Wednesday, February 4, 2015

यात्रा अनुभव : वर्धा से कन्याकुमारी

नरेश गौतम
वर्धा से कन्याकुमारी दिनांक 15/10/2014 दिन बुधवार समय दोपहर 1:30 सेवाग्राम रेलवे स्टेशन। हमारी यात्रा उसी ऐतिहासिक ट्रेन से शुरू होती है जिसमें कभी गांधी यात्रा किया करते थे। इस ट्रेन में मेरी यह पहली यात्रा नहीं थी। इससे पहले मैं कई बार दिल्ली से सेवाग्राम आता-जाता रहा हूँ, पर यह यात्रा इसलिए खास थी क्योंकि हम सभी एक ही लिबास में थे और वह भी  खादी में। दूसरा यह भी खास था कि हम सभी पहली बार एक साथ किसी यात्रा पर जा रहे थे। आखिर इंतजार के बाद हमारा सफर शुरू होता है और हम सभी एक-एक कर अलग-अलग डिब्बों में बैठ जाते हैं वह भी अपनी सुविधानुसार या कहें कि अपने पसंद के लोगों के साथ। व्यक्तियों की संख्या अधिक होने से अपनी पसंद का चुनाव करने में काफी आसानी थी। वैसे तो हमें एक ही कोच में जाना चाहिए था। लेकिन टिकटों के न मिलने और यात्रा का समय ठीक से तय न होने के कारण हमारे टिकट कई कोचों में थे जिसमें एम. ए. के छात्र अलग एम. फिल. छात्र अलग और पी-एच.डी. के अलग।हमारे विभागाध्यक्ष और डॉ. मुकेश जी, डॉ. मिथलेश जी एवं उनकी पत्नी सुप्रिया जी के साथ बेटी आद्या, दिलीप वाकड़े जी अलग कोच में। शाम का खाना हमारे साथ था जो हमने काकी (काफ्का से) के यहाँ से बनवा लिया था। इसलिए खाने की चिंता करने की आवश्यकता नहीं थी लेकिन खाना खाते वक्त यह चिंता जरूर बढ़ गई- कारण था कि खाना रखते समय उसे गरम पैक कर दिया गया था और उसी अवस्था में वह पूरे समय रहा। कई घंटे बंद रहने की वजह से सब्जी खराब हो गई, लेकिन खाने का प्रबंध करने वाली टीम ने इसे आसानी से सुलझा लिया, बस थोड़ा समय जरूर लगा और भूख भी। हम सभी सुबह चेन्नई पहुँचते हैं। चूंकि अगली यात्रा शाम को शुरू होनी थी, इसलिए पूरे दिन का समय हमारे पास था। सभी ने वहीं स्टेशन पर नहाने-धोने या नित्यक्रिया का काम किया। इसके बाद सभी नाश्ते के लिए नीचे जन आहार जाते हैं। नाश्ते में इडली और दालबड़ा था, दालबड़ा मुझे पहले से ही पसंद है और इडली भी मैं खा लेता हूँ इसलिए मुझे तो कोई दिक्कत नहीं हुई लेकिन हमारे बीच के कई लोगों को यह नाश्ता बिल्कुल पसंद नहीं आया। नाश्ता करने के बाद सभी को मरीन बीच पर जाना था। उन्हें लेजाने का काम ट्रैवलटीम को करना था। यात्रा ठीक से तय न होने की वजह से बस या टैक्सी नहीं मिल पाईऔर जो मिल भी रही थी, वह पैसा अधिक ले रहे थे। इसी कारण से सभी को ऑटो लेकर जाना पड़ा जिससे थोड़ी असुविधा हुई। लेकिन यह असुविधा मरीन बीच पर पहुँचते ही ख़त्म हो गई। क्योंकि जब हम बीच पर पहुँचे तब तक गर्मी अपने चरम पर पहुँच चुकी थी। सभी पसीने से लथपथ थे। समुद्र की लहरें देखते ही सभी अपना समान रख कर बस पानी में कूद गए बस मेरे जैसे कुछ लोग बचे रह गए जो थोड़ा साहस जुटा रहे थे। लेकिन पानी का आकर्षण इतना था कि कोई भी अपने को समुद्र में जाने से रोक नहीं सका। बस सभी ने जम कर लहरों का मजा लिया और करीब तीन से चार घंटे का समय हमने समुद्र के किनारे बिताया। इसी बीच हमारे हैंडीकैम ने मेरा साथ छोड़ दिया और वह भी समुद्र की लहरों से बच नहीं सका। पानी जाने की वजह से वह बंद पड गया। अफसोस बहुत हुआ क्योंकि हम चाहते थे कि पूरी यात्रा को शूट किया जाएगा, लेकिन हैंडीकैम की कमी स्टिल कैमरे ने पूरी की जो मैं अपनी समझ और जगह के हिसाब से शूट करता रहा।
मरीन बीच से हम लोग करीब 12 बजे पुनः स्टेशन की ओर बढ़ते हैं। उसी तरह ऑटो या बस के माध्यम से। जाते वक्त आने से अधिक दिक्कत का सामना करना पड़ा। उसका एक कारण यह भी था कि उसी समय बारिश होने लगी। सभी को बारिश में भीगना अच्छा लग रहा था पर समान साथ होने और ऑटो न मिलने की वजह से समस्या थोड़ी बढ़ गई। मरीन बीच से एग्मोर रेलवे स्टेशन पहुँचने में 30 से 45 मिनट का समय लगा। लगभग सभी आगे पीछे स्टेशन पहुँच गए। अब एक बार फिर खाने की समस्या थी। हमारे जैसे कुछ लोग बाहर रुककर कुछ न कुछ खा चुके थे। समस्या तो लड़कियों के लिए अधिक थी क्योंकि वह बाहर रूक नहीं सकती थीं। अब हम सभी फिर से वेटिंग रूम में थे। सभी वहाँ बने शौचालय में नहाने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। कुछ लोग खाने का। खाने वाली टीम ने अपनी जिम्मेदारी अच्छी से निभाते हुए एक से दो घंटे के अंदर खाने का इंतजाम किया। जिनको ज्यादा भूख लगी थी वो पहले खाने चले गए बाकी धीरे-धीरे जाते रहे। करीब तीन बजे तक सभी का खाना हो गया था। अब कुछ लोग आराम कर रहे थे और कुछ लोग पान तंबाकू की और बाजार घूमने की तैयारी कर रहे थे। हमने भी बाजार जाने का निर्णय लिया और बाजार गए, जहाँ से हमने कुछ कपड़ों की खरीदारी की। 6:50 पर हमारी ट्रेन कन्याकुमारी के लिए थी। हम सभी अगले सफर के लिए तैयार थे और आखिर वो टाइम आ गया जिसका हम सब को बेहद शिद्दत से इंतज़ार था। आखिर हम सभी पुनः ट्रेन पर बैठ जाते हैं, उसी क्रम में जिस क्रम में हम पहले से चले थे। बस थोड़ा बहुत फेरबदल था। उसी दिन शाम चार बजे के आस-पास हमें पता चला कि हमारे एक साथी का जन्मदिन है। जाहिर सी बात थी कि केक की तैयारी तो करनी ही थी। केक आया और करीब 7 से 8 बजे के बीच ट्रेन में हमारे विभागाध्यक्ष जी के साथ हमने मिलकर केक काटा और सभी ने शुभकामनाएं देते हुए केक खाया। उसके बाद कुछ गीतों का सिलसिला चालू हुआ जो अक्सर सफर में टाइम पास के लिए समूह में जा रहे लोग करते हैं और अपने सह यात्रियों का बिलकुल ख्याल नहीं रखते। हमने भी वही किया अपने सहयात्रियों को थोड़ा परेशान करते हुए देर रात तक यह कार्यक्रम चलता रहा। पुनः खाने का वक्त आ चुका था। सभी ने खाना खाया। खाना संतोष जनक नहीं था पर पेट तो भरना ही था। बल्कि कुछ लोगों के पेट ठीक से भरे भी नहीं। बावजूद इसके सभी ने बहुत मजे किए। दिनभर की यात्रा, इंतजार और थकान ने सभी को सोने पर मजबूर कर दिया। अगली सुबह हम अपनी मंजिल के आस-पास ही अपनी आँखें खोलते हैं। नजारा देखते ही ऐसा लगा जैसे हम अपने देश में नहीं कहीं और ही हैं। हल्की-हल्की बारिश,ठंडी-ठंडीहवा चल रही थी, बहुत ही मनोरम दृश्य था। पवन-चक्की, सूरज की हल्कीरोशनी और पीछे दिखते पहाड़। पहाड़ों को छूता हुआ हल्का-हल्का कोहरा, ऐसा लग रहा था जैसे कि आसमान और पहाड़ एक दूसरे से मिल रहे हो। पहाड़ों पर हरियाली और आसमान का नीला रंग। ऐसे लग रहा था जैसे हम इस दुनिया में ही नहीं हैं। इससे पहले भी हमने हरियाली देखी थी, पहाड़ देखे थे पर आज तो पहाड़, बारिश और आसमान का नीला रंग जैसे अपने शबाब पर था। ट्रेन भी साथ निभारही थी और काफी धीमी गति से चल रही थी। बारिश की हल्की-हल्की फुहारें और पहाड़ों से उठता धुआँ, दृश्य ऐसा था जो कभी फिल्मों में दिखाई देता था पर आज सामने था। आखिर हमारा इंतजार ख़त्म हुआ और फिर से हम पहुँच जाते हैं उसी परिवेश में जहाँ आदमी ही आदमी और गंदगी दिखाई दे रही थी। अब हम नागरकोली रेलवे स्टेशन पर थे। जहाँ से हमें 15 से 20 किलो मीटर की या थोड़ी ज्यादा दूरी तय करके विवेकानन्द आश्रम जाना था। यहाँ से हमारा सफर बिना रुके बारिश की हल्की फुहारों के साथ चार गाड़ियों में अपनी पसंद के लोगों के साथ शुरू होता है। स्टेशन से निकलते ही रास्ते साफ दिखायी देने लगते है। धीरे-धीरे हम वापस प्रकृति के करीब होते हुए अपने गंतव्य स्थान तक पहुँच जाते हैं और पहले से ही अपने रहने के लिए स्थान सुरक्षित कर लिया गया था। औपचारिक लिखा-पढ़ी के बाद हम सभी जिसमें महिलाएँ और पुरुष दोनों को पुनः बाँट दिया जाता है। पुरुषों को दो बड़े कमरे, जिसमें सोने के लिए सिर्फ एक पतली दरी की व्यवस्था मात्र थी जो कुछ लोगों के लिए कष्ट दायक भी थी। थोड़े रोष के साथ हमने उसे भी स्वीकार कर लिया। सभी अपने-अपने समान रख कर कुछ लोग, जो बिना चाय के शौचालय नहीं जाते वह अपनी तलब की तलाश में बाहर निकल गए और जो लोग बिना गुटखा या तंबाकू के शौच नहीं जाते, वह अपनी हथेलियों को रगड़ रहे थे। थोड़ी ही देर में आगे जाने की योजना आ जाती है। सभी को सामूहिक नाश्ता करना था। सामूहिक नाश्ते में इडली और सांभर था जो कई लोगों को अच्छा नहीं लगा बल्कि इससे उनकी भूख भी कम नहीं हुई। उत्तर भारतीयों के साथ एक समस्या भी है कि वह दूसरे की संस्कृति, खाना-पीना, रहन-सहन, सब अपने से कमही समझते हैं। उसे स्वीकार करना उनके लिए बड़ा ही कठिन होता है। वैसे यह बात सब पर लागू नहीं होती पर लगभग सभी पर लागू भी होती है। खैर संतुष्टि और असंतुष्टि तो हमेशा बनी रहती है। उसके बाद आगे की योजना में सुविधानुसार जो आराम करना चाहे वह आराम करे, पर कुछ छात्रों को परिसर के अंदर कैसे और क्या-क्या होता है, यह देखना और उस पर सेमिनार देना था। उनके लिए यह थोड़ा चिंताजनक था। हमने भी निश्चय किया कि रात को आराम तो करना ही है, क्यों न परिसर का भ्रमण किया जाए। सब के लिए एक बजे तक वापस खाने के हॉल में मिलना तय था। सो हमने भी इन्हीं लोगों के साथ परिसर का दौरा किया। पूरा परिसर तो नहीं पर सूर्य उदय केंद्र से लेकर लेकिन कुछ मुख्य केंद्र जैसे वहाँ का विद्यालय जो काफी बड़ा बना है, मुझे अच्छा लगा। सबसे अच्छा तो मेरे लिए वहाँ छोटे बच्चों का विद्यालय देखना था। जब हम वहाँ पहुँचे तो बच्चे अपना खाना खा रहे थे। छोटी-छोटी बच्चियाँ अपने बालों पर फूलों की माला लगाए हुए बहुत ही सुंदर लग रही थीं। कुछ बच्चे तो वहाँ बहुत छोटे थे जिन्हें वहाँ की अध्यापिकाएं खाना खिला रही थीं। छोटी-छोटी बच्चियाँ अपनी पूरी ड्रेस में बालों पर परम्परागत तरीके से लगाए गए रंग-बिरंगे फूलों में बहुत ही सुंदर लग रही थीं। छात्र-छात्राओं के रहने की व्यवस्था परिसर में ही थी। यहाँ हम ठीक से उनसे बात तो नहीं कर पाए क्योंकि भाषा की समस्या लगातार बनी हुई थी और यह सब बिना योजना के था, इसलिए भाषा को लेकर थोड़ी समस्या बनी रही। हालांकि परिसर को जानने तथा वहाँ हो रहे प्रयोगों को बताने के लिए संस्था ने गाइड की व्यवस्था कर रखी है जो वहाँ हो रहे प्रयोगों के बारे में जानकारी देने का कार्य कई भाषाओं में करते हैं। खैर हमने वहाँ पुस्तकालय से लेकर विद्यालय, छात्रावास, योगा केंद्र, पशुपालन केंद्र, मयूर अभ्यारण्य के साथ कृषि पर हो रहे प्रयोगों को भी देखने और जानने की कोशिश की। हमारा समय जो पहले से निश्चित था यानि 1 बजे हमें पुनः खाने के हॉल में मिलना था। हम अपने समय से वहाँ पहुँच गए और धीरे-धीरे लगभग सभी वहाँ 30 से 40 मिनट के अंतराल में पहुँच गए। खाने वाली टीम ने खाने के लिए पूरी व्यवस्था कर रखी थी। हमने फिर से साउथ का खाना खाया जिसमें कई लोगों को फिर से थोड़ी परेशानी हुई। खाना लगभग सभी ने 2:30 तक समाप्त कर लिया था। आगे की योजना शायद कन्याकुमारी को देखने की थी पर मुझे नहीं पता था कि कहाँ जाना है। बल्कि सभी जाने वालों को नहीं पता था कि कहाँ जाना है। कुछ को वहां जाने तक पता भी नहीं चला। हमने वहाँजाने के बाद विवेकानन्द रॉक देखा जहाँ विवेकानन्द ने तीन दिन रुक कर ध्यान लगाया था या कहें कि उन्हें वहाँ से नए तरह के ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। हमने वहाँ से विवेकानन्द को जानने के लिए उनका लिखित साहित्य भी खरीदा। अंदर के परिसर में फोटो लेना वर्जित था। जिस वजह से हम वहाँ अंदर की तस्वीरे तो नहीं ले पाए लेकिन हमने बाहर से लगभग पूरे परिसर को तस्वीरों में कैद किया। लगभग दो से तीन घंटे में हमने सारे परिसर को देख लिया। कुछ देर और भी रुकते, लेकिन बारिश होने की वजह से हम और अधिक वक्त वहाँ नहीं दे सके। शायद मौसम भी नहीं चाह रहा था कि हम वहाँ अधिक शोर शराबा करें तो हम लोग बाहर आ गए। 
अब इसके बाद वहाँ के बाजार का भ्रमण करना था। बाजार भ्रमण का सीधा सा मतलब था खरीददारी, क्योंकि बाजार तो हमेशा से व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित करता है। सो हम लोग भी बाजार के आकर्षण से नहीं बच पाए। लगभग सभी लोगों ने वहाँ से कुछ न कुछ खरीददारी की। कुछ ने वहाँ के मंदिरों को घूमा, कुछ ने समुद्र के संगम से लेकर गांधी मंडप को देखा। कुछ लोग चाय और पान तंबाकू की तलाश में ही घूमते रहे। धीरे-धीरे शाम हो रही थी और सभी को पुनः अपने स्थान तक पहुँचना था। 6 बजे से शाम 8 बजे तक सभी विवेकानन्द आश्रम में पहुँच चुके थे। सभी अपनी पसंद के लोगों के साथ बाजार और विवेकानन्द रॉक के अनुभव बांट रहे थे। उन्हीं अनुभवों के साथ हमें फिर से खाने के स्थान पर पहुँचना था। हम सभी क्रमानुसार अपने-अपने स्थान पर भोजन के लिए आ चुके थे। आज भोजन में चावल-सब्जी के साथ पराठे, दही और सांभर था। जाहिर सी बात है कि आज हमारी पसंद का खाना था या ये भी कहा जा सकता है कि ये उन लोगों की पसंद का खाना था जो किसी और परिवेश में अपने आप को फिट नहीं कर सकते। बस उन्हें अपना ही सबसे अच्छा लगता है। दो दिन के इस सफर के बाद आज कुछ अच्छा या कहें कि पेट भरने वाला खाना मिला था। खैर खाना-पीना तो सभी के साथ जुड़ा रहता है और यह तो बहुत सामाजिक और सांस्कृतिक मामला भी है। पर एक समाजकार्यकर्ता के साथ यह उम्मीद करना कि उसे सभी जगह उसके जैसा परिवेश और खान-पान मिले, यह थोड़ा शोचनीय हो जाता है। खाने के बाद जो लोग तंबाकू-बीड़ी के आदी हैं, वे बाजार की तरफ चले गए। कुछ अपना खाना पचाने के लिए परिसर में ही कुछ देर सैर करते रहे। कुछ लोग जो बहुत अधिक चलने के आदी नहीं हैं, वे जल्दी ही अपने बिस्तर की ओर रुख कर गए। इसी बीच हमारे विभागाध्यक्ष जो कमरे कम होने की वजह से हम लोगों के साथ ही सोने की योजना बना रहे थे, भी आए। आने के बाद थोड़ी बहुत चर्चा वहाँ के परिवेश और परिसर के बारे में हुई। इसी बीच किसी ने जनवादी गीतों के बारे में चर्चा शुरू की। धीरे-धीरे जनवादी गीत शुरू होते हैं। माहौल में एक गर्मी आ जाती है। विभागाध्यक्ष से आग्रह करने पर उन्होंने भी एक जनवादी गीत गाया। परिसर में ज्यादा शोर करना मना था। इसी वजह से हम लोगों को थोड़ा सा संतुलित होकर अपना यह कार्यक्रम यहीं स्थगित करना पड़ा। शायद और देर तक चलता पर। पर इसी बीच डॉ मिथलेश जी ने सूचना दी की कमरे की व्यवस्था हो गई है। सभी के आग्रह पर डॉ. मुकेश जी ने भी एक गीत गया। विभागाध्यक्ष के आदेशानुसार हम लोगों को सुबह जल्दी उठना था। क्योंकि सुबह सभी को सूर्य उदय देखना था। रात कब गुजर गई किसी को भी शायद पता नहीं चला। सुबह शायद 4:30 के आस-पास हम लोगों की नींद उठ जाग मुसाफिर, भोर भयो, अब रैन कहाँ जो सोवत है गीत के साथ खुलती है जब मनोज सर ने इसे गाते हुए इंट्री मारी। अब सभी का उठना मजबूरी थी। धीरे-धीरे मन मार कर सभी अपना बिस्तर छोड़ नित्यक्रिया के लिए बाहर बने शौचालय में अपनी बारी का इंतजार करने लगे। जो लोग अब भी नहीं उठे थे, सर ने अपने पैरों से उनके पैर दबाने शुरू कर दिये। अब तो न उठना चाहने वालों को भी अपना बिस्तर छोड़ना ही पड़ा और सभी कामों से ज्यादा जरूरी अपनी प्यारी नींद को अलविदा कहना पड़ा। हम सभी 30 मिनट में तैयार होकर बाहर आ जाते हैं। दो-चार लोगों का इंतजार कर हम सभी उस जगह पहुँच जाते हैं, जहाँ से सूरज का आगमन होता है। हमने पहले भी सूरज को उगते हुए देखा था। पर वहाँ पर समुद्र की लहरों के साथ उसे देखना अपने आप में एक अलग तरह का अनुभव था। भारत में सूरज की पहली किरण वहीं से उगती है। लेकिन अफसोस कि हम सभी के अरमान जल्द ही पानी में बह गए - कारण मौसम का साफ न होना। हल्की बारिश और बादलों ने आज सूरज को ढँक लिया था। लेकिन सूरज की रोशनी को कौन रोक सकता था। चारो तरफ लालिमा छा चुकी थी। हम सभी अब समुद्र के किनारे थे। कुछ लोग सुबह भी अपने आप को समुद्र की लहरों के आकर्षण से नहीं रोक सके और लहरों से टकराने लगे। हमने भी अपना काम करना यानि उस पल को कैमरे में कैद करना शुरू कर दिया। मौसम में रोशनी अभी भी कम थी। इसलिए तस्वीरे बहुत अच्छी तो नहीं आईं पर बस आ ही गईं। हम सभी ने अपने मन मुताबिक साथियों के साथ उस पल को कैमरे में कैद करने की कोशिश की। जैसे-जैसे सूरज ऊपर चढ़ रहा था वैसे-वैसे समुद्र की लहरे भी बढ़ रही थी। हल्की-हल्की बारिश, हल्की रोशनी और बहुत तेज गति से आती लहरें। बहुत ही अद्भुत नजारा था। बस सूरज को न देख पाने का अफसोस जरूर था। सभी ने खूब आनंद लिया। जिनको अच्छा नहीं लग रहा था या किसी और तरह की समस्या थी, वह वापस जा चुके थे। समुद्र अपने उफान पर बढ़ रहा था। वहाँ खड़े सुरक्षा गार्ड के बार-बार आग्रह करने पर सभी को जल्दी वापस आना पड़ा। इसके बाद अपने चुने हुए साथियों के साथ सभी अलग-अलग टोलियों में बंट जाते हैं। रास्ता ज्यादा लंबा नहीं था। इसलिए बहुत जल्दी ख़त्म हो गया। अब सभी को तैयार होकर नाश्ते के लिए जाना था जो हमारे रहने के स्थान से बस 100 मीटर की दूरी पर था। उससे पहले ही हम लोगों को सूचना मिलती है कि आज आप सभी फ्री हैं तो जिसका जहाँ मन करे, वहाँ घूम सकता है, जो देखना चाहे, देख सकता है। किसी के लिए किसी भी तरह की कोई बंदिश नहीं थी पर समस्या यह थी कि आखिर हम सभी जाए कहाँ ? क्योंकि कल ही हम सबने कन्याकुमारी में जो मुख्य केंद्र थे, उन्हें देख लिया था। अब एक ही चीज रह गई थी और वो था बाजार। बाजार अभी बाकी था उन सभी के लिए जो कुछ न कुछ खरीदना चाहते थे। नाश्ता ख़त्म होने के साथ ही सब आजाद थे। ये आजादी उनके लिए ज्यादा अच्छी थी जो एकांत चाहते थे। आज का खाना भी सब के लिए बाहर था। उसके लिए पैसे निर्धारित कर दिए गए थे। 
इसके बाद हम सब फिर से अपनी पसंद के लोगों (जिसमें कुछ को शायद नापसंद भी मिल गए हों) के साथ अलग-अलग बाजार की तरफ निकल जाते हैं। जाना तो सभी को एक ही दिशा में था, बस अपनी सुविधानुसार जाना था और जिन्हें वहाँ नहीं जाना था, उनकी दिशा अलग होनी ही थी। ऐसे कुछ ही लोग थे। इनके अलावा बाकी सब घूमते हुए उसी बाजार में उमड़-घुमड़ रहे थे। अपने बजट के हिसाब से सब खरीददारी करते हैं। जिन लोगों को बाजार की समझ थी, वो अन्य लोगों के साथ गाइड का काम कर रहे थे। पूरे दिन आपस में एक दूसरे से टकराते हुए लोग बाज़ार का अपना अनुभव बताते और फिर अलग हो जाते। सब ने साड़ियाँ खरीदी, क्योंकि सभी खरीद रहे थे। मैंने ये काम चेन्नई में पहले ही कर लिया था, इसलिए मैं तो उन सभी के साथ दर्शक मात्र था। आज के दिन वहाँ से सब ने कुछ न कुछ खरीदा जरूर और आखिर क्यों न खरीदते जब सभी खरीद रहे थे। खरीदने का दूसरा कारण था कि सबकी छात्रवृत्ति आ गई थी और सब के पास पैसा था। बाजार तो पैसे को खींचता ही है। खैर, आधे से अधिक दिन बीत चुका था और अब हम लोग खाने की तलाश में थे कि आज कहीं ठीक खाना मिल जाए। आखिर तलाश करते-करते हमें एक जगह मिल ही गई जहाँ हमने अपनी पसंद का खाना खाया। आज शायद सभी ने अपनी-अपनी पसंद का खाया होगा। हम लोग खाना खा कर वापस उसी बाजार में गए जहाँ से अभी आए थे। वापस जाने का कारण फिर से खरीददारी करना या कुछ देखना नहीं था बल्कि यह था कि मुझे और कुछ साथियों को पान खाना था। हमने वहाँ से पान खाए और शाम के लिए भी बनवा लिए। आने की तैयारी कर ही रहे थे कि मौसम ने अपनी करवट बदली और तेज बारिश शुरू हो गई। कुछ देर इंतजार करने पर भी बारिश नहीं रुकी तो हमने तय किया कि अब ऑटो लेकर चलते हैं। यदि बारिश नहीं होती तो शायद और देर तक रुकते। थोड़ी ही देर में हम वापस अपने स्थान पर आ जाते हैं। अब सिलसिला शुरू होता है अपने-अपने अनुभव बताने का। बाजार को हमने ठगा या बाजार ने हमें। जिसने जो भी खरीदा था, सबने अपने तजुर्बे बताने शुरू किए। यह सिलसिला लगातार चलता रहा। कुछ ने एक ही कपड़े को महंगे दाम में खरीदा तो कुछ ने उसी को सस्ते दाम में। कुछ लोग अपनी ठगी पर शर्मिंदा हो रहे थे और कुछ लोग अपनी ही पीठ थपथपा रहे थे। जिन्हें यह अनुभव हो रहा था कि वह महंगा लेकर आए हैं, उनके लिए अभी एक दिन और बाकी था। इसी सब में फिर से खाने का टाइम हो गया। शाम को भी सबको अपने हिसाब से ही खाना तय था तो एक बार फिर से सब अपनी सुविधा और बजट के अनुसार होटलों और ढाबों की ओर रुख करते हैं। 
बस एम. ए. तृतीय छमाही के सभी छात्रों को संगोष्ठी पत्र की प्रस्तुति करनी थी, इसलिए वह भोजन के लिए बाहर नहीं जा सके। उनके लिए भोजन की वहीं व्यवस्था थी। खैर हम सभी खाने के बाद वापस अपनी कुटिया में आते हैं और अपने-अपने अनुभवों के साथ सो जाते हैं। अगले दिन का प्रोग्राम केरल जाने का तय हुआ था, इसलिए आज भी जल्दी उठना था। नींद आज सुबह भी मनोज सर के गाने की आवाज के साथ टूटती है। सर ने न उठने वालों के पैरों से पैर दबाने शुरू कर दिए। अब तो सभी को उठना ही था। सभी उठकर नित्यक्रिया का काम निपटा रहे थे और हमारे जैसे कुछ गिने-चुने व्यक्ति चाय की व्यवस्था में लगे हुए थे। जो लोग पहले तैयार हो गए, वे आज फिर से सूर्य उदय देखने चले गए। हमारे ठहरने की जगह से वह ज्यादा दूर नहीं थी। सात बजे से आठ बजे के बीच हमें अपनी केरल की यात्रा तय करनी थी। सभी यात्री तैयार थे। ट्रैवल टीम ने गाड़ियों की व्यवस्था पहले ही कर दी थी। सभी लोग फिर अपनी-अपनी पसंद के लोगों के साथ गाड़ियों में बैठ चुके थे। यह दूरी लगभग 100 किलोमीटर से ज्यादा ही रही होगी। सभी को वहाँ के प्रसिद्ध मंदिर पद्मनाभन जाना था। जिन्हें वहाँ पूजा करनी थी, वे उसकी तैयारी के साथ गए थे। बाकी कुछ लोग बस बाहर से दर्शन करने वाले थे। मंदिर में प्रवेश वहाँ के पारंपरिक परिवेश यानि लुंगी में ही संभव था। मंदिर से बस कुछ ही दूर पर एक दुकान है जहाँ लुंगियों का व्यापार होता है। कुछ लुंगियाँ वहाँ से खरीदी गईं, कुछ रास्ते में एक बड़ी कपड़े की दुकान पर ही ले ली गईं थी। जो श्रद्धा के साथ जाने वाले थे, वे श्रद्धा के साथ गए। जो ऐसे ही देखना चाहते थे, वे ऐसे ही गए। उन्हें तो बस यह देखना था कि ऐसा क्या है मंदिर में। मैं भी मंदिर में प्रवेश करता हूँ। मंदिर बहुत ही आलीशान बना हुआ है। शिल्प और काठ कला का एक बेहतरीन नमूना। वैसे भी साउथ के मंदिरों की बनावट पूरे देश में विशिष्ट मानी जाती है। अंदर कई मंदिर हैं जिनमें बहुत से देवी-देवता हैं। वहाँ एक छोटे से मंदिर की मुख्य बैठक में क्लासिकल संगीत गाया जा रहा था। यह मेरे लिए बहुत ही अद्भुत था क्योंकि मैं उत्तर भारत के कई मंदिरों में गया हूँ पर वहाँ कानफोड़ू संगीत ही सुनाई देता है। हो सकता है कि ऐसा महसूस करना सिर्फ मेरे लिए ही रहा हो पर यह मैं पहली बार देख रहा था। खैर, मैंने अंदर दर्शन तो नहीं किए क्योंकि मैं लाइन में खड़ा नहीं होना चाह रहा था। मैं और मेरे साथी जल्दी ही वापस, जिस दिशा से गए थे उसी दिशा से आ गए। बाकी लोगों को काफी समय लगा। कुछ लोगों ने अंदर प्रसाद का भी आनंद लिया जिसकी वजह से थोड़ा समय अधिक लग गया। यह उन सभी के लिए कष्टदायक था जो अंदर नहीं गए थे क्योंकि आज धूप बहुत तेज़ थी। रुकने की वहाँ कोई उचित व्यवस्था भी नहीं थी। दूसरा यह था कि सभी को एक साथ कोवलाम बीच पर जाना था। गाड़ियों के ड्राइवरों ने आपस में तय कर लिया था कि सभी गाड़ियों को एक साथ ही जाना है। 
इसलिए उन सभी का इंतजार तो करना ही था जो अब तक वापस नहीं आए थे। धीरे-धीरे सभी वापस आते हैं। विभागाध्यक्ष जी की थोड़ी सी फटकार सुनने के बाद सभी वापस उसी क्रम में अपनी-अपनी गाड़ियों में बैठ गए जैसे पहले आए थे। अब हम सभी कोवलाम बीच के लिए निकल पड़े थे जो यहाँ से अधिक दूर नहीं था। जल्दी ही हम बीच पर पहुँच चुके थे। अभी तक किसी ने नाश्ता नहीं किया था। सभी लोगों को अब तक बहुत जोरों की भूख लग चुकी थी। नाश्ता सभी को एक साथ कोवलाम बीच के आसपास करना तय हुआ था पर वहाँ पहुँच कर योजना बदल गई। अब सभी को नाश्ता(वैसे तो नाश्ते का समय ख़त्म हो चुका था, अब सभी को खाना ही खाना था)या अपने खाने का इंतजाम खुद ही करना था। आस-पास रेस्टोरेंट है, होटल है, जिसका जहाँ मन करे, वहाँ खा सकता है। खाने का मूल्य जो पहले से निर्धारित किया गया था, वह यहाँ भी लागू था। वैसे यह निर्णय छात्रों के लिए ठीक था, पर शायद छात्राओं के लिए नहीं। खैर बाद में तय हुआ कि यहीं से कुछ नमकीन-बिस्किट खाकर काम चलाया जाए क्योंकि अब समय कम था। यहाँ से निकलते समय रास्ते में कहीं खा लिया जाएगा। अब हमारे पास लगभग दो से तीन घंटे का समय था। जिसमें हमें कोवलाम बीच का मजा लेना था। धीरे-धीरे सभी ने यहाँ भी समुद्र की लहरों का लुत्फ उठाया। यहाँ पानी की लहरें मरीन बीच से अधिक तेज थी। सभी ने यहाँ भी खुल कर आनंद उठाया। समय ख़त्म हो चुका था। सभी को फिर से निकलने की तैयारी करनी थी और इसी बीच खाना भी खाना था। हमारी ट्रैवल टीम ने खाने के लिए निश्चित स्थान तो बताया था पर हम लोग उस निश्चित स्थान तक नहीं पहुँच सके। हमने दूसरी जगह भोजन किया। कुछ लोगों ने वहाँ भी भोजन किया। पर सभी के लिए पर्याप्त भोजन वहाँ उपलब्ध नहीं था। इसलिए कुछ लोगों को अपने भोजन की तलाश अन्य जगहों पर करनी पड़ी। यहाँ सब के खाने के अनुभव अलग-अलग रहे पर फिर भी सभी को पेट तो भरना ही था जो किसी तरह भर ही गया। इसके बाद आगे की यात्रा पुनः शुरू होती है। अब हमें बोटिंग के लिए बैक वाटर रिवर जाना था और वहाँ से होते हुए गोल्डन बीच तक। थोड़े इंतजार के बाद हम सभी बोटिंग पॉइंट पर पहुँच जाते हैं। वहाँ से हम सभी आठ-आठ के जोड़ो के साथ बोट पर बैठ कर सैर के लिए निकलते हैं। यह उन सभी जगहों से सुंदर और मनोरम था। पानी पर चल रहे हम आस-पास नारियल के पेड़ों से घिरे जंगल, आती-जाती दूसरी नावें, उनमें बैठे सैलानियों और एक-दूसरे को बाय-बाय कर रहे थे। मैं अपने कैमरे में यह सब कैद करना चाह रहा था। जहाँ तक हो सका किया भी। पानी पर बने घरों को देखा। वहाँ जंगलों के बीच बने रेस्टोरेंट बहुत ही मनोरम लग रहे थे। अब हम गोल्डन बीच पर पहुँच चुके थे। वहाँ का नजारा सभी जगहों से अधिक सुंदर दिख रहा था। सभी ने वहाँ उठती समुद्र की लहरों का आनंद उठाया। हमने समुद्र की लहरों के साथ समूह में तस्वीरों को उतारा। सबने अपने-अपने तरीके से इस पल को कैद करने की कोशिश की। दो से तीन घंटे का समय हमारे पास यहाँ के लिए था। अब हमें वापस भी आना था। सभी धीरे-धीरे पुनः अपनी-अपनी नावों पर सवार होकर वापस गाड़ियों के पास जा पहुँचे। यहाँ हम सब बिना देर किए अपनी-अपनी गाड़ियों में सवार हो गए। अभी तक खाना खाने के बाद किसी ने चाय नहीं पी थी। अब सभी को बहुत ज़ोर से चाय की तलब लगी पर रास्ते में हम सभी को एक और मंदिर देखना था। आखिर हम लोग बिना रुके वहाँ पहुँचे। मंदिर बाहर से बहुत ही भव्य दिख रहा था लेकिन हमारे अंदर पहुँचते-पहुँचते मंदिर बंद हो चुका था। सभी ने बाहर से मंदिर की तस्वीरें उतारी। पास में एक चाय की दुकान से सभी ने अपनी सुविधानुसार कुछ न कुछ खाया और चाय की चुस्कियाँ ली। थकान अपने चरम पर पहुँच चुकी थी। गुटखा-तंबाकू वाले उसकी तलाश में लगे थे जिनमें मैं भी शामिल था। आखिर थोड़ी खोजबीन के बाद हमें सब मिल गया जिसकी तलाश हम कर रहे थे। अब यहाँ से सभी को विवेकानन्द आश्रम पहुँचना था। कुछ दूरी तय करने के बाद हम अपनी सीमा में प्रवेश कर चुके थे। हम लोग सात बजे तक आश्रम में आ चुके थे। थकान की वजह से अब कोई भी खाने के लिए बाहर नहीं जाना चाहता था। सब ने आज शाम का खाना एक साथ परिसर में ही खाया। खाने के बाद अपने-अपने आज के अनुभवों के साथ जल्दी ही नींद के आगोश में आ गए। सुबह सभी को जल्दी उठना था क्योंकि विवेकानन्द आश्रम में हो रहे प्रयोगों को देखने और सीखने जाना तय हुआ था और आज ही हम लोगों के वापस आने की ट्रेन भी थी। पहले यह तय था कि हम सभी बस से वहाँ जाने वाले हैं पर बाद में पता चला कि सिर्फ एम. फ़िल वाले ही जायेंगे। अभी भी किसी को ठीक से नहीं पता था कि कौन जाने वाला है और कौन नहीं। नाश्ता करने के बाद सब तैयार थे। थोड़ी देर बाद सूचना मिली कि जहाँ जाना है, वह व्यक्ति यहीं आने वाले हैं। पहले उनका व्याख्यान होगा और बाद में वहाँ जायेंगे। उनका इंतजार और व्याख्यान सुनने में इतना वक्त गुजर गया कि अब वहाँ जाना और वहाँ से वापस आना संभव नहीं था। व्याख्यान होने के बाद वहाँ हो रहे प्रयोगों को देखने के लिए एम. फिल. वाले छात्रों को वहीं रोक दिया गया क्योंकि उन सभी छात्रों को वहाँ हो रहे प्रयोगों पर संगोष्ठी पत्र प्रस्तुत करना था जबकि बाकी सब फ्री थे। पी-एच. डी. के सभी शोधार्थियों को मनोज सर के साथ गांधी मंडप देखने जाना था। गांधी मंडप में देखने जैसा कुछ भी नहीं है पर देखना तो था कि आखिर क्या बनाया गया है गांधी के नाम पर। यह काम 30 मिनट में ही पूरा हो गया। अब फिर से एक बाजार का दर्शन करना था। आज बाजार में स्थितियाँ ऐसी थीं कि लगभग हर दुकानदार हम सब से परिचित हो चुका था। हममें से कोई न कोई किसी न किसी दुकान पर पहले मोल-भाव कर चुका था या शायद उन्हें चेहरा देख कर मालूम हो गया था कि आज ये लोग अपना खाली समय पास करने आए हैं। आज भी जिनको जो कुछ खरीदना था उन्होंने खरीदा और जिन्हें अपना टाइम पास करना था, उन्होंने टाइम पास किया। अभी भी समय हमारे पास था। आज दोपहर का खाना हम कुछ लोगों ने बाहर मनोज सर के साथ खाया। बाकी लोगों ने अपना खाना परिसर में स्थित भोजनगृह में खाया। अब थोड़े इंतजार के बाद निकलना था। लगभग सभी अपना काम ख़त्म कर चुके थे। जिन्हें जो लेना था, वो ले चुके थे। सिर्फ स्टेशन जाना ही बाकी था। उसके लिए दो छोटी बसों की व्यवस्था ट्रैवल टीम ने कर रखी थी। अब हमारे पास आराम के लिए सिर्फ एक ही हॉल था जिसमें आदमी से अधिक सामान दिख रहा था। कुछ लोगों को पहले आओ पहले पाओ की रणनीति पर काम करना पड़ा तब वे थोड़ा आराम कर पाए। कुछ लोग बाहर बनी बेंचों पर अपना-अपना अनुभव बाँट रहे थे। मैं भी उन्हीं लोगों में शामिल था। कुछ लोग अभी भी खरीददारी करने गए थे। आखिर हमारे आश्रम से निकलने का समय आ गया। सभी अपने सामान और अच्छे-बुरे अनुभवों के साथ एक बार फिर अपने चुने हुए साथियों के संग बस में बैठ गए। हम कुछ ही घंटे की दूरी तय करके नागरकोविल जं. रेलवे स्टेशन पर पहुँच चुके थे। जिस ट्रेन से हमें यात्रा करनी थी, वह ट्रेन यहीं से शुरू होती है। वह उस समय हम सभी को ले जाने के लिए तैयार थी। फिर हमें अपने-अपने टिकट दिये गए और हमने अलग-अलग कोचों में अपने-अपने पसंद के लोगों के साथ यात्रा शुरू की। रात के खाने का इंतजाम फूड कमेटी को करना था। पैंट्री कार वालों से बात हो गई थी, इसलिए अब सब लोग अपनी-अपनी थकान मिटा रहे थे। कुछ लोग सो रहे थे। कुछ लोग अभी भी यात्रा और अपने खरीदे गए समान के बारे में बात कर रहे थे। आखिर खाने का समय आ गया। आज का खाना ठीक था। मतलब जैसा ट्रेन में हम लोग खाते रहे हैं, उससे शायद अच्छा था। यह इसलिए भी हो सकता है कि इतना सारा खाना एक साथ ऑर्डर किया गया था। सुबह हुई और हम सभी चेन्नई पहुँच चुके थे। हमें फ़्रेश होने का समय ट्रेन में ही मिल चुका था। इसलिए वहाँ से उतरते ही हम नाश्ते यानि जन आहार की तरफ गए। सभी ने वहाँ नाश्ता किया उसके बाद अगली ट्रेन जो हमे वर्धा तक पहुँचाने वाली थी, उसके स्टेशन पर लगने में अभी एक से डेढ़ घंटे का समय था। जिसे भी यहाँ कुछ खाने-पीने के लिए खरीदना था, उसके पास पर्याप्त समय था। सभी ने रास्ते में पीने के लिए पानी की अपनी-अपनी व्यवस्था कर ली थी। वहाँ पीने वाले पानी के लिए जीरो 'बी' की मशीनें लगी थीं जो आरो का पानी 3 रुपए लीटर उपलब्ध करा रही थीं। हम सभी ने वहाँ से अपनी खाली बोतलें भरवा लीं। अब हमारी यात्रा फिर शुरू होने वाली थी। इस बार हम लोग मनोज सर के कोच में यात्रा करने वाले थे। यात्रा शुरू होती है इसी माहौल में दोपहर और रात का खाना-पीना भी हुआ जो कि ठीक-ठाक ही था। वैसे यात्रा की थकान सभी के चेहरों पर साफ दिख रही थी और जल्द से जल्द सब अपने-अपने कुनबों में पहुँच जाना चाह रहे थे। रात के करीब 2 बजे जब हम वर्धा स्टेशन पर उतरे तो इस उतरने में बरसों बाद की घर-वापसी जैसा सुकून था। यहाँ से विश्वविद्यालय जाने के लिए हमारे पास कोई साधन नहीं था। स्टेशन पर दो ऑटो थे जो बारी-बारी से विश्वविद्यालय परिसर छोड़ने के लिए तैयार हो गए। बाकी बचे लोग बस स्टॉप की ओर आ गए जहाँ से सब के लिए ऑटो मिल गया और रात के तीन बजे जब पूरा हॉस्टल नींद के आगोश में था तो एक लंबी, थकाऊ मगर यादगार यात्रा के तजुर्बों के साथ हम अपने-अपने कमरों की ओर जा रहे थे– अकेले।
 













नरेश गौतम
शोधछात्र
महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
nareshgautam0071@gmail.com

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