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Friday, March 31, 2017

बेड़िया समुदाय: जाति, यौनिकता और राष्ट्र–राज्य के पीड़ित

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बेड़िया समुदाय जो कि कभी एक घुमंतू और आपराधिक प्रवृत्ति वाला समुदाय माना जाता रहा है लेकिन राज्य ने उसे अनुसूचित जाति की श्रेणी में श्रेणीबद्ध किया है और उनके विकास लिए तमाम तरह की योजनाएं भी चला रहा है ताकि उनका उत्थान हो सके लेकिन जैसा कि हमेशा होता है वैसा ही इन योजनाओं के साथ भी हुआ है। यह भी मात्र कागजों पर ही सीमित रह गयी हैं।
मध्य प्रदेश के जिला सागर और अशोकनगर, बीना के आस पास बहुत से गाँव है, जहाँ बेड़िया समुदाय के लोग निवास करते हैं। सिर्फ एक ही गाँव जिसका नाम पथरिया है वहाँ परिवर्तन देखने को मिलता है। उसके भी कारण हैं क्योंकि वहाँ 1984 से सत्य शोधन आश्रम की शुरुआत चम्पा बेन के द्वारा की गयी जिसका मुख्य उद्देश्य बेड़िया समुदाय का उत्थान करना था।
चम्पा बेन के द्वारा सबसे पहला कार्य बेड़िया समुदाय की बालिकाओं को शिक्षा देना था और वहाँ देह व्यापार में लगी महिलाओं को जागरूक करना था ताकि वह देह व्यापार जैसे कार्य से बाहर निकल सकें। साथ ही बेड़िया समुदाय में इससे पहले शादी जैसे संस्कारों का भी कोई मूल्य नहीं था, इसके लिए भी लोगों को जागरूक करने का काम किया गया। बाकी गाँव जहाँ बेड़िया समुदाय के लोग निवास करते हैं, वहाँ की स्थितियाँ बहुत ही खराब हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन राज्य की नीतियाँ भी इसके लिए बहुत हद तक जिम्मेदार हैं।

बेड़िया समुदाय पहले से ही शोषित रहा है क्योंकि उनके संपर्क हमेशा राजे-रजवाड़े, जमींदारों, मालगुजारों जैसे सामन्ती लोगों के साथ रहे हैं, जहाँ लगातार उनका शोषण किया गया। जिस तरह से सामन्ती लोगों ने इनका शोषण किया उसी तरह से आज भी हो रहा है।
 सरकार ने भूमिहीनों के लिए कृषि हेतु जो भूमि आवंटित की है, वह  इन्हें भी आवंटित की गयी, लेकिन यह उनके निवास स्थान से 20 या 35 किलोमीटर की दूरी पर है। इनमें से बहुत सारे लोगों को आज भी उस भूमि पर कब्जे नहीं मिले हैं। बहुत सारे ऐसे भी लोग हैं जिन्हें आज तक यह भी नहीं पता है कि उनकी भूमि आखिर आवंटित कहाँ है? जब भी बेड़िया समुदाय के लोगों ने अपने आप को परम्परागत पेशे से बाहर निकालना चाहा है तो उनके सामने कई तरह के सवाल खड़े हो जाते हैं। सबसे पहला सवाल उनकी पहचान का बनता है। जैसे ही लोगों को पता चलता है कि वे बेड़िया समुदाय से हैं तो लोग सहज उपलब्धता के कारण उनसे यौन संबंधो की अपील करते हैं या उन्हें उसी नजरिये से देखते हैं। इस तरह के सामाजिक दबाव को झेलना पड़ता है। यह समुदाय हमेशा किसी न किसी पर आश्रित होकर अपना जीवन निर्वाह करता रहा है। दूसरा यह समुदाय कभी कृषि कार्य से भी नहीं जुड़ा रहा। अब जिन परिवारों में दलित चेतना का विकास हुआ है और जिन्होंने अपने आप को अनुसूचित जाति की श्रेणी में भी गिनना शुरू कर दिया है, और अपने आप को इस कलंक से बाहर भी निकालना चाहते हैं, न तो उन्हें समाज इस कार्य से बाहर निकलने दे रहा है और न सरकार उनके लिए कोई ठोस कदम उठा रही है।

पूरा समुदाय हमेशा से ही उपेक्षा की नजर से देखा जाता है। यदि आप उस गाँव का नाम तक लेते हैं तो आप को लोग ओछी नजर से देखते हैं। लोगों की मानसिकता जाकर वहीं रुकती है कि आप उनके साथ अपने यौन संबंध बनाने जा रहे हैं। बुंदेलखंड में बसे ये लोग अपने लिए ही जीवन और नयी संभावनाएँ तलाश करने में जुटे तो हैं लेकिन यह सभ्य समाज ही उन्हें इस दलदल से बाहर नहीं निकलने दे रहा है। दूसरा कारण यह भी है कि राज्य सरकार इनको अनुसूचित जाति की श्रेणी में श्रेणीगत करती है, लेकिन इस समुदाय में आज भी वह चेतना नहीं जागी है। यहाँ तक कि बहुत से बेड़िया आज भी अपने को उच्च श्रेणी में ही गिनते हैं। ये उन लाभों को भी नहीं ले पाते हैं, जो सरकार अनुसूचित जाति के लिए देती है। पूरे समुदाय में शिक्षा की कमी भी इनके विकास में सबसे बड़ी अवरोधक है, जो इन्हें इस काम से बाहर नहीं निकलने दे रही है।

यदि पूरे बुंदेलखंड और उसकी परिस्थितियों को देखेँ तो ये भी कृषि के लिए अनुकूल नहीं है। जब इनके इतिहास पर नजर डालते हैं तो यह समुदाय कभी भी कृषि कार्य या अन्य व्यवसाय से जुड़ा दिखायी नहीं देता है। अतः इनके लिए कृषि कार्य से जुड़ना अपने आप में एक मुश्किल कार्य है। जिस तरह से इस समुदाय कि निर्मिति के साक्ष्य मिलते हैं उससे तो यही लगता है कि इस समुदाय के उत्थान के लिए सरकार या अन्य संस्थायें इनको इस देह व्यापार के व्यवसाय से बाहर निकालना नहीं चाहती हैं, अन्यथा इनके लिए किसी उचित व्ययसाय की व्यवस्था की जानी चाहिए थी।

ग्राम परसरी की बेला कहती हैं कि- “मुझे यह काम छोड़े काफी साल हो गए हैं। अभी तक मेरा पूरा परिवार इस काम से बाहर आ गया है लेकिन जब से हमने देह व्यापार और राई को छोड़ा है, तब से हम लोग अपने लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ भी ठीक से नहीं कर पाते हैं। हमारे ही गाँव के लोग आज हमसे बहुत धनी हैं और उनके पास आधुनिक सुख सुविधा के साधन हैं, रहने के लिए अच्छे घर हैं। हम तो रोटी के लिए भी मोहताज हैं, बीड़ी बनाने और मजदूरी से घर का खर्च तो किसी तरह चल जाता है लेकिन किसी और काम के लिए पैसे नहीं बचते हैं। कई बार तो यही लगता है कि हमने राई को छोड़ कर बहुत गलत किया। कई बार वापस जाने का मन भी करता है लेकिन फिर सोच कर रह जाती हूँ ”।

यह कहानी किसी एक महिला की नहीं है। बेड़िया समुदाय में इस तरह के बहुत से परिवार मिल जाएंगे। करीला की एक महिला बताती हैं कि सामाजिक दबाव के चलते मैंने राई तो छोड़ दी, लेकिन कोई और काम भी नहीं था। घर के मर्द कुछ भी नहीं करते और पूरे दिन दारू के नशे में घूमते हैं। दारू के लिए भी पैसे मुझसे ही माँगते हैं, इसलिए वापस यहाँ करीला मंदिर पर ‘बधाई’ करती हूँ। शाम तक 2-3 सौ रुपए मिल जाते हैं पर कभी-कभी कुछ भी नहीं मिलता, लेकिन अपने साथ साज वाले को रोज पैसे देने पड़ते हैं।  यह किस्सा किसी एक महिला का नहीं है ऐसे किस्सों से बेड़िया समुदाय भरा पड़ा है।

बेड़िया समुदाय की पहचान एक यौन कर्म करने वाले समुदाय के रूप में सभ्य समाज करता है, लेकिन किसी भी समुदाय और उसके व्यवसाय को समझने के लिए, उस समुदाय की निर्मिति एवं इतिहास को देखना आवश्यक है, क्योंकि बिना किसी की निर्मिति के बारे में जाने उसके बारे में ठीक-ठीक कुछ कहना मुश्किल हो जाता है या कई बार हम उनके लिए गलत निर्णय भी ले लेते हैं। बेड़िया समुदाय को राज्य एक वेश्यावृत्ति करने वाला समुदाय मानता है। क्योंकि यह समुदाय अपने सेक्सुअल रिलेशन कई पुरुषों और सभ्य समाज के संबंधों से इतर बनाता है और उन संबंधो में काफी खुलापन भी होता है। यह समुदाय इस तरह के संबंध बनाने को बुरा नहीं मानता। लेकिन राज्य की विधि और सभ्य बनाने की जो राज्यजनित अवधारणा है, यह समुदाय एक ख़तरे के रूप में उसके सामने खड़ा है। जब इस समुदाय में कभी भी यौन कर्म को बुरा नहीं माना गया और समुदाय यौन कर्म को मान्यता भी देता है, तो उस समुदाय को यह सभ्य समाज या राज्य बुरा कर्म करने वालों की नजर से क्यों देखता है? जब कि इनकी संस्कृति का यह एक अहम हिस्सा भी है। यदि इनके पूरे इतिहास को देखा जाए तो यह एक घुमंतू समुदाय रहा है और कभी भी शादी-ब्याह जैसे संस्कारों को मान्यता न देते हुये अपना विकास करता रहा है। इस समुदाय के लिए यह एक सहज प्रक्रिया है लेकिन राज्य और समाज की नजर में तो नहीं।

राज्य इस तरह के समुदाय को मुख्य धारा में लाने के प्रयास में लगा है, क्योंकि यह समुदाय मुख्य धारा के विपरीत अपने संबंध मुख्य धारा के लोगों के साथ ही स्थापित करता है। लेकिन वही समाज जो इन्हें अपनी रखैल या जो भी नाम दिया जाए के रूप में इस्तेमाल करता है तब ये बेड़िया उनके लिए असभ्य क्यों नहीं होते? यही वो सभ्य समाज है जो इन्हें वेश्यावृत्ति करने वाला भी कहता है और इन्हीं के साथ अपने अनैतिक संबंध भी स्थापित करता है।  
    
समुदाय की निर्मिति में सामन्ती लोगों की भूमिका अधिक दिखायी देती है क्योंकि ऐतिहासिक तथ्यों को देखें तो बेड़िया समुदाय की महिलाएँ राजे-रजवाडों और सामन्ती लोगों से ही अपने संबंध बनाती दिखती हैं। इसका यह कारण भी था कि बेड़िया समुदाय की महिलाएँ अन्य समुदायों की अपेक्षा अधिक सुंदर होती थीं तो इन्हें अन्य समुदायों की अपेक्षा ख़तरे भी अधिक थे। अपने संरक्षण और आर्थिक जरूरतों को पूर्ण करना भी इसमें शामिल था। यहाँ तक इनके सामने कोई समस्या नहीं थी। ब्रिटिश काल में इन्हें पहचान कर, श्रेणी बद्ध किया गया और अपराधी प्रवृत्ति की  संज्ञा दी गयी। लेकिन आजादी के बाद से इनके लिए संकट बढ़ गए। उसके कारण यह थे कि भारत के लगभग सभी ऐसे समुदायों को मुख्य धारा में लाने के लिए जनजाति से जाति व्यवस्था में लाना था क्योंकि राज्य की सत्ता जाति व्यवस्था पर चलती है। इसमें शामिल होने के लिए आप को जाति व्यवस्था में आना पड़ेगा। इनके साथ भी वही किया गया। इन्हें अब जनजाति से बदल कर अनुसूचित जाति में परिवर्तित कर दिया गया। अब जब यह जाति व्यवस्था में आ चुके थे, तो राज्य की विधि के अनुसार ही इन्हें भी चलना था।

हालांकि समुदाय में खुले तौर पर संबंध बनाने की छूट थी। इसी आधार को देखते हुये राज्य ने इन्हें वेश्यावृत्ति करने वाले समुदाय के रूप में पहचान दी। औपनिवेशिक मानसिकता के साथ इन्हें शिक्षित करने की प्रक्रिया और उनकी संस्कृति को समाप्त करने के प्रयास शुरू किए गए। अब इनके सामाजिक मूल्यों, इनकी संस्कृति सभी पर हमला होना तय था। अब इन्हें ‘Open Relation रखने वाले समुदाय या व्यक्ति कभी सभ्य नहीं हो सकते’ इस मानसिकता के साथ सभ्य बनाने के लिए शिक्षित करना था। लेकिन यहाँ एक बात सबसे जरूरी हो जाती है कि इस राष्ट्र-राज्य की अवधारणा में जहाँ इस तरह के समुदाय (बेड़िया समुदाय) जो शादी ब्याह जैसे संस्कारों और सभ्य समाज के बनाए मूल्यों से अलग थे, जो किसी भी पुरुष से अपने स्वच्छंद संबंध बना सकता था, जब राज्य उसे वेश्या का संबोधन दे रहा है तब उसने कभी इस बात पर गौर नहीं किया कि इनके लिए आखिर ग्राहक कहाँ से आ रहें हैं? जो राज्य इन्हें वेश्या का संबोधन दे रहा है दरअसल वही राज्य ही इन्हें ग्राहक भी उपलब्ध कराने का कार्य करता है। अभी तक जिन भी संस्थाओं ने इनके लिए काम करने शुरू किए, वे सभी इन्हें सभ्य समाज की धारा में लाना चाहते हैं। आखिर एक ऐसा समुदाय जो अपने आप को अलग रखकर स्वच्छंद रहता है, किसी से भी अपने संबंध स्थापित करता है और अपने किसी भी निजी मामले में बंधन नहीं रखता, तो उन्हें बदलने की आवश्यकता क्यों पड़ी? लेकिन जिन भी संस्थाओं ने इनके उत्थान के लिए काम शुरू किये, वे भी इन्हें राज्य की नजर से ही देखते रहे।

जब हम इन्हें सभ्य बनाने की बात करते हैं तो हम उन्हें खुद संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में ला रहे हैं। लेकिन कार्य के आधार से समुदाय की पहचान को देखें तो राज्य उन्हें निम्न श्रेणी में ही श्रेणीबद्ध करता है। तो जाहिर सी बात है एक जाति से उठकर यदि वह दूसरी नीची जाति में प्रवेश करते है तो इनके लिए संकट और बढ़ जाते हैं।
राज्य की भूमिका पर गौर किया जाए तो राज्य जहाँ एक तरफ वेश्यावृत्ति को खत्म करना चाहता है, वहीं दूसरी तरफ उन्हीं जगहों को पहचान कर जहाँ वेश्यावृत्ति होती है, वहाँ एड्स जैसे प्रोग्राम चला कर, घर-घर में condom बाँट रहा है, यानि राज्य उन्हें संरक्षण देता हुआ प्रतीत होता है। दूसरी तरफ समुदाय के साथ व्यवहार का रवैया मुख्य धारा की मूल्य व्यवस्था (value system) से मिलता हुआ दिखयी देता है। The Hindu[1] में छपी एक रिपोर्ट को यदि देखा जाए तो राम सनेही जो एक समाज कार्यकर्ता हैं, वह इसे अनैतिक बताते हैं और बेड़िया समुदाय की परंपराओं को खत्म करने के लिए सरकार पर दबाव बना रहे हैं। जब कि सरकार की तमाम एजेंसियां इन्हें संरक्षण दे रही हैं। मुख्य धारा की मूल्य व्यवस्था के आग्रह वाले राम सनेही अकेले नहीं हैं, बल्कि अन्य कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थायें भी इसमें संलग्न हैं। कुल मिला कर बेड़िया समुदाय की यौनिकता समाज और राष्ट्र-राज्य के विरोधाभासी दबाव का शिकार बनती है। जहाँ एक तरफ राष्ट्र-राज्य समुदाय की यौनिकता को अपनी यौनिक अर्थव्यवस्था के तहत बचाए भी रखना चाहता है, वहीं दूसरी तरफ मुख्य धारा के समाज के नैतिक और सांस्कृतिक आग्रहों को ख़ारिज भी नहीं करना चाहता। ये संस्थायें अपने सामुदायिक कार्यों में बेड़िया समुदाय के साथ सांस्कृतिक राजनीति की एजेंट दिखाई देती हैं।

समुदाय यौनिकता के संस्कृतिकरण की प्रक्रिया खास संदर्भों में घटित होती है, जहाँ सामुदायिक/संस्कृति विशेष ज्ञान को अपनी व्यवस्था में शामिल करने से पहले उसका रूपांतरण व प्रसंस्करण होना अनिवार्य हो जाता है। बेड़िया समुदाय के चलायमान होने की जीवनशैली से उपजी संस्कृति उनकी सांस्कृतिक विशेषताओं में परिलक्षित होगी। इस आधार पर सेक्सुअलिटी व उनके स्त्री-पुरुष संबंधों, उनके औपचारिक-अनौपचारिक व्यवहारों, यहां तक कि जीवन और नृत्य-गीतों की अल्हड़ता का अध्ययन और व्याख्या अपनी सम्पूर्णता में गैर विषयीकृत (Non Subjectifed) होकर ही संभव है।
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नरेश गौतम
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
nareshgautam0071@gmail.com
8007840158


Sunday, February 8, 2015

गांधी जी की शहादत का सच

प्रो. मनोज कुमार 
गांधी जी की हत्या के आठ प्रयास हुए। स्वयं गांधी जी ने कहा था कि मैं सात बार इस प्रकार के प्रयासों से बच गया हूँ। मैं इस प्रकार मरने वाला नहीं हूँ। मैं तो 125 वर्ष जीने वाला हूँ। 30 जून 1947 की प्रार्थना सभा में भी उन्होंने कहा कि परमेश्वर की कृपा से मैं सात बार अक्षरशः मृत्यु के मुँह से सकुशल वापस आया हूँ। मैंने कभी किसी को दुख नहीं पहुचाया। मेरी किसी के साथ दुश्मनी नहीं है फिर भी मेरे प्राण लेने का प्रयास इतनी बार क्यों किया गया, यह बात मेरी समझ में नहीं आता। गांधी जी के 125 वर्ष जीने की इच्छा स. गा. वांगमय में 40 जगहों पर उद्दृत है। जब उनकी इस इच्छा के संबंध में द. अफ्रिका में गांधी जी की सचिव कुमारी श्लेसिन ने पूछा तो गांधी जी ने 1 नवम्बर 1947 को पत्र में लिखा कि मैं ऐसी मूर्खतापूर्ण और असंभव निश्चय कभी नहीं कर सकता। यह मानव की शक्ति से बाहर की बात है। वह केवल इच्छा ही कर सकता है - मेरी इस इच्छा के साथ मानव जाति की सेवा के सतत कार्य की शर्त जूड़ी हुई है। यदि यह कार्य मुझसे न हो सके, जैसा कि भारत में आज दिखाई दे रहा है तो न केवल मुझे उस आयु को प्राप्त करने की इच्छा ही छोड़ देनी चाहिए, बल्कि उसके विपरीत इच्छा रखनी चाहिए जैसा कि मैं इस समय कर रहा हूँ। (पूर्णाहुति, खण्ड 4, पृ. 49) उन्होंने कहा है कि मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर से प्रार्थना करता हू कि हैवान बने हुए मनुष्य के हत्याकांड का असहाय साक्षी बनने की अपेक्षा वह मुझे इस वेदना के सागर से उबार कर अपनी शरण में ले ले। (पूर्णाहुति खण्ड 4, पृष्ठ 46) उन्होंने एक दूसरे अवसर पर कहा कि जीता जागता साक्षी बनने के बजाय मैं इसे ज्यादा पसंद करूंगा कि मेरी आंख सदा के लिए बंद हो जाय (पूर्णाहुति खण्ड 4, पृष्ठ 126) दरअसल गांधी जी उन दिनों की घटनाओं से काफी व्यथित थे जब विधान चन्द्र  राय ने उनसे कहा कि ‘‘पहले की अपेक्षा अब लोगों को आपके सेवा की अधिक आवश्यकता है।’’ तो गांधी ने उत्तर  दिया था कि उससे क्या? अब मेरी आवश्यकता न तो जनता को है और न सत्तारूढ लोगों को है। इस परिस्थिति में तो मेरे लिए यही उचित है कि मैं या तो कुछ करूं या मर जाउं। मैं काम करते-करते ही मरना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरे अंतिम स्वांस के साथ ईश्वर का नाम निकले। (The last phase, Vol.2, pp. 73-74) उन्होंने कहा कि मेरे फोटो और मुर्तियों को माला पहनाने के लिए तो प्रत्येक व्यक्ति उत्सुक है परन्तु मेरी सलाह वास्तव में कोई नहीं मानना चाहता (पेज 209)। गांधी जी ने एक दिन कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य से कहा - जिस अच्छीनाव ने हमें बंदरगाह तक पहुंचाया, उसे हम अब छोड़ते नजर आ रहे हैं। एक समय था जब भारत अहिंसा से स्वाधीनता प्राप्त कर सकता है इस पर किसी को विश्वास न था। परन्तु अब जब स्वाधीनता सचमुच आ गयी है, तब हम अहिंसा को तिलांजलि देते दिखाई दे रहे हैं। ...यदि अब भारत के लिए अहिंसा का कोई उपयोग नहीं रह गया हो, तो क्या उसके लिए मेरा कोई उपयोग हो सकता है? मुझे जरा भी आश्चर्य नहीं होगा यदि उन सारे सम्मान के बावजूद जो राष्ट्रीय नेता मेरा करते हैं। वे मुझे किसी दिन कह दें - इस बूढे की बात हमने बहुत रक्खी अब वह हमें अपना काम क्यों नहीं करने देता? (बी. भट्टाचार्य, इवोल्यूशन ऑफ गांधी) प्रार्थना प्रवचन में इन्होंने कहा कि मुझे ऐसा जान पड़ता है कि मेरा जीवन कार्य समाप्त हो गया है। मैं आशा करता हूँ कि परमात्मा कृपा करके मुझे और अपमान नहीं सहावेगा । (The last phase, Vol.2, p. 210)         
125 वर्ष जीने की इच्छा का उल्लेख करते हुए मराठी सामयिक अग्रणी पत्रिका में नाथूराम गोडसे ने लिखा कि ‘‘परन्तु (तुम्हें) जीने कौन देगा’’? क्या गांधी जी को आभास हो गया था?
ये बहारें नाम दुनियां चंद रोज । देख ले उसका तमाशा चंद रोज ।
यह गीत दुहराते लगभग रात के सवा नौ बजे 29 जनवरी 1948 को विस्तर पर लेट गये। बापू दिनभर इतना काम करते रहे कि शाम तक काफी थक चुके थे। उनका सिर घूम रहा था। फिर भी लोकसेवक संघ के रूप में कांग्रेस का नया विधान की ओर इशारा करते हुए बोले - मुझे तो उसे आज पूरा कर ही देना चाहिए। 30 जनवरी को नित्य की प्रार्थना के लिए सुबह साढे तीन बजे उठे। उसके बाद काम में लग गये। कमरे से गुजरते हुए कांग्रेस के लिए बनाया गया नया विधान प्यारेलाल जी को देते हुए कहा-इसे देख जाओ। मैंने यह लिखा तब दिमाग पर बहुत तनाव था। इसमें कहीं कोई बात छूट गयी हो तो इसे ठीक कर लेना। मालिस से लौटे तब फिर प्यारेलाल जी से पूछा कि उसे देख लिया? स्नान, भोजन और बंगला पाठ पूरा कर जब बापू निवृत हुए, तब तक प्यारेलाल जी वह विधान ठीक कर ले आये उसको बापू ने ध्यान से देखा। उसे उन्होंने उसी दिन पूर्वाहन में ही कांग्रेस के मंत्री के हाथों सौंप दिया। दुर्भाग्य से यही बापू की आखरी वसीयत बन गयी। वसीयत में बापू ने लिखा - देश का बटवारा होते हुए भी राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा तैयार किये गये साधनों के जरिये हिन्दुस्तान की आजादी मिलने के कारण मौजूदा स्वरूपवाली कांग्रेस का काम अब खत्म हो चुका है। यानी प्रचार के वाहन और धारा सभा की प्रवृति चलानेवाले तंत्र के नाते उसकी उपयोगिता अब समाप्त हो चुकी है। ‘‘शहरों और कस्बों से भिन्न उसके 7 लाख गाँवों की दृष्टि से हिन्दुसतान की सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आजादी हासिल करना अभी बाकी है। लोकतंत्र के लक्ष्य की तरफ हिन्दुस्तान की प्रगति के दरमियान सैनिक सत्ता पर नागरिक शक्ति को प्रधानता देने की लड़ाई अनिवार्य है। कांग्रेस को हमें राजनैतिक पार्टियों और साम्प्रदायिक संस्थाओं के साथ की जंगी होड़ से बचाना चाहिए और ऐसी ही दूसरे कारणों से अविलम्ब भारतीय कांग्रेस नीचे दिये हुए नियमों के मुताबिक अपनी मौजूदा संस्था को तोड़ने और लोक-सेवक-संघ के रूप में प्रकट होने का निश्चय करे।’’ दरअसल कांग्रेस आजादी की लड़ाई का एक मिला-जुला राष्ट्रीय मंच था, जिसके लिए भारत की आजादी लक्ष्य था। कइयों को अहिंसा निष्ठा के रूप में नहीं नीति के रूप में स्वीकार थी, लेकिन गांधी तो अब हिन्द स्वराज्यको कांग्रंस का वैचारिक घोषणा-पत्र बनाने के लिए प्रयत्नशील थे। हिन्द-स्वराज्यभौतिकवादी जीवन मूल्यों का भारतीय संस्कृति से विचार संघर्ष का सजीव चित्रण है।
          कर्मवीर पं. सुन्दरलाल जी 30 जनवरी को सबेरे गांधी जी के पास पहुंचे थे। उन्होंने सेवाग्राम के लोगों के लिए एक पत्र लिखाया। वह पत्र किशोर लाल जी के नाम था। उन दिनों बापू बंगला का अभ्यास कर रहे थे। एक पृष्ठ लिखने के बाद बोले- ‘‘अब तो मेरे बंगला अक्षर सुधड़ होने लगे हैं’’। (पं. सुन्दर लाल संपादन बनारसीदास चतुर्वेदी, विश्वम्भर नाथ पांडे, पृ. 176)। 29 जनवरी 1948 को सुबह किशोर लाल को पत्र में बापू ने लिखा मेरे सेवाग्राम आने की योजना अभी अनिश्चित है... शायद कल इसका फैसला हो जायगा। 30 जनवरी की सुबह मनु बापू के साथ टहलने नहीं गयी क्योंकि रात के लिए दवा नहीं बची थी, वे खांसी में लौंग का चूर्ण लेते थे। बापू ने मनु से कहा कौन जानता है रात पड़ने से पहले क्या होगा अथवा मैं जीता भी रहूंगा या नही? यह भी कहा अगर रात को जीवित रह गया तो तुम आसानी से चूर्ण तैयार कर सकती हो। दरअसल वे रूटीन के पक्के थे। यह पूछे जाने पर कि आपके सेवाग्राम पहुंचने की तारीख का तार भेज दिया जाय। बापू ने कहा तार पर रूपया क्यों बरबाद किया जाय। प्रार्थना प्रवचन में तारीख का घोषित कर दूंगा - अखबार से लोग देख लेंगे। दोपहर को एक पत्रकार द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या आप 1 फरवरी को सेवाग्राम जाने वाले हैं? गांधी जी ने कहा ऐसा कौन कहता है? पत्रकार ने कहा - अखबारों में खबर है। गांधी जी ने कहा अखबारों ने घोषणा की है कि गांधी पहली तारीख को जा रहा है, लेकिन मैं नही जानता कि वह गांधी कौन है?
          गांधी जी 30 जनवरी को सामान्य आदत के विपरित 10 मिनट विलम्ब से प्रार्थना सभा गए थे। बिड़ला भवन से प्रार्थना स्थल पर जाने का छोटा रास्ता चुना कि जल्द पहुंच जाए। दरअसल वे उसके पूर्व सरदार पटले से बातचीत में मशगुल थे। कई  बार मनु ने घड़ी भी दिखई लेकिन गांधी जी का ध्यान नहीं गया। पटेल चले गये। प्रार्थना स्थल पर दौड़कर जाते समय रास्ते में एक सेविका ने उन्हें बताया - काठियाबाड़ के दो कार्यकर्ता मुलाकात का समय मांग रहे हैं - बापू ने कहा - उनसे कह दो प्रार्थना के बाद आ जाए। मै जीवित रहा तो उस समय उनसे मिलूंगा। स्थल पर दौड़ते हुए देर से पहुंचे। 5.17 में इन्हें गोली लगी। प्रणाम की मुद्रा में बीच में रिवाल्वर छिपाए हुए नाथुराम ने गोली मार दी। बापू के निर्जीव शरीर को नन्दलाल मेहता और पं. सुन्दरलाल जी ने सहारा दिया। वल्लवभाई आए। थोड़ी देर बाद जवाहरलाल जी भी आ गए। वे फूट-फूट कर रोने लगे। पटेल जी ने नेहरू जी के पीठ पर हाथ फेरा और ढांढस देकर उठाते हुए कहा - जवाहरलाल बापू के बाद तो अब सारे देश की निगाहें तुम्हारे उपर है। अगर तुम इस तरह अधीर हो जाओगे तो देश के करोड़ों नर-नारियों को कौन सांत्वना देगा? (कर्मवीर पं. सुन्दरलाल, बनारसीदास चतुर्वेदी और विश्वम्भरनाथ पांडे, पृ. 176) इस तरह 30 जनवरी की रक्तरंजित शाम का अंत हुआ।
गांधी जी के हत्या का प्रयास
       25 जून 1934 ई. को पूणे नगरपालिका द्वारा गांधी जी को सम्मानित करने के लिए आयोजित समारोह में जाते समय बम फेका गया। भूल से बम अगली गाड़ी पर लगा। गांधी जी पिछली गाड़ी में थे। इस घटना में नगरपालिका के मुख्य अधिकारी तथा दो पुलिसकर्मी सहित कुल सात लोग गंभीर रूप से घायल हुए। इस समय गांधी अस्पृश्यता विरोधी आंदोलन चला रहे थे। दरअसल गांधीजी ने छुआछूत के विरूद्ध लोगों को जागृत करने के लिए नवम्बर 1933 से यात्रा प्रारंभ की जो 9 महिने तक चली ओर वाराणसी में समाप्त हुई। 12500 मील की यात्रा में उन्हें 8 लाख रूपये मिले। इसी क्रम में 25 जून 1934 को इनके कार पर बम फेका गया।
       जूलाई 1944 ई. में पंचगणी में जब गांधीजी बीमारी के बाद आराम करने गये, उस समय नाथूराम छूरा लेकर गांधी जी को मारने आया था। मणिशंकर पुरोहित गवाह थे। भिसारे गुरूजी ने ही नाथूराम के हाथ से छूरा छीना था। यह उन्होंने कपूर कमीशन के सामने बयान में भी कहा था। गांधीजी ने उसके तुरन्त बाद नाथूराम को मिलने के लिए बुलाया। परन्तु वह नहीं आया।
       तीसरा प्रयास सितम्बर 1944 में हुआ। गांधी जी मुहम्मद अली जिन्ना से वार्ता के लिए बम्बई जाने वाले थे। उस अवसर पर पूणे का एक ग्रुप वर्धा गया था। इनमें एक व्यक्ति ग. ल. थŸो के पास से पुलिस को छूरा मिला। थत्रे का कहना था कि यह छूरा उसने उस गाड़ी को टायर फोड़ने के लिए रखा था जिसमें गांधी जी जाने वाले थे। गांधी जी के नीजी सचिव श्री प्यारेलाल लिखते हैं कि उस दिन सबेरे उनके पास पुलिस अधिकारी डी.सी.पी. का फोन आया कि प्रदर्शनकारी अमंगलकारी घटना की तैयारी करके  आए हैं। गांधी जी का आग्रह था कि वे अकेले प्रदर्शनकारी के साथ चलते-चलते जायेंगे एवं जबतक प्रदर्शनकारी उन्हें गाड़ी में बैठने की अनुमति नही देंगे तबतक उनके साथ ही चलते रहेंगे। परन्तु पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को पकड़ लिया।
       29 जून 1940 को चैथा प्रयत्न किया गया। गांधी जी एक विशेष रेलगाड़ी द्वारा बम्बई से पूणे जा रहे थे। नेरल और कर्जत स्टेशन केबीच रेलवे लाइन पर बड़े-बड़े पत्थर रखकर गाड़ी को गिराने का षडयंत्र किया गया। रात का समय होने के बावजूद ड्राइवर की सावधानी के कारण दुर्घटना नहीं हुई पर इंजिन को क्षती पहुंचने की बात स्वीकार की गयी है। इस समय गांधी जी ने कहा था कि विभाजन मेरी लाश पर होगा।
 20 जनवरी 1948 ई. को दिल्ली में प्रार्थना प्रवचन के समय ही ठीक 75 फीट की दूरी पर बम विस्फोट हुआ। आकाशवाणी के टेप रेकार्ड में धमाके की आवाज आज भी कैद है। गांधी जी ने उस अवसर पर कहा था ‘‘अगर हम इस तरह की बात पर घबरा जायेंगे तो सचमुच कुछ हो जाने पर हमारा क्या हाल होगा?’’ बम के धमाके से दीवार का एक हिस्सा गिर गया था। मदनलाल पाहवा (25 वर्ष) जो पश्चिम पंजाब का एक निराश्रित था के पास से तलाशी में एक हथगोला मिला पर उसको तनिक भी पश्चाताप नहीं था। गांधी जी ने कहा था कि विस्फोट से घायल होकर गिरने पर भी मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट हो और आक्रमणकारी के प्रति मेरे मन में कोई दुर्भावना न हो (पूर्णाहुति खण्ड 4, पृ. 436)। 29 जनवरी को एक सेवक से इन्होंने कहा था कि यदि मैं लम्बे समय की बीमारी से अथवा किसी फोड़े फुंसी से भी मरूं तो लोगों को नाराज करने का खतरा उठाकर भी संसार के सामने यह घोषणा करना तुम्हारा धर्म होगा कि जैसा ईश्वरपरायण मनुष्य होने का मैं दावा करता था वैसा सचमुच मैं था नहीं। अगर तुम ऐसा करोगे तो मेरी आत्मा का शांति मिलेगी। यह भी याद रखो कि अगर कोई आदमी गोली मार कर मेरे प्राण ले ले, जैसा कि किसी ने उस दिन बम से मेरे प्राण लेने की कोशिश की थी और मैं कराहे बिना उस गोली का सामना करू और रामनाम लेते हुए मेरे प्राण निकल जाय तो ही मेरा दावा सच्चा साबित होगा। (पूर्णाहुति, पृ. 458)
          बाडगे के कथनानुसार 17 जनवरी को नाथूराम गोडसे, सावरकर के अंतिम दर्शन करने बम्बई गया - सावरकर ने कहा सफल होकर लौटना। तात्याराव सावरकर ने भविष्यवाणी की कि अब गांधी जी के सौ वर्ष हो गये हैं और इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारा काम निश्चित सफल होगा। बनावटी नाम से गोडसे और आप्टे दिल्ली आए। उस बीच ये दिल्ली में हिन्दू महासभा भवन से सम्पर्क में रहे वहाँ केन्द्रीय निर्माण विभाग के फाॅरस्ट गार्ड मेहर सिंह ने उसे टोका था - यहाँ क्यों घूम रहे हो?
          20 जनवरी को विस्फोट के बाद बम्बई के रामनारायण रूइया काॅलेज के प्रध्यापक जगदीश चन्द्र जैन ने बम्बई के मुख्य मंत्री श्री बी. जी. खेर से संपर्क कर सूचना दी- ‘‘मैं मदनलाल को जरूरतमंद निराश्रित समझ  कर कई प्रकार की सहायता करता रहा हूँ। उससे मालूम हुआ कि गांधी जी की हत्या के लिए कोई षडयंत्र रचा जा रहा है। उन्होंने कुछ के नाम और इसकी व्यौरे भी बताई। बम्बई से यह सूचना सरदार पटेल को भी दी गयी। बम्बई की जानकारी के आधार पर सरदार पटेल ने प्रार्थना सभा में सुरक्षा देनी चाही लेकिन गांधी जी ने प्रार्थना के समय मानव सुरक्षा में रहने की अनुमति नहीं दी।’’
          आश्चर्य है कि अधिकारियों के पास निश्चित और ठोस जानकारी थी। प्यारेलाल लिखते हैं कि सड़ांध सरकारी सेवाओं की अनेक शाखाओं में फैल चुकी थी पुलिस भी उससे मुक्त नहीं थी। वे अपनी सहानुभूति और सक्रिय सहायता देते थे। (पृ. 444)
          बहुत से भारतीय इतिहासकार कांग्रेस में उग्रवाद के उदय को दुर्भाग्यपूर्ण घटना मानते हैं। उग्रवादी विचारधारा के समर्थक इस बात के लिए आतुर थे कि भारतीय राष्ट्रवाद को उग्रवाद से जोड़ दिया जाय। तिलक चाहते थे कि हिन्दू धर्म के सभी सम्प्रदाय एकजूट होकर एक सशक्त हिन्दू राष्ट्र का निर्माण करे। (बी. पी. वर्मा, माडर्न इंडियन पालिटिकल थाट, 1971, पृ. 167)
          भारतीय राष्ट्रवाद धर्मनिरपेक्ष नही हो सकता उसे हिन्दू परम्परा आधारित होना चाहिए। (वही) अरविन्द घोष ने तो यहां तक कहा कि हिन्दू धर्म ही हमारी स्वतंत्रता की अभिलाषा को पूरा कर सकती है। इसीलिए अहलूवालिया साम्प्रदायिकता के उदय को हिन्दू पुनरूत्थानवादियों के साथ जोड़ते हैं। (एम. एस. अहलूवालियाद्व फ्रीडम स्ट्रगल इन इंडिया, 366) इस प्रकार सिद्धान्त रूप में दो राष्ट्रका सिद्धान्त बहुत पहले ही लोगों के मानस में आ गया था। मशहूर शायर इकबाल ने 1930 के इलाहाबाद मुस्लिम लीग सम्मेलन में कहा था कि ‘‘मैं चाहता हूँ कि पंजाब, पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, सिंध एवं बलूचिस्तान ये सभी एक हो जांय एवं एक राज्य बनंे। मुझे लगता है कि जहां तक पश्चिमोत्तर भारत का संबंध है वहां तक पश्चिमोत्तर मुस्लिम राज्य चाहे वह ब्रिटिश साम्राज्य के बाहर हो या अंदर यही मुसलमानों का आखिरी भाग्य हैं।’’ 1937 के हिन्दू महासभा के अहमदाबाद अधिवेशन में खुद सावरकर ने द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत का समर्थन किया। 1943 में भी एक अवसर पर सावरकर ने कहा कि ‘‘मुझे जिन्ना के दो राष्ट्र के सिद्धांत को लेकर कोई आपत्ति नहीं है। हम हिन्दू अपने में एक राष्ट्र है और यह ऐतिहासिक तथ्य है कि हिन्दू और मुसलमान दोनों दो राष्ट्र हैं।’’
          14 जून 1947 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी में विभाजन के प्रस्ताव को पं. गोविन्द वल्लव पंत ने पेश किया जिसकी पुष्टि मौलाना आजाद एवं सरदार पटेल ने की। मौलाना आजाद ने स्पष्ट किया कि कार्यसमिति का यह फैसला बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने कहा कि हमलोगों ने विभाजन को रोकने के लिए पूरी शक्ति लगा दी लेकिन हम असफल रहे। (मौलाना अबुल कलाम आजाद, इंडिया वीन्स फ्रीडम, पृ. 197) विभाजन के प्रस्ताव पर काफी विरोध हुआ। जयप्रकाश नारायण, लोहिया आदि ने लगातार इस प्रस्ताव का विरोध किया। अंत में 15 जून को गाँधी ने इसमें हस्तक्षेप किया और इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेने का आग्रह किया। (मेनन, बी. पी. ट्रांसफर ऑफ पावर’, पृ. 386) प्रथम गिनती में प्रस्ताव के पक्ष में 153, विपक्ष में 29 तथा दूसरी गिनती में पक्ष में 157 और विपक्ष में 29 मत पड़े। (द इंडियन एनूअर रजिस्टर, 1947, खण्ड-1, पृ. 137)
          गांधी ने कहा था कि विभाजन मेरी लाश पर होगालेकिन गांधी के जीते जी भारत का विभाजन हुआ। गांधी ने अटूट कोशिश की थी कि 16 मई 1946 का कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव को स्वीकार कर विभाजन को टाला जाय, लेकिन वे विफल रहे। पं. नेहरू ने कहा कि विभाजन उनपर लादा नहीं गया वस्तुतः यह परिस्थिति की विवशता थी। स्वेच्छापूर्वक सहमति से भारत विभाजन को दोनों पक्षों ने कबूल कर लिया। (डा. रामजी सिंह, गांधी के दोषः एक समीक्षा, गांधी ज्योति, 15 अगस्त 1986)
          गांधी ने कहा कि वे इसे अस्वीकार कर सकते थे अगर कांग्रेस को छोड़कर दूसरे नेताओं का दल विकल्प के रूप में रहता, लेकिन देश में कांग्रेस को छोड़कर कोई दूसरा विकल्प नहीं है। कांग्रेस के नेता बूढ़े एवं थक चुके हैं और जो कांग्रेस के रीढ़ की हड्डी का निर्माता है वे ही जब विभाजन स्वीकार कर चुके हैं तो इसे रोकना बड़ी मुर्खता होगी, उन्हें अपने स्थान से हटाना संभव नहीं है। (शंकर घोष, ‘महात्मा गांधी’, 1991 पृ. 341-42)
          जब कुछ लोगों ने गांधी को अनशन करने की सलाह दी तो उन्होंने इसे क्षणिक पागलपन कहा और अंतरात्मा के आदेश के बिना उपवास करना गलत बताया। (डा. राम सिंह, गांधी ज्योति) 15 जून 1947 के हरिजनमें उन्होंने लिखा है कि मैं इसलिए अनशन शुरू करूँ कि कांग्रेस जो राष्ट्र की प्रतिनिधि संस्था है, मेरी बात नहीं मानी? लेकिन कांग्रेस ने पहले भी मेरी कई बातें नहीं मानी थी मुझे तो सत्य की अंतिम जय के लिए धीरज रखना है। 27 जुलाई 1947 के हरिजन में उन्होंने लिखा है कि विवशता में विभाजन को स्वीकार किया गया है। उसी में वे कहते हैं कि उनका संघर्ष अहिंसात्मक नहीं था निष्क्रिय प्रतिरोध के अलावे कुछ नहीं था। यदि यह वीरों की अहिंसा होती तो भारत का दूसरा चित्र होता और भारत का विभाजन नहीं होता।
          दरअसल गांधी ने विभाजन का हमेशा विरोध किया। गांधी और माउण्टबेटन में इस संबंध में लम्बी बातचीत चली (लारी कालिंस, डोमिनिक लापियर, माउण्टबेटन और भारत का विभाजन, द. 1982, पृ. 41) माउण्टबेटन कहते हैं कि विभाजन से बचने के लिए वे हर तिनके का सहारा लेने को तैयार थे। गांधी को यह विश्वास था कि विभाजन के बावजूद दोनों के बीच जीवन्त एकता कायम हो सकेगी और इसी में वे अपने आपको लगाना चाहते थे। पं. सुन्दरलाल के जीवनगाथा में वर्णित है कि सुन्दरलाल, मृदुला साराभई और राजकुमारी अमृत कौर को पाकिस्तान भेजा गया। अमृत कौर की जगह डा. सुशीला नायर गई। लियाकत अली के साथ लम्बी बातचीत में यह तय किया गया कि दोनों ओर के शरणार्थियों का धाराप्रवाह आगमन रूके। पाकिस्तान सरकार हिन्दू और सिक्खों और हिन्दुस्तान सरकार मुसलमानों के हिफाजत की जिम्मेदारी ले। अपहरण की हुई स्त्रियों को तलाश करने व उनको वापस करने में दोनों सरकारें पूरी तरह मदद करें पाकिस्तान के हिन्दू ट्रांजिट कैम्प में भारत सरकार के सलाहकार और उसी तरह भारत के ट्रांजिट कैंप में पाकिस्तान सरकार का सलाहकार रहे, दोनों देश शक्ति के साथ आततायियों और कातिलों को दबाने के लिए कठोर कदम उठाये। लियाकत अली ने विश्वास दिलाया कि पाकिस्तान निवासी हिन्दू और सिक्ख जो वापस आयेंगे पाकिस्तान की सरकार जमीन और जायदाद वापस दिलाने में कठोर कदम उठायेगी। इस फैसले को कायद-ए-आजम जिन्ना साहब ने भी मंजूर किया। दिल्ली छोड़ने के पहले गांधी जी ने सुन्दरलाल जी से कहा था कि देश के बटवारे को मैं अनैतिक मानता हूँ इसलिए शांति स्थापना के लिए मैं पाकिस्तान जाकर रहना चाहता हूँ। इसकी भी चर्चा कायद-ए-आजम और लियाकत अली से इुई, और उन्होंने इसका स्वागत किया। इस प्रस्ताव को देख गांधी इतमिनान हुए, जवाहरलाल जी के चेहरे पर भी संतोष था। लेकिन बाद में खबर आई कि इसे कैबिनेट की मंजूरी नहीं मिली। पटेल इसके लिए तैयार नहीं थे।
          एक दिन गांधी जी ने सुन्दरलाल जी को अपना प्रतिनिधि बनाकर राष्ट्रपति भवन भेजा जहाँ बैठक चल रही थी। सुन्दरलाल जी ने लिखा है कि कमरे में 8-10 दिल्ली के हिन्दू महासभा और आर. एस. एस. के नेताः जिला मजिस्ट्रेट रंधावा, दिल्ली का मुसलमान चीफ कमिश्नर, बल्लभ भाई और राजेन्द्र बाबू वहाँ बैठे थे। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने कहा कि दिल्ली के मुसलमानों की जान-माल सुरक्षित नहीं है, यह भारत सरकार कर्तव्य है कि दिल्ली के मुसलमानों को सुरक्षित जगह पहुँचाए और मुसलमानों का सुरक्षित जगह पाकिस्तान है। रंधावा के बात की पुष्टि हिन्दू महासभा एवं आर. एस. एस. के नेताओं ने की। राजेन्द्र बाबू के पूछे जाने पर सुन्दरलाल जी ने कहा कि बापू जवाहर लाल और आपके रहते क्या भारत सरकार की पालिसी डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट तय करेगा। अगर वह हिफाजत नहीं कर सकता तो इस्तिफा दे दे। दिल्ली को हम मुसलमानों से खाली नहीं होने देंगे। दूसरे दिन रंधावा सुन्दरलाल जी से मिले थे और कहा था आपने मुझे नाहक डांटा, मेरा कोई कसूर नहीं था, मैं तो वही कह रहा था जो गृह मंत्री बल्लभ भाई चाहते थे। बापू ने शहीद के नाम 27 अक्टूबर 1947 को पत्र में लिखा कि हिन्दू और मुसलमान दो राष्ट्र नहीं हैं मुसलमान कभी हिन्दूओं के और हिन्दू कभी मुसलमानों के गुलाम नहीं होंगे। इसलिए आपको और मुझे इन दोनों को मित्रों और भाईयों की तरह साथ रखने की कोशिश में खपना पड़ेगा। उनके यह कहने पर कि भारतीय संघ में उनपर कोई भरोसा नहीं करता। गांधी ने उनसे कहा था कि आपकी नेकनियती का प्रमाण देने का एकमात्र उपाय यह है कि आप पाकिस्तान की अनुचित नीतियों और कार्यवाहियों की सच्चे दिल से साहसपूर्वक निंदा करें। कश्मीर में पाकिस्तान का अगर हाथ है तो भारतीय राष्ट्रीय नागरिक के नाते आप इस विश्वास की घोषणा करें। अगर नहीं तो आप वास्तविकता का पता लगावें। अगर मुझे यह मालूम हो जाय कि मैं गलत हूँ और आप सही हैं, तो मुझे बहुत खुशी होगी। (पूर्णाहुति, खण्ड-4, पृ. 77)
          कश्मीर की रक्षा करते हुए ब्रिगेडियर उसमान और शेरवानी के शहादत पर गांधी जी ने प्रार्थना प्रवचन में कहा कि यह ऐसी शहादत है जिसके लिये किसी भी हिन्दू, सिक्ख या मुसलमान के लिए गर्व होगा। लेकिन गांधी जी का यह मानना था कि यदि पाकिस्तान के मुसलमानों के कुकृत्यों को रोकना या बंद करना है तो संघ के हिन्दूओं के कुकृत्यों की घोषणा पुकार-पुकार कर करनी होगी। (हरिजन, 21 दिसम्बर 1947, पृ. 473, पूर्णाहुति खण्ड 4, पृ. 85)
          हिन्दू कट्टरपंथियों जिनका विश्वास ब्राम्हणवादी व्यवस्था के पुर्नस्थापना, जाति व्यवस्था को कायम करने और आर्थिक विश्लेषण के अनुसार सम्पुर्ण के स्वामित्व के पारम्परिक व्यवस्था को कायम रखने पर था ने हमेशा से ही परिवर्तन का विरोध किया। इनके अनुसार गांधी का वध हुआ जो कभी इतिहास में रावण, कंस और शिशुपाल का हुआ था। एक ही साथ नाथूराम प्रवक्ता, पुलिस, न्यायाधीश और जल्लाद सभी बन जाते हैं और पाप के लिए  बहाना ढूंढ लेते हैं जिसमें 55 करोड़ का भी संदर्भ दिया जाता है। देश के विभाजन के बाद भारत सरकार की कुल सम्पत्ति और नकद रकमों का जनसंख्या के आधार पर बटवारा हुआ। पाकिस्तान को 75 करोड़ देना तय हुआ। 20 करोड़ रूपये दे दिये गये 55 करोड़ बाकी रहा। गांधी जी ने 13 जनवरी को प्रार्थना सभा में उपवास की घोषणा की उसमें 55 करोड़ की बात नहीं थी। 13 जनवरी को नाथूराम ने अपने बीमे की पाॅलिसी नाना आप्टे की पत्नी के नाम करा दी थी और दूसरा पालिसी 14 जनवरी को गोपाल गोडसे की पत्नी के पक्ष में।
          इस प्रकार भारत विभाजन या गांधी की हत्या, 55 करोड़ आदि के कारण नहीं हुई। जहाँतक गांधी पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाया जात है यह साफ है कि मुसलमानों को मुख्य धारा में लाने का प्रयास काफी पहले प्रारंभ हो गया था। 1857 के स्वर्णजयन्ती के अवसर पर सावरकर ने मुसलमानों का उल्लेख इन्द्रधनुष के रंग के रूप में किया था। 1909 में कौमी मतदाता परिषद् बना। तिलक और जिन्ना के पहल पर 1916 के लखनऊ मसझौते में मुसलमानों को जनसंख्या के अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व देने की बात की। डा. अम्बेदकर को भी स्वशासन का अधिकार केवल मुसलमानों को दिये जाने से एतराज नहीं था। सुभाष बाबू मुसलमानों को कांग्रेस में पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने के लिए लड़ते रहे।

प्रो. मनोज कुमार 
निदेशक
महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी शांति अध्ययन केंद्र 
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा 
mgfgcps@gmail.com