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Sunday, March 25, 2018

वर्धा : सात दिवसीय संकाय संवर्द्धन कार्यशाला का प्रतिकुलपति ने किया समापन



वर्धा, 25 मार्च 2018. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी सामाजिक कार्य अध्ययन केंद्र एवं राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थान परिषदहैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित सात दिवसीय ग्रामीण सहभागिता में संकाय संवर्द्धन कार्यशाला के अंतिम दिन प्रथम सत्र में महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस के मेडिसिन विभाग के निदेशक प्रो. उल्हास जाजू ने पिछले चार दशकों के अपने अनुभव के आधार पर सामुदायिक स्वास्थ्य को लेकर किए गए प्रयोग पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि हमारे काम की शुरुआत 40 साल पहले इस संदर्भ में शुरू किया था ताकि स्वास्थ्य सुविधाएं ग्रामीण लोगों तक पहुँच सके और इसी कड़ी में ग्रामीण स्वच्छता का मुद्दा हमारे सामने आया। इस कार्य को पूर्ण करने के लिए हमने गांधी, विनोबा तथा सुशीला नायर आदि के विचारों को अपनाया। जिससे हमने ग्रामीण भारत के साथ जुडने की कला सीखी। इसी कड़ी में हमने जयप्रकाश नारायण के विचारों को भी अपनाया।

उन्होंने आगे कहा कि समता, स्वतंत्रता तथा मैत्री के आधार पर ही अपने ध्येय को प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए सत्ता का विकेन्द्रीकरण आवश्यक शर्त बन जाती है। गांधी के अनुसार ग्रामीणों में सत्ता का विकेन्द्रीकरण ही सच्चा 'हिन्द स्वराज' लाएगा। इसी कड़ी में हमने गांधी-जीवन के आदर्शों को अपनाते हुए श्रम आधारित समाज रचना की स्वीकार्यता को अपनाया। प्रो. जाजू ने आगे कहा कि गांधी ने ग्राम स्वराज का सपना देखा जिसे विनोबा जी ने भूदान-ग्रामदान के जरिये आगे बढ़ाने की कोशिश की थी। विदर्भ के गढ़चिरौली जिले में मेंढ़ा-लेखा इसी तरह का प्रयोग है जो आज भी हमें देखने को मिलता है।
            उन्होंने कहा कि गांधी अंत्योदय से सर्वोदय अर्थात समन्वय की बात करते थे। हमने लाओत्से का निम्न मंत्र अपनाया-
            लोगों की ओर जाओ
            उनके साथ काम करो
            उन्हें समझो
            उनसे सीखें
            उन्हें प्रेम करें
            उनके साथ नियोजन करें
            उनके साथ कार्य करें!
उन्होंने कहा कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करते हुए हमने यह ध्यान रखा कि यह 'for the people' अर्थात जनता के लिए हो। हमें कुछ समस्याओं के साथ भी जूझना पड़ा। यहाँ के लोगों के लिए आज सबसे महंगा स्वास्थ्य खर्च माना जाता है। गांवों की संस्कृति, उनका जीवन अनुभव आदि को समझे बगैर तथाकथित पढ़े-लिखे लोग केवल विकास के नाम पर आउटसाइडर के रूप में काम करने की सोचते हैं। जिसमें उन्हें भीख से ज्यादा नहीं देते, ऐसे में हम इसे समुदाय सहभागिता कैसे कहें! यह एक गंभीर प्रश्न है। अक्सर हम गाँव वालों पर थोंपने की ही कोशिश करते हैं। आज एक ओर विज्ञान नये-नये लक्ष्यों की प्राप्ति की है लेकिन कहीं भी इसको अच्छे उपयोग के लिए नहीं अपनाया गया। इसे ज़्यादातर दुरुपयोग के लिए ही उपयोग में लाया जाता है। विनोबा को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि विज्ञान रथ के घोड़े की तरह है जिसकी लगाम अपने अच्छे लोगों के हाथ में होने की आवश्यकता है।
            उन्होंने कहा कि गांवों में हम ऐसा क्यों समझते हैं कि ग्रामीणों को हम अक्ल सिखाने जा रहे हैं? गांवों के लोगों के विज़डम को भी हमें समझना होगा। एक घटना का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि गाँव में वट वृक्ष की पूजा करने वाली महिलाओं से यह पूछा गया कि आपने किसकी पूजा की तो उनका उत्तर था पति अर्थात शिव की। मेरे प्रश्न के जवाबी उत्तर में कि क्या किसी देवी की पूजा होती है तो उनका जवाब था 'साहब उनकी पूजा तो रोज ही होती है।' अर्थात 85% महिलाओं को आज भी पति के द्वारा पीटा जाता है, जिसे वे महिलाएं व्यंग्यपूर्वक पूजा कह रही थी।
            उन्होंने आगे कहा कि आम लोगों तक वास्तविक लाभ पहुँचाने के लिए हमें समाज की संरचना को बदलना होगा जिसके लिए राजनैतिक मंशा की आवश्यकता ज्यादा है। अपने प्रयोग पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि हमने गांवों में फ्री में कोई भी सेवा नहीं दी और वहाँ के लोगों की सहभागिता के आधार पर ज्वार, धान आदि को इकट्ठा कर उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं दी गई। इस गतिविधि के माध्यम से ग्रामीणों में 'राइट टू डिमांड' के प्रति जागरूकता को बढ़ाने की कोशिश की। उन्होंने ट्रस्टीशिप की भावना के विकास पर भी ज़ोर दिया। उन्होंने कहा कि भारत में आज भी स्वास्थ्य पर कुल GDP का मात्र 1.4 फीसदी ही खर्च किया जाता है। जबकि यूएनडीपी के मुताबिक यह 5 से लेकर 10 फीसदी तक होना चाहिए। उन्होंने कहा कि प्रति व्यक्ति के आधार पर ग्राम सभा के जरिये संसाधनों का बंटवारा हो और ग्रामीण लोगों के हाथों में निर्णय प्रक्रिया हो तभी गांवों का समुचित विकास मुमकिन हो सकता है। साथ ही उन्होंने समुदाय सहभागिता के मूलतत्व बताएं जिसमें से कुछ इस प्रकार है-
            -समुदाय द्वारा स्वीकृति
            -समुदाय द्वारा सहयोग
            -समुदाय द्वारा पार्टनरशिप
            -समुदाय द्वारा सहभागिता
            उन्होंने इसका उदाहरण बताते हुए बताया कि क्रांति सातत्यपूर्ण होती है, नित-नवीनतम होती है। मेंढ़ा-लेखा जैसे गाँव में ग्राम सभा को भूस्वामित्व ग्रामसभा को सौंपने में 35 साल लगे। ऐसे गाँव में सही मायने में ग्रामीण सहभागिता के उक्त सभी मूल तत्वों को देखा जा सकता है। आगे उन्होंने कहा कि हमने गांवों में स्वच्छता के प्रति लोगों को जागरूक करने हेतु जिस तरीके को अपनाया वह यह थी- शुरुआत में हमने घर-घर जाकर ग्राम वासियों को स्वच्छता के बारे में बताना शुरू किया। इस कार्य में ग्रामीणों की सहभागिता के साथ-साथ कुछ संस्थाओं से मदद ली गई। खुले में शौच जाने को खत्म करने हेतु अलग-अलग मोहल्ले में एक-एक टाइलेट बनाया गया लेकिन इसका उपयोग देखा कि लोग लकड़ी, बकरी आदि को रखने के लिए किया जाने लगा। जब हमने वहाँ की वृद्ध महिलाओं से बातचीत की कि ऐसा क्यों हुआ! तब उन्होंने बताया कि 'हर परिवार की महिलाओं को ही दूर-दूर के कुएं से पानी ढोकर लाना होता है। घर के सात लोगों के लिए नहाने, कपड़े धोने से लेकर पीने व रसोई के लिए पानी लेकर वे ही आती हैं। उसमें भी अब आपकी टाइलेट के लिए अलग से पानी लाकर मेरी बहू को मारना है क्या? तब जवाब में मैंने खिसियाहट के साथ कहा कि फिर सुबह-सुबह सलामी देने का शौक क्यों है? वृद्धा ने जवाब दिया कि गीली जमीन, बिजली की कमी तथा बिच्छू, साँप के डर से महिला-पुरुष रास्ते के दोनों अलग-अलग किनारे पर टायलेट के लिए जाते हैं। इस तरह हमने उनसे वहाँ से अक्ल प्राप्त की और विज्ञान का आधार लेते हुए उनकी आवश्यकताओं के अनुसार कम पानी खर्च होने वाला शौचालय बनाया गया। इसे बनाने एवं उपयोग में लाने में पाँच साल लगे। आगे इस परियोजना को गांवों में क्रियान्वित करने के लिए ग्रामीणों के द्वारा ही किये जाने की प्रविधि को अपनाया गया जिसका अंतिम उद्देश्य 'ग्राम स्वराज' था। उन्होंने कहा कि बिना लोकशक्ति के गाँव में कोई भी परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है। शक्ति के आधार पर, नैतिकता के आधार पर हमने वहाँ कार्य किया, जाति-धर्म से अलग आर्थिक क्षमताओं के आधार पर सामाजिक संरचना का निर्माण करना। व्यक्ति तथा सामाजिक योगदान को बढ़ावा दिया। श्रमदान, समर्थ की पहचान की गयी इसी से सहभागितापूर्ण नेतृत्व का निर्माण हुआ।
            उन्होंने आगे कहा कि हमने अपने प्रयोगों में से जो पाया वह यह था कि ग्रामीण लोगों के अनुभवों के आधार पर ही उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप कार्य होना चाहिए। दान का स्वरूप भीख न हो बल्कि लोकशक्ति के रूप में उसका उभार होना चाहिए। दानकर्ता को ट्रस्टी के रूप में होना चाहिए न कि दाता के रूप में। संसाधन ग्राम सभाओं के हाथ में होने चाहिए। इस पूरे कार्य को करने के लिए तंत्र-मंत्र के साथ-साथ व्रत लेना जरूरी है। हम सब जब व्रती के रूप में सामाजिक जीवन का निर्वहन करेंगे तभी अच्छे समाज का निर्माण होगा। मेंढ़ा-लेखा इस मामले में काफी आगे निकाल चुका है। हम भी समाज का मंगल चाहते हैं तो इस तरह के प्रयोगों को आगे बढ़ाना होगा।

द्वितीय सत्र में ग्रुप प्रस्तुति हुई। अशोक सातपूते, राहुल निकम, गजानन नीलामे, डिसेन्ट कुमार द्वारा लेखा-मेंढ़ा के सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षिक स्थिति के अध्ययन के आधार पर अपना रिपोर्ट प्रस्तुत किया। रिपोर्ट में उन्होंने कहा कि वहाँ की शैक्षिक स्थिति बहुत ही निम्नतर है तथा गाँव में इसको लेकर एक प्राथमिक स्कूल के अलावा दूसरा कुछ संसाधन भी नहीं दिखाई दिया। निकम ने अपने अनुभव बताते हुए कहा कि उस गाँव में दोपहर के अनुचित समय में जाने के कारण ज्यादा जानकारी नहीं प्राप्त हो सकी, किन्तु ग्रामीणों की सहभागिता काबिल-ए-तारीफ़ है। गांवों में कई सारे गलत चीजों पर प्रतिबंध लगाया गया है। वहीं अशोक सातपूते ने मेंढ़ा लेखा के विवाह संस्था का विस्तृत विश्लेषण सबके सामने रखा। अंत में सभी ने सेवाग्राम गाँव की संरचना पर अपनी बात रखी। 
            समृद्धि डाबरे ने अपने ग्रुप का प्रतिनिधित्व करते हुए महिलाओं से संबन्धित समस्याओं पर बात रखी। डॉ. शिव सिंह बघेल ने मेंढ़ा लेखा पर विस्तृत प्रस्तुति दी। साथ ही सेवाग्राम गाँव की महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर बात की। अंत में दोनों की तुलना के आधार पर गांवों के बेहतरी के लिए विकल्प प्रस्तुत किए।
            खेती-किसानी और शिक्षा के मसले पर गठित समूह ने मेंढ़ा-लेखा और सेगांव के शैक्षिक भ्रमण के हवाले से अपने अनुभव साझा किए। इस समूह में डॉ. मुकेश कुमार, डॉ. देवशीष मित्रा एवं डॉ. पार्थसारथी मालिक, नरेश गौतम शामिल थे। इस समूह की तरफ से डॉ. पार्थसारथी ने अपने अनुभव रखते हुए कहा कि पढ़े-लिखे लोग सैद्धान्तिक चर्चा मात्र करते हैं किन्तु गाँव के लोग उसको व्यवहार में उपयोग में लाते हैं। श्याम शर्मा ने भी मेंढ़ा लेखा के अपने अनुभव शेयर किए। उन्होंने गाँव के सांस्कृतिक पहलू को रेखांकित किया। टी. राजु ने भी अपने अनुभव बताए। मेंढ़ा लेखा गाँव में की जा रही बांस की खेती के बारे में भी उन्होंने चर्चा की।
            चर्चा के अंत में प्रो. उल्हास जाजू ने मेंढ़ा-लेखा गाँव के बनने की पूरी प्रक्रिया की संक्षिप्त चर्चा की। उन्होंने बताया कि वनों पर सामुदायिक अधिकार कानून बनाने के साथ-साथ इस गाँव ने सबसे पहले उसे हासिल भी किया। तत्कालीन केंद्रीय वन-पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने उस गाँव में आकार वनों पर सामुदायिक अधिकार की घोषणा की थी। उन्होंने बताया कि तीन वर्ष पूर्व इस गाँव ने अपनी भूमि ग्राम सभा को दान कर दिया है। अब वहाँ भूमि की मिल्कियत पर व्यक्तिगत मालिकी नहीं है। ग्राम सभा ने हर किसी को उस भूमि पर कृषि करने हेतु दे रखी है। श्रमजीवी समाज के लिए इस गाँव ने एक नया आदर्श खड़ा किया।

इस सात दिवसीय कार्यशाला के समापन-सत्र की अध्यक्षता महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति प्रो. आनंद वर्धन शर्मा ने की। संचालन डॉ. मिथिलेश कुमार ने किया। उक्त मौके पर प्रो. उल्हास जाजू, विश्वविद्यालय के कुलसचिव कादर नवाज खान, डॉ शंभू जोशी एवं एनसीआरआई के डॉ. डी. एन. दास मौजूद थे। एनसीआरआई के डॉ. डी. एन. दास को प्रतिकुलपति ने अंगवस्त्र, सूत की माला व चरखा भेंट कर सम्मानित किया। समापन सत्र में पूरे कार्यक्रम की संक्षिप्त रिपोर्ट डॉ. मुकेश कुमार ने प्रस्तुत किया। समापन सत्र में दो प्रतिभागियों टी. राजू एवं डॉ. राहुल निकम ने बारी-बारी से अपने अनुभव शेयर करते हुए बताया कि इस कार्यशाला से उन्हें काफी फायदा मिला और ग्रामीण समुदाय को सूक्ष्मता से जानने-समझने का मौका मिला। दोनों ने कहा कि इस किस्म का फ़ैकल्टी डेवलपमेंट प्रोग्राम एक सप्ताह मात्र न होकर पंद्रह दिनों का होना चाहिए। उक्त मौके पर एनसीआरआई के डॉ. डी. एन. दास ने अपना मत प्रकट करते हुए कहा कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय ने यह आयोजन कर महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने प्रतिकुलपति और कुलसचिव से ग्रामीण समुदाय से लगाव बढ़ाने हेतु इसे पाठ्यक्रम का अंग बनाने में सहयोग का अनुरोध किया। समापन सत्र में ही प्रतिकुलपति एवं कुलसचिव के हाथों सभी प्रतिभागियों के बीच प्रमाण-पत्र वितरित किया गया।

समापन सत्र में अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति प्रो. आनंद वर्धन शर्मा ने कहा कि ग्रामीण समुदाय पर केन्द्रित महत्वपूर्ण कार्यशाला सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए आप सभी बधाई के पात्र हैं। उन्होंने कहा कि भारत के गाँव तमाम अभावों के बावजूद विशिष्टता लिए हुए हैं। गाँव में आतिथ्य भाव आज भी कायम है। गाँव से आज भी बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। गांव में आज सुविधाओं का अभाव है, लोग बड़े पैमाने पर गाँव से विस्थापित हो रहे हैं। उन्होंने महाराष्ट्र के चर्चित मॉडल गाँव हिबरे बाजार के प्रयोग की भी चर्चा की। प्रतिकुलपति ने एनसीआरआई से महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में एक स्थायी केंद्र बनाने का भी निवेदन किया, जहां वर्ष भर इस प्रकार के ग्राम केन्द्रित कार्यक्रम संचालित किए जा सकें। समापन सत्र में सभी प्रतिभागियों को कुलसचिव कादर नवाज खान ने धन्यवाद ज्ञापित किया।

रिपोर्टिंग टीम : डॉ. मुकेश कुमार, नरेश गौतम, गजानन एस. निलामे एवं डिसेन्ट कुमार साहू.


Friday, March 31, 2017

बेड़िया समुदाय: जाति, यौनिकता और राष्ट्र–राज्य के पीड़ित

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बेड़िया समुदाय जो कि कभी एक घुमंतू और आपराधिक प्रवृत्ति वाला समुदाय माना जाता रहा है लेकिन राज्य ने उसे अनुसूचित जाति की श्रेणी में श्रेणीबद्ध किया है और उनके विकास लिए तमाम तरह की योजनाएं भी चला रहा है ताकि उनका उत्थान हो सके लेकिन जैसा कि हमेशा होता है वैसा ही इन योजनाओं के साथ भी हुआ है। यह भी मात्र कागजों पर ही सीमित रह गयी हैं।
मध्य प्रदेश के जिला सागर और अशोकनगर, बीना के आस पास बहुत से गाँव है, जहाँ बेड़िया समुदाय के लोग निवास करते हैं। सिर्फ एक ही गाँव जिसका नाम पथरिया है वहाँ परिवर्तन देखने को मिलता है। उसके भी कारण हैं क्योंकि वहाँ 1984 से सत्य शोधन आश्रम की शुरुआत चम्पा बेन के द्वारा की गयी जिसका मुख्य उद्देश्य बेड़िया समुदाय का उत्थान करना था।
चम्पा बेन के द्वारा सबसे पहला कार्य बेड़िया समुदाय की बालिकाओं को शिक्षा देना था और वहाँ देह व्यापार में लगी महिलाओं को जागरूक करना था ताकि वह देह व्यापार जैसे कार्य से बाहर निकल सकें। साथ ही बेड़िया समुदाय में इससे पहले शादी जैसे संस्कारों का भी कोई मूल्य नहीं था, इसके लिए भी लोगों को जागरूक करने का काम किया गया। बाकी गाँव जहाँ बेड़िया समुदाय के लोग निवास करते हैं, वहाँ की स्थितियाँ बहुत ही खराब हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन राज्य की नीतियाँ भी इसके लिए बहुत हद तक जिम्मेदार हैं।

बेड़िया समुदाय पहले से ही शोषित रहा है क्योंकि उनके संपर्क हमेशा राजे-रजवाड़े, जमींदारों, मालगुजारों जैसे सामन्ती लोगों के साथ रहे हैं, जहाँ लगातार उनका शोषण किया गया। जिस तरह से सामन्ती लोगों ने इनका शोषण किया उसी तरह से आज भी हो रहा है।
 सरकार ने भूमिहीनों के लिए कृषि हेतु जो भूमि आवंटित की है, वह  इन्हें भी आवंटित की गयी, लेकिन यह उनके निवास स्थान से 20 या 35 किलोमीटर की दूरी पर है। इनमें से बहुत सारे लोगों को आज भी उस भूमि पर कब्जे नहीं मिले हैं। बहुत सारे ऐसे भी लोग हैं जिन्हें आज तक यह भी नहीं पता है कि उनकी भूमि आखिर आवंटित कहाँ है? जब भी बेड़िया समुदाय के लोगों ने अपने आप को परम्परागत पेशे से बाहर निकालना चाहा है तो उनके सामने कई तरह के सवाल खड़े हो जाते हैं। सबसे पहला सवाल उनकी पहचान का बनता है। जैसे ही लोगों को पता चलता है कि वे बेड़िया समुदाय से हैं तो लोग सहज उपलब्धता के कारण उनसे यौन संबंधो की अपील करते हैं या उन्हें उसी नजरिये से देखते हैं। इस तरह के सामाजिक दबाव को झेलना पड़ता है। यह समुदाय हमेशा किसी न किसी पर आश्रित होकर अपना जीवन निर्वाह करता रहा है। दूसरा यह समुदाय कभी कृषि कार्य से भी नहीं जुड़ा रहा। अब जिन परिवारों में दलित चेतना का विकास हुआ है और जिन्होंने अपने आप को अनुसूचित जाति की श्रेणी में भी गिनना शुरू कर दिया है, और अपने आप को इस कलंक से बाहर भी निकालना चाहते हैं, न तो उन्हें समाज इस कार्य से बाहर निकलने दे रहा है और न सरकार उनके लिए कोई ठोस कदम उठा रही है।

पूरा समुदाय हमेशा से ही उपेक्षा की नजर से देखा जाता है। यदि आप उस गाँव का नाम तक लेते हैं तो आप को लोग ओछी नजर से देखते हैं। लोगों की मानसिकता जाकर वहीं रुकती है कि आप उनके साथ अपने यौन संबंध बनाने जा रहे हैं। बुंदेलखंड में बसे ये लोग अपने लिए ही जीवन और नयी संभावनाएँ तलाश करने में जुटे तो हैं लेकिन यह सभ्य समाज ही उन्हें इस दलदल से बाहर नहीं निकलने दे रहा है। दूसरा कारण यह भी है कि राज्य सरकार इनको अनुसूचित जाति की श्रेणी में श्रेणीगत करती है, लेकिन इस समुदाय में आज भी वह चेतना नहीं जागी है। यहाँ तक कि बहुत से बेड़िया आज भी अपने को उच्च श्रेणी में ही गिनते हैं। ये उन लाभों को भी नहीं ले पाते हैं, जो सरकार अनुसूचित जाति के लिए देती है। पूरे समुदाय में शिक्षा की कमी भी इनके विकास में सबसे बड़ी अवरोधक है, जो इन्हें इस काम से बाहर नहीं निकलने दे रही है।

यदि पूरे बुंदेलखंड और उसकी परिस्थितियों को देखेँ तो ये भी कृषि के लिए अनुकूल नहीं है। जब इनके इतिहास पर नजर डालते हैं तो यह समुदाय कभी भी कृषि कार्य या अन्य व्यवसाय से जुड़ा दिखायी नहीं देता है। अतः इनके लिए कृषि कार्य से जुड़ना अपने आप में एक मुश्किल कार्य है। जिस तरह से इस समुदाय कि निर्मिति के साक्ष्य मिलते हैं उससे तो यही लगता है कि इस समुदाय के उत्थान के लिए सरकार या अन्य संस्थायें इनको इस देह व्यापार के व्यवसाय से बाहर निकालना नहीं चाहती हैं, अन्यथा इनके लिए किसी उचित व्ययसाय की व्यवस्था की जानी चाहिए थी।

ग्राम परसरी की बेला कहती हैं कि- “मुझे यह काम छोड़े काफी साल हो गए हैं। अभी तक मेरा पूरा परिवार इस काम से बाहर आ गया है लेकिन जब से हमने देह व्यापार और राई को छोड़ा है, तब से हम लोग अपने लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ भी ठीक से नहीं कर पाते हैं। हमारे ही गाँव के लोग आज हमसे बहुत धनी हैं और उनके पास आधुनिक सुख सुविधा के साधन हैं, रहने के लिए अच्छे घर हैं। हम तो रोटी के लिए भी मोहताज हैं, बीड़ी बनाने और मजदूरी से घर का खर्च तो किसी तरह चल जाता है लेकिन किसी और काम के लिए पैसे नहीं बचते हैं। कई बार तो यही लगता है कि हमने राई को छोड़ कर बहुत गलत किया। कई बार वापस जाने का मन भी करता है लेकिन फिर सोच कर रह जाती हूँ ”।

यह कहानी किसी एक महिला की नहीं है। बेड़िया समुदाय में इस तरह के बहुत से परिवार मिल जाएंगे। करीला की एक महिला बताती हैं कि सामाजिक दबाव के चलते मैंने राई तो छोड़ दी, लेकिन कोई और काम भी नहीं था। घर के मर्द कुछ भी नहीं करते और पूरे दिन दारू के नशे में घूमते हैं। दारू के लिए भी पैसे मुझसे ही माँगते हैं, इसलिए वापस यहाँ करीला मंदिर पर ‘बधाई’ करती हूँ। शाम तक 2-3 सौ रुपए मिल जाते हैं पर कभी-कभी कुछ भी नहीं मिलता, लेकिन अपने साथ साज वाले को रोज पैसे देने पड़ते हैं।  यह किस्सा किसी एक महिला का नहीं है ऐसे किस्सों से बेड़िया समुदाय भरा पड़ा है।

बेड़िया समुदाय की पहचान एक यौन कर्म करने वाले समुदाय के रूप में सभ्य समाज करता है, लेकिन किसी भी समुदाय और उसके व्यवसाय को समझने के लिए, उस समुदाय की निर्मिति एवं इतिहास को देखना आवश्यक है, क्योंकि बिना किसी की निर्मिति के बारे में जाने उसके बारे में ठीक-ठीक कुछ कहना मुश्किल हो जाता है या कई बार हम उनके लिए गलत निर्णय भी ले लेते हैं। बेड़िया समुदाय को राज्य एक वेश्यावृत्ति करने वाला समुदाय मानता है। क्योंकि यह समुदाय अपने सेक्सुअल रिलेशन कई पुरुषों और सभ्य समाज के संबंधों से इतर बनाता है और उन संबंधो में काफी खुलापन भी होता है। यह समुदाय इस तरह के संबंध बनाने को बुरा नहीं मानता। लेकिन राज्य की विधि और सभ्य बनाने की जो राज्यजनित अवधारणा है, यह समुदाय एक ख़तरे के रूप में उसके सामने खड़ा है। जब इस समुदाय में कभी भी यौन कर्म को बुरा नहीं माना गया और समुदाय यौन कर्म को मान्यता भी देता है, तो उस समुदाय को यह सभ्य समाज या राज्य बुरा कर्म करने वालों की नजर से क्यों देखता है? जब कि इनकी संस्कृति का यह एक अहम हिस्सा भी है। यदि इनके पूरे इतिहास को देखा जाए तो यह एक घुमंतू समुदाय रहा है और कभी भी शादी-ब्याह जैसे संस्कारों को मान्यता न देते हुये अपना विकास करता रहा है। इस समुदाय के लिए यह एक सहज प्रक्रिया है लेकिन राज्य और समाज की नजर में तो नहीं।

राज्य इस तरह के समुदाय को मुख्य धारा में लाने के प्रयास में लगा है, क्योंकि यह समुदाय मुख्य धारा के विपरीत अपने संबंध मुख्य धारा के लोगों के साथ ही स्थापित करता है। लेकिन वही समाज जो इन्हें अपनी रखैल या जो भी नाम दिया जाए के रूप में इस्तेमाल करता है तब ये बेड़िया उनके लिए असभ्य क्यों नहीं होते? यही वो सभ्य समाज है जो इन्हें वेश्यावृत्ति करने वाला भी कहता है और इन्हीं के साथ अपने अनैतिक संबंध भी स्थापित करता है।  
    
समुदाय की निर्मिति में सामन्ती लोगों की भूमिका अधिक दिखायी देती है क्योंकि ऐतिहासिक तथ्यों को देखें तो बेड़िया समुदाय की महिलाएँ राजे-रजवाडों और सामन्ती लोगों से ही अपने संबंध बनाती दिखती हैं। इसका यह कारण भी था कि बेड़िया समुदाय की महिलाएँ अन्य समुदायों की अपेक्षा अधिक सुंदर होती थीं तो इन्हें अन्य समुदायों की अपेक्षा ख़तरे भी अधिक थे। अपने संरक्षण और आर्थिक जरूरतों को पूर्ण करना भी इसमें शामिल था। यहाँ तक इनके सामने कोई समस्या नहीं थी। ब्रिटिश काल में इन्हें पहचान कर, श्रेणी बद्ध किया गया और अपराधी प्रवृत्ति की  संज्ञा दी गयी। लेकिन आजादी के बाद से इनके लिए संकट बढ़ गए। उसके कारण यह थे कि भारत के लगभग सभी ऐसे समुदायों को मुख्य धारा में लाने के लिए जनजाति से जाति व्यवस्था में लाना था क्योंकि राज्य की सत्ता जाति व्यवस्था पर चलती है। इसमें शामिल होने के लिए आप को जाति व्यवस्था में आना पड़ेगा। इनके साथ भी वही किया गया। इन्हें अब जनजाति से बदल कर अनुसूचित जाति में परिवर्तित कर दिया गया। अब जब यह जाति व्यवस्था में आ चुके थे, तो राज्य की विधि के अनुसार ही इन्हें भी चलना था।

हालांकि समुदाय में खुले तौर पर संबंध बनाने की छूट थी। इसी आधार को देखते हुये राज्य ने इन्हें वेश्यावृत्ति करने वाले समुदाय के रूप में पहचान दी। औपनिवेशिक मानसिकता के साथ इन्हें शिक्षित करने की प्रक्रिया और उनकी संस्कृति को समाप्त करने के प्रयास शुरू किए गए। अब इनके सामाजिक मूल्यों, इनकी संस्कृति सभी पर हमला होना तय था। अब इन्हें ‘Open Relation रखने वाले समुदाय या व्यक्ति कभी सभ्य नहीं हो सकते’ इस मानसिकता के साथ सभ्य बनाने के लिए शिक्षित करना था। लेकिन यहाँ एक बात सबसे जरूरी हो जाती है कि इस राष्ट्र-राज्य की अवधारणा में जहाँ इस तरह के समुदाय (बेड़िया समुदाय) जो शादी ब्याह जैसे संस्कारों और सभ्य समाज के बनाए मूल्यों से अलग थे, जो किसी भी पुरुष से अपने स्वच्छंद संबंध बना सकता था, जब राज्य उसे वेश्या का संबोधन दे रहा है तब उसने कभी इस बात पर गौर नहीं किया कि इनके लिए आखिर ग्राहक कहाँ से आ रहें हैं? जो राज्य इन्हें वेश्या का संबोधन दे रहा है दरअसल वही राज्य ही इन्हें ग्राहक भी उपलब्ध कराने का कार्य करता है। अभी तक जिन भी संस्थाओं ने इनके लिए काम करने शुरू किए, वे सभी इन्हें सभ्य समाज की धारा में लाना चाहते हैं। आखिर एक ऐसा समुदाय जो अपने आप को अलग रखकर स्वच्छंद रहता है, किसी से भी अपने संबंध स्थापित करता है और अपने किसी भी निजी मामले में बंधन नहीं रखता, तो उन्हें बदलने की आवश्यकता क्यों पड़ी? लेकिन जिन भी संस्थाओं ने इनके उत्थान के लिए काम शुरू किये, वे भी इन्हें राज्य की नजर से ही देखते रहे।

जब हम इन्हें सभ्य बनाने की बात करते हैं तो हम उन्हें खुद संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में ला रहे हैं। लेकिन कार्य के आधार से समुदाय की पहचान को देखें तो राज्य उन्हें निम्न श्रेणी में ही श्रेणीबद्ध करता है। तो जाहिर सी बात है एक जाति से उठकर यदि वह दूसरी नीची जाति में प्रवेश करते है तो इनके लिए संकट और बढ़ जाते हैं।
राज्य की भूमिका पर गौर किया जाए तो राज्य जहाँ एक तरफ वेश्यावृत्ति को खत्म करना चाहता है, वहीं दूसरी तरफ उन्हीं जगहों को पहचान कर जहाँ वेश्यावृत्ति होती है, वहाँ एड्स जैसे प्रोग्राम चला कर, घर-घर में condom बाँट रहा है, यानि राज्य उन्हें संरक्षण देता हुआ प्रतीत होता है। दूसरी तरफ समुदाय के साथ व्यवहार का रवैया मुख्य धारा की मूल्य व्यवस्था (value system) से मिलता हुआ दिखयी देता है। The Hindu[1] में छपी एक रिपोर्ट को यदि देखा जाए तो राम सनेही जो एक समाज कार्यकर्ता हैं, वह इसे अनैतिक बताते हैं और बेड़िया समुदाय की परंपराओं को खत्म करने के लिए सरकार पर दबाव बना रहे हैं। जब कि सरकार की तमाम एजेंसियां इन्हें संरक्षण दे रही हैं। मुख्य धारा की मूल्य व्यवस्था के आग्रह वाले राम सनेही अकेले नहीं हैं, बल्कि अन्य कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थायें भी इसमें संलग्न हैं। कुल मिला कर बेड़िया समुदाय की यौनिकता समाज और राष्ट्र-राज्य के विरोधाभासी दबाव का शिकार बनती है। जहाँ एक तरफ राष्ट्र-राज्य समुदाय की यौनिकता को अपनी यौनिक अर्थव्यवस्था के तहत बचाए भी रखना चाहता है, वहीं दूसरी तरफ मुख्य धारा के समाज के नैतिक और सांस्कृतिक आग्रहों को ख़ारिज भी नहीं करना चाहता। ये संस्थायें अपने सामुदायिक कार्यों में बेड़िया समुदाय के साथ सांस्कृतिक राजनीति की एजेंट दिखाई देती हैं।

समुदाय यौनिकता के संस्कृतिकरण की प्रक्रिया खास संदर्भों में घटित होती है, जहाँ सामुदायिक/संस्कृति विशेष ज्ञान को अपनी व्यवस्था में शामिल करने से पहले उसका रूपांतरण व प्रसंस्करण होना अनिवार्य हो जाता है। बेड़िया समुदाय के चलायमान होने की जीवनशैली से उपजी संस्कृति उनकी सांस्कृतिक विशेषताओं में परिलक्षित होगी। इस आधार पर सेक्सुअलिटी व उनके स्त्री-पुरुष संबंधों, उनके औपचारिक-अनौपचारिक व्यवहारों, यहां तक कि जीवन और नृत्य-गीतों की अल्हड़ता का अध्ययन और व्याख्या अपनी सम्पूर्णता में गैर विषयीकृत (Non Subjectifed) होकर ही संभव है।
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नरेश गौतम
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
nareshgautam0071@gmail.com
8007840158


Thursday, May 12, 2016

अब की बार तीसरी फसल शहर में...


राजनैतिक मसीहा के निर्वाण के बाद कुछ पढ़े लिखे लोगों ने शहर में पाँव पसारने शुरू किए हैं. विभिन्न संगठन, मंडल, मित्र मंडल आदि का निर्माण, जमीन की खरीद-फरोक्त आदि काम ये लोग करने लगें हैं. शहर एजुकेशन हब हैं इसलिए यहाँ बहुत सारे शैक्षिक संस्थान है साथ ही प्रायवेट कोचिंग क्लासेस भी भरे पड़े हैं. व्यापारी सदा से यह चाहते हैं कि शान्ति बनी रहें ताकि ग्राहक माल खरीद सकें, इन सब को सेक्युरिटी के लिए इन संगठनों की आवश्यकता होती हैं. इस आवश्यकता की पूर्ती इन सफेदपोश लोगों द्वरा समय-समय पर होती रहती हैं. शहर का ज्यादातर हिस्सा बाहरी लोगों का होने के कारण स्थानीय लोगों की दबंगई जरुर दिखती है लेकिन वह भी शहर के शान्ति के नाम पर सहनीय है. शायद यही राज है शहर के शान्ति का? ऐसे शांतिप्रिय शहर में अचानक धारा 144 कैसे लागू हुयी. सवाल यह है कि क्या वाकई शहर पहले से शांत था? या ये व्यापारियों द्वारा तैयार शान्ति थी? ऐसा क्या हुआ है जो पानी को लेकर इस शहर में धारा 144 लगाईं गई? बहुत से लोगों के मन में यह सवाल हैं कि ऐसा क्यों?

लातूर शहर धनी व्यापारियों का शहर हैं जिसका भार यहाँ के प्रत्येक सामान्य व्यक्ति पर है. एक ओर से हैदराबाद की नजदीकी व्यापारियों को कम कींमत में माल उपलब्ध कराता है वहीँ दूसरी ओर उस माल के लिए यहाँ साक्षर और ग्रामीण ग्राहक तैयार है. शायद ही शहर का ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो मुंबई, पुणे में अपनी किस्मत आजमाने न गया हो. काम-काज ढूंढने न सही शिक्षा के लिए तो जरुर ही वे लोग इन बड़े शहरों में चले गए होंगे. लेकिन यह भी सही है कि अगल-बगल के परभणी, उस्मानाबाद, बीड के ग्रामीण लोग रोजगार के लिए पिछले सत्ता परिवर्तन के पहले तक आते रहें थे. लेकिन आज-कल उनका आना भी केवल ‘आना’ है. कई सारे मामले में लातूर इन बाकी तीन जिलों से बेहतर माना गया जिसमें शिक्षा अहम् थी, रोज बढ़ने वाला शहर मकान बनाने के लिए मजदूरों की मांग रखता था इसलिए मुंह मांगी मजदूरी मिल जाया करी थी इसलिए भी बाकी जिलों के लोगों को यह शहर आकर्षित करता रहा. व्यापारी घरानों की परंपरा ने यहाँ उद्योग के लिए नई आशा निर्माण कि जिसके चलते मजदूरों की मांग भी बढ़ गयी हालांकि यह उद्योग केवल रोजमर्रा के उपयोगी उत्पादन बनाने तक सिमित हैं.

शहर के रामभाऊ बताते हैं कि हम कभी किताबों में पढ़ा करते थे कि एशिया का सबसे बढ़ा शक्कर कारखाना लातूर में हैं तो हमारी छाती फुल जाती थी किन्तु बाद के सालों में पता चला कि उसको नीलाम किया जा रहा है. जब कोई मुझसे पूछता है कि आप के शहर में क्या है तो मैं कुछ नहीं बता सकता हालांकि यह सवाल इससे पहले कोई ज्यादातर नहीं पूछता था और अगर कोई पूछता तो जवाब में कोई न कोई कह देता कि विलासराव देशमुख का शहर, या किलारी भूकंप ये दो चीजे थी जो शहर को वैश्विकता के साथ जोड़ने में मदद करती थी. पहले वाले जवाब में सामने वाले के विचारों से जलन का आभास कर लिया जाता जिससे हम शहरवाले गर्व महसूस कर लेते और दुसरे से करुणा झलकती थी इसे भी हम हमारी प्रसिद्धि के साथ जोड़कर देखते न की कमजोरी. परंतु आज-कल पानी की कमी ने हमें हमारी औकात दिखाई. हमारा ‘लै भारी’ का भारीपन हमें बोझ लगने लगा है. इस सूखे ने हमें हमारी क्षमताओं को जानने का मौका दिया है. हालांकि शहर का बुद्धिजीवी वर्ग अब भी इस समस्या की और आकर्षित नहीं हो पाया है. इसका यह भी कारण है कि लातूर के साक्षर लोग तुरंत ही किसी समस्या को अपने उपर हावी नहीं हो देते. हमारा कोपिंग मेकनिज्म गजब का है. ये तो सरकारी महकमें की करतूत है कि उसने १४४ लगाकर हमारी खामियों को उजागर कर रखा है. वरना इससे पहले भी हमने बड़े-बड़े सुखों को मुहतोड़ जवाब दिया है.
पिछले साल पानी की कमी ने हमारे खेतों का बूरा हाल किया तब भी हम नहीं डरें, पिछले महीने एक्कड़ भर खेत से 8000 खर्च कर आधी बोरी सोयाबीन जो इस मौसम की पूरी फसल का हिस्सा था उसे घर ले जाते समय मैं ज़रा भी आशंकित नहीं था कि इतने पैसे के बदले केवल इतना धान. क्योंकि हम खेती तो केवल बचाने के लिए करते है ताकि हमें भी लगे की हम भी किसान है. लातूर शहर का किसान होने में भी अजीब सा गर्व महसूस होता है. करोड़ों की किंमत पर बेचीं जाने वाली जमीन में हम हजार-बारासों का उत्पादन लेकर हम केवल यह जताना चाहते हैं कि हमने अभी अपनी जमीन बेची नहीं हैं. ऐसे में पानी गिरने न गिरने से हमारा कुछ नहीं होने वाला. इससे ज्यादा फिक्र वाली बात यह है कि पडोसी की जमीन को मैं अपना कैसे बनाऊं. शहर के अगल बगल का शायद ही ऐसा कोई गाँव होगा जिसकी जान पहचान कोर्ट में न हो. इन लोगों ने वकीलों और न्यायधीशों के घर पैसे से भरे हैं. वो समय अब दूर नहीं जब यहाँ का कोई किसान नौसिखिए वकील को सलाह दे रहा होगा. मृदा परिक्षण जैसे आम काम यहाँ के किसान तब तक नहीं करवाते जब तक कि इसके लिए कोई फंड न मिले. हम केवल उस जमीन के मालिक होने का फर्ज अदा करते है साथ ही यह ध्यान रखते हैं कि कोई हमारे इस फर्ज के आड़े न आए. चार साल पहले की बात है शहर के नजदीक का एक गाँव शहर में समाविष्ट होने जा रहा था. पूरे गाँव में केवल इसी की चर्चा थी लोगों ने अपने पैसे खर्च कर मुंबई में जाकर मंत्रियों से बातचीत कर मसला हल करवाया तब जाकर वो जमीन बची है. लेकिन यह जमीन बचाने का असल कारण उस जमीन की कींमत ही थी. जो आसमान छु रही है. आज तक मुझे नहीं पता चला कि ख़बरों में वो बूढा किसान उभाड खाबड़ जमीन पर बैठ कर माथे से हाथ लगाकर आसमान की और देख रहा है वह कहाँ हैं. यहाँ का किसान तो रॉयल एनफील्ड पर घूम रहा है. विट बनाने का कारखाना लगा रहा है. एक नहीं दो बीवियां बना रहा है. वो दबंग हैं और चौक-चौराहे पर बैठकर निम्नवर्गियों का मज़ाक उड़ा रहा है. उसके बच्चे भी उसी के क़दमों पर चल रहे है. मध्यकाल के जमींदारों से कम प्रस्थिति इन दो-चार एक्कड़ वालों की नहीं हैं.


ऐसा ही एक उदाहरण है रशीद चाचा. रशीद चाचा की शहर से नजदीक ही खुली जमीन है. इस बार सूखे का प्रभाव बढ़ने वाला है इस बात की फ़िक्र यहाँ के व्यपारियों को ज्यादा थी इसलिए उन्होंने रशीद चाचा को पहले ही पैसे दे रखे हैं बोरिंग के लिए जिससे लगने वाला पानी वह उन्हें उसी दाम पर देगा जो पहले से तय होगा. ऐसे में उसने अपने खेत में तीन बोरिंग करवाई लगभग 700 फिट के आसपास चार इंच पानी लगा दो बोर को बाकी एक को एक इंच पानी लगा. अब तो उनकी निकल पड़ी आज-कल वो रोज पंद्रह-बीस हजार का पानी बेच रहें हैं. बताइये इतना पैसा कमाने के लिए एक किसान को कितने दिन लग जाएंगे. कौन करेगा किसानी अब रशीद चाचा तो चाहेंगे की हर साल ऐसा ही सुखा पड़े तब तो वह पैसा कमा पाएंगे. दो फसलों में तो उनको कुछ न मिला लेकिन इस सूखे में उनकी ‘तीसरी फसल’ कामयाब रहीं. 

यह केवल किसानों का ही नहीं शहर में जिस किसी के बोअर को पानी है वे लोग इस तीसरी फसल को ले रहें हैं. लागत बहुत कम है और मुनाफ़ा तगड़ा मिल रहा है. जैसे बोअर लगातार दो ड्रम पानी निकालता है तो ग्राहक के आने की राह देखने नहीं हैं. एक हजार लीटर का एक टैंक लगवाना है उसको एक प्लंबर से टोटी फिट कर दे बस. अब दिन भर दो-दो घंटे में बोर चलाकर पानी टंकी में ऐसे जमा करते है जैसे पैसे. माँ-बाप कही बाहर चले जाए तो बच्चों को बार-बार फोन करके याद दिलाते हैं कि दो घंटे हो गए है चालु करो. नौकरीपेशा आदमी भी इस उपरी कमाई के लिए घर में अपना योगदान छुट्टी लेकर दे रहा हैं. तो बच्चे अपनी कोचिंग को त्यागकर माता-पिता के सामने अपना गौरव प्राप्त करने में लगे हैं. अनपढ़ साँस की साक्षर बहुएं अपना इक्का जमाने में लगी हैं. पता चलता है इनके लिए भी सुखा किसी सुख से कम नहीं है
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पिछले बार के इलेक्शन में हारे हुए प्रत्याशी बड़े जोरों से सत्ता आजमाइश में लगें हैं. वो इस मौके को गवाना नहीं चाहते है इसलिए किसी भी हालत में वह अपने प्रभाग में पानी पहुंचाकर ही दम लेंगे. इसके लिए कुछ बड़े आसामियों ने अपने निजी कुओं से पानी निकालकर प्रभागों में बांटने का काम शुरू किया है. जिसके पीछे यही लालसा है कि अगली बार लोग याद रखें? पानी लेने वाले लोग भी खूब आशीर्वाद दे-देकर पानी ले रहें हैं. फिर प्रत्याशी इस काम को समाचार पत्रों में भेजने के लिए तैयार हैं. 850 रूपए के टैंकर में 25-30 परिवार खुश इधर प्रत्याशी का सोशल नेटवर्किंग भी मजबूत. अब इन प्रत्याशियों की बात तो समझ में आती है किन्तु जो पहले से सत्ता में है वो भी पीछे नहीं हैं. महानगरनिगम ने प्रत्येक प्रभाग में एक टैंकर नियुक्त किया है जिसमें प्रत्येक घर में आठ दिन में एक पानी दिया जाना तय है. शुरुआत में इतनी भीड़ उमड़ने लगी जिसके चलते ज्यादातर पानी निचे बहने लगा. इस समस्या का समाधान पार्षदों ने अपने हिसाब से किया टैंकर घर-घर जाएगा और आधा ड्रम पानी देगा. पानी का बंटवारा खुद पार्षद करेगा. पार्षदों ने अपने हिसाब से पानी के बंटवारे के नियम बनाए है जिसमें यह है कि आपके पास आधार-कार्ड और वोटर आय डी होनी चाहिए. अर्थात आपके पास ऐसा कुछ होना चाहिए जिससे आपको इसी वार्ड का वोटर माना जाए. कुछ सनकी बुढो ने उनको इसी बिच याद भी दिलाया कि वोट माँगते समय ये ताम-झाम नहीं करते हो बस गिडगिडाते हो और अब हमें ही पुछ रहें हो कि पहचान दिखाओ. तब पार्षद का चेहरा देखने लायक हो जाता है. फिर भी वह सत्ता को फिर से पाने के चक्कर मे इस बार भी वोट की फसल काटना चाहता है इसलिए मनमानी कर कुछ अवैध लोगों को पानी दिलाता ही है. पानी वितरण का एक नियम यह भी है कि जिसके घर में किराएदार हैं वह अपने मालिक के हिस्से से पानी ले उनके लिए अलग से पानी नहीं देंगे. इस तरह कैचिं लगाकर वह भी पानी को बचाने की कोशिश कर रहा है. वाह रे पानी वितरण ये तो पीडीएस से आगे निकल गए. वहां तो केवल राशन कार्ड दिखाना पड़ता है यहाँ तो रोज नित-नए नियमों पर पानी मिल रहा है.


 तो यह हाल है लातूर के सूखे का लेकिन इस सूखे का असर लातूर के मध्यवर्ग पर नहीं दिखता. सब के पास खुद के बोअर हैं और जिनके बोअर बंद है वे अक्सर यह कहते हैं कि हम तो पिछले महीने से ही टैंकर से पानी मंगवा रहे हैं. यह कहते हुए उनके गर्व को महसूस किया जा सकता हैं. तो सवाल यह है कि यह सुखा किसके लिए है व्यापारियों के लिए, किसानों के लिए,मजदूरों के लिए नौकरीपेशा के लिए किसके लिए. इन सब वर्गों के बावजूद गरीब किसान, खेतिहर, मजदुर छोटे-मोटे व्यवसायी, ठेले वाले आदि इन पर इस सूखे का कम इस तीसरी फसल का असर जरुर दिख रहा है.
पानी न मिलने के कारण कुछ लोग जो बाहर से थे उन्होंने मकान खाली कर दिए. महनगरनिगम ने केवल 144 लगाकर लोगों को पानी के स्त्रोतों से दूर रखा है किन्तु उन स्त्रोतों में पानी ही नहीं हैं तो लोग वहां क्यों जाएंगे. बोअर-अधिग्रहण जैसा फैसला काफी पहले लेना चाहिए था जो अब तक नहीं लिया गया. उलट आरटीओ ऑफिस वाले निजी पानी-वाहक वाहनों को लायसंस बाँट रहे हैं. और पानी के निजी ठेकेदारों को यह हिदायत दे रहें हैं कि जिसके पास लायसंस हैं उन्ही को पानी देना. इस पुरे मामले में सरकार भी खूब मजा ले रही है. एक तरफ १४४ धारा लगने के बाद देश के सारे समाचार पत्रों में इस बात को प्रचारित किया गया कि लातूर सूखे की चपेट में हैं. दूसरी ओर उनके पास इस समस्या से निबटने के प्लान क्या है? यह सवाल जब उठाया गया तो जवाब- डेढ़ लाख लोग मायग्रेट हो जाएंगे. स्कूल और कोचिंग क्लासेस समय से पहले ही खत्म कर दिए जाएंगे. यह किसी शहर का प्लान कैसे हो सकता है जिसमें हो जाएंगे, कर दिए जाएंगे जैसे शब्द हो. यह तो भविष्यकालीन योजना है लेकिन असल में जो हो रहा है उस पर कारवाई के लिए इनके पास कोई प्लान नहीं है. जिस डेढ़ लाख लोगों की बात हो रही हैं वो तो बाहरी ही है वो तो मायग्रेट होंगे ही लेकिन जो स्थानीय आम जनता है जिनको रोज 2 रूपये प्रति घड़ा से पानी खरीदना पड रहा है उनके लिए इनके पास कोई प्लान नहीं हैं. कुछ ख़ास किस्म के व्यापारी-बुद्धिजीवीयों ने एलान किया कि शहर में १० रूपए में 20 लीटर शुद्ध पानी दिलाया जाएगा इसके लिए एटीएम नुमा मशीन लगवाई जाएगी जिसमें पैसे डालने के बाद पानी आएगा. ऐसे नवाचारों पर हँसे या रोये. पानी खरीद रहें हैं इसलिए रोये या पानी मिल रहा है इसपर हँसे. कुछ समझ नहीं पाएंगे. हालांकि यह भी तीसरी फसल निकालने का एक ख़ास तरिका है जो हर बार पूंजीपतियों द्वारा अख्तियार किया जाता है.



पिछले दो साल से लगातार शहर में मिनरल वाटर की कंपनियों की तादाद बढ़ी है. इस क्षेत्र की सबसे पुरानी कंपनी आज कल समाचारपत्रों में प्रचार कर रही है कि लातूर शहर के वासियों के लिए शुद्ध पानी केवल 40 रूपए में 20 लीटर, शुद्ध के साथ ठंडा चाहिए तो 60 रुपये में 20 लीटर. यह कींमत देश के किसी भी इलाके से ज्यादा ही होगी. शायद राजस्थान से भी. लेकिन शहर के लोग इसके आदि हो गए हैं यह बीस लीटर का जार पिछले साल ३० रुपये में था अब चालीस हो गया है. और शायद इसकी किंमत लगातार बढती ही जाएगी. जब पता है कि शहर सुखा ग्रस्त है, जिसे गैजेटियर में भी सुवर्णाक्षरों से लिखा गया हैं. तब भी सरकार पानी के बर्बादी का लायसंस कैसे बेच रही है. यह समझ से बाहर है.




शहर का प्राकृतिक रूप देखे तो भूगर्भशास्त्रियों का मानना है कि आज जो पानी शहर के लोग बोअर से निकाल रहे हैं वो पांच-दस हजार साल पहले का है. इसका मतलब है कि शहर में जल संरक्षण शुन्य के बराबर हैं. जंगल के नाम पर वैसे भी शहर का नाम दुनिया के किसी भी मरुस्थल के बराबर हो गया है. इस बार तो पानी मिलेगा 700-1000 फिट के निचे का किन्तु अगले साल कहाँ से मिलेगा पानी. इसके बारे में कोई सोचना नहीं चाहता है. बस मिल रहा है तब तक ठीक है. लेकिन इस बार सूखे ने सोचने का आखरी मौका दिया है, इस बार भी नहीं सोंचेगे तो ये मंजर मौत बनकर अगली बार दिखेगा जब कोई कानून भी इससे बचा नहीं पाएगा. जितने सुराख लातूर के जमीन पर बोअर के नाम पर पड़े है उनमें से कुछ में से पानी के अलावा कुछ और (पिछले महीने लोकमत में खबर थी कि एक बोअर से सोने जैसा पदार्थ निकल रहा है लेकिन वो सोना नहीं था अब तक पता नहीं चला है कि वह क्या हैं) ही निकल रहा है. तब भी लोगों की आँखे नहीं खुल रहीं है. 

सुनो शहरवालों अब वो दिन लद गए जब आपके पास एक मसीहा था, किसी दुसरे की बाँट जोहने से अच्छा होगा कि आप खुद ही इस काम में आगे आएं वरना वो दिन दूर नहीं जब आप आने वाली पीढ़ियों को एक मरुस्थल भेंट देंगे.
फोटो आभार: गूगल इमेज  



निलामे गजानन सूर्यकांत
निलामे गजानन सूर्यकांत 
पी-एच॰ डी॰ शोधार्थी
महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी शांति अध्ययन केंद्र,
म॰ गाँ॰ अं॰ हिं॰ विश्वविद्यालय, वर्धा।  
gajanannilame@gmail.com