Tuesday, February 3, 2015

बाबा साहब अम्बेडकर और स्त्री विमर्श

 अनुपमा पाण्डेय
नारीवादी सिद्धांतों का उद्देश्य लैंगिक समानता की प्रकृति को समझना तथा इसके फलस्वरूप पैदा होने वाले लैंगिक भेदभाव की राजनीति और शक्ति संतुलन के सिद्धांतों पर इसके असर की व्याख्या करना है । डॉ. अम्बेडकर दलित उत्थानकी दृष्टि से स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सर्वाधिक प्रभावशाली विचारक रहे हैं । परन्तु दलित उत्थान की विवेचना अधिकांश आलोचकों ने बहुत ही सीमित दृष्टि से की है और उसमें भी मात्र वर्ण व्यवस्था पर ही ध्यान दिया है । वस्तुतः दलितशब्द का तात्पर्य समाज के उस वर्ग से है जिसकी सदियों से उपेक्षा की गई है, तथा जिसकी इच्छा शक्ति को पनपने न देकर बुनियादी अधिकारों से वंचित रखा गया है । डॉ. अम्बेडकर के विचारों में दलित शब्द अतिव्यापकता के साथ आया है जिसमें स्त्रियों सहित प्रत्येक वह व्यक्ति जो समाज के तथाकथित ठेकेदारों द्वारा उसके उसके बुनियादी अधिकारों से वंचित रखा गया । भारतीय नारी के संबंध में बाबा साहब का चिंतन प्रगतिशील रहा है ।
हम किसी भी विचार, संस्कृति और इतिहास को तबतक गंभीरतापूर्वक नहीं समझ पाएंगे, जब तक की उसके प्रभाव का विश्लेषण न करें । प्रभाव का विश्लेषण करते है तो सत्ता की संस्कृति समझ में आती है कि कैसे वह खुद को स्थापित करने के लिए सबको एक ही ढांचे में ढालने की चेष्टा करती है । वह जाति व्यवस्था में आधिपत्य के वर्चस्व एवं उसकी निरंतरता को बनाये रखना चाहता है । स्त्रीकरण एक अमानवीय व्यवस्था है, जिसके तहत पुरुष ने अपने विचारों एवं अवधारणा के अनुसार स्त्री का निर्माण किया है । ऐसे निर्माण में स्वाभाविक है कि स्त्री की सहमती नहीं रही होगी । साहित्य जगत के लेखकों नें भी अपनी कल्पना के अनुसार स्त्री-स्वरूप का निर्धारण किया है । स्त्री ने अपने बारे में, अपनी भावना, अपने इतिहास और अपनी इच्छा अनिच्छा के बारे में कभी कुछ नहीं कहा और ना ही उससे कभी पूछा गया है । पुरुष की संवर्धित चेतना, आधिपत्य की भावना, स्त्री देह के प्रति पूंजीकरण की प्रवृति ने ना केवल साहित्य-जगत में स्त्री की नुमाइंदगी का प्रयास किया, उसके अनुभवों की प्रमाणिकता पर न केवल अपना मत-अमत जाहिर किया बल्कि अपने स्त्री-विरोधी दृष्टिकोण एवं लेखकीय विद्वेष से एक ऐसा पाठक वर्ग तैयार किया जो स्त्री की कमजोरियों पर चुहलबाजी से बाज नहीं आता ।
बाबा साहब अम्बेडकर के विचारों में स्त्री विमर्श-
स्त्री विमर्शशब्द हिंदी कथा साहित्य के केंद्र में पर्याप्त रूप से चर्चित रहा है । इसकी अभिव्यक्ति का मूलस्वर नारियों की आत्मनिर्भरता एवं स्त्री-पुरुष की समानता के आस-पास घूमता हुआ दिखाई देता है । आर्थिक स्वालंबन के अभाव में नारी अपने ही परिवार में शोषित होती रही है और अपने ही बुनियादी अधिकारों से वंचित होती रहती है । स्त्री को आर्थिक अधिकार पुरुषों के बराबर न होने के कारण विवाहिताएं अपने ही पति द्वारा छोड़ दिए जाने के भय से ग्रसित रहती हैं । वे जानती हैं कि परित्यक्ता स्त्री को समाज सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता है ।
बाबा साहब अम्बेडकर ने समाज में  स्त्रियों की स्थिति को बहुत ही करीब से अनुभव किया और उन्हें यह महसूस हुआ की वर्तमान समय में जो स्त्रियों की जो दशा है वह पशुओं से भी बत्तर है । उन्हें अपने ही परिवार के लोगों द्वारा शोषित किया जा रहा है । बचपन से लेकर बुढ़ापे तक उन्हें किसी न किसी रूप में प्रताड़ित किया जाता आ रहा है । उन्हें न ही स्वतंत्र रूप से जीने का अधिकार है और ना ही अपनी इच्छा के अनुरूप कुछ करने का ।
स्वतंत्रत भारत के कानून मंत्री के रूप में डॉ. भीमराव अम्बेडकर की अध्यक्षता में एक महत्वपूर्ण विधेयक तैयार किया गया, जिसके द्वारा विवाह की आयु सीमा बढ़ाना, स्त्रियों को  विवाह विच्छेद का अधिकार देने, विरासत का अधिकार देने, भरण-पोषण के लिए धन देने तथा दहेज को स्त्री-धन माने जाने का प्रस्ताव दिया गया था । यद्यपि यह विधेयक ज्यों का त्यों पारित नहीं हो सका तथापि चार पृथक कानूनों के रूप में आज काफी सीमा तक स्त्रियों को आर्थिक व सामाजिक स्वतंत्रता दिलाने में मददगार रहा है ।
भारतीय समाज में स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग प्रतिमान देखे जा सकते हैं । स्त्रियों की शिक्षा भी इस दोहरे मापदंड का शिकार है । समाज की प्रगति नारी प्रगति के अभाव में अधूरी  है। क्योंकि वह समाज का हिस्सा होती हैं । नागपुर में संपन्न दलित वर्ग परिषदकी सभा में डॉ. अम्बेडकर का उक्त कथन अवलोकनीय है कि  -  “नारी जगत की प्रगति जिस अनुपात में होगी, उसी मानदंड से मैं उस समाज की प्रगति को आंकता हूँ उन्होंने गरीबी रेखा से निचे जीवन यापन करने वाली स्त्रियों से आग्रह किया था कि आप सफाई से रहना सिखों, सभी अनैतिक बुराइयों से बचो, हीन भावना को त्याग दो, शादी-विवाह जल्दी मत करो और अधिक संताने पैदा मत करो
नारी चेतना की दृष्टि से स्त्रियों में आत्मचेतना का विकास आवश्यक है । पुरुष और नारी जीवन-रथ के दो पहिये हैं दोनों को एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए । डॉ. अम्बेडकर का स्पष्ट कथन है, पत्नी को चाहिए की वह अपने पति के कार्यों में एक मित्र, एक सहयोगी के रूप में दायित्व निभाए लेकिन यदि पति गुलाम के रूप में वर्ताव करे तो उसका खुलकर विरोध करे बाबा साहब ने कहा था कि अगर किसी समाज की वास्तविक स्थिति को जानना हो तो उस समाज की स्त्रियों की स्थिति को जानना जरुरी है । स्त्रियों की स्थिति में समाज की वस्तुस्थिति परिलक्षित होती है ।  
बाल्ये पितृवंशे तिष्ठेत्पपणिग्राहस्य यौवने ।
पुत्राणा भर्तरि प्रेते न भजेत्स्त्री स्वतंत्रताम् ।।
                                                                                -मनुस्मृति: अध्याय -5 श्लोक-148
मनुस्मृति के पांचवे अध्याय में स्त्री की आजादी को लेकर दी गई हिदायतें (स्त्री को बाल्यकाल में पिता के, यौवनावस्था में पति के और बाद में पुत्रों के संरक्षण में रहना चाहिए) बेशक आज अप्रासंगिक और आउटडेटेडहो गई परंतु भारतीय समाज का एक बड़ा तबका आज भी इनसे पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है । छोटे शहर या कस्बे के निम्नमध्यवर्ग की एक तलाकशुदा लड़की जब शादी के कुछ दिनों या महीनों बाद मायके लौटती है  और दबी आवाज में कहती है कि मुझे अब उस घर में नहीं जाना’, तो माँ-बाप के घर में सदी का सबसे भयानक वज्रपात होता है । उसके इस निर्णय की तह में जाने या मिलजुलकर इसका कारण ढूढने की बजाय परिवार के सदस्य खेमे बनाकर उसके खिलाफ मोर्चा साध लेते हैं, और उसके बाद लोग व्यंग-बाण बोलने लगते हैं – ‘और पढ़ाओ लिखाओ उसको, और करवाओ उससे नौकरीआदि । स्त्री की सामाजिक स्थिति को विश्लेषित करने के कुछ तयशुदा सिधांत हैं, जिन्हें हम मनुस्मृति से लेकर केट मिलेट, जर्मेन ग्रियर और सिमोन द बुआ की किताबों में पढ़ते हैं उन पर यकीन करते हैं और जब तब उद्धरण देते हैं । किताबे कुछ और कहती हैं पर जीवन से जुड़े आपके निजी अनुभव एक दूसरा ही सच आपके सामने रखते हैं ।    
भारतीय समाज में पुरुष वर्चस्व के जड़े इतनी दूर तक और इतने गहरी पसरी हुई हैं कि अपने अगल-बगल, गली-नुक्कड़ जहाँ नजर दौडाएं आपको हर औरत में इस पितृसत्तात्मक समाज से मिले अवांछित दबाव की अलग-अलग किस्में नजर आएंगी । एक औसत पति अपने पत्नी को अपने बराबर की जगह पर भी देखना नही चाहता। वह अगर एक सीढी भी ऊपर दिखती है तो वह इर्ष्या के डंक से ग्रसित होकर व उसे काटछिल कर निचे लाने की ही कोशिश करता रहता है । दमयंती जोशी, सोनल मानसिंह, तीजन बाई जैसे सैकड़ों उदहारण है, जहाँ उनके पतियों ने उनकी कला से रीझकर शादी की और शादी के बाद कला को ही तिलांजली देने का आदेश दिया । जिन पत्नियों ने इस आदेश का पालन किया उनकी शादीयां बची रही, बाकी टूट गई। लेकिन यह भी देखा गया कि अधिकांश महिलाओं ने अपने सहयोगी पतियों से अलग होने के बाद भी अपनी पहचान बनाई और कामयाबी हासिल की । कहा जाता है कि हर कामयाब पुरुष के पीछे एक औरत होती है, पर कितनी कामयाब औरतों के पीछे पुरुषों को खड़ा पाया गया है? ज्यादातर उदहारण हमें ऐसे ही मिलेंगे जहां कामयाब औरत के पीछे एक असहयोगी, दंभी पुरुष होता है और वह स्त्री अपने कार्यक्षेत्र के प्रति एकाग्रता और समर्पण तभी ला सकती है जब वह अपने असहयोगी पुरुष के अरोधक बाड़े को लांघकर ऊससे बाहर आजाती है, क्योंकि औसत तथ्य यही सही है कि कामयाब औरत को एक सामान्य शावनिस्ट पुरुष बर्दाश्त ही नहीं कर सकता ।
बाबा साहब अम्बेडकर के द्वारा महिलाओं की स्थितियों में सुधार लाने की दृष्टि से किये गए प्रयास अनमोल थे । पति-पत्नी का तलाक देने का अधिकर होने का कानून सरकार से बनवाना, एक से ज्यादा पत्नियां यानि बहु-पत्निवाद का विरोध, कोयला खान में व अन्य असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाली मजदूर, किसान, महिलाओं के लिए 21 दिन की छुट्टी, चोट आने पर मुआवजा, 20 साल की नौकरी होने पर कम से कम एक हर महिला को 15 रूपये मासिक पेन्शन देने की योजना, स्वास्थ्य मनोरंजन के साधन तथा काम के घंटे निश्चित कर कामगार महिलाओं के हित में प्रस्ताव पारित किए गए । बाबा साहब ने दलित महिलाओं की प्रशंसा करते हुए कहा, ‘महिलाओं में जागृति का अटूट विश्वास है। सामाजिक कुरीतियां नष्ट करने में महिलाओं का बड़ा योगदान हो सकता है। मैं अपने अनुभव से यह बता रहा हूं कि जब मैने दलित समाज का काम अपने हाथों में लिया था तभी मैने यह निश्चय किया था कि पुरूषों के साथ महिलाओं को भी आगे ले जाना चाहिए। महिला समाज ने जितनी मात्रा में प्रगति की है इसे मैं दलित समाज की प्रगति में गिनती करता हूँ डॉ. अम्बेडकर ने दलित महिलाओं से अपनी बच्चियों की शादी कम उम्र में ना करने की अपील करते हुए उनको शिक्षित कर अपने पैरों पर खड़ा होने पर बल दिया तथा कम बच्चे पैदा करने व साफ सफाई से रहने का सन्देश देते हुए महिलाओं का परिवारों में समानता का स्तर हो इस पर भी बात की । डॉ. अम्बेडकर चाहते थे कि भारतीय स्त्री खासकर, हिन्दू स्त्री जिसमें सवर्ण तथा दलित दोनों की समाजिक, आर्थिक, और राजनैतिक स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन हो । उनकी दशा सुधारने के लिए वो एक ऐसा कानून बनाना चाहते थे जो विशुद्ध रूप से उनकी समाजिक, कानूनी स्थिति सुधारने में संजीवनी बूटी की तरह काम करें । इसलिए उन्होंने सौ फीसदी औरतों के हक में हिन्दू कोड बिलबनाया । इस हिन्दू कोड बिल और डॉ. अम्बेडकर दोनो को ही कट्टर पथियों का भयंकर विरोध सहना पड़ा । हिन्दू कोड बिल के विरोध में डॉ. अम्बेडकर को कई बार व्यक्तिगत अपमान झेलना पड़ा । उनके घर पर पत्थर तक बरसाये गये और संसद में भी उनका बहिष्कार किया गया। हिन्दू कोड बिलपास कराने के लिए डॉ. अम्बेडकर के साथ-साथ अनेक दलित गैर दलित महिलाओं ने भारतीय महिलाओं की समाजिक व आर्थिक लड़ाई लड़ी है । हिन्दू कोड बिलपर दुर्गाबाई देशमुख, लोकसभा की सदस्य श्रीमती पदमजी नायडू, राजश्री, सौ. चन्द्रकला, उर्मिला मेहता, मिसेस मिठान, महिला कांग्रेस की मन्त्री कुमारी मुकुल और उनके महिला जत्थे ने डॉ. अम्बेडकर के साथ गांव-गांव, नगर-नगर घूमकर सभा और जनसभाओं में भारतीय महिलाओं की समाजिक आर्थिक दुर्दशा के चित्र खींचे । अक्सर डॉ. अम्बेडकर और महिला साथियों द्वारा आयोजित हिन्दू कोड बिल चर्चा सभाओं में कट्टर पंथियों द्वारा सीधा हमला कर दिया जाता था, और चर्चा सभाओं को जबर्दस्ती बंद करा दिया जाता था । उस समय के अखबार भी हिन्दू कोड बिल के खिलाफ अनेक भड़काउ लेख छाप रहे थे उस समय देश का माहौल डॉ. अम्बेडकर और उनकी महिला साथियों के खिलाफ विषाक्त हो गया था । परन्तु ये सब डटे रहे। आखिर में जब हिन्दू कोड बिलसंसद में पास न हो सका तब डॉ. अम्बेडकर ने विरोध स्वरूप संसद से त्यागपत्र दे दिया ।
        बाबा साहब भारतीय स्त्रियों की उन्नति के लिए जितने प्रगतिशील कदम उठाते उतना ही कट्टरपथीं उनको पीछे खींचने के प्रयास में लगे रहते । कोड बिल जैसे प्रगतिशील कदम से चिढ़कर कट्टरपथिंयों ने डॉ. अम्बेडकर के खिलाफ चारों तरफ वैमनस्य, घृणा और तनाव का जाल बिछा दिया । पुरूष प्रधान संस्कृति पर प्रहार करते हुए इस बिल ने भारतीय महिलाओं को पुरूषों के बराबर कानूनी अधिकार देकर उनको गौरान्वित किया । इस बिल की वजह से हिन्दु स्त्री को विवाह, तलाक, आदि में पुरूषों जैसा ही हक दिया गया था । इस बिल में आठ अधिनियम बनाये गए जो इस प्रकार हैं-
1)      हिंदू विवाह अधिनियम
2)      विशेष विवाह अधिनियम
3)      गोद लेना दत्तकग्रहण अल्पायु संरक्षता अधिनियम
4)      हिंदू उत्तराधिकारी अधिनियम
5)      निर्बल तथा साधनहीन परिवार के भरण-पोषण अधिनियम
6)      अप्राप्तव्यय संरक्षण संबंधी अधिनियम
7)      उत्तराधिकारी अधिनियम और विधवा विवाह को पुनर्विवाह अधिकार अधिनियम
8)      पिता की संपत्ति में अधिकार अधिनियम
 हिंदू कोड बिल द्वारा किसी भी जाति की लड़की या लड़के का विवाह होना अवैद्य नही था । हिंदू कोड के अनुसार पत्नी और पति एक समय में एक ही विवाह कर सकते थे । अगर कोई पति अपनी पहली पत्नी के रहते और पत्नी पहले पति के रहते विवाह करतें हैं तो उसे कानूनी दण्ड मिलेगा । हिंदू कोड में पति के मर जाने पर हिन्दू स्त्री को पति की सम्पति में उसकी सन्तान के बराबर हिस्सा या अंश देने का नियम बनाया । हिंदू  धर्म शास्त्रों में विधवा के लिए दूसरी शादी का कोई विधान नही था और न ही जायदाद में उसे कोई हिस्सा या अंश मिलता था । हिंदू  कोड बिल की वजह से पिता की मृत्यु के पश्चात् पुत्री को भी भाइयों के बराबर जायदाद का वारिस बना दिया गया था । इसी तरह दतक या गोद लेने का अधिकार अपने कुल में से पैदा हुये बच्चे को ही प्राप्त था, किन्तु कोड के अनुसार किसी भी हिंदू परिवार में जन्मी लड़की या लड़के को गोद लिया जा सकता था और वह लड़का या लड़की चाहे वह किसी भी जाति के हों, गोद लिए जाने वाले की जायदाद के वारिस बन जाते हैं । इसमें सबसे अच्छी बात तो यह थी कि अब न केवल लड़का ही दतक बन सकता था, बल्कि लड़की भी दतक ली जा सकती थी ।
भारतीय स्त्रियां धार्मिक मान्यताओं के नाम पर तमाम ऐसी रुढियों को सहर्ष गले लगाकर बैठी रहती हैं जो उनके विरुद्ध ही रचे गए हैं । यह निश्चित है कि किसी बीमार को अपने इलाज की स्वयं जितनी चिंता होगी, किसी अन्य को नहीं होगी  धर्म ने  दलितों के उद्धार के लिए अन्य वर्णों की सेवा करने का नुस्का निर्धारित किया है तो स्त्रियों के लिए पति के चरणों को ही स्वर्ग की संज्ञा दी है । अन्य धर्मों का तो पता नही लेकिन इस्लाम कहता है कि अल्लाह के अलावा अगर किसी और के आगे स्त्री को सजदा करने की अनुमति होती है तो वह उसका पति ही होता है । डॉ. अम्बेडकर द्वारा मनुस्मृति का दहन वह टर्निंग प्वाइंटथा जिसने दलित आंदोलन को न केवल सही दिशा व गति दी, बल्कि इसके एजेंडे को वैज्ञानिक रूप भी प्रदान किया । आवैधानिक होने के बावजूद आज भी मनुस्मृतिऔर रामचरितमानसअभिजात्य हिंदू समाज के लिए आदर्श ग्रंथ है । मनुस्मृति का श्लोकार्द्ध  यत्र नार्यस्तुपूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ (जहाँ स्त्री की पूजा होती है वहीं देवताओं का निवास होता है )  का गर्वपूर्ण वाचन करने में स्त्रियां पुरुषों की दशा में कम नहीं हैं; जबकि वास्तविकता यह है कि मनुस्मृति और रामचरितमानस दोनों ही दलित और स्त्री निंदक और विरोधी हैं और इस श्लोक का मंतव्य भी स्त्रियों की प्रशंसा नहीं, बल्कि निंदा ही है । सविधान और संसदीय प्रणाली द्वारा शासित इस लोकतांत्रिक देश की विडंबना का इससे बड़ा सबूत और क्या होगा कि इसके एक प्रदेश राजस्थान के उच्च न्यायालय में मनु की प्रतिमा स्थापित की जाती है और वह भी वर्ष 2001 में। और इसमे कोई आश्चर्य नहीं कि राजस्थान में बलात्कृत महिला भंवरी देवी वहां कानूनी लड़ाई नहीं जीत पाती । प्रदेश के सबसे बड़े न्याय के मंदिर में यदि मनु का आदर्श ही मस्तिष्क पर छाया रहेगा तो न्याय का स्वरूप क्या होगा इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है ।
डॉ. अम्बेडकर की हिंदू धर्म-ग्रंथो विशेषकर मनुस्मृति के प्रति भर्त्सनात्मक दृष्टि नें केवल दलित आंदोलन को ही सक्रीय किया हो ऐसी बात नहीं है । इसने कानून मंत्री के रूप में उन्हें हिंदू कोड बिल बनाने को भी प्रेरित किया । यह अलग बात है कि लोग आज उनके सामाजिक योगदान को भूलते जा रहे हैं । सुभाषिनी अली सहगल ने अपने लेख महिलाओं के हक़ की आगे और लड़ाई बाकी हैमें डॉ. अम्बेडकर को इन शब्दों में याद किया है- इस (न्याय मंत्री) हैसियत से वह संविधान तैयार करने वाली समिति के अध्यक्ष बने और इसी हैसियत से उन्होंने हिंदू महिलाओं को सम्पूर्ण अधिकार दिलाने के लिए हिंदू कोड बिल तैयार किया"। इस बिल के माध्यम से वह निम्न उद्देश्य प्राप्त करना चाह रहे थे
क)   संपति में जन्म के आधार की बजाय विरासत के अधिकार को दर्ज करवाना ।
ख)  महिलाओं को संपति का पूर्ण अधिकार दिलवाना ।
ग)    बेटियों को संपति के आधे हिस्से का उत्तराधिकारी बनाना ।
घ)    महिलाओं की सीमित संपदा को संपूर्ण संपदा में परिवर्तित करना ।
ङ)   शादी और गोद लेने के मामले में जाति का उन्मूलन करना ।
च)   बहुविवाह पर रोक लगाना और तलाक के सिधांत को मनवाना ।
हालांकि समूचा संविधान तो पारित हो सका, लेकिन इन  साधारण न्याय-संगत और तर्क-संगत बातों को हमारे देश के उच्च कोटि के नेता हजम नहीं कर पाए । उनका विरोध इतना तीखा था, कि उन्होंने बिल को समाप्त करने के लिए पैंतरे बदल-बदलकर इतने सारे हथियारों का इस्तेमाल कर डाला मनुस्मृति, रामायण, गीता की उन्होंने इतनी सौगंध खाई, डॉ. अम्बेडकर को इतना जलील करने की कोशिश की कि 1946 से 1951 तक बिल पर बहस होती रही और 1951में सरकार ने फैसला किया कि वह अब बिल वापस ले लेगी और डॉ. अम्बेडकर ने न्यायमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया ।

संदर्भ सूची-
1-     सं. सागर, शैलेन्द्र, रजनी गुप्त, आजाद औरत कितनी आजाद , सामायिक प्रकाशन ।
2-     खेतान, प्रभा, उपनिवेश में स्त्री (मुक्ति कामना की दस वार्ताएं), राजकमल प्रकाशन ।
3-     सं. दूबे अभय कुमार, आधुनिकता के आईने में दलित ।
4-     सिंधवी, डॉ. राजेंद्र कुमार , अम्बेडकर और स्त्री विमर्श ।
5-     कौसल्यायन, डॉ. भदंत आनंद , यदि बाबा साहब न होते ।
6-     अम्बेडकर, डॉ. भीमराव,  क्रांति और प्रतिक्रांति ।
7-     पाठक, डॉ.विनय कुमार, अम्बेडकरवादी सौंदर्य-शास्त्र और दलित आदिवासी जनजातीय विमर्श ।
8-     जाटव, डॉ. डी. आर., गांधी लोहिया और अम्बेडकर । 

 अनुपमा पाण्डेय
पी-एच॰ डी॰ शोधार्थी
अनुवाद प्रद्योगिकी विभाग
म॰ गाँ॰ अं॰ हिं॰ विश्वविद्यालय, वर्धा
anuska.pantr@gmail.com


4 comments:

  1. अच्छी आर्टिकल है

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  2. Good article carry on

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  3. हवाओं के साथ सफर करते है ,आंधी को समझते हैं.हमने अम्बेडकर को तो नहीं देखा पर अम्बेडकर को समझते हैं .ये बाते अगर आप के बारे में कहा जाये तो कोई आतिस्योक्ति नहीं होगी .आप का ये लेख पढ़ के मुझे लगा की अम्बेडकर को समझने वाले सूक्ष्मदर्शी लोगो में आप सुमार है .आप के लेख का सानिध्य हमें भी इस काबिल बनाएगा .धन्यवाद् मैडम .

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