Sunday, February 1, 2015

कुँवारी माँ(Single Mother) – आदिवासी स्त्री और हिंसा के नए रूप


-नरेश गौतम
समाज व्यवस्था के विपरीत आदिवासी समाज की अपनी एक अलग व्यवस्था रही है। एक जमाने में आदिवासी समाज में दो बातें मुख्य तौर पर देखी जाती थी। पहली उनकी अपनी सामुदायिक पंचायत और दूसरा गाँव से दूर सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्षिक्षण के बतौर उनके युवागृह। पिछले दो-तीन दशकों में कुछ ऐसी स्थितियाँ-परिस्थितियाँ निर्मित हुई हैं कि अचानक से या कहें कि बड़े सुनियोजित तरीके से इन पर हमले हुए हैं और आज हालत यह है कि आदिवासी समाज की पहचान के ये दोनों प्रमुख आधार अब अपने अंतिम समय में महज कुछ अवशेषों के ज़रिए ही देखे-जाने-पहचाने जा सकते हैं। मुख्यधारा के बरक्स आदिवासी समुदाय का जीने का एक अलग जीवन-ढ़ंग और जीवन-दृष्टि थी जो अधिकाधिक समुदाय केंद्रित और अपने प्राकृतिक परिवेश के साथ आबद्ध थी लेकिन एक बनते हुए राष्ट्र-राज्य की ज़रूरतें और अधिकाधिक मुनाफ़े के लिए अधिकाधिक दोहन (चाहे वह व्यक्ति का हो या प्रकृति का) के नव पूंजीवादी रुझानों ने अपनी छोटी और अलग दुनिया में खुश इन समुदायों पर बाहरी हमलों को जन्म दिया। ये हमले भी दोतरफा रहे जहाँ एक तरफ इनके अलग एवं स्वायत्त सिस्टम को वाह्य प्रभावों की घुसपैठ ने कमजोर किया, वहीं इनकी सहजता-सरलता और खुलेपन का फायदा भी उठाया गया। घने जंगलों के भीतर जहाँ सड़कें-रेल जैसे आवाजाही के साधन न पहुँचते हों, वहाँ किसी बाहरी व्यक्ति के आसानी से न पहुँच पाने का अर्थ राष्ट्र-राज्य के न पहुँच पाने से भी था और इस तरह यह राष्ट्र के अंदर एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में बड़ी चुनौती भी था। पिछले डेढ़-दो सौ सालों में (औपनिवेशिक शासन और आज़ादी के बाद) राष्ट्र-राज्य के मजबूत होने के साथ ही इस चुनौती से निपटने के क्रम में इन पर हुए हमलों और इन इलाक़ों में यातायात साधनों के विकास को देखा जा सकता है। यद्यपि पिछले कुछ समय से इन हमलों में आई तेज़ी संकटग्रस्त पूंजीवाद को, यहाँ संसाधनों के रूप में दिख रही अथाह खनिज-सम्पदा एवं इन पिछड़े इलाकों के विकास के नाम पर वैश्विक आर्थिक मंदी से मुक्ति की उम्मीद के कारण भी है। कुल मिलाकर हमले बढ़े हैं चाहे वह विकास के नाम पर हों या फिर संस्कृति के नाम पर।    

इन हमलों में उनकी सामुदायिकता एवं स्वायत्तता को ख़त्म कर उनका मुख्यधारीकरण करना शामिल है, साथ ही उन्हें सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाना भी। इसी के तहत जहाँ उनकी सामुदायिक पंचायत पर पंचायतीराज व्यवस्था ने हमला किया, वहीं युवागृहों को अनैतिक एवं अ-सांस्कृतिक कह कर विकास के नाम पर वहाँ तक पहुँची मुख्यधारा की पूर्वाग्रही चेतना ने ख़त्म कर दिया। आदिवासी समाज के सांस्कृतिक मूल्यों पर गैर-आदिवासियों (मुख्य धारा समाज) ने जम कर आघात पहुँचाया। एक तरफ तो उन्होंने इसे असभ्यता और उच्छृंखलता कहा, वहीं दूसरी तरफ नैतिकता के छद्म से परे दैहिक संबंध बनाने की सहजता ने उन्हें अपनी दबी-छिपी यौन कुंठाओं के साथ इस तरफ आकर्षित भी किया। इस दोतरफ़े हमले ने दोहरा नुकसान किया। जैसा कि हम जानते हैं कि मुख्यधारा के बरक्स आदिवासी समाज एक अधिक मुक्त समाज रहा है और यहाँ पितृसत्ता के वैसे सुदृढ़ रूप भी नहीं दिखते लेकिन इनके संस्कृतिकरण के नाम पर जो कोशिशें हुईं, उसने यहाँ पितृसत्ता के नए रूप रचे-गढ़े हैं। चूंकि कोई भी संस्कृति हमेशा स्त्रियों की नैतिकता पर ही निर्मित होती है, इसलिए इनके संस्कृतिकरण ने एक ओर इन्हें मुख्यधारा नैतिकता की तरफ मोड़ा है और इनके पारंपरिक स्त्री-पुरुष संबंधों में बदलाव आया है, वहीं दूसरी ओर ये संस्कृतिकरण कोई ऐसी प्रक्रिया भी नहीं जो एकबारगी पूरी हो जाए। किसी जीवन-ढंग के सैकड़ों सालों से चले आ रहे अभ्यास कुछेक दिनों-महीनों-वर्षों में भूले भी नहीं जाते, इसलिए यौनिक खुलेपन का सामाजिक व्यवहार संस्कृतिकरण के साथ-साथ जारी रहा। यह तब तक समस्या नहीं बना जब तक कि उनके अपने सामुदायिक जीवन के पारंपरिक नियम-कानूनों में संस्कृतिकरण के मुख्यधारीकृत नैतिक मूल्यों ने जगह बनानी शुरू नहीं कर दी। आदिवासी समाज के लिए दैहिक संबंध कभी कोई टैबू नहीं रहे क्योंकि निजी संपत्ति, परिवार और विवाह को लेकर यहाँ की सामाजिक संरचना एवं मान्यताएं दूसरी हैं। कुछ समुदाय जो मातृवंशीय हैं, वहाँ बच्चों को माँ के नाम से जाना जाता है लेकिन जहाँ ऐसा नहीं है, वहाँ भी पिता के नाम को लेकर वैसी रूढ़ता नहीं है। बिना विवाह माँ बनना (कुँवारी माँ) यहाँ कभी कोई समस्या नहीं रही क्योंकि इसके बावजूद माँ और बच्चा दोनों ही समाज में सहज स्वीकार्य थे लेकिन मुख्यधारा के साथ इनकी अन्तरक्रिया ने सांस्कृतिक एवं नैतिक मान्यताओं को बदला है। विवाह की अनिवार्यता और अवैधता की धारणाओं ने इस समाज में भी अब अपनी जगह बना ली है और इसलिए अब यह एक समस्या के रूप में हमारे सामने है।

यद्यपि इसकी शुरुआत तभी हो गयी थी, जब कानून-व्यवस्था का इनके निजी जीवन में दखल शुरू हुआ। पहले आदिवासियों की परंपरा के सरोकार जंगलों से जुड़े थे। जंगल अपने थे, व्यवस्था अपनी थी और सरकार भी अपनी थी। वे जंगलों में रहते थे, कुदरत के भरोसे जल-जंगल-जमीन के साथ ज़िंदगी जीते थे और उनके लिए ही संघर्ष करते हुये मर जाते थे। लेकिन एक समय ऐसा आया जब जंगल के व्यापारिक महत्व को तो समझते हुए, पर आदिवासियों की मानसिकता और उनकी भावनाओं को नज़रअंदाज़ करते हुए सरकार ने जंगल से जुड़े जो कानून बनाए, उसकी आदिवासियों की हालत को बदतर बनाने में एक बड़ी भूमिका रही। इन कानूनों के अंतर्गत आदिवासियों का जंगल में जाना अपराध घोषित हुआ और जंगलों को सभ्य समाज के लिए संरक्षित किया जाने लगा। जंगल से बाहर जो रोजगार थे, उन पर बाहरी (मुख्य धारा के) लोगों का कब्जा था। इस तरह अब यह आदिवासियों की लाचारी हो गयी कि वह जंगल से बाहर रोजगार देखें और बाहर के लोगों के सामने हाथ फैलाएं। लोगों ने उन्हें काम तो दिया लेकिन काम के बदले उनसे कुछ और भी अपेक्षाएं की। आदिवासी स्त्री के लिए दैहिक संबंध एक बहुत ही स्वाभाविक सा व्यवहार है। उस समाज में जहाँ ऐसी मानसिकता थी कि दैहिक संबंध बनाना पाप नहीं है, इससे वन देवी नाराज हो सकती है, तो इस कारण वहाँ बड़ी सहजता के साथ उन युवतियों ने बाहर के लोगों से संबंध बनाए। इसके बदले उन्हें रोटी मिलती थी, रंगीन कपड़े मिलते थे और सौंदर्य सामग्री भी। ये तमाम उपहार वे सहज स्वीकार करते गए। 'विकास' के नाम पर इस सहजता का 'विकास' करने वाले लोगों ने भरपूर लाभ उठाया और इस तरह आदिवासी स्त्रियाँ खुले सेक्स संबंधों की प्रतीक बन गईं। सड़कों के विकास ने इसे और मजबूती दी। साथ ही वस्तु विनिमय के स्थान पर अब संग्रहणीय रुपए ने इन मुसीबतों को और बढ़ा दिया है। चूंकि आदिवासी समाज में स्त्रियाँ रीढ़ होती हैं और घर-बाहर के कामों में उनकी समान भागीदारी होती है जबकि मुख्यधारा समाज अपनी स्त्रियों को घरों में रखते हुए बाहरी दुनिया की इन महिलाओं के साथ इनकी 'यौन उन्मुक्तता' एवं 'आसान उपलब्धता' की अपनी पूर्व धारणाओं के साथ अन्तरक्रिया करता है और इस तरह अपनी यौन कुंठाओं के लिए इन्हें एक 'सॉफ्ट टार्गेट' के रूप में देखता है। यह एक नयी तरह की हिंसा है जो मुख्यधारा समाज के पुरुष और आदिवासी समुदाय की स्त्री के बीच उनके असमान एवं हायर्रिकल संबंधों से पैदा होती है।

महाराष्ट्र का ऐसा ही एक जिला यवतमाल है। इस जिले की तालुका झरीजामणी में आधे से भी अधिक आबादी आदिवासियों की है जिनमें मुख्यतः कोलाम, गोंड, परधान, जनजाति के लोग निवास करते हैं। पिछले कुछ वर्षों से यहाँ कुँवारी लड़कियों के माँ बनने की काफी घटनाएँ सामने आ रही हैं। झरीजामणी तालुका में 55 ग्राम पंचायत आती है। इन 55 ग्राम पंचायतों में अब तक 216 से भी अधिक लड़कियाँ कुंवारी माँ बन चुकी हैं। वैसे तो आदिवासी समाज में कभी भी कुवांरी माँ बनने में हीनता नहीं थी,  लेकिन जैसे-जैसे आदिवासी समुदाय मुख्यधारा के साथ विकास की प्रक्रिया में आ रहा है, वैसे ही उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताएं भी बदल रही हैं और इसी क्रम में अब तक जिसे प्रजनन की सामान्य प्राकृतिक प्रक्रिया माना जाता था, उसे अब इस समाज ने भी अपराध की श्रेणी में गिनना शुरू कर दिया है। मुख्यधारा समाज में बिना ब्याह के किसी लड़की के माँ बनने का मतलब ही है कि वह चरित्रहीन है,  कुलटा है और इसे एक अपराध की ही तरह देखा जाता है। अब यही धारणा मुख्य समाज के संपर्क में आने से आदिवासी समाज की भी बनने लगी है। सिर्फ यही नहीं मुख्यधारा की तरह ही इस तथाकथित अपराध की सज़ा के बतौर स्त्री का सामाजिक बहिष्कार और बच्चे को अवैध कह कर बहिष्कृत कर दिया जाता है। वह गाँव में अपने परिवार के साथ नहीं रह सकती, किसी महामारी की तरह ही उसे गाँव के बाहर कर दिया जाता है। कुछ इस तरह कि जैसे वह यहाँ रहेगी तो और भी लोगों को यह बीमारी हो सकती है। यह सामाजिक बेदख़ली और आधारहीनता उसे और भी शोषित एवं प्रताड़ित होने को विवश करती है।
 
झरीजामणी तालुका में अब तक 216 महिलाये कुँवारी माँ बन चुकी है। उन्हें माँ बनने के बाद घर तक नसीब नहीं है। कुछ-कुछ लड़कियाँ तो दो से तीन बार माँ बन चुकी है। पंचायत में इस तरह का कोई केस सामने आने पर ऐसा है कि अगर वहाँ की पंचायत चाहे तो उस व्यक्ति से शादी करा दे और यदि न चाहे तो लड़की को ऐसे ही बच्चे को जन्म देना होगा। इस संबंध में अभी तक एक भी केस पुलिस में नहीं गया है। यदि कोई लड़की अपने ही समाज में प्रेम करती है और उससे बच्चा होता है तो पंचायत उसे शादी के लिए कहती है लेकिन बहुत से ऐसे भी मामले है जहाँ बाहर से लोग आकर लड़कियों को बहला-फुसला कर अपना शिकार बनाते हैं और उसके बाद वह जीवन भर उसे ढोती रहती है। परंतु यह घटना सिर्फ किसी एक यवतमाल की ही नहीं है बल्कि जहाँ-जहाँ आदिवासियों को जंगल से निकाला जा  रहा है और जंगलों को पर्यटकों के लिए संरक्षित किया जा रहा है, वहाँ ऐसी घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। वह मामला चाहे यवतमाल के झरीजामणी का हो या उड़ीसा के कालाहांडी, बेलगीर, माल्कनगिरि या उत्तर प्रदेश के सोनभद्र का, सभी जगह एक जैसी ही स्थितियाँ है। सभी जगह आदिवासियों को जंगल से निकाला जा रहा है, जंगलों को संरक्षित किया जा रहा है, रिजॉर्ट बनाए जा रहे हैं और उन्हीं जगहों पर आने वाले लोग भोली-भाली लड़कियों को अपने भोग-विलास का साधन भी बना रहे हैं। दूसरी तरफ वही लोग, वही समाज उन्हें अपराधी भी ठहरा रहा है। वहाँ न तो ये घटनाएं सरकारी महकमे को दिखायी देती हैं और न ही समाज के ठेकेदारों को। वैसे गौर करें तो जिस विकास के नाम पर इस तरह के कृत्य शुरू हुए हैं, वह विकास अपनी अवधारणा में पश्चिम से आयातित है और वहाँ सिंगल मदर कोई अनोखी या आपराधिक चीज़ नहीं है, बल्कि इसे पूर्ण सामाजिक मान्यता प्राप्त है। दूसरी तरफ यहाँ भारत में विकास का पैमाना तो पश्चिम से तय किया जा रहा है, लेकिन सामाजिक संबंधों में आज भी वही जाति-धर्म आधारित उच्च वर्ग और निम्न वर्ग को मान्यता दी जाती है और वही सड़े-गले संस्कार हैं जिनमें कोई बदलाव नहीं दिखाई देता।
सवाल सिर्फ ये नहीं है कि यवतमाल की उन 216 कुँवारी माँओं और उनके बच्चों या सोनभद्र से लेकर उड़ीसा तक जंगलों में रह रहे आदिवासी जो अपनी समस्याओं को लेकर ऐसे ही दोराहे पर खड़े हैं, का क्या होगा या होना चाहिए? सवाल ये भी नहीं है कि आदिवासी समाज की सामुदायिकता, रीति-रिवाज, जीवन-ढंग और संसाधनों पर हमले बढ़े हैं और इन्हें बंद होना चाहिए? सवाल इससे कहीं ज्यादा गहरे और व्यापक हैं और वो यह कि क्या हम एक समाज के रूप में कभी अपने से अलग और ठीक विपरीत चीज़ों को भी बर्दाश्त करने की काबिलियत हासिल कर सकेंगे या नहीं? या कि हायरार्कीज (पदानुक्रमता) पर टिकी सत्ता-संरचनाएं जो हमेशा ही हिंसा के नए-नए रूपों को जन्म देती हैं, वहाँ इन सत्ता-संरचनाओं को ख़त्म किए बिना क्या हम एक अहिंसक समाज के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ सकते हैं क्या? क्योंकि हमारा दावा तो यही है लेकिन हमारी ज्यादातर कोशिशें इसी संबंध में की जा रही बेमतलब की उछल-कूद जैसी ही हैं।     

………..

नरेश गौतम

76, गोरख पाण्डेय हॉस्टल
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
                                                                     

6 comments:

  1. तेजी से बदल रहे आर्थिक दृष्टिकोणों ने महिलाओं के अधिकारों पर भी अपना कब्जा जमाना शुरु कर दिया है जिसका जीता-जागता उदाहरण झरी की आदिवासी महिलाएं है ।

    ReplyDelete
  2. बहुत ही संवेदनशील प्रयास

    ReplyDelete
  3. बहुत अच्छा प्रयास है साथी ।

    ReplyDelete