस सत्र की चर्चा में प्रतिभागियों ने बालिकाओं की शिक्षा पर विशेष ज़ोर देते हुए कहा कि बालिकाओं को बेहतर शिक्षा के जरिये ही शोषण, विषमता आदि से मुक्ति मिल सकती है। 

कार्यशाला के दूसरे दिन के अंतिम चर्चा सत्र को संबोधित करते हुए डॉ. ज्योति निसवाड़े ने 'वृद्धि महिलाओं की समस्या' पर बोलते हुए कहा कि अलग-अलग समाज में वृद्धावास्था की अलग-अलग धारणाएँ हैं।  वृद्धावस्था एक यथार्थ और प्राकृतिक प्रक्रिया है। भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में हम देखते हैं कि वृद्धावस्था अत्यंत ही चुनौतीपूर्ण होती जा रही है। आज पारिवारिक और सामाजिक तौर पर कई किस्म की चुनौतियां पैदा हुई हैं। 19वीं सदी में उम्र के विभाजन को इतना महत्व नहीं दिया जाता था। वृद्धावस्था में आर्थिक तौर पर उत्पादन क्षमता में कमी आ जाती है। इसके साथ ही और कई बदलाव आते हैं। जीवन प्रत्याशा औसत में बढ़ोतरी हुई है। पूर्व में वृद्धों की निर्णय प्रक्रिया में जिस प्रकार की भूमिका होती थी उसमें आज काफी बदलाव आया है। बढ़ते शहरीकरण ने नाभिक परिवारों को बढ़ावा दिया है। संयुक्त परिवार लगभग खत्म होने के कगार पर हैं। इस वजह से भी वृद्धों की स्थिति में काफी परिवर्तन आया है। आज सामाजिक से ज्यादा आर्थिक तत्व परिवार पर ज्यादा असर डाल रहे हैं। इसने भी वृद्धों की स्थिति में बदलाव लाने में अहम भूमिका अदा की है। भारतीय समाज में इन सारे तत्वों का प्रभाव देखा जा सकता है। वृद्धों में भी महिलाओं की समस्याएँ अलग किस्म की हैं, उन्हें वृद्धावस्था में परिवार के बच्चों का लालन-पालन, घरेलू काम में तो योगदान करना पड़ता ही है साथ ही घर के बाहर के काम भी इन्हें करना पड़ता है।
            सत्र का संचालन डॉ आमोद गुर्जर ने किया धन्यवाद एनसीआरआई के डी.एन. दास ने किया।   

रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, नरेश गौतम, सुधीर कुमार, कुमारी आशु एवं सोनम बौद्ध.